अब तो कश्मीर से 370 भी हटा ली गई है, खुश हो जा यार। आखिर वहाँ सिर्फ हिंदूओं को ही तो नहीं फायदा होगा। तू भी वहाँ जाकर जमीन खरीद सकता है। वहाँ जाकर ढाबा शुरू कर लेना… – विनय ने मुस्कुराते हुए जीशान से कहा था।
जीशान ने इस बात पर उत्साह नहीं दिखाया था। – मुझे क्या करना है यार कश्मीर से… मुझे सीरिया से भी कुछ नहीं करना है और न ही फिलिस्तीन से। अपने-अपने घर बचा लें यही बहुत हो जाएगा मेरे लिए। – जीशान अब भी उतना ही निराश था।
कमाल है बे! तू तो बिल्कुल बनियों की तरह बात कर रहा है। बामियान में बुद्ध की मूर्तियां तोड़ी तो हमें क्या करना, असम में हिंदीभाषियों का कत्ल किया, हमें क्या करना है, ब्रिटेन में सिख को मारा हमें क्या करना है?’ – सुप्रीत ने जीशान के कंधे पर हाथ मारते हुए कहा।
मैं बनियों की तरह नहीं, एक संघर्ष करते इंसान की तरह कह रहा हूँ। आसपास देखकर जान रहा हूँ कि हरेक को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी होती है। दूसरों की लड़ाई लड़ना, दूसरों के फटे में टांग अड़ाना है। मुसलमान यही कर रहा है। एक्सपीरियंस कहता है कि तरक्की कलेक्टिव नहीं हो सकती है, इंडीविजुअल ही होती है। – जीशान अब भी गंभीर बना हुआ था।
तो तू यह कहना चाहता है कि समुदायों के लिए लड़ना बेमानी है!’  ऋषभ जो कि अभी तक चुप बैठा हुआ था एकाएक संवाद में आ गया। 
मैं कुछ नहीं कहना चाहता यार… मैं सिर्फ यह कहना चाहता हूँ कि हरेक को अपनी लड़ाई खुद ही लड़नी पड़ती है। बहन की शादी के लिए पैसा चाहिए, न तो फिलिस्तीनी मुझे पैसा दिलवा सकते हैं और  न हीं सीरियन… और न ही कश्मीरी, खुद ही कमाना पड़ेगा। मेरे स्कूल टीचर कहते थे कि दुनिया में हरेक लड़ाके ने अपनी लड़ाई खुद ही लड़ी औऱ जीती है, कोई उसके साथ नहीं आया है। – जीशान ने फिर से अपनी बात कही।
यार तू तो बड़ा सेल्फ सेंटर्ड निकला। पूरी दुनिया में मुस्लिम भाई दुनिया में कहीं भी मुस्लिम भाईयों पर हो रहे अनजस्ट के लिए संघर्ष कर रहे हैं और तू ने तो एकदम ही पल्ला झाड़ लिया। – विनय अब भी मसखरी से बाहर नहीं आ रहा था। 
हाँ, बहुत सोच समझकर कह रहा हूँ। इससे मुसलमानों को क्या मिलागुरबत, जहालत और रूसवाई… कहीं कोई हिंसा हो इत्मीनान रहता है कि इसके पीछे यकीनी तौर पर कोई-न-कोई मुसलमान ही होगा। – जीशान ने निराशा से अपने कंधे झटके और अपना गिलास उठाकर अपनी कुर्सी से उठकर मुंडेर की तरफ बढ़ते हुए बोला – हरेक को अपनी सलीब खुद ही ढोनी पड़ती है दोस्त…।
तभी विनय ने मजाक किया – यार वहाँ मुंडेर की तरफ मत जा, तुझे चढ़ रही है, गिर-गुरा गया तो बेचारा गौरव फँस जाएगा। अभी उस दिन ही तुम दोनों पब्लिकली लड़ते-लड़ते बचे हो।
हाँ उस दिन… वह मिड-अक्टूबर था, दशहरे की छुटिटयों में सब अपने-अपने घर जाने वाले थे। शहर में नवरात्रि की बड़ी धूम थी। जीशान को गरबा पंडालों में बहुत अच्छा लगता था। गुजराती में गाए जाने वाले गरबे, धूप की सुंगध और रंग-बिरंगे कपड़े पहने पूरे उल्लास और खुशी से झूमते लोग, ढोल की थाप… कई बार लगता था जीशान को कि आखिर म्यूजिक औऱ डांस जैसी कलाओं को इस्लाम में हराम क्यों माना गया होगा? म्यूजिक तो हमें इंसान होने से भी ऊपर ले जाता है। वह कई बार राशिद खाँ साहेब या जसराजजी को सुनते हुए इसे महसूस करता है।
उस शाम सारे दोस्तों ने गरबा देखने जाने की योजना बनाई थी। गौरव ने बहुत दबे स्वर में कहा था कि जीशान के साथ होने में खतरा है, हालाँकि जीशान तक यह बात गई नहीं थी, फिर किसी ने भी उसकी बात पर बहुत ध्यान नहीं दिया था। पता कैसे चलेगा कि हमारे साथ कोई मुसलमान है! कोई शक्ल पर थोड़ी लिखा हुआ है।  
उसी साल नवरात्रि के कुछ दिन पहले से शहर के अखबारों में विधायक का यह बयान छपा था कि गरबा पंडालों में मुसलमान लड़के आते हैं और हिंदू लड़कियों को बरगलाते हैं। इसलिए अब गरबा पंडालों में मुसलमानों को नहीं आने दिया जाएगा। उन्हीं दिनों देश के अलग-अलग हिस्सों से लव-जिहाद की खबरें मीडिया में बहुत जगह पा रही थी। फिर भी लड़कों ने इसे बहुत गंभीरता से नहीं लिया था।
शहर के प्रसिद्ध गरबा पंडाल में सारे लड़के पहुँचे थे। बैठने के लिए अच्छी जगह मिल जाए इसलिए सब जल्दी पहुँच गए थे। निकलने वाले रास्ते के पास ही जाकर बैठ गए थे, ताकि निकलते हुए ज्यादा इंतजार न करना पड़े। जीशान जैसे उस पूरे माहौल में रम गया था। कोई कुछ कहे उसे यह सब देखते हुए बहुत अच्छा लगता था। उसे महसूस होता था, जैसे वह यहाँ आकर हर चीज से मुक्त हो जाता है। अम्मी की बीमारी, अब्बू का संघर्ष, जाहिदा का निकाह, अपना एजुकेशन लोन और जल्दी ही नौकरी पा लेने की जद्दोजहद… हर चीज से मुक्त हो जाता है। उसे लग रहा था, जैसे उसे यहाँ खुद से ही निजात मिल गई हो। वह जैसे यहाँ बैठे-बैठे ट्रांस में पहुँच ही रहा था कि विनय ने उसका हाथ खींचकर कहा, चलो चलते हैं। जीशान ने जैसे होश में आते हुए पूछा – कहाँ?’
