होम Home दिविक रमेश की कविताएँ Home दिविक रमेश की कविताएँ द्वारा Editor - July 21, 2019 124 0 फेसबुक पर शेयर करें ट्विटर पर ट्वीट करें tweet दिविक रमेश 1- सिवा तुम्हारे हथेलियों में कहां रह गई थीं लकीरें हथेलियां ही आ बसी थीं तुम्हारी । कुछ झुका –झुका– सा नहीं लगा था क्या आसमान और धरती कुछ उठी –उठी– सी ? मैंने गाया खुल-खुल कर गाया। अच्छा है न उसे कोई नहीं सुन पाया सिवा तुम्हारे। पेट में कुछ भी न पचाने वाली मेरी कविता भी नहीँ। 2- मैं मुआवजा हूं ‘मैं मुआवजा हूं’ उसने कहा तो लगा भला यह भी कोई परिचय हुआ! आपके पिता? आपकी माता? मैंने पूछा तो बोला- `तुम भी हो सकते हो। और रंडी की संतान से यह क्या पूछते हो?’ रंडी? मां को रंडी कहते हो क्या तौहीन नहीं औरत की? मैंने डांटा, डांटने के लहजे में। वह मुस्कुराया गैर मुस्कुराने की तरह। मैं चुप रहा देखता कनखियों से कुछ देर । `नेता चलेगा?’, वह बोला। नेता! यह तो बहुत ही उलझा हुआ भ्रामक शब्द है भाई! कौंनसा नेता किस दल का? ‘लगता है डर रहे हैं आप! चाहें तो निकल लें। वरना समझ लें दो ही तरह के होते हैं नेता- एक, जो दिलाते हैं और दूसरे जो देते हैं मुआवजा।‘ इस बार वह जोर से हंसा जैसे हंसा हो किसी बेवकूफ की मासूम जिज्ञासा पर। चलते-चलते मेरे गाल को छूआ, न छूने की तरह और कहा- मुआवजा हूं मैं समझो! इस युग का सबसे बड़ा रहस्य! न अफसोस हूं मैं न अपराध-बोध ही। न मैं काटा जा सकता हूं न मारा ही। न मुझे आग जला सकती है न जल ही डुबो सकता है। मैं मुआवजा हूं। कफन हूं मैं हर कुकृत्य की लाश का। अचूक सांत्वना हूं सर्वोच्च बड़े से बड़े आघात की। शक्ति हूं मैं काट हूं न्यायालयों के द्वार की। अक्षत हूं मैं अक्षत योनि की अवधारणा सा। इसे समझो! समझो इसे! मैं मुआवजा हूं। संबंधित लेखलेखक की और रचनाएं पुरवाई के संपादकीय ‘किसान आन्दोलन : कितने सच कितने झूठ’ पर कुछ पाठकीय प्रतिक्रियाएं डॉ. तारा सिंह अंशुल की कहानी ‘बैरक’ पर पाठकीय प्रतिक्रिया पाठकों का पन्ना : पुरवाई के संपादकीय (3 जनवरी, 2021) पर कुछ पाठकीय प्रतिक्रियाएं Leave a Reply Cancel reply This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.