दरवाज़ा खुला था, घर बिखरा पड़ा था,
वह भी नहीं थी…
अगर मिला होता-
थोड़ा सा प्यार, ज़रा सा मान
इशारा भर किया होता कि तुम्हें एहसास है
उसके यत्न का,
जो करती है तुम्हारी दिलजोई दिन रात…
कभी की होती खाने की तारीफ़, चाहे झूठी ही,
रख लिया होता दिल, मान ली होती कभी तो
मायके जाने की ज़िद…
चाव से सज करवा चौथ में जब देखती थी,
दुलारा दिया होता, थोड़ी नर्मायी से
बोलते नहीं, आँखों से ही, बता दिया होता,
उसका श्रृंगार तुम्हें भला सा लगा…
अच्छी लगी, चाव से बनायी चाय,
समोसे की गंध भायी है तुम्हें
जता दिया होता कि,
जैसे सम्भाला है घर को थोड़े समय में,
कच्ची उमर में,
क़द्र है उसकी…
उदास होने पर भी
अगर प्यार को प्यार से स्वीकारा था,
तुम्हारे आलिंगन में थोड़ी गर्माहट होती,
पति का रुआब नहीं,
प्रेमी की आतुरता होती…
बीमारी में बस प्यार से सिर पर हाथ फेरते
घर लौट कर हाल पूछ लेते,
कभी कह दिया होता कि वह ख़ास है,
कंधों पर रख कर हाथ
हौले से दबाकर कराया होता यह एहसास
तुम्हारी जिंदगी में उसकी भी है कुछ औक़ात…
क्या यह बहुत कठिन था?
प्रभुत्व घटने का संदेह था?
संगिनी थी या चेरी समझा था?
शादी का अर्थ तुम्हारे लिये था क्या?
बिसूरती रही, अपने से पूछती रही
वो यहाँ क्यों है? क्या कर रही है?
जब उसकी यहाँ कोई ज़रूरत नहीं है…
रात – दिन घुलती रही
अपने कंधो पर सिर रख रोती रही
घुटती रही ता-उम्र, समाज से डरती रही
खोखले रिश्ते में बँधी रही…
पर अब नहीं,
रीत गयी थी शायद आख़िरी आस…
दरवाज़ा खुला था, घर बिखरा पड़ा था,
और वह कहीं नहीं थी…
कहीं नहीं थी…
काश पुरुष रिश्तों में सम्वेदनाओं की अभिव्यक्ति का महत्व समझ पाए! एकतरफ़ा संबंध की तड़प की व्यथा को शब्दों में ढाल दिया आपने!
हार्दिक धन्यावाद घई जी, काश आपकी तरह हर पुरुष समझ सकता।
कठोर यथार्थ में पगा हुआ स्त्री संदर्भ
धन्यवाद प्रिय सरिता