ऋषभ ने बेचैन होकर कहा – चलो पहले, बाद में बात करते हैं।
जल्दी-जल्दी सारे पार्किंग में पहुँचे थे। समर ने कार स्टार्ट की हुई थी। कार सीधे होस्टल में जाकर रूकी। जीशान समझ ही नहीं पाया कि आखिर हुआ क्या है?
सबके चेहरे पर अजीब-सी परेशानी थी। होस्टल के लॉन में उतरकर ही सबने जैसे चैन की साँस ली हो। 
एकाएक गौरव ने झल्लाकर कहा था – मैंने पहले ही कहा था, लेकिन कोई मेरी सुनता ही नहीं है।
हुआ क्या है?’ – जीशान ने पूछा था
वहाँ शायद लोगों को पता चल गया था कि हममें कोई मुसलमान भी है। – समर ने कहा
तो?’ – जीशान अब भी नहीं समझ पा रहा था
तो क्या, लोग हमारी तरफ आ रहे थे। – गौरव ने चिढ़कर कहा
लेकिन मुसलमान है तो क्या हुआ?’ – जीशान ने फिर पूछा
यार तू किस दुनिया में रहता है, कई दिनों से तो चल रहा है कि गरबा में मुसलमानों को नहीं आने दिया जाएगा। – समर ने शांति से उसे समझाने की कोशिश की। 
क्यों यार?’- जीशान ने थोड़ा खीझकर पूछा।
इसलिए कि मुसलमान लड़के भोली-भाली हिंदू लड़कियों को फँसाकर उनसे शादी कर लेते हैं और फिर उनका धर्म परिवर्तन करा देते हैं। – गौरव ने उग्र होकर कहा।
यार ऐसा कहाँ हो रहा है?’-जीशान ने थोड़ा परेशान होकर पूछा।
इतनी खबरें आ रही हैं देश के हर कोने से, अभी झारखंड में एक खिलाड़ी लड़की की जिंदगी बर्बाद कर दी तेरे ही किसी भाई ने। – गौरव अब भी वैसा ही बना हुआ था।
पता नहीं यार इन खबरों में कितना सच है!’ – जीशान ने कंधे झटकते हुए कहा।
सच कैसे नहीं है, पूरी दुनिया जानती है तुम्हारा सच। – गौरव सीधे लड़ने के मूड में आ गया था
जीशान को भी तैश आ गया – क्या है हमारा सच?’
