मनोविज्ञान शब्द का अर्थ और परिभाषा
मनोविज्ञान का शाब्दिक अर्थ है – मन का विज्ञान अर्थात् मन की प्रकृति, वृत्तियों, दशाओं एवं क्रियाओं आदि का विवेचन करने वाला विज्ञान। इस प्रकार मनोविज्ञान मन का शास्त्र तथा उसका वैज्ञानिक अध्ययन है। 1
मनोविज्ञान की परिभाषाएँ – जी॰ डी॰ बी॰ एच॰ ने मनोविज्ञान को आत्मा का विज्ञान माना है। हिंदी में मनोविज्ञान अंग्रेज़ी के सायकॉलोजी का अनुवाद है। इसकी व्युत्पत्ति का आधार है – साइक (Psyche) जो ग्रीक शब्द है और जिसका अर्थ आत्मा (Soul) है और लोगोस (Logos) जिसका अर्थ है विज्ञान (Science)। इस प्रकार साइक और लोगोस को मिलाकर सायकॉलोजी शब्द बना – जिसका अर्थ आत्मा का विज्ञान माना गया। प्राचीन काल में आत्मा को ही धारण, कल्पना और वितर्क का स्रोत माना जाता था। कालांतर में वैज्ञानिक प्रगति के साथ-साथ इस धारणा में परिवर्तन होता चला गया। फलस्वरूप आत्मा का अर्थ धार्मिक दृष्टिकोण से हटकर मानस या मस्तिष्क के रूप में जाना जाने लगा।
राबर्ट एच॰ बुडवर्थ और मालिवर्स के अनुसार – मनोविज्ञान परिवेश के संपर्क में होने वाली व्यक्तियों की चेष्टाओं का अध्ययन होता है। 2
द ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार – ‘‘मनोविज्ञान शब्द का अर्थ है – ‘‘मानव की आत्मा अथवा मन की प्रवृत्ति, प्रकार्यों एवं परिदृश्य का विज्ञान।’’ 3
द वैवस्टर डिक्शनरी के अनुसार – ‘‘मनोविज्ञान शब्द का अर्थ है – 1. मन, मानसिक प्रक्रियाओं, अनुभवों और इच्छाओं से संबंधित विज्ञान; 2. मानव अथवा पशु के व्यवहार का विज्ञान है। 4
हिंदी शब्दसागर के अनुसार – ‘‘मनोविज्ञान वह शास्त्र है जिसमें चित्तवृत्तियों का विवेचन होता है तथा जिनके द्वारा यह जाना जाता है कि मनुष्य के चित्त में कौन-सी वृत्ति कब, क्यों, किस प्रकार उत्पन्न होती है।’’ 5
संक्षेप में हम कह सकते हैं कि मनोविज्ञान व्यक्ति और वस्तु की अंतःक्रियाओं के विविध पक्षों का अध्ययन करने वाला विज्ञान है, यह मुख्यतः व्यक्ति की मानसिक क्रियाशीलता, मानसिक उत्पत्तियों और अवस्थाओं का प्रतिपादक है।
विज्ञापन का मनोविज्ञान
विज्ञापन की उपादेयता मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि के आधार पर भी सिद्ध की जा सकती है, क्योंकि विज्ञापन अपनी प्रत्येक दशा में मानव-मन को आकर्षित करने की अभिव्यक्ति है। इसका अभिप्राय यह है कि विज्ञापन और मनोविज्ञान एक ही प्रकृति के हैं। एक-दूसरे के पूरक है। विज्ञापन अपने शुद्ध रूप में मनोवैज्ञानिक बोध होने के साथ-साथ सामाजिक सांस्कृतिक बोध, साहित्यिक बोध और राष्ट्रीय बोध भी है। मनोविज्ञान का सरोकार इंसान के जीवन को गहराई तक छूता है। विज्ञापन मनुष्य की मानसिक प्रतिक्रियाओं को अभिव्यक्ति देते हैं, यह उपभोक्ता को अपनी ओर आकर्षित करते हैं और अर्थव्यवस्था को मज़बूत करने और धनोपार्जन में सहायक होते हैं। निम्नलिखित कारण है जो विज्ञापन और मनोविज्ञान को आपस में जोड़कर रखते हैं –
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1. उपभोक्ता की मानसिक स्थिति को जानना
