आशीष कंधवे मेरे छोटे भाई जैसे हैं। आधुनिक  साहित्य के संपादक हैं और गगनांचल के सह संपादक।  हाल ही में वे 11वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में मॉरीशस हो कर आए। ज़ाहिर है कि हम दोनों में सम्मेलन को लेकर गंभीर बातचीत हुई। बात बढ़ते बढ़ते साक्षात्कार में बदलती चली गई। आशीष एक स्पष्टवादी  व्यक्ति है। बात साफ़ मुंह पर कहने वाला… पीठ पीछे की राजनीति  में विश्वास नहीं करता। मेरे लिये एक सुनहरा मौक़ा था कि अपने अनुज से विश्व हिन्दी सम्मेलन और उससे जुड़े अन्य प्रश्नों पर  विमर्श करूं… हमारी बातचीत आपके सामने प्रस्तुत है….

प्रश्नः आशीष  आप काफ़ी अर्से से पत्रिका निकाल रहे हैं और आजकल तो गगनांचल जैसी पत्रिका के सह संपादक भी हो – आप अपनी पत्रिकाओं के लिये रचना का चुनाव करते समय किन बातों का ख्याल रखते हैं।

उत्तर : जी मैं पिछले 7 वर्षों से पत्रिका के संपादन और प्रकाशन कर रहा हूँ . मुझे बचपन से ही पत्रकारिता का शौक रहा. स्कूल कॉलेज  में भी पत्रिकाओं का संपादन किया. शरू से मेरा झुकाव साहित्य और संस्कृति  कि ओर रहा . आधुनिक साहित्य पत्रिका इसी इच्छा का एक पड़ाव है. इन लघु पत्रिकओं का साहित्य संसार में बहुत महत्व है. कही ना कही यही पत्रिकाएं साहित्य और समाज के बीच सेतु का काम कर रही है. समाज से संवाद कर रही हैं. और मैं बिना किसी अतिश्योक्ति के कह सकता हूँ कि यही पत्रिकाएं समाज एक लेखक को स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है और निभा रही है.

जहाँ तक रचनाओं के चयन का प्रश्न है ये बहुत ही कठिन काम  है. हमें दस अच्छी रचना के लिए तीस से चालीस रचनाओ को पढ़ना पड़ता है. मैं जब  पत्रिका के लिए रचना का चुनाव करता हूँ  तो इस बात का विशेष ख्याल रखता हूँ कि इस रचना से क्या संदेश पाठक को मिलने वाला  है. जैसा कि आज कल हो रहा है विमर्ष के नाम पर अपनी कुंठाओं को कहानी-कविता-लेख के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत करने का फैसन सा चल पड़ा है. मैं इस से बचाता हूँ. बचता क्या ये मेरी दृष्टी में किसी काम का नहीं है. मेरा मानना है कि साहित्य समाज में शुभ का संधान करे ना की अशुभ का प्रतिपादन.

जी आज कल मैं गगनांचल का सह-संपादक हूँ . ये साहित्य की दुनिया में सरकारी स्तर पर प्रकाशित होने वाली एक बड़ी पत्रिका के रूप में जानी-पहचानी जाती है. विगत ४१ वर्षों से इसका प्रकाशन हो  रहा है. मुझे भी इस से जुड़ कर अच्छा लगा.

पिछले 1 वर्ष से मैंने ये दायित्व संभला है और इस कोशिश में हूँ कि नाम के अनुरूप इसकी गरिमा में श्रीवृद्धि कर सकूँ. प्रयास जारी है और आशा है हमें रचनाकारों से सार्थक सहयोग प्राप्त होता रहेगा.