यही कि पूरी दुनिया मुसलमानों से त्रस्त है, हर जगह तुम लोगों ने आतंक मचाया हुआ है। – गौरव ने इन दिनों जितना जाना था, वह सब उगल दिया।
मुसलमानों के साथ हर जगह नाइंसाफी हुई है, यदि नाइंसाफी होगी तो वह कितना सहेगा, एक दिन वह बदला लेने पर उतारू होगा ही। – जीशान ने गुस्सा होते हुए कहा।
सही है, पूरी दुनिया बस आपसे ही नाइंसाफी करने का षडयंत्र रच रही है। आप तो बहुत-बहुत मासूम हैं। दुनिया में और भी बहुत सारी कौमों के साथ अलग-अलग वक्त में अलग-अलग जगहों पर नाइंसाफी हुई है तो क्या सारे आतंकवादी हो गए?’- गौरव ने तैश में आकर पूछा।
जीशान अपना जब्त खो चुका था। – जो बहादुर कौमें थीं वे लड़ीं, जैसे तमिल लड़े, सिख लड़े, आदिवासी लड़ रहे हैं, जो कायर हैं वे सह रहे हैं।
गौरव इसको सह नहीं पाया। उसने आकर जीशान को जोर से धक्का दिया – तू हमें कायर कह रहा है, सालों तुम सपोलो को हम यहाँ पाल रहे हैं… हमें ही कायर कह रहे हो।
बात हाथापाई तक पहुँच गई थी। विनय ने आकर दोनों को अलग-अलग किया। पागल हो गए क्या तुम दोनों… ये हिंदू-मुसलमान की बीमारी यहाँ भी लेकर आ गए।
उस रात जीशान बहुत तनाव में था, देर रात तक सो नहीं पाया। क्या सचमुच इस्लाम इस दुनिया के अमन और सुकून के लिए थ्रेट है। वह जितना सोचता उसे उतना ही लगता कि हाँ गौरव सही कह रहा है। कश्मीर में हिंदू भी तो थे, लद्दाख में बौद्ध भी तो हैं, उनमें से तो किसी ने हथियार नहीं उठाए, मुसलमानों ने ही क्यों उठा लिए। ठीक है पाकिस्तान की साजिश है, लेकिन क्या मुसलमान मूर्ख हैं, क्या उन्हें पाकिस्तान की हकीकत पता नहीं है। फिर सोचता है, सब कुछ इतना सरल भी नहीं है। नाइंसाफी तो हो ही रही है, नाइंसाफी के खिलाफ नक्सली अब तक लड़ रहे हैं। लेकिन फिर मुसलमानों ने अपनी तरक्की के लिए क्या किया? पढ़ाई-लिखाई कुछ की नहीं, बस नमाज, रोजा, मजहब… कौम…, कोई कब तक आपको हाथ पकड़कर चलना सिखाएगा? बहुत सोचकर भी वह मुसलमानों को मासूम नहीं समझ पा रहा था। 
उसके घर में यूँ भी कट्टर माहौल नहीं था। अम्मीं की पढ़ाई-लिखाई और नौकरी की वजह से कई हिंदुओं का घर में आना जाना रहता था। अब्बू की भी सरकारी नौकरी थी, तो उनके सर्कल में भी हिंदू थे। उसने जाना था कि हिंदू बच्चों को घुट्टी में मजहब नहीं पिलाया जाता है। मुसलमानों को सिवा मजहब के और कुछ पिलाया ही नहीं जाता था। 
अगली सुबह वह सबसे पहले गौरव के कमरे में गया था। उसने रात के बर्ताव के लिए उससे माफी माँगी थी। गौरव भी अपने बर्ताव के लिए शर्मिंदा था। ऋषभ ने कहा – रात गई बात गई। सबने साथ में सुबह की चाय पी और अपने-अपने घर लौटने के लिए तैयारी करने लगे। 
यूँ गौरव भी बहुत कट्टर माहौल से नहीं आया था। शायद उन दिनों सब कुछ वैसा था भी नहीं। अभी कुछ दिन ननिहाल रहकर आया था। बड़े दिनों बाद इतने दिनों के लिए ननिहाल गया था।  माँ और पापा के बीच के तनाव में नानी ने उसे ननिहाल बुला लिया था। मीडिल उसने ननिहाल से ही किया। बाद में घऱ में धीरे-धीरे सब ठीक होने लगा था। पापा ने शराब छोड़ दी थी, माँ अब खुश रहने लगी थी तो दोनों को ही उसकी याद आने लगी थी। तो ग्यारहवीं में पापा उसे खुद ननिहाल से लेकर गए थे। तब से वह ननिहाल आया ही नहीं। इतने सालों में सब कुछ कितना बदल गया था। उसके शिशु मंदिर के ज्यादातर दोस्तों ने पढ़ाई छोड़ दी थी। कुछ किसी मंदिर समीति के पदाधिकारी या सदस्य हो गए हैं, कोई गरबा मंडल और भंडारा समीति में चले गए और साथ-साथ अपने पुश्तैनी व्यापार में भी पिता-भाई का हाथ बँटा रहे हैं, लेकिन उसकी तरह अब तक पढ़ कोई नहीं रहा है। महीने भर उन लोगों के बीच रहकर बहुत सारी चीजें उसने बहुत नई जानी थी। इस संपर्क और संवाद ने उसे थोड़ा बदल दिया। अब तक जिन चीजों को लेकर उसका कोई खास नजरिया नहीं था, अब उन चीजों पर वह विचार करने लगा था और इसी का नतीजा थी उस दिन की जीशान से बहस..। 
वह उस बहस को लेकर शर्मिंदा भी है और अपने स्कूल के दोस्तों के उठाए प्रश्नों से निरूत्तर भी। वह सोचता है कि मुसलमानों ने सत्ता में रहते हिंदुओं पर अत्याचार तो किए हैं। दूसरे पूरी दुनिया में मुसलमान आतंक का सिनोनेम हो गए हैं फिर यदि इन पर आरोप लगते हैं तो गलत क्या है? फिर उसके चाचा की बात उसे याद आती है कि आजादी की लड़ाई में तो बहुत मुसलमान शहीद हुआ थे औऱ यह भी कि दुर्भाग्य से ज्यादातर मुसलमान देश कच्चे तेल के भंडार पर बैठे हैं। चाचा तो और भी कई सारी उलझी औऱ जटिल चीजें बताया करते हैं, जैसे हथियार, तेल… डॉलर आदि-आदि। कुल मिलाकर चाचा जो कहते हैं वह उसके दोस्तों से कहने से अलग है। वह ज्यादा समझ नहीं पाता है, सिवा इसके कि उसके चाचा बहुत किताबें पढ़ते हैं और उसके गाँव के दोस्तों के तुलना में वे बहुत ज्यादा जानते हैं। 
फिर यह भी कि इतिहास में जो रहा होगा, दुनिया में जो भी होगा, कॉलेज में भी उसका सबसे अच्छा दोस्त तो आऱजू इकबाल था। कैसे उसने उन गुंडे लड़कों से उसे बचाया था, तब तो उसकी दोस्ती भी नहीं हुई थी उससे। कुछ भी कहो, मुसलमान होते तो बहुत ब्रेव है। जीशान ने भी तो उसका कुछ नुकसान नहीं किया। उल्टे तो पढ़ाई में मदद ही करता है। जीशान की हैंडराइटिंग कितनी अच्छी है। वह सारी विंग के लड़कों के ग्राफ बनाता है। उसने अपना सिर झटका था, इतिहास में जो हुआ है उसके साए में हमें आज क्यों रहना चाहिए 
बस यही बात उसे शर्मिंदा करती है। 
वह अभी सोच ही रहा था कि जीशान उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसने गौरव से फिर पूछा – अब भी मुझसे नाराज है गौरव!’
