धर्मवीर भारती से पूर्व प्रेमचंद की आदर्शोन्मुख यथार्थवादी , यशपाल की मार्क्सवादी, जैनेंद्र ,इलाचंद्र जोशी , अज्ञेय, प्रसाद की भावपूर्ण मनोविश्लेषणवादी कहानियां लिखी जा रही थी। सन 1950 के पश्चात नई कहानी का उदय हुआ । कहानीकारों ने जीवन में निहित मूल्यों एवं अर्थों का अन्वेषण किया और व्यक्ति के परिवार एवं समाज से संबंधों की गहनता को देखा– विश्लेषण किया। मोहन राकेश, राजेंद्र यादव ,कमलेश्वर, अमरकांत ,निर्मल वर्मा , मन्नु भंडारी और श्रीकांत वर्मा की रचनाओं में असामाजिक भावनाओं , आस्था , कुंठा, घुटन तथा जीवन के प्रति विरक्ति के भावों को प्राथमिकता मिली। कहानी का पारंपरिक ढांचा बदला और शिल्प के स्थान पर कथानक को अधिक उभारने व संवेद्य बनाने तथा यथार्थ के प्रति मानवीय विवेक को जागृत करने का प्रयास किया गया । नए कहानीकारों ने बिंब, प्रतीक सांकेतिकता के उलझाव से अपने को यथासंभव मुक्त रखते हुए कथाकार की सृजनात्मक दृष्टि और कथा रस पर दृष्टि केंद्रित की। डॉ धर्मवीर भारती ने भी नयी कहानी के रचना कार के रूप में अपनी विशिष्ट पहचान बनाई । अकहानी, समानांतर कहानी, सचेतन कहानी इत्यादि के जाल में ना पड़कर उन्होंने अपनी सामर्थ्य और जागृत युगबोध से स्वयं अपने लिए नए मार्ग का निर्माण किया। भारती जी ने निम्न – मध्यम वर्ग को केंद्र में रखकर उनके जीवन यथार्थ पर अनेक उत्कृष्ट कहानियों का सृजन किया है। पुष्पा भारती के मतानुसार -” वे वस्तुतः सामाजिक परिधि की यथार्थता को अभिव्यक्ति देने वाले कहानीकार हैं। इसलिए उनकी कहानियों में समष्टि चिंतन का ही प्रकाश हुआ है।“(1)
उनकी कहानियों का संकलन ‘ चांद और टूटे हुए लोग‘ में 1955 तक की रचनाएं तीन खंडों में विभक्त हैं – चांद और टूटे हुए लोग, भूखा ईश्वर तथा कलंकित उपासना । इनमें से ‘ चांद और टूटे हुए लोग ‘ की कहानियां कालांतर में किसी अन्य संकलन में प्रकाशित नहीं हुईं। ‘ भूखा ईश्वर की कहानियां ‘मुर्दों का गांव ‘ में प्रकाशित हुई जिनमें भूखा ईश्वर कहानी को जोड़कर द्वितीय खंड का नाम ‘भूखा ईश्वर ‘ रखा गया।‘ कलंकित उपासना‘ की कल्पनात्मक कहानी एक खण्ड में छपी थी। भारती जी ने ‘चांद और टूटे हुए लोग‘ की भूमिका में इसका पहले संकलन के रूप में प्रकाशित होने का उल्लेख है। इसकी आठ कहानियों को अपेक्षित स्तर की ना होने के कारण ‘चांद और टूटे हुए लोग‘ में समाविष्ट नहीं किया गया। इनकी कुछ कहानियां पत्र–पत्रिकाओं में भी बिखरी मिलती हैं। यथा -‘ तारा और किरण‘(1946) तथा ‘ ठेले पर हिमालय ‘ की ‘एक छोटी चमकने वाली मछली की कहानी‘ शीर्षक से प्रकाशित हुई रचना रुपक कथा है। ‘ गोरी नगरी वाले साए‘(1964) सारिका में प्रकाशित हुई। धर्मवीर भारती की पहली कहानी ‘तारा और किरण‘( रूपक कथा)’ तरुण‘ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और