प्रश्नः आपने प्रवासी साहित्य पर शोध किया है। आप प्रवासी साहित्य की किन विशेषताओं से प्रभावित हो और किन कमियों को दूर करना चाहोगे।

 उत्तर : बिलकुल सही कहा आपने मैंने प्रवासी साहित्य में पीएचडी किया है. भारत से बाहर लिखे जाने साहित्य ने मुझे हमेशा आकृष्ट किया है. मुझे जिन चीजों से सब से ज्यादा प्रभावित किया वो है – प्रवासी साहित्यकारों का अपनी भाषा के प्रति लगाव जो जाने-अनजाने में अपनी संस्कृति,परंपरा,त्यौहार और हमारे विचार का प्रतिपादन अपने लेखन के माध्यम से करते हैं. प्रवासी साहित्यकार जिस देश में भी रह कर रच रहे है वो अघोषित रूप से हमारे साहित्यिक और सांस्कृतिक दूत का काम कर रहे है वो लगभग निःस्वार्थ. इसके अलावा एक और बहुत महत्वपूर्ण बात ये है कि ये रचनाकार हिंदी साहित्य को भी खूब समृद्ध कर रहे हैं. प्रवासी साहित्यकार अपने देश से बिछड़ने,अपने परिजनों से अलगाव का दर्द, पराये देश में नए तरह के दर्द–संघर्ष–ख़ुशी , एकाकीपन और उनका व्यक्तिगत अनुभव जब शब्दों के माध्यम से कहानी अथवा कविता के रूप में आकार लेती है तो पाठकों में एक नया रोमांच उत्पन्न कर देती है. नए प्रतिमान स्थापित होते है नए विम्ब गढ़े जाते हैं. आप स्वयं इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं . आज प्रवासी साहित्य और तेजेंद्र शर्मा एक दुसरे के पर्यायवाची हो गए हैं. प्रवासी साहित्यकारों के लेखन का नयापन ही उनको विशेष बना रहा है. यही मेरे आकर्षण का कारण बना.

प्रश्न के दुसरे भाग के उत्तर में मैं ये कहना चाहता हूँ कि प्रवासी साहित्य से गिरमिटिया साहित्य कि तुलना ना करें . सीधी बात करूँ तो गिरमिटिया देशों में लिखा जाने वाल साहित्य प्रव्सी साहित्य नहीं है . उसे उस देश का हिंदी साहित्य कहना ठीक रहेगा. मॉरिशस आदि देशों में लिखे जानने वाले हिंदी साहित्य को  उस देश का यानी मॉरिशस का हिंदी साहित्य तो कह सकते है पर प्रवासी साहित्य नहीं . किसी देश में पैदा होने वाली पांचवी पीढ़ी प्रवासी कैसे हो सकती है ये मेरे समझ के बाहर है. मैं साहित्य समाज से इस ग़लतफ़हमी को दूर करना चाहता हूँ. दूसरा प्रयास मेरा यह रहता है कि अधिक से अधिक लोगों तक प्रवासी रचना पहुंचे ताकि उन रचनाओं का सही मूल्याङ्कन हो सके.

प्रश्नः हिन्दी जगत में अब साहित्यिक पर्यटन का ख़ासा रिवाज हो गया है। आपको लगता है कि इससे हिन्दी साहित्य का भला होगा।

उत्तर : तेजेंद्र जी आप बिलकुल सही कह रहे हैं . आजकल साहित्यिक पर्यटन का बहुत जोर है . मैं भी इस से जुड़ा हूँ . इस से साहित्य का थोडा भला होगा पर ये बिलकुल ठोक-बजा कर कह सकता हूँ कि इस से साहित्य का कोई नुकसान नहीं होने वाला.

साहित्यकार अब समृद्ध हो रहे है . हिंदी अब गरीब नहीं रही. साहित्य के ही बहाने सही हिंदी वाले एक समूह में दुनिया तो देख रहे हैं . जिस देश में जाते है उस देश के लेखक,हिंदी सेवी से मिलना जुलना होता है, संपर्क बढ़ता है, विमर्श होता है. हिंदी ग्लोवल होती है तेजेंद्र जी. वैसे साहित्य और पर्यटन का इतिहास बहुत पुराना है . हमसब ने मिलकर इसको एक नया रंग दे दिया.

प्रश्नः आजतक आपने कितने विश्व हिन्दी सम्मेलनों में भाग लिया है। इसमें प्रतिभागियों की चयन प्रक्रिया को लेकर आप क्या सोचते हैं… इसमें वक्ता, अध्यक्ष एवं सम्मान तीनों के विषय में पूछ रहा हूं।

 उत्तर: तेजेंद्र जी मैंने अब तक तीन विश्व हिंदी सम्मेलनों में भाग लिया है.