सुनकर खुद गौरव भी भावुक हो गया। वह उठकर जीशान के गले लग गया। सुरूर सभी को थोड़ा-थोड़ा चढ़ रहा था, सब थोड़े-थोड़े भावुक हो गए।
जीशान के सामने पैसों की समस्या थी। अब्बू को वीआरएस में थोड़ा-बहुत पैसा मिला था जो अम्मीं के इलाज में लग रहा है। जाहिदा के निकाह के लिए पैसा कहाँ से आएगा? घर तो जैसे-तैसे अब्बू की पैंशन से चल रहा था। बीमार होने की वजह से अम्मीं को भी अपनी नौकरी छोड़नी पड़ी थी। उस पर उसकी पढ़ाई के लिए लिया गया लोन। हालाँकि वह जब भी घर जाता है, अब्बू उससे कहते हैं – पैसे की चिंता नहीं करना। दिल लगाकर पढ़ाई कर, अच्छा नतीजा आएगा तो सब ठीक हो जाएगा। खुदा खैरख्वाह है।’ 
फिर भी जीशान के दिमाग में जैसे एक ही भूत है, कैसे जल्दी-से-जल्दी नौकरी मिले और अब्बू के सिर से वह बोझ उतार पाए। आखिर अब्बू की उसे कुछ तो मदद करनी ही चाहिए न
सोत-जागते, उठते-बैठते उसके दिमाग में बस वह लोन ही घूमता रहता है। कभी-कभी वह इस सबसे निराश भी हो जाता है। 
एक तरफ वह अपनी परिस्थितियों से निकलने में जी जान से लगा हुआ था। उसने जाना कि यदि आपको दिक्कत है तो हल भी आपको ही करना होगा। आपकी परेशानियों का हल करने के लिए न तो खुदा आता है, न मजहब और न ही कौम…। इसलिए परीक्षा से तीन महीने पहले से उसने इस तरह की गप्प-गोष्ठियों से खुद को अलग कर लिया था।
विनय उसका सबसे गहरा दोस्त है। ये सिर्फ विनय ही जानता है कि उसे मेघना भाती है। यह भी कि यह भाना बस भाना ही है, क्योंकि अभी उसके सिर तमाम जिम्मेदारियाँ हैं, फिर मेघना हिंदू और जीशान मुसलमान है। जीशान याद करता है कि उसके पढ़ने के सारे सालों में उसके साथ कितनी मुसलमान लड़कियाँ पढ़ी हैं? कुल 4… प्रायमरी में रूबीना, मीडिल स्कूल में रजिया और फिरोजा। हाई स्कूल में शमशाद… बस यही गिनीचुनी लड़कियाँ। उसमें भी समझ के स्तर पर सबकी सब कूड़मगज। किया ही क्या जाए, परिवेश ही नहीं मिलता है लड़कियों को पढ़ने का। 
जाहिदा को भी अम्मीं ने अपनी जिद से पढ़ाया है। नहीं तो चाचा-ताऊ के परिवारों की सारी लड़कियाँ स्कूल के बाद घर बैठ गईं और जल्द ही अपने किसी रिश्ते के भाई से निकाह कर गई। फिर भी जाहिदा पढ़ रही है। वो तो अम्मीं की सोहबत थी कि जाहिदा अपने रिश्तों की बाकी सारी लड़कियों की तुलना में जहीन है। कुछ हिंदू लड़कियों के साथ पढ़ने का भी नतीजा है। नहीं तो वह भी यही सब सीखती…। अम्मी के पढ़ने का शौक जाहिदा को भी लगा। लड़कियों के सामने दुनिया तो बस किताबों से ही खुलती है न!  जितना भी इल्म वे हासिल कर पाती हैं, वे घर से ही कर पाती हैं। बस एक ही झरोखा खुलता है दुनिया की तरफ वह है किताबें… अब टीवी भी है, फिल्में भी और इंटरनेट भी…। फिर भी जिस दुनिया में उन्हें रहना है, उसकी समझ क्या इन सारी चीजों से आ जाती है? जीशान अपनी बहन के बारे में ही सोचते-सोचते लड़कियों के बारे में सोचने लगा। जाहिदा की जहनियत को देखते हुए ही तो शाहिद मियाँ के अब्बू खुद ही रिश्ता लाए थे जाहिदा के लिए। आगे पढ़ने देने की शर्त पर निकाह तय हुआ है। जाहिदा की परीक्षा के बाद निकाह की बात तय हो चुकी है। 
जीशान ने अपना पढ़ाई पर ध्यान लगाया। पता नहीं अगले साल सारे कहाँ होंगे। फिर से जीशान का मन भटकने लगा था। उसने अपनी किताब बंद कर दी। खिड़की से बाहर की ओर देखने लगा। अमरूद के पेड़ पर गोरैया नजर आ रही थी। उसकी यूनिवर्सिटी शहर से कुछ बाहर है। गाँवों में ही सस्ती जमीन मिल सकती है, जिस पर इतना बड़ा इंफ्रास्ट्रक्टर खड़ा किया जा सके। यहाँ आसपास खेत है, पेड़-पौधे और हरियाली होने की वजह से शहरों से गायब गोरैया यहाँ अक्सर दिख जाती है। 
