इस कहानी का सम्बन्ध मशहूर फिल्म समीक्षक बी. दास के जीवन में घटे एक छोटे-से वाकये से है। 
यह वाकया श्री दास ने मुङो हाल-फिलहाल सुनाया है। इस वाकये को बयान करना मैं इसलिए भी जरूरी समझता हूँ क्योंकि मुङो लगता है – छोटे-छोटे वाकये इतिहास बदल देते हैं, जबकि तात्कालिक तौर पर जो वाकये बड़े दिखते हैं उनकी सुगन्ध या खरोंच ही बाकी बचती है। बड़े वाकये संदर्भ की तरह हमारे जेहन में कौंधतें हैं, जबकि छोटे-छोटे वाकये हमें ‘याद’ रहते हैं और यही हमारा जीवन होता है। जैसा कि गेब्रियल गार्सिया मार्केज़ ने कहा है – ‘‘जीवन वह नहीं होता जो हम जीते हैं, जीवन वह है जो हमें याद रहता है।’’
मैं जिस छोटे-से वाकये की कहानी सुनाने जा रहा हूँ, इस वाकये को घटे चालीस साल गुजर गये, मगर बी. दास को अभी भी याद है, जैसे कल की बात हो।
बात उन दिनों की है जब बी. दास की उम्र तेईस की रही होगी। रोजी-रोटी की तलाश में वे अमृतसर से दिल्ली आये थे। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन पर जब वह उतरे, काली सफेद धारियोंवाली शर्ट और गँदला-सा पजामा पहन रखा था। पाँव से दो इंच बड़ी हवाई चप्पल, जिसे बी. दास ‘कैंची चप्पल’ कहते हैं, उनके पैरों में फँसी हुई थी। काली-सफेद धारियोंवाली शर्ट की जेब में कुछ पैसे थे … एक पुरजा था, जिस पर दिल्ली में रह रहे उनके चाचा दीनानाथ दास का पता लिखा था। जेब में एक सस्ती-सी इंकपेन लटक रही थी। बायें हाथ में एक झोला था, जिसका टँगना अँगुलियों की मुट्ठी बना कर उन्होंने कुछ इस तरह भींच रखा था, गोया ऐसा न करने से कहीं अलादीन के चिराग की तरह वह गायब न हो जाये ! झोले में उनकी एक धुली हुई कमीज और एक पजामा था और बच्चों के लिए आधा दर्जन कहानियों की कतरन थी, जो अमृतसर के लोकल अखबारों में छपी थीं।
बी़ दास थोड़े दिन लाजपत नगर से चावड़ी बाजार, भगीरथ प्लेस, खारी बावली तक के गलियों-बाजारों की खाक छानते रहे, फिर एक दिन चाचा दीनानाथ दास ने उनकी एक रेजीडेन्सियल सोसायटी में सवा सौ रुपये माहवार पर मुंशी की नौकरी लगवा दी।
बी. दास को लेकिन अभी बहुत पापड़ बेलने थे। हुआ यह कि सेकेट्ररी पर घपले का आरोप लगा और सोसायटी सदस्यों की शिकायत पर वह जेल चला गया।
महीना गुजरते-गुजरते बी़ दास सड़क पर थे।
बी. दास ने अपनी दूसरी नौकरी चावड़ी बाजार के जासूसी उपन्यासों के ‘पब्लिशर एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर’ के यहाँ की। ऑर्डर के अनुसार किताबें छाँटना, पैकेट बना कर बुकसेलरों को भेजना, यही उनकी ड्यूटी थी। पण्डितजी के नाम से मशहूर पब्लिशर एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर सेवाराम शास्त्री, जैसा कि कहा जाता था, बड़े दयालु और नेकदिल थे।
एक दिन की बात है। जासूसी उपन्यासों का नया सेट प्रेस में छपने जा रहा था कि पाया गया, एक उपन्यास तो अधूरा है ! प्रेस में छपने कैसे भेजें ?
पण्डितजी परेशान ! क्या करें ?
तभी बी़ दास आगे आये – ‘‘मैं लिख दूँ ? उपन्यास पूरा कर दूँ ?’’
