बचपन में अपनी अम्माजी से जब कोई कहानी सुनाने को कहती थी तो वे एक था राजा, एक थी रानी की कहानी सुनाने की जगह अपनी आपबीती घटनाओं को सुनाया करती थीं। वे घटनाएँ जो मुझे उस समय तो अत्यंत चमत्कारिक लगती थीं और अब जब उन्हें याद करती हूँ तो गर्व से भर जाती हूँ। उनमें से एक घटना बार-बार मेरे स्मृति पटल पर दस्तक देती रहती है और अपने को लिखवा कर ही मानने वाली है। घटना अम्माजी की शादी से पहले की है। देश में स्वाधीनता संग्राम की लहर जंगल में दावाग्नि की तरह फैल रही थी उन दिनों अम्माजी गुरुकुल काँगड़ी, देहरादून में संस्कृत की प्रधान अध्यापिका थीं। गाँधी जी के आवाहन पर देश के प्रति कुछ कर गुजरने की प्रेरणा ने उन्हें अध्यापन कार्य छोड़कर असहयोग आंदोलन से जोड़ दिया। सन 1931 में असहयोग आंदोलन में सक्रियता ने उन्हें देश की सक्रिय सिपाही और लखनऊ जेल की महिला कैदी बना दिया।
जेल में उनका परिचय असहयोग आंदोलन में भागीदारी करने के ज़ुर्म में लखनऊ जेल में कैदी बन कर आईं पंडित जवाहर लाल नेहरू की धर्मपत्नी, स्वर्ग़ीय कमला नेहरू से हुआ। जैसे-जैसे परिचय बढ़ा कमला जी ने अम्माजी से संस्कृत सीखनी शुरू की और वे उन्हें ‘पंडित’ बुलाने लगीं। स्वतंत्रता संग्राम तेज़ी से बढ़ने के साथ-साथ जेल में महिला कैदियों की संख्या बढ़ने लगी थी। अंग्रेज़ सरकार को यह रास नहीं आ रहा था। जेल के नियमों के अनुसार कैदियों को खाने के लिए दोनों समय खिचड़ी दी जाती थी। कैदियों के उत्साह को भंग करने और उन्हें सताने के लिए खिचड़ी में दाल-चावल के अलावा कंकड़ भी मिला दिए जाते थे। साथ ही वार्डन की सख़्त हिदायत थी कि किसी को भी थाली में खिचड़ी झूठी नहीं छोड़नी होगी। मतलब साफ था कि उन्हें कंकड़ मिली खिचड़ी किसी भी तरह से खानी पड़ती थी। एक दो दिन बाद सभी कैदियों के पेट में दर्द होना शुरू हुआ, पर खाने के सिवाय कोई चारा नहीं था। कदाचित वे चाहते भी यही थे के स्त्रियाँ बीमार हो जाएँग़ी तो देश-प्रेम का बुखार उतर जाएगा और वे माफी माँग कर भविष्य में असहयोग आंदोलन से कभी नहीं जुड़ेंगी।
जेल में सभी औरतों को वह खाना खाना पड़ता था। केवल कमला नेहरू के साथ इसलिए रियायत बरती जाती थी क्योंकि उनका स्वास्थ्य पहले से ही ख़राब था। अंग्रेज़ सरकार को यह भय था कि यदि जेल में रहते हुए उस प्रसिद्ध राजनीतिक आंदोलनकारी नेता की पत्नी को कुछ हो गया तो असहयोग आंदोलन की आग में घी का काम करेगा। अम्माजी ने जब यह बात कमला जी को बताई, उन्होंने कहा, ‘पंडित तुम्हें कंकड़वाली खिचड़ी खाने की क्या ज़रूरत है, मेरा खाना बाहर से आता है तुम मेरे साथ खाना खा सकती हो।’ पर अम्माजी को यह बात कतई स्वीकार नहीं थी। जेल की कोठरी में कैदियों के सोने के लिए बनी एक पत्थर की बेंच के सिवाय ऐसा कुछ भी नहीं था जहाँ खिचड़ी छिपाई जा सके। कुछ और उपाय सोचते समय अचानक उनकी निगाह अपनी कोठरी के ऊपर बने एक रौशनदान पर पड़ी और उन्हें अपनी समस्या का हल मिल गया। उन्होंने सभी स्त्री कैदियों को वह रौशनदान दिखाकर कहा कि अब डरने की कोई बात नहीं है हम सब खिचड़ी ख़त्म करेंगी। तब से वे सब कंकड़ मिली खिचड़ी से छुटकारा पाने के लिए उसके लड्डू बनाकर रौशनदान से बाहर फेकने लगीं। कुछ ही दिनों में वहाँ से सड़ी बदबू आने पर कैदियों की शिकायत वार्डन तक पहुँची, जब उसे पता चला कि इस सबके पीछे सरस्वती (अम्माजी) नाम की औरत का हाथ है तो बैरक की सभी औरतों की वार्डन के ऑफिस में पेशी हुई।