जीशान का मन पढ़ाई से उचट गया। घड़ी देखी थी, क्लास का समय भी हो गया था। उसने लोअर निकालकर जींस पहनीं। रूम पर ताला लगाकर खिड़की की मुंडेर पर चाभी रखी और निकल गया। क्लास के दरवाजे पर वह मेघना से टकराते-टकराते बचा। जीशान का दिल जोर-जोर से धड़का था। मेघना ने खिलखिलाकर उसे सॉरी कहा और तीर की तेजी से निकल गई थी, लेकिन उसके परफ्यूम की खुशबू उसने नथुनों में भर गई थी। उसके कुर्ते के फ्लेयर उसके पैर से टकराए थे सरसराहट-सी उसे वहाँ भी महसूस हुई थी। उसने आज कुछ ज्यादा ही चटख रंग का कुर्ता पहन रखा था। वह देर तक उस सनसनी में ही बैठा रहा। 
वैशाली मैम क्लास में आ चुकी थी। क्लास शुरू हो गई थी, जीशान ने देखा कि मेघना अब तक क्लास में नहीं आई है। क्लास छूटते ही मेघना ने सबको कैंटीन में इन्वाइट किया। वहाँ पहुँचे तो उसके साथ एक हैंडसम-सा लड़का था। मेघना ने परिचय करवाते हुए कहा – ‘हलो गायज, मीट आदित्य, माय फियांसे।’ जीशान ने उसे गौर से देखा था, कुछ भी नहीं था, लेकिन जैसे बहुत कुछ एक क्षण में खत्म हो गया था। मेघना और आदित्य को सबने घेर लिया था। जीशान सबकी नजर चुराकर होस्टल लौट आया था। 
जीशान बहुत-बहुत उदास है। उसे लगा कि वह घर चला जाए अभी के अभी। आखिर मेघना की मंगनी की बात विनय को भी पता चलेगी ही। वह उससे सहानुभूति जाहिर करेगा और वह इसे कतई बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। 
उसने खुद से पूछा कि आखिर उसे क्यों उदास होना चाहिए? क्लासमेट होने के नाते बहुत थोड़ी-सी बातचीत थी, यूँ भी जीशान बहुत इंट्रोवर्ट है तो किसी लड़की से गहरी दोस्ती होने का सवाल ही पैदा नहीं होता है, फिर क्या है? वह खुद को लेकर वैसे भी बहुत ज्यादा स्पष्ट है। उसकी जिंदगी में प्यार-व्यार के लिए फिलहाल तो कोई स्कोप है भी नहीं, फिर क्या है? इस वक्त वह किसी से भी मिलने की मनस्थिति में नहीं था। इसलिए रात को खाने भी नहीं गया और बाहर से ताला लगाकर खिड़की के रास्ते कमरे में दाखिल हो गया। मोबाइल तो ऑटो ऑन-ऑफ है ही उसका ग्यारह को स्विच ऑफ होता है और सुबह 6 बजे ऑन होता है। दिल बहुत उदास था। देर तक वह अँधेरे को घूरता रहा था। न जाने कब उसकी आँख लग गई थी। 
सुबह-सुबह 7 बजे फोन की घंटी बजी थी। इतनी सुबह जाहिदा के फोन ने उसे किसी तरह की बुरी खबर का अंदेशा दिया था। 
‘हलो!’
‘भाई, अम्मीं नहीं रहीं।’ – जाहिदा ने भरे गले से खबर की थी। 
‘कैसे?’ 
‘पता नहीं। रात के न जाने किस वक्त। कॉलेज जा रही थी तो अम्मी को बताने गई थी, पहले लगा सो रही है लेकिन मेरे आवाज लगाने पर भी वे नहीं उठी तो खुटका हुआ। अब्बू को उठाया, फिर सोढ़ी अंकल को बुलाया फिर…’ – उसकी आवाज डूब गई।
‘मैं निकल रहा हूँ।’ – कहकर जीशान ने फोन काट दिया। 
दिसंबर की शुरूआत थी, सुबह की ठंड थी। वह जब बस स्टॉप पहुँचा तो अमूमन अप-डाउनर्स ही थे। या वो जिनके लिए यात्रा बहुत जरूरी हो। जहाँ खाली सीट मिली वह जाकर बैठ गया। चूँकि भीड़ कम थी, इसलिए उसे खिड़की वाली सीट मिल गई थी। उसके पास वाली सीट पर एक मध्यवय की महिला आकर बैठी थी। पीच कलर की साड़ी पर मरून रंग का लंबा कार्डिगन पहनें, गोरे रंग और लंबे कद की महिला हाईस्कूल की टीचर लग रही थीं। 
धीरे-धीरे बस की सीटें भरने लगी थी। जीशान अब भी सुन्न-सा बैठा हुआ था। जब पास वाली महिला बैठे-बैठे ऊँघने लगी तब उसे महसूस हुआ कि वह जब-से बस में बैठा है उसने अपना पैर भी नहीं हिलाया। पैरों में हरकत की तो महसूस हुआ कि बाँया पैर सुन्न हो चला है। अपने हाथों से पकड़कर उसने हिलाया, इस हलचल में पास वाली महिला जाग गईं। 
जीशान बार-बार अम्मी के नहीं रहने की तरफ जा रहा था, लेकिन उसे अम्मी याद ही नहीं आ रही थीं। वह अम्मी की शक्ल याद करने की कोशिश कर रहा था, लेकिन उसे अम्मी की शक्ल ही याद नहीं आ रही थी। उसे दरअसल कुछ भी महसूस नहीं हो रहा था। उसने खुद से पूछा था – क्या सचमुच अम्मी का इंतेकाल हो गया है!