‘‘तुम्हें लिखना आता है ?’’ पण्डितजी हैरान।
‘‘हाँ, मुङो सब पता है’’, बी़ दास बोले।
बी. दास को कागज-कलम उपलब्ध कराया गया और … उन्होंने दो घण्टे में उपन्यास पूरा कर डाला।
पण्डितजी ने पढ़ा, खुश हुए।
पण्डितजी अपने केबिन से बाहर निकले और सामने पड़ी कुर्सी-मेज की ओर इशारा किया – ‘‘आज से तुम यहाँ बैठ कर लिखोगे। तुम्हारी तनख्वाह होगी ढाई सौ रुपये !’’
बी. दास फूले नहीं समाये। वह लेखक बन गये थे।
यह किस्सा सुनाने के बाद बी़ दास मेरी तरफ देख कर मुस्कुराये –
‘‘उसी दिन पण्डितजी ने मेरा भविष्य बारह और चौदह प्वाइण्ट के काले अक्षरों में लिख दिया था !’’
लेकिन उस वक्त बी़ दास नहीं जानते थे कि बारह और चौदह प्वाइण्ट में लिखा यह भविष्य कितना धोखादेह है।
अपने भविष्य, जो अतीत बन चुका है, के बारे में बात करते हुए बी़ दास उसे एक ट्यूबलाइट कम्पनी के टेलीविजन विज्ञापन से जोड़ देते हैं –
‘‘फ्यूचर इज अँधेरा !’’
दो महीने बाद जासूसी उपन्यासों का यह पब्लिशिंग हाउस बंद हो गया तो बी़ दास की आँखों के आगे सचमुच अँधेरा छा गया। अब क्या होगा ?
मगर जैसा कि कहा जाता था, पब्लिशर-डिस्ट्रीब्यूटर सेवाराम शास्त्री उर्फ पण्डितजी बड़े नेकदिल और दयालु थे … सो पण्डितजी ने अपनी नेकदिली का परिचय दिया।
आखिरी महीने का वेतन बी़ दास के हाथ में थमाते हुए पण्डितजी बोले, ‘‘कल सुबह मेरे घर आ जाना।’’
दूसरे दिन सुबह-सुबह बी़ दास मॉडल टाउन स्थित पण्डितजी की कोठी पर पहुँचे।
पण्डितजी घर के बाहर स्थित लॉन में ही मिल गये, लँगोटी पहने शीर्षासन करते हुए।
बी. दास को देखते ही वे सीधे हुए और कमान से छूटे तीर की तरह कोठी के अन्दर दाखिल हुए, फिर उतनी ही तेजी से बाहर आये और बी़ दास के हाथ में एक चिट्ठी थमा दी – ‘‘दरियागंज जा कर ‘फिल्मी संसार’ के मालिक राजेन्द्र सोलंकी से मिल लो … एडिटर की जगह खाली है।’’
बी. दास कुछ बोलते, कुछ पूछते उससे पहले ही सिर के बल खड़े हो कर पण्डितजी ने फिर समाधि लगा ली।
बी़ दास चुपचाप बाहर निकल आये।
सुबह के दस बजे जब वह दरियागंज की तंग गलियों से गुजरते हुए एक खस्ताहाल इमारत में दाखिल हुए और सुअर के दड़बे जैसे ‘फिल्मी संसार’ के ऑफिस पहँुचे तो उन्होंने वहाँ मेज की दूसरी तरफ, एक गद्देदार कुर्सी पर एक ‘गुब्बारे’ को फँसा पाया। उनकी आहट पा कर वह गुब्बारा हिला और एक ठिगने, तोंदियल, काले-भुजंग आदमी में बदल गया।
‘‘क्या है ?’’
‘‘जी … राजेन्द्र सोलंकी से मिलना है ?’’
‘‘क्यों ?’’ 
सवाल के बदले सवाल और गुब्बारे की कड़क आवाज से बी़ दास काँप गये, फिर सँभल कर बोले, ‘‘पण्डितजी ने भेजा है।’’
बी़ दास ने तुरन्त कमीज की जेब से निकाल कर चिट्ठी आगे बढ़ा दी।
गुब्बारे ने चिट्ठी पढ़ी और बी़ दास को ऊपर से नीचे तक तौलने लगा … गन्दी कमीज, पजामा और पाँव में कैंची चप्पल !