नवम विश्व हिंदी सम्मेलन दक्षिण अफ्रीका 2012  में, दसवां विश्व हिंदी सम्मेलन, भोपाल -2015  और अब 11 वां विश्व हिंदी सम्मेलन,मॉरिशस -2018 .

पहले दो में मैं स्वतंत्र प्रतिभागी के रूप में गया था पर इस बार मेरा चयन भारतीय सांस्कृतिक संबंध परिषद से एक अधिकारी के रूप में किया गया.

जहाँ तक वक्ता, अध्यक्ष या सम्मान के चयन का प्रश्न है इसके लिए विदेश मंत्रालय एक उच्च स्तरीये समिति का गठन किया जाता है. इसे परामर्श समिति कहते है. यही समिति सत्रों का निर्धारण, वक्ताओं के चयन के लिए सुझाव मंत्री को देती है. मंत्री अधिकतर परामर्श समिति द्वारा दिए गए प्रस्ताव-सुझाव को मान लेती  है. मंत्री ये अपेक्षा करता/करती हैं कि प्रतिनिधिओं के चयन में पारदर्शिता रखी गई होगी और उपयुक्त व्यक्ति का ही चयन किया गया होगा. पर आप जानते ही है भारत में जिसकी लाठी उसकी भैस कि कहावत हर समय और हर जगह चरितार्थ होती है. इस बार भी वही हुआ. सब ने अपनी अपनी लाठी से अपनी अपनी भैंस मॉरिशस तक हांक दी. बेशक हिंदी कि भैंस डूब गई. संस्कृति का डोडो डूब गया. किसको चिंता है. वैसे भी हिंदी में कहावत है चिंता चिता के सामान है. इस लिए आप भी चिंता ना करें कैसे हुआ, क्यों हुआ, किसने किया…कितना किया ! विश्व हिंदी सम्मेलन ऐसे ही चलता  है.

जहां तक सम्मान का विषय है ये बहुत ही गंभीर मामला है . चयन के लिए एक विशेष समिति बने जाती है. वही सम्मान के लिए नाम प्रस्तावित करते है. शेष आपको पता ही है निर्णय कैसे और किसके पक्ष में लिए जाते हैं.

प्रश्नः क्या विश्व हिन्दी सम्मेलनों के आयोजन का कोई औचित्य है… क्या अब इस प्रकरण को बन्द नहीं कर देना चाहिये…

 उत्तर: औचित्य क्यों नहीं है .. औचित्य पूरा है और सार्थक भी.  समस्या क्रियान्वन की है . अनुशंसा से सिर्फ काम नहीं चलता… उसके लिए जरूरी है कि विश्व हिंदी सम्मेलन की मूल परिकल्पना को आकर दें. सम्मेलन को मेला बनाने से बचाना होगा अन्यथा सचमुच ये अपनी उपयोगिता खो देगी.

 प्रश्नः हिन्दी दिवस, विश्व हिन्दी दिवस, विश्व हिन्दी सम्मेलन आदि पर ख़र्च होने वाली राशि को सैर-सपाटे से बचाकर किस तरह सकारात्मक ढंग से ख़र्च किया जा सकता है।

 उत्तर : देखिये इन आयोजनों पर जो राशी खर्च  हो रही वो हिंदी भाषा के प्रचार प्रसार और प्रतिष्ठा के लिए ही  है . पर क्या करें हर जगह निजी स्वार्थ भारत में हावी है . प्रश्न यहाँ मानसिकता का है. अपने आपको बुद्धिजीवी कहने वाले भी छोटे-मोटे स्वार्थ में लिप्त हो कर इन आयोजनों  की सार्थकता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं .मैं ये नहीं कहूँगा कि किसी भी हिंदी के आयोजन कि कोई सार्थकता नहीं है या नहीं बची है बल्कि मैं ये कहना चाहता हूँ कि हम इस राशी से और सार्थक और रचनात्मक कार्य कर सकते हैं.