लेकिन उस सवाल ने भी उसे भावुक नहीं किया था। वह ऐसे बैठा था जैसे जिसे वह नहीं जानता है उसकी मय्यत के लिए बैठा है। उसे यह सब बहुत अजीब लग रहा था। वह रह-रहकर अम्मी की शक्ल याद करने की कोशिश कर रहा था और उसे अम्मी की शक्ल याद ही नहीं आ रही थी। उसने अपने मोबाइल निकाला, शायद उसकी फोटो गैलरी में अम्मी की कोई फोटो हो। वह देखने लगा। जाहिदा के ससुराल वालों के साथ अम्मी की फोटो थी, उसे देर तक देखता रहा। हालाँकि बीमारी की वजह से अम्मीं बहुत कमजोर हो गई थीं, फिर भी उनकी मुस्कुराती फोटो को वह देर तक देखता रहा। फिर उसने खुद को य़ाद दिलाया कि अम्मी का इंतेकाल हो चुका है, लेकिन उसे कुछ भी महसूस नहीं हुआ। उसने आँखें मूँद ली, भीतर कुछ बहुत ठंडा-ठंडा अहसास हो रहा था, बहुत गहरा और गाढ़ा-सा कुछ… उदासी जैसा…। उसे न तो रोना आ रहा था और न ही कुछ और महसूस हो रहा था। तो क्या दुख कुछ नहीं होता है, बस उसकी कल्पना ही डराती है?
या शायद उनकी बीमारी ने हमें उनके न होने के लिए तैयार कर दिया था। उसने सुबह जाहिदा से हुई बात को रिकॉल किया। क्या जाहिदा नॉर्मल थी?  नहीं वह सुबक रही थी। 
जीशान थोड़ा परेशान हो गया। 
कंडक्टर आ पहुँचा था। उसने सोचा क्या इसे पता है कि मैं बिन माँ का हो गया हूँ? क्या करीब बैठी औरत यह जानती है कि मेरी माँ भी लगभग इन्हीं की उम्र की थीं, लेकिन वे अब नहीं है, लेकिन यदि ये जान भी लेंगे तो क्या बदल जाएगा? 
ऐसे में तो दुनिया में हर दिन लाखों लोग मरते हैं, हरेक के बारे में यदि हरेक जानने लगे तो इंसान की जिंदगी में हँसने का एक सेकंड भी न हों…। कंडक्टर को पैसे दिए, बचे हुए पैसे अपनी जेब में रखे और फिर से आँखें मूँद ली। उसे नींद-सी आने लगी थी।
आगे वाली सीट पर बैठे लड़के ने जरा-सी खिड़की खोली तो ठंडी हवा भीतर आने लगी। उसने आँखें खोल ली। अपनी जैकेट की जिप खींच लीं, फिर भी हवा चेहरे पर लगने लगी थी। पास बैठी महिला ने उसकी असुविधा समझी थी, उसने पूछा – ‘ठंड लग रही है?’
एकदम से जीशान का रोने का मन हो आया। उसने भावशून्य आँखों से उस महिला की ओऱ देखा। एकाएक उनके भीतर का शिक्षक जाग गया और उन्होंने आगे बैठे लड़के के कंधे पर हाथ रखा, लड़के ने पलटकर देखा – ‘खिड़की बंद दो बेटा, पीछे ठंडी हवा लग रही है।’ 
लड़के ने बिना कुछ जवाब दिए खिड़की लगा दी। जीशान ने उन्हें शुक्रिया कहा। इससे पहले कि वे जीशान से कुछ पूछे उसने तुरंत अपनी आँखें बंद कर ली… अम्मी…। 
जीशान को देखते ही जाहिदा आकर लिपट गई… जीशान के भीतर का सोता भी फूट पड़ा। अब्बू ने आकर दोनों के सिर पर हाथ रखा। अम्मी अब नहीं रहीं। अम्मी को जब सुपुर्दे-खाक कर दिया तब जहन तक उनके न रहने की जानकारी पहुँची। जीशान जाकर अम्मी के पलंग पर ढह गया। विस्तार सिकुड़ गया… 
परीक्षा के दिनों में जीशान को शैलजा आंटी और जाहिदा की बात याद आने लगी थी, जब आंटी जाहिदा से कह रही थीं – ‘आयशा को इलाज के खर्च की बहुत चिंता थी। कई बार आयशा ने मुझसे कहा कि या तो मैं ठीक हो जाऊँ या फिर मर जाऊँ, दर्द तो जो है सो है ही, लेकिन जीशान के अब्बू का खर्च बहुत बढ़ गया है मेरी बीमारी में।’ 
मैं उसे हमेशा कहती थी – ‘ठीक हो जाओगी तो सब ठीक हो जाएगा।’
वो मायूस होकर कहती थीं – ‘अल्लाह जाने कब सब ठीक होगा?’ 