गुब्बारे ने नाक-भौं सिकोड़ कर बड़ी हिकारत से बी़ दास को देखा –
‘‘क्या काम करोगे तुम ?’’
‘‘मुङो पण्डितजी ने बताया, आपके यहाँ एडिटर की जगह खाली है …’’
बी़ दास मुस्कुराते हैं – ‘‘मेरा हुलिया देख कर उसने सोचा होगा पण्डितजी ने मुङो चपरासी की नौकरी के लिए भेजा होगा।’’
खैर। गुब्बारे ने पूछा, ‘‘अँग्रेजी आती है ?’’ 
‘‘हाँ ?’’ बी. दास बोले।
‘‘उर्दू ?’’
‘‘हाँ।’’
‘‘और हिन्दी ?’’
‘‘आती है !’’ बी. दास मुस्कुराये।
गुब्बारे ने दराज से निकाल कर एक उर्दू और एक अँग्रेजी आलेख बी़ दास को थमाया – ‘‘कल इन्हें अनुवाद कर के लाना।’’
बी. दास बताते हैं, ‘‘उस दिन उसने मुङो कुर्सी पर बैठने के लिए भी नहीं कहा, पानी तक के लिए नहीं पूछा।’’
बी. दास रात भर जगे और काम निबटा कर अगली सुबह दस बजे हाजिर !
गुब्बारा उर्फ राजेन्द्र सोलंकी उर्फ सम्पादक-प्रकाशक ‘फिल्मी संसार’ सन्तुष्ट हुआ और अब जा कर कहीं उसने मेज की दूसरी तरफ पड़ी कुर्सियों की ओर इशारा किया – ‘‘बैठो।’’
थोड़ी देर इधर-उधर की बातें करने के बाद वह काम की बात पर आया, ‘‘हमारे यहां जो एडिटर पार्ट टाइम काम करता था, वह पचहत्तर रुपये लेता था …।’’
‘‘पचहत्तर रुपये !’’ बी. दास चौंके।
‘‘हाँ, इससे ज्यादा देने की हमारी औकात नहीं।’’
बी. दास थोड़ी देर चुप रहे, लेकिन इस चुप्पी का कोई लाभ होता न देख, बेमन से ही सही, वह तैयार हो गये।
बी. दास मुस्कुराते हैं – ‘‘मरते क्या नही करते ! … रोटी तो खानी ही थी, जो बगैर नौकरी मिलनी नहीं थी।’’
बी. दास को फिल्में देखने का खूब शौक था। वह खुश हुए कि अब वह फिल्में देख सकेंगे, वह भी बिना पैसे खर्च किये। राजेन्द्र सोलंकी मगर घुन्ना था। ‘फिल्मी संसार’ के सम्पादक के नाम नयी फिल्मों के जो पास आते, अक्सर उस पर वह खुद फिल्म देखने चला जाता। बी. दास को वह ‘नेक सलाह’ देता –
‘‘फिल्म देख कर क्या करोगे ? मैं फिल्म देख कर उसकी कहानी तुम्हें बता दूँगा, तुम रिव्यू लिख देना … मैं हीरो-हीरोइन की एक्टिंग के बारे में बता दूँगा … तुम आर्टिकल लिख देना।’’
बी. दास भीतर-भीतर कुढ़ते रहे लेकिन क्या कर सकते थे ? 
जैसे-तैसे तीन महीने गुजरे। बहुत मुश्किल दिन कट रहे थे। पचीस रुपये मकान का किराया चला जाता था और बारह रुपए बस का किराया। बाकी बचे अड़तीस रुपये पर महीने भर की रोटी भारी पड़ रही थी।
एक दिन सुबह उठ कर उन्होंने तय किया … बहुत किया सम्मान ! आज गुब्बारे उर्फ राजेन्द्र सोलंकी की ‘माँ-बहन’ करनी है।
दफ्तर पहुंच कर उन्होंने त्यागपत्र लिखा और मन-ही-मन राजेन्द्र सोलंकी को गालियाँ देते रहे।
मित्रो ! दरअसल यह कहानी यहीं से शुरू होती है।
बी़ दास बेसब्री से राजेन्द्र सोलंकी की प्रतीक्षा कर रहे थे … कि वह आये … कि वह उसकी नौकरी उसके मुँह पर दे मारें !