 

प्रश्नः आप साहित्य को अलग अलग ख़ांचों में बांट क देखने की हिमायत करते हैं क्या…. क्या प्रवासी, दलित, महिला आदि आदि लेखन केवल हिन्दी साहित्य नहीं कहला सकता।

 

उत्तर : तेजेंद्र जी आप तो सब समझते हैं. ये खांचे, ये गुट, ये विचारधारा की लड़ाई ये सब क्या है. अगर मैं स्पष्ट कहूँ तो मैं ऐसे किसी भी खांचे, गुट, विमर्श के पक्ष में नहीं हूँ . साहित्य कोई सुपर मार्किट नहीं होता जिसमें हम एक व्यस्था के तहद यानी बाजार के मूड के हिसाब से चींजों को बाँट कर समाज के सामने प्रस्तुत करें .

 

विमर्ष के नाम पर नये-नए साहित्य के सप्लायर पैदा हो गए और हो रहे हैं . ये घातक स्थिथि है. ये सब साहित्य मिल कर ही हिंदी का समग्र साहित्य बनता है. मैं इसे सिर्फ हिंदी साहित्य कहना ही पसंद करूँगा.

 प्रश्नः आप ११वें विश्व हिन्दी सम्मेलन में भाग लेने के लिये मॉरीशस गये थे। वहां के कुछ अनुभव साझा करना चाहेंगे क्या….

 उत्तर : जी क्यों नहीं… आप सब जो सुनना चाहते है वो मैं बोल सकता हूँ सर ..सुनिए – पिछले तीन सम्मेलनों के अनुभव से मै ये कह सकता हूँ कि विश्व हिंदी सम्मेलन वैश्विक स्तर  पर हिंदी का बड़ा उत्सव  है. उत्सव इसलिए कह रहा हूँ कि इसमें कोई खास नियम का पालन नहीं करना होता.आप अपने हिसाब से इसे एन्जॉय कर सकते है. इस बार भी मॉरिशस में यही हुआ . हम सब ने हिंदी को खूब एन्जॉय किया. खूब खाया खूब-पीया और खूब घुमा.हाँ इस बीच कभी कभी सत्रों में जाना हम सब नहीं भूलते थे. बौधिक खुराक भी तो चाहिए. अपनी उपस्थिति से न्याय भी तो करना है. सच तो ये है कि सब ने अपने अपने हिसाब से विश्व हिंदी सम्मेलन को जिया. जो सरकारी विमान से गए थे अर्थात सरकारी प्रतिनिधिमंडल के सदस्य वो जरूर थोड़े परेशान  थे. भाई 17 को पहुंचे ,उसी दिन  गंगा आरती भी थी  . लम्बी यात्रा के बाद ना आराम मिला और ना गंगा आरती का पुण्य प्रसाद. हाँ भोजन कक्ष की भीड़ बता रही थी कि गंगा आरती का क्या महत्व है. इस प्रकार गंगा आरती कि औपचरिकता पूरी हुई  पर सरकारी प्रतिनिधि मंडल को  20 की वापसी खल रही थी. यक्ष प्रश्न था घूमने कब जायेंगे?

अब सब को सुबह का इंतज़ार था जब हम सब तीन दिन के लिए बसे गोस्वामी    तुलसी दास  नगर स्थित स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र पर सजे विशाल मंच से हिंदी का उद्धार करने वाले थे. सम्मेलन की तैयारी ज़बरदस्त थी. साजसज्जा का बहुत ध्यान रखा गया था. भोपाल और दक्षिण अफ्रीका इसके भव्यता के सामने बहुत साधारण लग रहे थे. हो भी क्यों ना अब सरकार भी तो हिंदी की है. सुबह 9 बजे प्रतिभागियों का आने का रेला लगा था,सचमुच हिंदी का मेला लगा था. सब अपने हिसाब से सजे-धजे थे. कण कण में भारतीय संस्कृति मुस्कुरा रही थी, सम्मलेन के मूल विषय को जगा रही थी. सरकारी प्रतिनिधी मंडल के सदस्यों की अकड़,सम्मेलन पर अधिकारिओं कि पकड़,साधारण प्रतिभागी( स्वयं वित पोषित) की चहक और मंत्री,राजनेता की ठसक से हिंदी फुले नहीं समा रही थी. समय आ गया. मंच सज गया. मंत्री जी के सानिध्य में उद्घाटन की औपचरिकता पूरी हुई. अटल जी के जाने का प्रभाव दिख रहा था. झुके हुए झंडे और श्रधा-सुमन के साथ मंचासीन मनुभावों ने अपनी अपनी बात कही. सब को  हिंदी से लगाव था. सब हिंदी के कल्याण के लिए आये थे. सब हिंदी बोल रहे थे. समझ गए ना. ये अलग बात है कि भारत के साथ साथ अब मॉरिशस में भे हिंदी बोलने वाले लोगों कि संख्या बहुत  तेजी से घट रही है. केंद्रीय हिंदी संसथान की एक पत्रिका के आंकड़े के अनुसार तो अब मॉरिशस में 9000 से कम लोग ही हिंदी बोलते है.फिर भी हिंदी का अघोषित युद्ध  जारी है. हम लड़- लड़ ख़त्म  हो जायेगे.

