ऐलते विश्वविद्यालय, बुदापैश्त, हंगरी में हिन्दी पढ़ने वाले दूसरे वर्ष के विद्यार्थियों के लिए स्त्री लेखन पर एक छोटी पुस्तिका तैयार करनी थी। प्रमुख हिन्दी लेखिकाओं में मीरा से आरम्भ कर मैं सुभद्रा कुमारी चौहान, महादेवी वर्मा, उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती, मृदुला गर्ग, ममता कालिया से होते हुए गीतांजलि श्री तक पहुँची।
जब पहुँची तो उन्हें पढ़ने लगी। संयोग से उनका कहानी संग्रह वहां लाइब्रेरी में था, बेलपत्र कहानी का मन के कई कोनों को झकझोरना याद है।
विभागाध्यक्ष मारिया जी का लेखिका से आत्मीय लगाव भी ज्ञात हुआ।
बहुत प्रिय लेखिका की सूची में तब न रखने के बावजूद वे स्मृति में रहती रहीं… मैं जानकारी पूरी संजोती रही कि 1957 में उत्तर प्रदेश में जन्मी, दिल्ली में इतिहास विषय की अध्येता गीतांजलि श्री शोध क्रम में वड़ोदरा पहुची। यहाँ उन्होंने प्रेमचंद पर महत्वपूर्ण आलोचनात्मक कार्य संपन्न किया – Between Two Worlds: An Intellectual Biography of Prem Chand।
कालान्तर में वे फ्रांस के इन्स्टीट्यूट में फेलो रही, संस्कृति मंत्रालय भारत सरकार की फेलो रही, हिन्दी अकादमी ने उन्हें साहित्यकार सम्मान दिया, उन्हें द्विजदेव सम्मान, 1995 में कहानी-संग्रह ‘अनुगूँज’ के लिए पहला इंदु शर्मा कथा सम्मान और जापान फाउंडेशन का पुरस्कार भी प्रदान किया गया।
जानकारी पाई कि वे स्कॉटलैंड, स्विट्ज़रलैंड और फ़्रांस में राइटर इन रैज़िडेंस भी रही हैं।
यह गुपचुप लेखिका अपने विस्मयकारी लेखन के साथ हिन्दी साहित्य जगत में प्रविष्ट होती हैं। उनके पांच उपन्यास ‘माई’,  ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘तिरोहित’, ‘खाली जगह’ और ‘रेत समाधि’ – सभी राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हुए।
कहानी संग्रह – ‘अनुगूँज’, ‘वैराग्य’, ‘मार्च माँ और साकुरा’, ‘प्रतिनिधि कहानियां’ और ‘यहाँ हाथी रहते थे’ भी सामने हैं।
उनका पहला उपन्यास ‘माई’ अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, उर्दू और सर्बियन भाषाओं में अनूदित हुआ। वे कहती हैं कि अंग्रेज़ी में अनूदित होने के बाद ही उपन्यास की चर्चा अधिक हुई !
यह उत्तर भारत के एक मध्यम वर्ग के परिवार में तीन पीढ़ी की स्त्रियों की कहानी है जिसके सन्दर्भ में वे कहती हैं – ‘मां की पीढ़ी की स्त्रियों को मान देने की एक आकांक्षा थी।’
माई तीन भूमिकाओं में है – पत्नी, पुत्रवधू और मां। जब उन्होंने विदेश में इस उपन्यास के अंशों का सार्वजनिक वाचन किया तो प्राय: माई के जैसी स्त्रियों की कहानियां सुनने को मिली। भारतीय परिवार की कहानी को विश्व में पाठक मिले – यह गर्व की बात है ! किन्तु यह उपन्यास आत्मकथात्मक भी नहीं हैं।
‘हमारा शहर उस बरस’ उनका दूसरा उपन्यास बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद की घटनाओं का स्पर्श करता।
‘तिरोहित’ का प्रकाशन वर्ष 2007 है और ‘खाली जगह’ उपन्यास जर्मन, फ्रेंच और उर्दू में तथा हार्पर कालिंस से अंग्रेज़ी में अनूदित होकर आया। उपन्यास में जनजीवन पर पड़ी आतंक की छाया के चित्र हैं।
नवीनतम उपन्यास ‘रेत समाधि’ फिर मां, बेटी और बुआ जैसे स्त्री चरित्रों से विनिर्मित कथा है। उपन्यास का फ्रेंच अनुवाद पेरिस पुस्तक मेले में लोकार्पित होना प्रस्तावित था किन्तु महामारी की वजह से स्थगित रहा, प्रकाशन हुआ जिस पर अनुवादिका का कहना है – ‘विदेशी पाठकों को इसमें आधुनिक भारत का एक तरह का सांस्कृतिक एनसाइक्लोपेडिआ मिलेगा।’
गीतांजलि श्री की कथा-यात्रा हंस पत्रिका से आरम्भ होती है, जहां पहली कहानी ‘बेलपत्र’ 1987 में प्रकाशित हुई। इसके बाद उनकी दो और कहानियाँ ‘हंस` में छपीं।