जाहिदा ने कहा भी था- ‘लेकिन अम्मी ने हम लोगों के सामने कभी यह नहीं कहा।’
शैलजा आंटी बोली – ‘शायद इसलिए कि तुम लोग यह सुनकर औऱ परेशान हो जाते।’ 
जीशान को भी याद नहीं पड़ता कि अम्मी ने पैसे को लेकर उससे कभी कोई बात कही हो। अब्बू ने भी हमेशा उससे यही कहा – ‘सब ठीक होगा। मन लगाकर पढ़ाई करना तुम बस…।’ 
उसकी आँखें धुंधला गई, आँखों में पानी उतर आया। शायद परीक्षा के दिनों में दिल ज्यादा जज्बाती हो जाता है। रह-रहकर अम्मीं की याद आने लगती है। अजीब तो तब होता है जब मेघना दिखती है तो अम्मीं की याद आने लगती है और जीशान जैसे खुद को लावारिस महसूस करने लगता है। उसने हॉस्टल से निकलना बहुत कम कर दिया था। विनय समझ रहा था मेघना का किस्सा भी और अम्मीं के न होने का दर्द भी। बाकियों के लिए तो बस अम्मीं के न होने का ही दर्द था। 
उस दोपहर जब वह एडमिट कार्ड लेकर हॉस्टल लौट रहा था, इकबाल चाचा उसे मिल गए थे।
‘आदाब चचा’ 
‘आदाब बरखुरदार, कहाँ थे, कहीं बाहर गए थे या तबीयत खऱाब थी?’ 
‘नहीं चचा, घर गया था। अम्मीं इंतकाल फरमा गईं।’ – उसने मायूसी से कहा।  
‘इन्ना लिल्लाही व इन्ना इलैही राजिऊन’ – कहकर इकबाल चचा ने अपने चेहरे पर हाथ फेरा था।
‘क्या हुआ था बीमार थीं अम्मीं?’
‘हाँ, बीमार तो थीं, चार साल से कैंसर से लड़ रहीं थीं।’ 
‘ओह…। खुदा उन्हें जन्नत नसीब करे। तुम ठीक हो न बच्चे? जो हुआ वह हमारे हाथ में नहीं था, यूँ भी मौत हमारे हाथ कब होती है! अपना ध्यान रखना और अच्छे से पढ़ाई करना। इस बार बड़ी कंपनियाँ प्लेसमेंट के लिए आने वाली है। खुदा ने चाहा तो तुम्हारा सिलेक्शन हो ही जाना है। माशाअल्लाह बड़े जहीन बच्चे हो, रैंक भी अच्छी रही है तुम्हारी।’ – इकबाल चचा ने जीशान के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा। इकबाल चचा यूनिवर्सिटी में प्लेसमेंट ऑफिसर हैं। एक मजहब के होने से एक किस्म का अपनापा हो गया है।
‘बस आपकी दुआ रहे।’ – जीशान ने आदाब किया।
‘खुश रहो, खुदा हाफिज बच्चे।’ – इकबाल चचा ने कहा।
‘खुदा हाफिज चचा।’ 
जीशान हॉस्टल की तरफ आते हुए सोच रहा था, अम्मीं को अब्बू की बहुत चिंता थी। उनके न रहने पर उनके इलाज का खर्च भी खत्म हो गया। फिर भी उसका एजुकेशन लोन तो है ही न! अल्लाह… बस अच्छी कंपनी में प्लेसमेंट हो जाए। अम्मीं की रूह को सुकून मिलेगा। 
जाहिदा का निकाह भी फिर अच्छे से हो जाएगा। उसने जज्बाती होकर आसमान की तरफ देखा, बुदबुदाया, अम्मीं याद आई तो आँखें भर आई। 
परीक्षा के लिए उसने खुद को हर चीज से अलग कर लिया था। पूरा ध्यान पढ़ाई पर लगाया था। पेपर अच्छे हो रहे थे। दो पेपर तो उम्मीद से भी अच्छे रहे थे। उसने इत्मीनान की साँस ली थी। अब्बू के दोस्त नवीन चचा का कहा याद आ गया – ‘वेल बिगिन इज हाफ डन।’ 
आधी लड़ाई तो जीत ली है। बस अब आधी बाकी है। जो जीती है वह ज्यादा महत्वपूर्ण लड़ाई है। आखिरी वायवा रह गया है। उसके बाद हफ्ते भर प्लेसमेंट की तैयारियाँ करवाई जाएगी। ट्रेनिंग, मॉक टेस्ट, इंटरव्यू, ग्रुप डिस्कशन, ग्रूमिंग यह सब चलेगा। वो दिन चले गए जब सिर्फ डिग्री से काम मिल जाता था। आजकल तो हर दिन इसमें कुछ नया जुड़ता है। कितनी टफ कॉम्पिटीशन हो चली है। सिर्फ कागज के टुकड़ों से कुछ नहीं होता है। ओवरऑल परफॉर्मेंस… कितना प्रेशर होता है! कितने एंगल होते हैं जजिंग के… सर्वाइव करना कितना तो मुश्किल होने लगा है। पेपर तो अच्छे रहे ही थे, ट्रेनिंग सेशंस और मॉक इंटरव्यू में भी उसका परफॉर्मेंस अच्छा रहा था। जीशान संतुष्ट था, बस… एक ही तो कदम बढ़ाना है। 
जीशान सोचता है कि क्या सारी लड़ाइयों का अंजाम इतना ही आसान होता है? क्या सारी लड़ाइयाँ जो लंबी होती है, इसलिए मुश्किल लगती हैं? यदि छोटी हो तो आसान हो जाए!