देश में जारी अधिकांश विज्ञापन उपभोक्ता विज्ञापनों की श्रेणी के अंतर्गत आते हैं जैसे साबुन, कपड़ा, शृंगार प्रसाधन की वस्तुएँ, पेन, स्कूटर, मोबाइल आदि। संपूर्ण विज्ञापनों के केंद्र में उपभोक्ता ही होता है। इसलिए विज्ञापन का उपभोक्ता की मनःस्थिति से जुड़ना अत्यंत आवश्यक है। उपभोक्ता की मनोवैज्ञानिक विशेषताओं के अनुरूप ही विज्ञापन
तैयार किये जाते हैं। इसके लिए उपभोक्ताओं के व्यवहार, अभिरुचि, ज्ञान, शिक्षा के स्तर, बाज़ार के प्रति उपभोक्ता की समझ, आधुनिक चीज़़ों के प्रति उपभोक्ता की ललक आदि को जानना आवश्यक है।
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2. विज्ञापन का मनोविज्ञान, नारी और समाज
विज्ञापन मनोविज्ञान में नारी को हम प्रमुखतः देह अथवा त्वचा के रूप में अधिक पाते हैं, क्योंकि समाज की मनोवैज्ञानिक स्थिति को ध्यानपूर्वक देखे तो यही आभास होता है कि वह नारी को मात्र ‘देह’ अथवा ‘त्वचा’ के रूप में ही देखना चाहता है। इसलिए वह विज्ञापन जिनमें नारी की आवश्यकता भी नहीं होती उनमें भी नारी रूप को वर्णित कर दिया जाता है, विशेष रूप से उसके कामुक और अश्लील रूप को दिखलाकर उत्पाद को बेचने के लिए आकर्षण पैदा किया जाता है। प्रतिस्पर्धात्मक युग में तो नारी देह को जितना प्रचारित किया जाये उतनी ही तेज़ी से वस्तु की बिक्री भी बढ़ेगी। आधुनिक विज्ञापनों पर यदि दृष्टिपात करें तो कुछ ऐसी नारी भी है जो पुरुषों को रिझाने के लिए अपने अंदर हर संभव कामुक कला को विकसित कर रही है। आधुनिक परिवेश में कुछ नारियों की मानसिक प्रवृत्ति भी बदल गई है। कुछ आधुनिक मॉडलों की यह मानसिकता है कि जब उनके पास प्रदर्शित करने के लिए संुदर देह है तो वे क्यों न उसको प्रदर्शित कर उसका लाभ उठाये। अंग से अंग मिलना, चुम्बन के दृश्य, यहाँ तक की नारी देह का खुला प्रदर्शन विज्ञापनों में आज अनायासा ही देखने को मिलता है। इस प्रकार के विज्ञापनों के माध्यम से विज्ञापनदाताओं की कुत्सित मानसिकता का परिचय मिलता है। विज्ञापन में नारी की सकारात्मक मनोवैज्ञानिक छवि भी देखी जा सकती है, इसके लिए जीवन बीमा निगम, बैंक, कपड़ों के विज्ञापन, घड़ी, साबुन, तेल, चप्पल आदि के विज्ञापन देखे जा सकते हैं।
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3. युवा मानसिकता को छूते विज्ञापन
विज्ञापनों को जिस तरह से परोसा जा रहा है, युवा वर्ग की मानसिकता भी उससे अछूती नहीं रही है। सिगरेट के एक प्रचार में एक सिगरेट पीने वाले युवक की बहादुरी के चर्चे दिखाये जाते हैं जबकि एक तरफ़ लिखा आता है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। ऐसे विज्ञापनों का युवकों पर मनोवैज्ञानिक असर अवश्य पड़ता है, वह सिगरेट पीने के लिए लालायित हो जाते हैं। हाल ही में एक विज्ञापन और देखने को मिला जिसमें एक युवती अपने मित्र के कंधे पर सिर रखकर मोबाइल के ज़रिए किसी से वार्तालाप कर रही है और उसने अपना दूसरा हाथ अपने मित्र की पीठ के पीछे सरकाते हुए दूसरे मित्र के हाथ में हाथ दिया हुआ है। इस विज्ञापन को देखकर प्रत्येक युवक मनोवैज्ञानिक आधार पर विभिन्न तरह के ख़्याल अपने मस्तिष्क में ला सकता है। यह चित्र इस प्रकार है –