उस दिन लेकिन राजेन्द्र सोलंकी के दफ्तर आने से पहले डाकिया आ गया।
कल की डाक मेज पर रखते हुए एक गुलाबी लिफाफा उसने बी. दास को पकड़ाया। पता लिखा था – बी. दास, फिल्मी संसार, दीवानी मंजिल, दरियागंज, नयी दिल्ली – 110002
कुतूहलवश बी. दास ने लिफाफा उलट कर देखा। भेजनेवाले का नाम-पता नहीं था। लिफाफे की पीठ पर बस हरे रंग की एक इबारत ठहरी हुई थी – ‘एम’।
बी. दास की छठी इन्द्री ने बताया – यह जनाना लिखवट है।
बी. दास ने धड़कते दिल से बहुत सावधानी से वह लिफाफा कैंची से खोला … और …
बी. दास के होश उड़ गये !
वह मशहूर अभिनेत्री मालती सिन्हा का खत था !
मालती सिन्हा अनिन्द्य सुन्दरी थीं। उनका सौन्दर्य उस जमाने में किंवदन्ती बन चुका था।
हालाँकि तब तक बी. दास ने मालती सिन्हा की कोई फिल्म नहीं देखी थी। बस ‘फिल्मी संसार’ में छपने आनेवाले उनके फोटोग्राफ ही देखे थे।
मालती सिन्हा का एक पोस्टकार्ड साइज का ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटोग्राफ बी. दास ने अपने सिरहाने रख छोड़ा था।
इस क्लोज-अप फोटोग्राफ में मालती सिन्हा का केवल चेहरा दिखता था और चेहरे में भी बस उनकी जादुई रहस्यमयी आँखें !
उन आँखों में इस संशय, इक दुर्निवार सम्मोहन था, जो बी. दास को जंगल की मूर्ख अल्हड़ हिरणी की याद दिलाता था, जो अपने अल्हड़पने की वजह से धोखा खा कर शिकार हो जाने को अभिशप्त होती है।
बी. दास बताते हैं – ‘‘वह फोटोग्राफ देख कर मुङो लगा कि यह स्त्री प्यार में पड़ने और बेरहमी से छले जाने को आतुर है।’’
खैर, इस खत में मशहूर अभिनेत्री मालती सिन्हा ने बी़ दास का खुले दिल से आभार माना था, ‘फिल्मी दुनिया’ के पिछले अंक में प्रकाशित उस आलेख के लिए, जो बी. दास ने उनकी तारीफ में लिखा था।
मालती सिन्हा ने लिखा था … जो लोग मेरे करीब हैं, मुझसे मिलते-जुलते हैं, मेरे क्लोज सर्किल में हैं … वे भी मुङो इतना नहीं जानते, जितना हजार-बारह सौ मील दूर रह कर, बिना मुङो देखे, बिना मुझसे मिले आप जान गये ! … आप ठीक सोचते हैं … चाहें एक्टर हों या डायरेक्टर-प्रोड्यूसर, सबने मुङो ‘स्टेपिंग स्टोन’ समझा – ‘एक पत्थर, जिस पर लात रख कर लोग आगे बढ़ जाते हैं।’’
मशहूर अभिनेत्री मालती सिन्हा ने यह भी लिखा था –
‘‘मैं आपसे मिलना चाहती हूँ … आप कभी बंबई आएँ तो मुझसे मिलें, मेरे घर ही ठहरें !’’ 
बी. दास का पूरा जिस्म ‘थर-थर काँप रहा था।
वे रो रहे थे।
थोड़ी देर बाद वह गुलाबी लिफाफा बन्द कर उन्होंने कमीज की जेब में डाला, फिर दराज से निकाल कर त्यागपत्र के टुकड़े किये और डस्टबिन में डाल दिये।
चालीस साल गुजर गये।
बी. दास अब तिरेसठ साल के हो गये हैं।
यह किस्सा मुङो सुनाते हुए वह अपने खास अन्दाज में आँखें मिचमिचाते हुए मुस्कुराते हैं – ‘‘मेरे शोषण, मेरी पीड़ा, मेरे तमाम दु:ख-तकलीफों की जिम्मेवार मालती सिन्हा है … उस दिन अगर यह चिट्ठी नहीं आयी होती तो मैं कुछ और होता !’’