उनकी अंतिम कहानी ‘बंद गली का आखिरी मकान ‘(1969) है। ‘ चांद और टूटे हुए लोग‘ के प्रथम खंड में सात कहानियां हैं– हिरनाकुस और उसका बेटा, कुलटा, मरीज नंबर सात, धुआं, युवराज , अगला अवतार तथा चांद और टूटे हुए लोग। दूसरे खंड में अठारह कहानियां हैं– एक बच्ची की कीमत, आदमी का गोश्त, बीमारियां , कफन चोर , एक पत्र , हिंदू या मुसलमान, कमल और मुर्दे , पूजा , स्वप्न श्री , श्री रेखा, शिंजिनी , कला: एक मृत्यु चिन्ह, नारी और निर्वाण , तारा और किरण, कुबेर , मंजिल । दूसरे खंड ‘मुर्दों का गांव‘ की कहानियां बाद में‘ चांद और टूटे हुए लोग‘ में ही समाविष्ट कर दी गईं।‘ बंद गली का आखिरी मकान ‘ में 1 969 तक की चार कहानियां सम्मिलित हैं ।
भारती जी की प्रारंभिक कहानियां तरुणावस्था के प्रेम उद्वेलित चंचल मन की अभिव्यक्ति है। इनमें परम्पराबद्धता और आदर्शवादिता का प्राधान्य है। भावना , कल्पना, प्रतीकात्मकता के आधिक्य से युक्त कविताएं हैं । कथाकार के निजी प्रथम प्रणय की असफलता से अवगत पाठक अवश्य उनमें निहित एक असफल प्रेमी की निराशा का संकेत पा जाते हैं । कला:एक मृत्यु चिन्ह‘ की नायिका मानती है कि सच्चा अटूट प्रेम प्रतिदान की अपेक्षा नहीं रखता। ‘ पूजा‘ कहानी का प्रेमी नायक अपनी कोमलांगिनी प्रेयसी को दूर से देख कर तृप्त होना संभव मानता है किंतु उसका आत्मिक प्रेम समाज स्तरीय वैवाहिक मान्यता के कारण चरम परिणति तक नहीं पहुंच पाता । ‘ तारा किरण‘( 1946) में ‘कला:एक मृत्यु चिन्ह‘ का नायक प्रेम से प्रेम करता है नायिका से नहीं। ‘ स्वप्न श्री‘और ‘रेखा श्री ‘ में भी प्रतिदान के भाव का अभाव मिलता है। नायिका नायक के लिए पूजा की वस्तु हो जाती है और सामाजिक मर्यादा के कठोर प्रतिबंधों में जकड़ा नायक प्रेम की चरम परिणति से वंचित रहता है। हृदयगत निराशा और हताशा में वह प्रेम को ही प्रवंचना समझने लगता है । ‘धुंआ‘ कहानी में काम के आवेग में व्यक्ति अनुचित कर्म में प्रवृत्त हो वेश्याओं की बस्ती में पहुंचते है किंतु समाज में सफेदपोश माने जाते हैं।
‘चांद और टूटे हुए लोग‘ की कहानियों में प्रेम के अन्य रुपों को भी कहानीकार ने लिपिबद्ध किया है। ‘मरीज नम्बर सात ‘ का नायक सामाजिक वर्जनाओं के कारण प्रेम के कुछ नितांत एकांत क्षणों के लिए तरसता रहता है। ‘कुलटा‘ कहानी में निवेदक का भाई लाली को कुलटा समझने की भूल करता है तो ‘ युवराज‘ कहानी का कथा नायक झूठे आत्म निग्रह के परिणाम स्वरूप रोगी हो जाता है।‘ कफ़न चोर‘ कहानी का पिता करीम सपने में खुदा को कहते सुनता है कि ” इस हसीना का नाम हूरों में दर्ज कर लो“ ।
‘ शिंजिनी‘ की नायिका शिंजिनी संतुष्टि में विश्वास रखती है और किंजल्क जीवन की पूर्णता को सत्य मानता है।
