तेज धूप संतोष बाबू के आंगन में पसरी हुई थी। सूर्य के गोले के इर्द-गिर्द अभी रक्ताभ आवरण नहीं बना था, लेकिन एक आग पिछले कुछ दिनों से व्यवस्था के प्रति संतोष बाबू के भीतर दहक रही थी। इस पीड़ा से उनकी शिराएं अंदर ही अंदर फट पड़ती थीं।
शाम के पांच बज चुके थे। संतोष बाबू ने आंगन में खड़े नीम के पेड़ पर लटक रहे कनस्तर के परिंडे में पक्षियों के लिए पानी डाला। पेड़ पर बैठी कई सारी चिड़िया एक साथ परिंडे पर लपक पड़ी। उनके साथ एक-आध गिलहरी भी।
आंगन के एक कोने में खप्पर के नीचे उनकी दुधारू भैंस बंधी थी, उसे हरा चारा डालकर संतोष बाबू नीम के पेड़ की छांव में पड़ी खटिया पर बैठ गये। उनकी पत्नी एक कोने में मिट्टी के चूल्हे पर भैंस के आहार के लिए बिनौला हांडी में भरकर चूल्हे पर चढ़ा रही थी।
“भैंस चारा खा ले, फिर जल्दी से दूध निकाल लो। बिनौला पकता रहेगा धीरे-धीरे। मुझे चाय की तलब लगी है। गर्मी के मारे सिर दर्द भी हो रहा है।” संतोष बाबू ने अपनी पत्नी से कहा।
“मेरे नाम पर जमीन का नामांतरण खुल गया क्या?” लकड़ियां चूल्हे में ठूंसते हुए उनकी पत्नी ने पूछा।
“अरे भाग्यवान! क्यों जले पर नमक छिड़क रही हो! दर्द के मारे सिर फटा जा रहा है। पहले चाय तो पिला दो!”
जिस मानसिक पीड़ा से संतोष बाबू गुजर रहे थे, उनकी पत्नी ने उसे कुरेद कर उनके जख्म को और हरा कर दिया।
संतोष बाबू के चेहरे का बढ़ा हुआ तापमान देखकर, वह उठी और स्टील की बाल्टी उठाई। भैंस के स्तन धोकर, दूध निकालने बैठ गई।
उसी वक्त संतोष बाबू को दरवाजे पर किसी ने आवाज लगायी। वे आंगन से बाहर निकल गये।
संतोष बाबू बाहर होकर आये, तब तक चाय बन चुकी थी। चाय का कप उनके हाथ में देते हुए, उनकी पत्नी ने कहा, “हर वक्त मुझ पर चिल्लाने की जरूरत नहीं है। जमीन की रजिस्ट्री करवाये सात महीने हो गए हैं, इसलिए पूछा।”
संतोष बाबू का पारा ठंडा हुआ, तो इधर उनकी पत्नी चाय की तपेली की मानिंद तपने लगी थी।
“मुझे तो कहा था, चित्तौड़गढ़ घूमने चल रहें हैं। जमीन की रजिस्ट्री करवा आये और अब तक नामांतरण का अता–पता नहीं है। और पड़ो रिश्तेदारों के चक्कर में!”