उस दिन पहली बार बी. दास ने मुङो अपने सपने के बारे में बताया था। यह सपना पिछले कई सालों से उन्हें हर रोज आता रहा है।
बी. दास बताते हैं – ‘‘इस सपने की वजह से पिछले कई सालों से मैं सो नहीं सका हूँ … मैं इस सपने से मुक्त होना चाहता हूँ …।’’
सपना कुछ यों है –
वे बुत बन गये हैं … पत्थर में तब्दील हो गये हैं … और कई लोग उनके कन्धे पर चढ़ कर आगे बढ़ते चले जा रहे हैं।
बी. दास के पास किस्से-ही-किस्से हैं। रुपहले पर्दे के सबसे ज्यादा ग्लैमरस अभिनेता-अभिनेत्रियों की पिछली तीन पीढ़ियों को उन्होंने बनते-बिगड़ते देखा है। कइयों से उनके आत्मीय सम्बन्ध रहे हैं।
एक दिन बी. दास ने मुङो गहरी नीली आँखोंवाली उस अभिनेत्री के बारे में बताया, जिसको ‘कामुकता की देवी’ कहा जाता है। इस ग्लैमरस अभिनेत्री को बी़ दास ने जब एक बार अन्तर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के दौरान फेलिनी, हिचकॉक और तारकोवस्की की सिने-तकनीक के बारे में विस्तार से बताया तो वह चमत्कृत हो उठी। … एक उस अभिनेत्री का जिक्र भी बी. दास बार-बार करते हैं, जिसके बारे में उन्होंने अपने स्तम्भ में लिखा था – ‘दिल्ली छह वाली लड़की’।
दिल्ली नम्बर छह वाली यह लड़की, जो कभी बी. दास पर फिदा थी, पहले उसे फिल्मों में छोटे-मोटे रोल मिलते रहे, फिर एक टेलीविजन सीरियल से वह लाखों दिलों की धड़कन बन गयी। उसका एक विदेशी स्टार क्रिकेटर से प्रेम-प्रसंग रहा और फिर दिल्ली छह की लड़की ने बॉलीवुड की पहली कुँवारी माँ बनने के अदम्य साहस का परिचय दिया।
ऐसे अनगिनत किस्से बी. दास की जिन्द्गी बन चुके हैं, और बकौल बी़ दास – ‘‘उनकी जिन्द्गी एक भयावह हादसे में तब्दील हो चुकी है।’’
और एक दिन बी. दास ने एक बहुत डरावना सपना देखा –
नब्बे करोड़ लोग पत्थर में तब्दील हो गये हैं … दस करोड़ लोग नब्बे करोड़ लोगों के कन्धे पर चढ़ कर ऐसे स्वर्ग में पहुँच गये हैं, जहाँ भूख, पीड़ा, पराजय, हताशा, बीमारी और बदबू नहीं … वहाँ जश्न-ही-जश्न है … तेज रोशनी का चारों तरफ फैलता अँधेरा है … वहाँ जीवन हर क्षण उत्सव है !
आजकल बी. दास बेहद परेशान हैं !
वह अकसर शिकायत करते नजर आते हैं कि उनके कन्धे में जानलेवा दर्द रहता है !
अभिषेक कश्यप गुजरी सदी के आखिरी बरसों में उभरे चर्चित हिंदी कथाकार,पत्रकार, कला-लेखक और संस्कृतिकर्मी हैं। बतौर संस्कृतिकर्मी आप हिंदी पट्टी में कई साहित्यिक-सांस्कृतिक आयोजनों के सूत्रधार रहे हैं। पिछले करीब तीस बरसों से श्री कश्यप ने साहित्य, कला-संस्कृति, सिनेमा, समाज व राजनीति संबंधी विषयों पर निरंतर अपनी कलम चलायी है। वर्तमान में श्री कश्यप साक्षात्कारों पर केंद्रित हिंदी की पहली मासिक पत्रिका ‘प्रोफाइल’, त्रैमासिक साहित्यिक पत्रिका ‘हमारा भारत संचयन’ के संपादक तथा पूर्वी भारत के पहले कला मेला ‘धनबाद आर्ट फेयर के संस्थापक निदेशक हैं। संपर्क : dhanbadartfair@gmail.com

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