‘स्वर्ग और पृथ्वी ‘ धर्मवीर भारती जी का दूसरा कहानी संग्रह प्रथम संग्रह के बीस वर्ष के अंतराल के बाद प्रकाशित हुआ। इस समय तक इनकी जीवन गति में पर्याप्त परिवर्तन आ चुका था और जीवनानुभव अधिक गहरा गए थे । इलाहाबाद के मध्यवर्गीय जीवन में जीते हुए वहां के लोगों के बनते– बिगड़ते रिश्तों , संबंधों के उतार– चढ़ाव, बदलाव–ठहराव से भारती जी परिचित थे। अपने चतुर्दिक समाज की यथार्थता, सत्य को अत्यंत निर्भीकता से अभिव्यक्त करने में वे कभी संकुचित नहीं हुए । डॉ. चंद्रभान ने भारती जी की कहानियों में व्यक्त सामाजिक यथार्थ में आदर्श निहित देखा है । उनके मतानुसार-” इन कहानियों में उपस्थित किया गया सामाजिक यथार्थ आदर्श के संकेत से युक्त है…..इनमें समाज की आर्थिक, राजनीतिक, धार्मिक आदि परिस्थितियों की आलोचना करते हुए लेखक ने समाज के परिवर्तन की प्रेरणा दी है। “(2) धर्मवीर भारती ने अपनी किशोरावस्था में द्वितीय महायुद्ध की विभीषिका का अनुभव किया था जिसे उन्होंने नायक विहीन क्रांति कहा है। । उन्होंने ‘भारत छोड़ो‘ आंदोलन से प्रभावित हो अपनी शिक्षा में आने वाले व्यवधान की चिंता न करते हुए सक्रिय भूमिका का निर्वाह किया था। यद्यपि यह आंदोलन दमित हुआ किंतु अभी भारती जी उसकी पीड़ा से मुक्त भी नहीं हो पाए थे कि बंगाल में दुर्भिक्ष और महामारी का तांडव प्रारंभ हो गया। लेखक की तद्विषयक कहानियां ‘ मुर्दों का गांव ‘ में संकलित हैं। भूख से बिलबिलाकर दम तोड़ते मनुष्य को देखकर उन्होंने भूमिका में लिखा है-” यदि हम भूख में अंगारे चबा जाने की शक्ति नहीं रखते तो हम इसी लायक हैं कि हमारी लाशें नाबदानों में सड़ें और उन पर घिनौनी मक्खियां भिनभिनाएं। “(3) इन कहानियों का व्यंग्य मारक है। लेखक के आक्रोश ने सरकार, शिक्षकों, सेठों , धर्म, व्यवस्था किसी को भी नहीं छोड़ा। ‘ कफ़न चोर ‘ का बूढ़ा करीम ठंड से ठिठुरती बेटी को बचाने के लिए कफ़न चुराता है। वह बेटी से कहता है-“… कपड़ों की कमी नहीं थी और न अब है ; मगर हम गुलाम और गरीब तब भी नंगे रहते थे और अब भी नंगे रहते हैं। जानती हो क्यों , ताकि अमीर लोग हमारे नंगे कंधों पर आसानी से हाथ जमाकर सोने और चांदी की सीढ़ियों पर चढ़ सकें….।“(4)
भूख से बिलबिलाते लोग पेट की अग्नि शांत करने के लिए कुछ भी खाते हैं और हैजे का शिकार हो जाते हैं । सरकारी डॉक्टर उन्हें अस्पताल में भर्ती नहीं करते क्योंकि उनके मरने पर अस्पताल की बदनामी होगी।