बचपन से ही लेखिका होने का भाव मन में लेकर बड़ी होने वाली गीतांजलि श्री अपने विशद लेखन के वैचारिक उन्मेष और अभिव्यिक्ति की समर्थता के माध्यम से हिन्दी कथा जगत में अपनी अलग पहचान बना चुकी हैं। उनके साहित्य में विरोध, विद्रोह और प्रतिरोध का सघन स्वर है। अपने समय और समाज की दुर्बलता को भी उन्होंने खूब पहचाना है। पढ़े-लिखे समाज की तथाकथित आधुनिकता को बेनकाब करने के लिए उनके पास एक सशक्त सांकेतिक भाषा है। विवाह में स्त्री, विवाहेतर सम्बन्ध, हिन्दू-मुस्लिम जीवन की कठोर वास्तविकताएं, समाज की रूढ़ मान्यताएं, शिक्षित वर्ग की मानसिकता, शिक्षित मध्यवर्गीय नारी और नगर का जीवन उनके सृजन का अनिवार्य हिस्सा है।
उनकी अभिरुचि थियेटर में भी रही है। थियेटर की दुनिया में उन्होंने बहुत सक्रिय समय व्यतीत किया, देश और विदेश में उनकी नाट्य प्रस्तुतियों को सराहना मिली। वे स्क्रिप्ट भी लिखती हैं – हिन्दी और अंग्रेज़ी में समान अधिकार से। उन्होंने उर्दू, बँगला और चीनी कहानियों के नाट्य रूपांतर किए। जब उन्होंने उन्नीसवीं सदी के उर्दू क्लासिक ‘उमराव जान अदा’ का रूपांतर किया तो इस सत्य के स्वीकार के साथ कि उमराव केवल एक नर्तकी ही नहीं, वह भी हमारी तरह एक स्त्री है, समय और परिस्थिति ने उसे विवश किया कि वह घर से बाहर निकले और अपनी कला को पेश करे। घर की चारदीवारी की सुरक्षा के बिना, उसे भी हम आधुनिक स्त्रियों की तरह पुरुषों के संसार का सामना करना था।
गीतांजलि मानती हैं कि उनका बचपन पिता के साथ पारिवारिक स्थान-परिवर्तनों में बहुत कुछ देखते-सीखते हुए बीता, अंग्रेज़ी में बाल पुस्तकों के अभाव ने ही हिन्दी से जोड़ा। घर में मां प्राय: हमेशा हिन्दी ही बोलती थी। मां के साथ अपने ख़ास सम्बन्ध को वे इस तरह परिभाषित करती हैं कि मां के नाम का आरंभिक श्री उन्होंने अपने नाम के बाद जोड़ लिया है।
साहित्य के प्रति रुझान के बावजूद इतिहास विषय की अध्येता गीतांजलि श्री का कहना है कि अतीत हमेशा उपस्थित रहता है, हमें उसका अनुभव जरूर टुकड़ों में होता है। लेखक अपने लिए लिखता है, लेखन अपने आपसे संवाद है। पाठक उसके बाद इस संवाद क्षेत्र में आते हैं। एक छोटे जगत में रह कर भी लेखन की बड़ी उड़ान बड़ी संभव है। हम सब सत्य के संधान में लगे हैं ..विभिन्न माध्यमों से।
अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा –‘मुंशी प्रेमचंद की पोती से गहरी मित्रता और उनके पूरे परिवार से नजदीकी ने मुझे संस्कृति के प्रति संवेदनशील बनाया। उनका पूरा परिवार ही भारतीय संगीत और साहित्य के क्षेत्र से जुड़ा था।’
अपने बचपन से ही कुछ कथा-कहानी रच देने वाली गीतांजलि श्री भाषा को लेकर असमंजस में रही। वे इस द्वंद्व में फंसी रही कि उनका सृजनात्मक माध्यम क्या हो, हिन्दी या अंग्रेज़ी? पढ़ाकू लेखिका ने पाश्चात्य लेखकों, बंगला, मराठी, कन्नड़, मलयालम लेखन के साथ अपने समय के हिन्दी लेखकों – कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, श्रीलाल शुक्ल, विनोद चन्द्र  शुक्ल – इनको पढ़ते हुए विविध लेखन शैलियों का परिचय पा लिया।
विविध देशी-विदेशी यात्राओं से समृद्ध होने वाली लेखिका कहती हैं – ‘वास्तविक परिवर्तन घर में ही उपलब्ध किया जाना है’।
उनकी कहानी ‘प्राइवेट लाइफ’ से एक अंश उद्धृत करना चाहती हूं…
‘उसे लगा, उसने इज्जत से जीना चाहा था। अपनी दुनिया बनाने की कोशिश की थी।
उसे लगा, अभी इसी वक्त, एक बलात्कार हुआ है उसकी इंसानियत पर, उसकी बालिग अहमियत पर।
बचपन में उसका अस्तित्व उसके जिस्म के एक हिस्से में सारी जान, सारा जुनून लेकर बस गया था। वहीं उसकी इज्जत समा गई थी।
उसे लगा, उसका अस्तित्व उसके जिस्म से फिसलकर जमीन पर पड़ा तड़पड़ा रहा है।’
लेखिका को जन्मदिन की हार्दिक बधाई और लेखकीय सक्रियता के अनेक वर्षों के लिए शुभकामनाओं का अम्बार !

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