उद्घाटन कि सफलता और हजारों कैमरों कि चमक से 11 वां सम्मेलन शुरू  हो चूका था. चाय और भोजन पर उमड़ी भीड़ हिंदी का जयघोश कर रही थी. तन-मन सब हिंदी हो गया था. यहाँ एक बात बहुत महतवपूर्ण है कि साधारण प्रतिभागी जो भारत से गए थे उनकी संख्या अत्यंत उत्साहजनक रही. इसका अर्थ ये भी है कि अब हिंदी वाले आर्थिक रूप से भी संपन्न हो गए है और संसाधन ना होने का रोना भी नहीं रोते. मुझे तो ये देख कर अत्यंत ख़ुशी हुई . लेकिन मॉरिशस के हिंदी प्रेमियों कि उपस्थिति सचमुच चिंताजनक थी. शायद 200-300.

सामानांतर सत्रों का आगाज भी हो चूका था. विद्वान अपने कमर कस चुके थे. विश्व हिंदी सम्मेलन पर बोलना है भाई. अपने ज्ञान का उत्कृष्ट उदहारण प्रस्तुत करना है. पूरी दुनिया सुन रही है. कुछ अलग बोलना है पर समस्या ये नहीं की क्या बोलना है ,समस्या ये है कि कहाँ बोलना है. सत्रों के लिए निर्धारित कक्ष जरा मुश्किल से  मिल रहे थे . सत्र का समय निकला जा रहा है. लेकिन अंततः सब ठीक हुआ. सब खूब बोले. अधिकृत वक्ता भी अनाधिकृत वक्ता भी. और कुछ नहीं सुझा तो गाय पर ही सही राम पर ही सही पर बोले. बोलना महतवपूर्ण होता है विषय नहीं. सत्रों के पूर्व निर्धारित व्यक्तों का बदल जाना और सत्रों के अध्यक्षों का बदलना भी अत्यंत रोचक था और सम्मलेन में विमर्श का विषय भी. इसे ही तो हिंदी का सही सामंजस्य कहते है जो कभी भी कही भी हो जाये.

दो दिन ऐसे ही गुज़र गए. जिन प्रतिभागियों के प्रपत्र स्वीकृत हुए थे वो अपना प्रपत्र वाचन के लिए अवसर खोजते नज़र आये. खुद पढ़ा खुद सूना के तर्ज पर सभी अपना प्रपत्र वांच आये. प्रपत्र प्रस्तुति के बाद प्रतिभागी का चेहरा गर्व से दमक रहा था. विजयी मुस्कान से चमक रहा था. आखिर 11 वें सम्मेलन में वो “वो” कर ही आये जो भारत के अख़बारों में महीने से वो छपवा रहे थे.

दुसरे दिन आखिरी सत्र कविता के लिए था. अटल जी के सम्मान में इसे काव्यांजलि कहा गया. इसमें हास्य और व्यंग्य पर रोक था . इसलिए इस पर ज्यादा बात-चीत नहीं करनी चाहिए. कवि मित्रों ने अपने मित्रों का खूब सत्कार किया. मौका मिलते ही सत्रों कि तरह घोषित के साथ –साथ अधोषित कवि भी मंचासीन हो गये. सतर्क आयोजकों ने पहले से है श्रोताओं का अपहरण कर के रखा हुआ था. रात्रि 9 30 से पहले वहां वाहन व्यस्था थी ही नहीं. शेष आप समझ सकते है.

