गहन अंधकार है अमावस की स्तब्ध रात में
मरघट की नीरवता-सा
खिन्न है, उदास है, संतप्त है, माँ भारती।
लौटे हैं उसके बच्चे
तीन रंग के कपड़े में लिपटे
‘आधे-अधूरे’ से।
अब वो बात भी नहीं करते
न गाते मुस्कुराते हैं।
ओढ़ आये हैं एक लम्बे मौन की
रहस्यमयी मुस्कान
अधखुली विस्मित आंखों में अनुत्तरित प्रश्न लिए।
”माँ कौन है वो? कौन है? जो रौंदता है
नवकोंपलों को।
पददलित हो रहा है नवपल्लवन जिससे??
असहाय अन्नदाता अपनी गर्दन
लम्बी कर लेता है (फांसी)
किंकर्तव्यविमूड़ – सा
किसी उजड़े वृक्ष का आश्रय लेकर
किसके कारण?
कौन है? जिसके कारण
व्यसनों को “मोक्ष का द्वार” समझ कर
निगलती जा रही है जवानी ‘विष’
और मां तुम ”विषपायी” बनी त्रस्त-सी
क्यों अभ्यस्त होती जा रही हो नित्य
”शवों को गिनने की”
और स्वयं ‘शव’ हो जाने की।
तेरी आस्तीन के सांप क्योंकर
अट्टहास करते हुए आतुर है
”भसक” जाने को तुम्हें ही?
तेरी ही रक्षकों की शह पर।
शव पूछते हैं ”माँ” हम ऐसे क्यों लौटे?
कैसे पहुंच जाता है बारूद वहां? हमें उड़ाने को?
जहां नहीं पहुँच सकती एक दवा की बोतल भी
बिना ”सरकारी मोहर” लगे??
कैसा प्रबन्धन है यह??
जो हमें पत्थर सहने की ”ताकीद” कर
”उन्हें” बारूद ढोने का अवसर देता गया।
”माँ” जंगल का यह दीमक चबाता जा रहा है
तेरे ”लालों” की ”हरियाली”
और हवा में छोड़ रहा है
हताशा, निराशा, कुंठा और थकान का ”डेंगू”
शवों का आग्रह है ”दिल्ली नवीसों” से
ओ हुक्मरानो अब तो नेस्तनाबूद कर दो
उन गद्दारों को
जो पर्दे के पीछे रह कर करते हैं
संचालित घटनाक्रम को ”महाविद्यालयों में”
पूजा स्थलों में ”सुरक्षा गृहों में
और माँ भारती के पावन आस्तीन में छुपकर
और नहीं छोड़ते कोई रास्ता
…हमारे ज़िंदा लौटने का…
वक्त का आह्वान है
नमकहरामों को नकेल डालो
उनके रास्ते रोको
उन पर कीलें ठोको
कि उन का सत्ता का मद छूटे
और इस सुलगते जंगल से
ज़िंदा लौटने का रास्ता सूझे।
बहुत सुन्दर और भावपूर्ण स्रजन..!
आत्मीय आभार माननीय