मेरे देश में मर गई थी कविता जब बेगुनाह ख़ून से कश्मीर में सन गई थींबर्फीली चोटियां, दहकने लगा था वितस्ता और चनाब में लाल तेज़ाब, झुलसने लगे थे चिनार, हो रही थी कश्यप, अभिनव गुप्त, कल्हण, पतंजलि, चरक सूफियों, ऋषियों की विरासत की हत्या, विनष्ट की जा रही थी लल्ला आरिफा,हब्बा खातून, रूपा भवानी आरनिमल, बगदजी, रिचदैद की अनमोल रूहानी धरोहर, नेस्तनाबूद हो रही थीं शिव- शक्ति मिलन के दर्शन की अपार संभावनाएं और कवि ने मूंद ली थी आंखें सी लिए थे होंठ!
लादे फिरता है तबसे पीठ पर अपराधी कवि कविता का बैताल जो पूछता है प्रश्न लगातार पर नहीं है कोई भी उत्तर आत्मग्लानि भरे कवि के पास
कश्मीर में जलावतनी के बाद खामोश रहा वह कवि नहीं मिला पाया है अपनी ही कलम से कभी अपनी नज़र, खो गए हैं उसके शब्दों के अर्थ कविता की संजीवनी शक्ति, बिखरे पड़े हैं मृत पृष्ठों पर निस्तेज निष्प्राण आखर
अभिशाप है हमारे कवि को उस अनकही व्यथा का- अब किसी भी पीड़ा की अभिव्यक्ति कवि का चीत्कार, क्रंदन रह जाते हैं बनकर मात्र एक रुदाली–रुदन, एक शब्द –विलास,एक औपचारिकता
नहीं जन्मती अब युगांतरकारी कविता!
2 – न कोई नबी न मसीहा
ज़मीं की उस जन्नत में– मेरा भी हंसी इक घर था, झेलम और सिंधु का पानी रबाब सुनाता था ज्यों, झरनों की उस कलकल में संतूर बजा करते थे, वो सुर्ख चिनार के पत्ते मुझसे बातें करते थे, सुबहें शामें रौशन थीं डल झील के रोज़ किनारे, थे जैसे ख़ालू का घर वो हाउसबोट वो शिकारे, वो घास के मखमली मैदां निशात शालीमार बागां, तुंबकनारी की बाजन कुड,नूट,रऊफ की थिरकन सारा जन्नत था मेरा! फिर इक दिन हुई क़यामत– इंसा में जागा दरिंदा जली होली शिकारों की फिर डल झील हुई ज्यों बेवा, संतूर रबाब भी टूटे कुड और रऊफ भी छूटे, बारूद के सैलाबों में गई डूब वो प्यारी घाटी! दहशत वहशत नफरत ने फिर लील लिया यों सब कुछ कि एक ही लमहे में फिर वो देस हुआ बेगाना, खू़नी खंजरी सायों में पिस्तौलों की नोकों पर कल तक मेरे अपनों ने कर डाला बेदर, बेघर!
अब तक है देस निकाला घर है पर हूं बंजारा ! मैं लाश हूं चलती फिरती, है दर्द का एक समंदर आंखों में खू़नी मंज़र, है कौन यहां जो मेरा ना कोई नबी न मसीहा …
कश्मीर और कश्मीरियों का दर्द भीतर तक महसूस करा दिया रश्मि जी, आपकी लेखनी को साधुवाद.
जी ,हार्दिक धन्यवाद .