मित्रों – सुपर 30… सच में सुपर हिट

मुझे लगता है कि बॉलीवुड का हिन्दी सिनेमा अब वहां पहुंच रहा है जहां इसे परिपक्व सिनेमा कहा जा सकता है।  सन् 2000 के बाद से कुछ ऐसी फ़िल्में बनी हैं जिन विषयों को सिनेमा के लिये टैबू माना जाता था।
पैडमैन, टॉयलट, स्पैशल 26, आर्टिकल 15,  अंधाधुन, बधाई हो, दम लगा के हईशा, चीनी कम, पॉ, ब्लैक, बरफ़ी, विक्की डोनर, बरेली की बरफ़ी, न्यूटन, लंच बॉक्स, हिन्दी मीडियम, इंग्लिश विंग्लिश, तारे ज़मीन पर, सीक्रेट सुपरस्टार, दंगल, 3 ईडियट्स, दिल चाहता है, चक दे इंडिया, लगान, रंग दे बसन्ती, ए वेनसडे, मुन्नाभाई एम.बी.बी.एस., भाग मिल्खा भाग, राजनीति, कंपनी आदि कुछ ऐसी फ़िल्में हैं जिनके बारे में हम 50, 60, 70 या 80 के दशक में सोच भी नहीं सकते थे।
ऐसी ही एक फ़िल्म है सुपर 30। हिन्दी साहित्य को लेकर मैंने हमेशा कहा है कि नारेबाज़ी या विचारधारा से अच्छा साहित्य नहीं लिखा जा सकता। एक अच्छा विचार एक अच्छी रचना को जन्म दे सकता है और यही अच्छा विचार है सुपर 30…  फ़िल्म एक हाड़ माँस के चरित्र प्रो. आनन्द कुमार के जीवन पर आधारित है।
संजीव दत्ता ने अपनी क़लम से एक बेहतरीन रचना को जन्म दिया है जिसे विकास बहल ने बेहतरीन ढंग से निर्देशित किया है। मुकेश छाबड़ा ने कास्टिंग एकदम परफ़ेक्ट की है। कुछ आलोचकों ने ऋतिक रौशन के चयन पर उंगलियां उठाई हैं और उनकी बिहारी बोली का मज़ाक भी उड़ाया है मगर सच तो यह है कि ऋतिक ने साबित कर दिया है कि वह बॉलीवुड का सबसे सक्षम कलाकार है जो किसी भी तरह का किरदार निभा सकता है।
फ़िल्म का एक संवाद पूरी कहानी कह देता है – राजा लोगन ने अपने लिये एक चमकदार सड़क बना ली है, और हमारे लिये बड़े बड़े गड्ढे छोड़ दिये हैं। मगर उनको नहीं मालूम है कि हम इससे लम्बी उड़ान भरना सीख रहे हैं।
विरेन्द्र सक्सेना (प्रो. आनन्द के पिता), साधना सिंह (आनन्द कुमार की माँ), पंकज त्रिपाठी (माननीय मुख्यमंत्री जी), आदित्य श्रीवास्तव (ललन सिंह), नंदीश सिंह (प्रो. आनन्द का भाई), मृणाल ठाकुर (प्रो. आनन्द की प्रेमिका) सभी अपने अपने किरदारों में इतने फ़िट बैठते हैं कि वे कलाकार नहीं चरित्र लगते हैं। और इस मामले में तीस विद्यार्थी तो ग़ज़ब ही लगते हैं। कोई भी कलाकार नहीं लगता। इन कलाकारों के चयन के लिये मुकेश छाबड़ा को बधाई देनी होगी।
मूल कहानी प्रो. आनन्द की है जो कि 30 ग़रीब बच्चों को निःशुल्क आई.आई.टी में दाखिले के लिये कोचिंग देता है और इसके लिये उसे कितना संघर्ष करना पड़ता है और शारीरिक एवं दिमाग़ी परेशानी झेलनी पड़ती है।
फ़िल्म का कमज़ोर पक्ष केवल संगीत है क्योंकि एक भी गीत हमारे होठों का प्रिय नहीं बन पाता और पिक्चर हॉल से बाहर हमारे साथ तक नहीं आता। मगर एक अच्छी फ़िल्म यदि सौ करोड़ का बिज़नस कर लेती है तो निर्माताओं और कलाकारों का विश्वस अच्छी फ़िल्मों में पक्का हो पाएगा। मेरी तरफ़ से फ़िल्म को चार सितारे।
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

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