“अरे! तुम्हारा बोलना कब बंद होगा, कब से बड़-बड़ किये जा रही हो। चाय तो हलक में उतर जाने दो। जब देखो तब टिटहरी की तरह शुरू हो जाती हो।”
संतोष बाबू ने अपनी भौंहें चढ़ाई तो वह साड़ी का पल्लू और एक हाथ साथ में झिटकते हुए किचन में चली गयी।
संतोष बाबू अपने जीवन काल में मध्यप्रदेश के रतलाम में सरकारी महकमे में रहे थे। पेशे से क्लर्क थे। यानी बाबू का काम उनके हिस्से था। इसलिए सेवानिवृत्ति के बाद भी सब उन्हें गांव में संतोष बाबू कहकर ही बुलाते थे।
संतोष बाबू जब तक सेवा में रहे, तब तक बड़ी ईमानदारी से काम किया। ऑफिस में आने वाले किसी भी व्यक्ति से कभी फाइल पर वजन नहीं रखवाया, लेकिन आज जब उनके काम आन पड़ा, तो उनकी ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ छवि कहीं काम नहीं आ रही थी।
दरअसल संतोष बाबू ने सेवानिवृति के बाद जो रुपया मिला, उससे राजस्थान के चित्तौड़गढ़ जिले में पन्द्रह बीघा जमीन खरीदी थी। संतोष बाबू ने अपनी दो बेटियों का विवाह यहीं पर करवाया था। समधी ने अच्छी जमीन बतायी। उपजाऊ जमीन थी और पास में शुगर मिल भी थी। संतोष बाबू को सौदा जम गया। सोचा, अन्य फसलों के साथ गन्ना भी उगाएंगे, आमद होती रहेगी।
जमीन की खरीदी के वक्त अपनी पत्नी के नाम पर रजिस्ट्री करवाते समय उन्होंने राजस्व के नाम पर सरकारी कोष में दो लाख रुपये के करीब रसीद भी कटवाई थी। बावजूद इसके रजिस्ट्री करवाए हुए सात माह बीत गए, लेकिन अभी तक उनकी पत्नी के नाम पर नामांतरण नहीं खुला, लिहाजा वे लगातार परेशान रहने लगे थे।
संतोष बाबू ने चाय पीकर कप एक ओर रखा। उन्होंने पेड़ पर देखा, परिंडे में कुछ चिड़िया नहाने भी लगी थी। और कुछ भोजन के लिए चहक रही थी। संतोष बाबू ने कटोरा भर गेहूं के दाने बड़े सलीके से आंगन में बिखेर दिये। पेड़ पर बैठा सारा समुदाय धरती पर उतर आया।
आसमान में रूई के फाहों की मानिंद सफेद मटमैले बादल बिखर चुके थे और कुछ-कुछ मठीले बादल नजर आने लगे थे। संतोष बाबू ने सोचा, थोड़ा गांव में टहल आऊं। चौपाल पर मित्र इंतजार कर रहे होंगे! वे चलने को हुए ही थे कि उनकी पत्नी ने फिर से लक्ष्मण रेखा खींच दी।
चाय का झूठा कप उठाते हुए उसने कहा, “हां, तो अब बताओ आखिर बात क्या है? कितनी बार आप सरपंच, पटवारी के पास चक्कर काट कर आए हैं! फिर क्या बात है?”
“कुछ नहीं, बस मुंह फाड़ रहे हैं दोनों।”
“अरे! तो रख आते कुछ वजन फाइल पर! कब तक अपनी ईमानदारी वाला ढिंढोरा पीटते रहोगे? इतना खर्चा हुआ, थोड़ा और सही।”
“मुंह भी अजगर की तरह फाड़ रहे हैं। मैं पूरा उसमें समा जाऊंगा। कह रहे हैं कि तुम शेड्यूल कास्ट से आते हो, राजस्थान में आकर तुम सामान्य श्रेणी के हो जाते हो। इसलिए यहां पर शेड्यूल कास्ट की जमीन नहीं खरीद सकते हो।”
“अरे! आपने बताया नहीं कि हम तो केंद्र सरकार की शेड्यूल कास्ट की सूची में भी आते हैं। इसलिए देश के किसी भी राज्य में हम शेड्यूल कास्ट में ही गिने जाएंगे!”
“कई बार बताया, लेकिन उनसे कौन बहस करें! तुम नहीं जानती, पटवारी देवता होता है धरातल पर। चरनोट को आबादी में, आबादी को तालाब में, कुएं में, खड्डे में किसी में भी तब्दील कर सकता है।”
“और सरपंच क्या कहता है?”
“सरपंच ने कहा कि आधी पेटी दे दो, मैं तुम्हारी पत्नी का आधार कार्ड, राशन कार्ड यहीं का बनवा दूंगा। फिर नामांतरण खुल जाएगा।”
“मेरी सुनते कहां हो तुम! अब समधी जी से बात करो। वे ही आगे कुछ बात करेंगे।”
“हां, मैंने उनसे बात की है। उन्होंने क्षेत्र के किसी बड़े जनप्रतिनिधि से बात की है। नेताजी ने कहा कि वे अपनी बात को कलेक्टर और मंत्री तक लेकर जाएंगे।”
”चोर की दाढ़ी में तिनका! देखते हैं, नेता जी क्या करते हैं!” कहते हुए वह भीतर चली गई। क्षितिज में आसमान लाल हो चला था।
“चलो! राजस्थान जाकर नजीब तो हुए! यहां तो लोग अछूत कहते हैं।” अपनी पत्नी से कहते हुए, संतोष बाबू गांव में टहलने निकल गये।
नेताजी के आश्वासन के बाद से जब भी समधी जी का फोन आता है, संतोष बाबूबड़े हर्ष के साथमोबाइल उठाते है, लेकिन अभी तक उन्हें नामांतरण खुलने का इंतजार है।