‘ हिंदू या मुस्लिम‘ कहानी में अकाल पीड़ितों को सहायता देने वाले लोग भी धार्मिक अंधता से युक्त हैं। अपने मित्र अखिल और गांव की दुर्दशा के प्रत्यक्षदर्शी लड़के के साथ अकाल ग्रस्त गांव का दौरा करते भारती जी को तिताई धीवर की मां और जुलाहा परिवार की भूख से मरने की घटना ज्ञात होती है। एक गुफा जैसे इमारत से जाते हुए उनकी भेंट लटकी हुई खाल वाली और बाएं हाथ की उंगलियों में घास पकड़े एक स्त्री से होती है जो गुफा के अंदर भूख से तड़पते अपने पति के खाने के लिए घास लाई थी। लेखक द्वारा दिए केले और घास को पति पर रखने के पश्चात वह पहले हंसती है फिर रोने लगती है। वह समझ गई थी कि वह मर चुका है अतः वह भी प्राण त्याग देती है । उनकी लाशों के संस्कार की समुचित व्यवस्था ना देखकर लेखक और उनके मित्र मृतकों को एक गहरे गड्ढे में डाल देते हैं और उसके ऊपर लिख देते हैं -‘ताजमहल 1943′ । वस्तुत: वे उस गांव के अंतिम मरने वाले दंपति थे । उनका प्रेम विलक्षण था। वे किसी ताजमहल के हकदार नहीं हुए किंतु उस गहरे गड्ढे में अगल–बगल दफन थे । कहानी की मार्मिकता पाठकीय संवेदना को जगाती है ।
लेखक की मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित अन्य व्यंग्यात्मक रचना है -‘भूखा ईश्वर‘। बढ़ती महंगाई ने मनुष्य की आस्था को मार दिया है। कदम्ब के नीचे पड़े पत्थर के जिस ढेले को ईश्वर मान मनमाना वरदान पाने हेतु किशोरियां पकवान चढ़ाती थीं वो ही महंगाई बढ़ने के साथ गुड़ में बदल जाता है। अब साथ में दिया नहीं जलता क्योंकि उसकी सामर्थ उनमें शेष नहीं रह गई थी। ढेले के दो टुकड़ों में टूट जाने पर ईश्वर का ईश्वरत्व भी समाप्त हो जाता है। वह भूख से मर जाता है। भिक्षुकों को पुजारी मंदिर में नहीं जाने देते। वे स्वयं भी ईश्वर को भूखा देख भिक्षा मांगना बंद कर देते हैं । समाज के सनाढ्य वर्ग की स्थिति इससे नितांत भिन्न है। हवेली से जूठल भरी पत्तल फेंकी जाती हैं जिसे भिक्षुक अपनी ओर खींच खा जाता है, बच्ची भूखी रह जाती है । ममता की मारी मां कुत्ते से पत्तल छीनकर अपनी बेटी को खिला इस प्रकार हंसती है जैसे उसने कोई बड़ा शिकार किया हो। उनमें अवशिष्ट प्रेमभाव उन्हें विद्रोह करने की शक्ति देता है । ईश्वर विद्रोही मानव बनकर अन्य व्यक्तियों को भी जगाना चाहता है किंतु उसे तत्काल कैद कर लिया जाता है क्योंकि दावत में जाने की जल्दी में जज उसकी दलील नहीं सुनता। लेखक के अनुसार ईश्वर अब भी कैद है। उसकी छाती में विद्रोह की हुंकार, नसों में सृजन की तड़पन है पर उसके हाथ हथकड़ियों में जकड़े हैं और कारागार पर सेठ के नौकरों का पहरा है । लेखक को बंगाल के दुर्भिक्ष ग्रस्त लोगों की दयनीय दशा स्मरण हो आती है। सरकार निष्क्रिय थी और भूखे बीमार व्यक्ति विकल्प हीनता की स्थिति में आसन्न मृत्यु के लिए तैयार थे । सेठ और दुकानदार चार आने सेर से खरीदा चावल दो रुपए सेर में बेच रहे थे अतः उन के गोदामों में अनाज सड़ रहा था क्योंकि खरीदने के लिए किसी के पास दुगने तिगने दाम नहीं थे। सामूहिक संस्कार ही मृतकों की नीति थी। मानव सदृश ईश्वर भी भूखा था अतः उसे भी स्वर्ग मिलना असंभव था। अपने पिता के