जेल के नियम के अनुसार कैदियों को वार्डन के सामने हाज़िर होते समय अपने कैदी नंबर की तख्ती को दोनों हाथों से छाती के सामने पकड़ना होता था। वार्डन का अर्दली एक रजिस्टर में कैदी का नंबर पुकार कर उसके सामने आने पर अपने रजिस्टर में उसके नंबर के सामने पेशी के विवरण दर्ज़ करता था। जब वे वार्डन के दफ्तर पहुँची तो देखा वह भूरी वर्दी और सिर पर हैट लगाए हुए कुर्सी पर बैठ कर च्रुरुट पी रहा था। उनके साथ वाली सब स्त्रियाँ नंबर की तख्ती को छाती के सामने पकड़ कर एक लाइन में खड़ी हो गईं पर अम्माजी ने तख्ती को दोनों हाथों से छाती के सामने पकड़ने की जगह एक हाथ से पकड़ कर लटकने दिया। वार्डन को भड़काने के लिए यह काफ़ी था, वह तो पहले से ही गुस्से से आग बबूला हो रहा था। सामने खड़ी बीस साल की हिंदुस्तानी औरत की हिमाकत ने जैसे आग में घी का काम किया। उसने अम्माजी की तरफ अंगुली से इशारा करते हुए कठोर स्वर में पूछा, ‘तो तुम हो सरस्वती जिसने जेल में गंदगी फैला रखी है? तुम्हारी नंबर की तख्ती दोनों हाथों में क्यों नहीं है, तुम्हें जेल के रूल मालूम नहीं हैं क्या?’ अम्माजी ने उसकी तरफ सीधे देखते हुए कहा, ‘हमने सुना था कि अंग्रेज़ लोग औरतों की इज्जत करना जानते हैं और औरतों से बात करने से पहले अपना हैट सिर से उतार लेते हैं, क्या आप कुछ भूल नहीं रहे हैं इसलिए अपना हैट नहीं उतारा? इतना सुनते ही पहले तो वह कुछ सकपकाया और फिर उसने अपना हैट उतार कर सामने की डेस्क पर रखने के लिए सिर को नीचे की तरफ़ झुकाया। इसके बाद ही अम्माजी ने अपनी नंबर की तख्ती दोनों हाथों से उठाई।
स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत जब फ्रीडम फाइटरों को पेंशन मिलने की बात आई तो मेरी अम्माजी ने यह कह कर मना कर दिया कि हमने जो भी किया अपने देश के लिए किया, देश की आज़ादी के लिए यातना सहने के प्रतिदान में मुझी कुछ नहीं चाहिए, देश की आज़ादी ही उसका पुरस्कार है। अम्माजी के देहावसान की सूचना मिलने पर भारत सरकार की ओर से उनकी अंतिम यात्रा के समय गार्ड ऑफ ऑनर दिया गया। आज भी यह स्मरण करते हुए मेरा सर गर्व से ऊँचा हो जाता है।
जयंती सेठ
बचपन कोलकाता में बीता, विवाह के बाद बैंगलुरू में रही और पति के अवसान के बाद पिछले पाँच वर्षों से अपने बेटा-बेटी के पास कैलिफोर्निया में हूँ। यहाँ आकर अपने एकाकी क्षणों की रिक्तता को भरने के लिए लेखन की शुरुआत हुई और एक के बाद एक अतीत की स्मृतियाँ दस्तक देने लगीं। यह संस्मरण पुरानी यादों की शृंखला की एक कड़ी है।
गर्व से भर देने वाला संस्मरण है आपका! कोई भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, चाहे वह महिला हो या पुरुष ;वह किसी परिवार विशेष के नहीं होते, सारे देश के होते हैं। आपकी माताजी और कमला नेहरू सहित उनके साथियों को सादर पुण्य प्रणाम!
सचमुच गर्व से भरने वाला संस्मरण आपकी माताजी सरस्वती देवी और कमला नेहरू दोनों को शत-शत प्रणाम। उन्होंने न केवल अपने परिवार का अपने देश का नाम रोशन किया है।
गर्व से भर देने वाला संस्मरण है आपका! कोई भी स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, चाहे वह महिला हो या पुरुष ;वह किसी परिवार विशेष के नहीं होते, सारे देश के होते हैं। आपकी माताजी और कमला नेहरू सहित उनके साथियों को सादर पुण्य प्रणाम!
सचमुच गर्व से भरने वाला संस्मरण आपकी माताजी सरस्वती देवी और कमला नेहरू दोनों को शत-शत प्रणाम। उन्होंने न केवल अपने परिवार का अपने देश का नाम रोशन किया है।