अंतिम दिन वही हुआ जो हर बार होता है. अनुशंसा, प्रस्ताव सम्मान भाषण कसमे-वादे आदि आदि.

सब ने ध्यान से सुना और अगले सम्मेलन की तैयारी में जुट गए. खुसर-फुसर चालू हो गई थी अगली बार फिजी चलना है ना.

प्रश्नः वैसे तो हिन्दी साहित्य में ख़ासी राजनीति देखी जा सकती है, मगर जब साहित्यिक आयोजन राजनीति का शिकार होते हैं तो कैसा महसूस होता है।

 उत्तर : तेजेंद्र जी साहित्य में राजनीती कोई नयी बात नहीं है. ये बुद्धिजीविओं का कार्य है. जहाँ बुद्धिजीवी इक्कठा होंगे राजनीती आ ही जाती है. एक परिवार में सब को खुश नहीं रखा जा सकता फिर ये तो बहुत बड़ा परिवार है. मुंडे-मुंडे मति भिन्ना.

पर जो बात खलती है वो ये है कि अगर साहित्यकार ही सत्य के साथ नहीं चलेगा तो समाज को क्या दिशा देगा उसका रचा साहित्य. इसलिए सिर्फ साहित्यकार हमेशा हासिये पर रहा इस देश में. जो साहित्य के साथ राज्निनी में भी पारंगत थे वो आगे निकल गए और निकलते रहेंगे. साहित्य में जब  राजनीती होती है तो हम समाज को,आपनी संस्कृति  को ठगते हैं. अपनी आत्मा से छल करते हैं. कृपया ऐसा ना करें और कोई करे तो उसे चेतायें, जगाएं.

 प्रश्नः आप कविता तो निरंतर लिखते हैं … कया कभी कहानी या उपन्यास, लिखने के बारे में सोचा है

 उत्तर : जी कविता लिखना मुझे बहुत पसंद है. कविता मेरे मन के बहुत करीब है. कविता के माध्यम से मैं स्वयं से संवाद स्थापित करता हूँ. स्वयं को समझे बिना साहित्य में रचनात्मक लेखन बहुत कठिन है. अभी मैं रचना के प्रक्रिया और स्वयं के बीच में सेतु का निर्माण नहीं कर पाया हूँ . इसलिए कविता के आगे कुछ नहीं लिख पाया हूँ .

पर मुझे उम्मीद और विश्वास है कि आने वाले वर्षों में मैं कुछ कहानियां  और शायद एक उपन्यास भी आप सब के समक्ष ला  सकूँ .

 

5 टिप्पणी

  1. बहुत ही सुंदर और सार्थक प्रवासी कथाकार तेजेन्द्र जी द्वारा आशीष कंधवे जी से जो साक्षात्कार लिया गया वह अत्यंत ही हिंदी को चार चांद लगाता है आपका हिंदी साहित्य के प्रति प्रेम और उत्साह देखते ही बनता है। आप दोनों बधाई के पात्र हैं।
    पुनः धन्यवाद।

  2. अत्युत्तम!! जानकारियों को समृद्ध करता साक्षात्कार ..एक कुशल संपादक ,कवि तथा सजग रचनाकार आशीष कंधवे जी को बहुत बधाई और सार्थक प्रश्नों के साथ साक्षात्कार चर्चा के लिए साधुवाद

  3. अत्यंत विस्तृत साक्षात्कार .. चित्रात्मक विवरण ने ग्यारहवें विश्वहिंदी सम्मेलन से जीवंत रूबरू कराया I ईमानदारी से सत्रों की चर्चा , भव्यता और कहीं कहीं किंचित चिंता ने श्री आशीष कंधवे जी के मानस से लेकर हृदय तक की यात्रा करा दी .. बीच बीच में बोलती तस्वीरों का क्या कहना .. .. ! साधुवाद .. ।

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