निधनोपरांत लेखक को अपनी माता के त्याग , उत्सर्ग और वैचारिकता ने प्रभावित किया था। अपनी कहानियों में उन्होंने माता के वात्सल्य की अभिव्यक्ति अनूठे ढंग से की है । ‘हिरनाकुस और उसका बेटा‘ कहानी में पारंपरिक जल्लाद कर्म करने वाला एक देशभक्त नवयुवक को फांसी पर चढ़ाने के पश्चात इतना विचलित हो जाता है कि अपने पुत्र को उस अमानुषिक कर्म से बचाने और विधिवत शिक्षा दिलाने के लिए संकल्पित होता है। ‘ धुआं ‘ कहानी भीषण अग्निकांड को जन्म देने वाले लोगों की विकृत मानसिकता को उद्घाटित करती है ।
विवेच्य खंड की कहानियों का शिल्प अपेक्षाकृत कसावट की अपेक्षा रखता है । लेखक शीर्षकों को यथासंभव आकर्षक और कौतूहल पूर्ण बनाने के व्यामोह से ग्रस्त थे यथा ‘तारा और किरण ‘,कमल और मुर्दे ‘,’धुंआ‘ इत्यादि । ये भारती जी की कवि प्रकृति के अनुकूल था । लघु और रोचक होते हुए भी कई कहानियों में महत्वपूर्ण तथ्यों के विस्मृत होने से एक विचित्र रिक्तता का आभास होता है। जैसे ‘कफ़न चोर‘कहानी में चोर फावड़ा ही भूल जाते हैं जिसके बिना कब्र को समतल करना असंभव था। फावड़ा उनकी करनी का सबूत भी था। ‘एक पत्र‘कहानी में पत्र के वैधानिक तत्वों का उल्लेख नहीं हुआ है।‘ तारा और किरण‘ कहानी उचित स्थल— ‘ हिम्मत जलपरी प्रेम के उत्तापयुक्त स्पर्श से लहरों में बदल जाती है और तारे को चूमने का व्यर्थ उपक्रम करती है …’ यहीं समाप्त ना खिंचती चली गई जिससे पाठक ऊबने लगता है। ‘ कुबेर‘ कहानी में भी यही बात खटकती है । नारी को प्रवंचना मानने पर आधारित इस रचना में धन की निरर्थकता और भूख की प्रबलता का आख्यान भी आवश्यकता से अधिक विस्तृत होने के कारण नीरसता की सृष्टि करता है। उक्त दोष अत्यल्प होने के कारण उपेक्षणीय हैं ।
धर्मवीर भारती जी की कुछ कहानियों के अन्त अत्यंत प्रभावी हैं। ‘कुलटा ‘ कहानी में आया अप्रत्याशित मोड अंत को प्रभावी बनाता है। ‘ एक बच्ची की कीमत ‘ कहानी में बच्ची को चंद रुपयों और आंखों में आंकना तीव्र व्यंग्य से युक्त है। ‘ मुर्दों का गांव‘ कहानी की जुलाहिन कटी उंगलियों वाले हाथ से जमीन खोदकर पति के लिए खाने का सामान जुटाती है। विडम्बना यह है कि जब तक वह व्यवस्था कर पाती है उसके पति की मृत्यु हो जाती है। ‘ स्वप्न श्री ‘और ‘रेखा श्री ‘ में कथाकार का रूमानियत उत्पन्न करने का प्रयास मारक व्यंग्य का रूप ले लेता है। समुद्रगुप्त कहता है-” यह अवश्य किसी को प्यार करती थी। देखो ना मौत में भी कितना आकर्षण चढ़ गया है। कहते है प्रणय की मौत जहरीली हो , किन्तु सुंदर बहुत होती है। “(5) लेखक ने सभी वर्गों , स्तरों के पात्रों का नियोजन किया है। उनके नाम, व्यवहार, क्रियाकलाप उनके वर्ग और स्तर के अनुरूप हैं। जल्लाद के पुत्र का नाम बिसहा है किंतु गंधर्व लोक के पात्र किंजल्क और शिंजिनी हैं। बिसहा के पिता जल्लाद हैं अतः उनका पारंपरिक काम देशद्रोहियों को फांसी पर लटकाना है। भूख से मरती बच्ची के मुंह में पहले मां निकलने के स्थान पर भूख निकलता है ।
