डॉ. गुरविंदर बंगा की ग़ज़लें
हाकिम ने दस्तख़त किए, सौदा भी पट गया
कुछ ऐसे लोग भी हैं सियासत में इन दिनों
जब मैं ने सच कहा, मेरे अपने उदास थे
रिश्तों की भीड़ भाड़ में अपनों की थी तलाश
मैंने परख लिया है, बताता हूं क्या है मौत
‘बांगा’ तबादले की ख़बर सुन के ख़ुश हैं सब
मुझ को मेरा यक़ीन दे देगी
सोचता हूं ख़ुदा से क्या मांगूं
ऐसा लगता है अब सियासत ही
मांगिए मत कभी रिआया से
धरती बन्जर सही मगर ‘बांगा’
पूंजीपतियों और ऊंचे कारख़ानों के लिए
जो हुकूमत बाढ़ सूखे बर्फ़ पर पर ख़ामोश थी
ऐश में डूबी सियासत गांव से दिल्ली तलक
इस लिए मेहनतकशों की भीड़ है फ़ुटपाथ पर
पंख के सपने यहां ‘बांगा’ किसी ने बोए फिर
भूख, रोटी, हक़ सी बहकी बातें क्यों करने लगा
जब लगा, इंसान सारे एक हो जाएंगे, तब
गिद्ध, नेता, वर्दियां मंडरा रहे हैं रात दिन
फिर किसी अबला के ऊपर धर्म की होगी दया
लोग मुद्दत से अंधेरे की गुफा में क़ैद थे
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