इस विज्ञापन पर लिखा है – ‘समझदारी हर जगह है’ परंतु यह समझ नहीं आता कि मोबाइल के प्रचार करने का यह कैसा विज्ञापन है जिसमें युवती किसी के कंधे पर सिर रखती है तथा उसी के पीछे दूसरे मित्र के हाथ में हाथ देती है, इस तरह के विज्ञापन मनोवैज्ञानिक आधार पर दर्शक में असंतुलित सोच को विकसित करते हैं। इस तरह की ग़लत मानसिकता को फैलाने वाले विज्ञापनों पर रोक लगानी चाहिए। ऐसे और भी बहुत से विज्ञापन देखे, सुने और पढ़े जा सकते हैं, जो युवकों की मानसिकता को पथभ्रमित करते हैं उन पर रोक लगनी चाहिए और अच्छी मानसिकता को फैलाने वाले विज्ञापनों का प्रसार करना चाहिए। विज्ञापनों में युवकों की मनोवैज्ञानिक सकारात्मक छवि भी देखी जा सकती है। इसके लिए घड़ी, परफ्यूम, जूते, डाबर आमला हेयर ऑयल, एलआईसी जीवन बीमा आदि के विज्ञापन देखे जा सकते हैं।
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4. बच्चों की मानसिकता को छूते विज्ञापन
अगर बाजार में किसी भी वस्तु को लेकर उपभोक्ता को रिझाना है तो उसके मूल में विज्ञापन ही है ।आजकल विज्ञापन का बोलबाला है। पहले तो मॉडल इस काम को किया करते थे लेकिन आजकल फिल्म अभिनेता और अभिनेत्रियों ने वह स्थान भी छीन लिया।
और निश्चित विज्ञापन के पीछे भी मानव मनोविज्ञान काम करता है। आजकल इंसानों ने अपनी इच्छाओं की सारी शक्ति अपने नेत्रों को सौंप दी। पहले जो कहा जाता था कि जो आंखों देखी है वही सच होता है लेकिन आजकल ऐसा नहीं है आजकल आँखों देखे की भी कोई गैरंटी नहीं है।
काफी डिटेल में इस लेख में हरदीप जी ने समझाने की कोशिश की है। किस-किस चीज के विज्ञापन, किस- किस तरह से पेश किए जाते हैं और उसके पीछे कौन सा मनोविज्ञान काम करता है। बच्चों की चीजों के हों, महिलाओं से जुड़ी हुई चीजें हों,नशे से जुड़ी हुई चीजें हैं, भले ही फिर उसमें लिखा हुआ है कि यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। बड़े-बड़े एक्टर इस तरह के एडवर्टाइज करते हैं तो युवा भटकेंगे नहीं तो और क्या होगा।
निश्चित ही *”विज्ञापन मानस की सृष्टि है। जो व्यापारिक हित और जनकल्याण के लिए मानव को अपनी ओर आकर्षित करता है। मनोविज्ञान ही विज्ञापनों का प्रमुख आधार है। यह उपभोक्ताओं को मनोवैज्ञानिक तरीक़े से अपनी ओर आकर्षित करता है, इसमें नारी और समाज को मनोवैज्ञानिक अध्ययन के साथ युवा मानसिकता को छूते विज्ञापन और बच्चों की मानसिकता को छूते विज्ञापन भी देखे जा सकते हैं। उपभोक्ता के मस्तिष्क पर दुःखद विज्ञापनों की अपेक्षा सुखद विज्ञापनों का अनुकूल प्रभाव पड़ता है। अतः विज्ञापनों का चाहिए जो उपभोक्ता की सुखद भावनाओं को स्पर्श करे। विज्ञापन का मनोविज्ञान नारी और समाज में नारी की मनोवैज्ञानिक सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों प्रकार के पहलू उजागर हुए, इसमें कोई संदेह नहीं की विज्ञापन निर्माण के समय नारी मनोवृद्धि के सकारात्मक पक्षों को ही उजागर करना चाहिए। मनोवैज्ञानिक आधार पर रोगनाश करने वाले, त्वचा को सुंदर बनाने वाले, शरीर को हष्ट-पुष्ट बनाने वाले आदि विज्ञापन मनोवैज्ञानिक आधार पर अच्छा असर डालते हैं। इसी प्रकार युवा वर्ग, बच्चों की मानसिकता को छूने वाले विज्ञापन सकारात्मक मनोवृत्ति वाले होने चाहिए।”*
आपका यह निष्कर्ष स्वीकार्य है।
विज्ञापन के क्षेत्र में जो लोग काम करना चाहते हैं उनको यह लेख जरूर पढ़ना चाहिए।