भारती जी में भाषा की यथोचित, यथा स्थान प्रयोग करने की अद्भुत सामर्थ्य थी। ‘नव पत्रिका ‘कहानी की भाषा उदाहरणार्थ दृष्टव्य है -“रोमांटिक उत्सव में कुमारियां प्रातः काल ही सोने के थालों में उपहार सजाकर आम के नये चिकने पत्तों पर स्नेह संदेश लिखकर सखियों के पास भेजती हैं ।“(6) भारती जी की कहानियों में अलंकारों की रंगीन आभा देखते ही बनती है। ‘ पूजा‘ कहानी की नायिका पूजा का रूप सौंदर्य अंकित करते हुए कहानीकार ने लिखा है -” हलके फालसई रंग के वस्त्र को समेटती हुई ऐसी लगती थी जैसे ऊदी बदलियों में लिपटी चंपई बिजली का टुकड़ा जोंकों पर उड़ रहा हो ।“(7) भारती जी ने यथा स्थान सूक्तियों का समावेश करके अपनी भाषा को सुदृढ़ बनाया है । यथा ‘दूसरे के श्रम के फल में हमारा भाग केवल प्रेम द्वारा ही हो सकता है“।(8) हिंदी के तत्सम ,तद्भव, देशज शब्दों की अर्थवत्ता में वृद्धि करने के लिए धर्मवीर भारती ने उर्दू (हसीना, दस्तूर ,नीम कश) के शब्दों का निसंकोच प्रयोग किया है । नीमकश शब्द का प्रयोग कितनी सुंदर ढंग से हुआ है।” वातायन के ऊपर संगमरमर में कटी हुई जाली से छन कर आती हुई चंद्रकिरण ऐसी लग रही थी जैसे अंधेरे के सीने में चुभा हुआ एक नीम कश तीर।“(9)भारती जी ने प्रभावमयता हेतु कहीं–कहीं शब्दों के अनपेक्षित रूपों का भी प्रयोग किया है जैसे कुशल प्रश्न (यहां यह कुशल हीनता का द्योतक है)। अतः कवि धर्मवीर भारती की गद्यात्मक रचनाओं में मौलिकता ,भाव प्रवणता संस्कारशीलता , सांस्कृतिक निष्ठा, परंपरा और आधुनिकता का संश्लिष्ट मिश्रण मिलता है ।
संदर्भ :
1.धर्मवीर भारती की साहित्य साधना, संपादक पुष्पा भारती, पृष्ठ 118
2.धर्मवीर भारती का साहित्य: सृजन के विविध रंग, पृष्ठ 127
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चांद और टूटे हुए लोग, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 262
4.चांद टूटे हुए लोग, धर्मवीर भारती ,पृष्ठ 104
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चांद और टूटे हुए लोग, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 193
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चांद और टूटे हुए लोग, धर्मवीर भारती ,पृष्ठ 141
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चांद और टूटे हुए लोग , धर्मवीर भारती , पृष्ठ 154
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चांद और टूटे हुए लोग, धर्मवीर भारती ,पृष्ठ 247
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चांद और टूटे लोग, धर्मवीर भारती, पृष्ठ 173