उस रात जीशान को बहुत सालों बाद इतनी अच्छी नींद आई थी। अगले दिन इंटरनेशनल बिजनेस मैनेजमेंट की बैच का प्लेसमेंट था। दो दिन से जीशान ने बहुत तैयारी की थी। अपने डॉक्यूमेंट्स को सिस्टेमेटिक करने से लेकर अपने ड्रेसिंग तक पर। फिर पूरी तरह से संतुष्ट होकर वह सोने गया था। 
प्लेसमेंट की फॉर्मलिटीज सुबह ग्यारह बजे से शुरू होगी। उसने सुबह सात का अलार्म लगाया था। सोने से पहले विनय उसके रूम पर आया था। विनय ने उसे भावुक होकर गले लगाया था। विनय की ब्रांच फाइनेंशियल मैनेजमेंट थी। उसका प्लेसमेंट दो दिन बाद था, सब तैयार थे, सब जानते भी थे कि प्राइवेट यूनिवर्सिटी है अपने बिजनेस के लिए वह ज्यादा से ज्यादा प्लेसमेंट करवाएगी, फिर भी यह कॉम्पिटीशन तो थी ही न कि किसको कौन-सी कंपनी मिलेगी औऱ पैकेज क्या होगा?
सुबह तैयार होते हुए उसने अम्मीं को याद किया था, अल्लाह को भी। बस किसी तरह से प्लेसमेंट हो जाए… नौकरी तो वह निभा ही लेगा। मेहनत और ईमानदारी में तो वह कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। गिव मी ए प्लेस टू स्टैंड ऐंड आय शेल मूव द अर्थ-आर्कमीडिज का कहा उसे याद आया वह मुस्कुरा दिया। 
जब उसकी बारी आई तो उसने पूरे आत्मविश्वास से हॉल में प्रवेश किया था। जाने क्यों उसे माहौल में कुछ ठंडापन महसूस हुआ। उससे ज्यादा कुछ पूछा नहीं गया था, उससे पहले जो भी गए थे उनके इंटरव्यू कुछ ज्यादा लंबे चले थे, उसका तो बहुत जल्दी खत्म हो गया था, उसका परफॉर्मेंस अच्छा रहा था शायद इसलिए। उसे यह महसूस हो रहा था कि उसने लगभग सब लोगों को प्रभावित किया था। कुल मिलाकर वह संतुष्ट था, हालाँकि वह किसी तरह की उम्मीद में नहीं फँसना चाहता था, फिर भी जब सब अच्छा होता है तो न चाहते हुए भी उसे भरापन लग रहा था।
विनय कैंटीन में उसका इंतजार ही कर रहा था, जब वह वहाँ पहुँचा तो उसने तुरंत खाने का ऑर्डर कर दिया। दोपहर के दो बज रहे थे। धूप खिली हुई थी, मार्च उतर रहा था। मौसम में गर्मी का शुमार हो गया था। विनय ने उसके चेहरे की तरफ देखा था, वहाँ इत्मीनान था। 
‘अच्छा रहा’ – उसने पूछा नहीं, कहा।
‘हाँ’-जीशान ने भी झेंपी-सी मुस्कुराहट से जवाब दिया। 
‘चलो अब विश मी लक कहो। मैंने शिव भगवान से तुम्हारे लिए प्रे किया था। अब तुम अपने अल्लाह से मेरे लिए प्रे करना।’, कहकर विनय ने आँख मारी थी। 
खुशी के मारे जीशान की आँखे भर-भर रही थी। पाँच बजे करीब नतीजे घोषित हो जाने वाले हैं, जीशान के भीतर अजीब-सा ठहराव था। शायद यह आत्मविश्वास से आता हो। पाँच बजकर दस मिनट हुए होंगे जब गार्डन में बैठे जीशान ने कैंपस में हलचल महसूस की थी।
जीशान ने जाकर नोटिस बोर्ड देखा था, उसकी बैच में कुल 40 बच्चे थे। लिस्ट में सैंतीस नाम थे। उसने ऊपर से नीचे तक तीन बार देखा था, उसका नाम नहीं था। एकाएक उसका दिमाग सुन्न हो गया था। वह वहाँ से थोड़ा पीछे हटा और कॉरीडोर की मुंडेर पर जाकर टिक गया। उसे लगा जैसे उसके शरीर में जान ही नहीं है और वह अभी ढह जाएगा। 
थोड़ी देर वह ऐसे ही आँखें मूँदे खड़ा रहा। एकाएक ऋषभ औऱ विनय ने आकर उसे थाम लिया। दोनों शायद लिस्ट देखकर आए थे। दोनों ने एक शब्द नहीं कहा और उसका हाथ पकड़कर ग्राउंड में ले गए। जल्दी से कॉफी ऑर्डर की। 
थोड़ी देर तीनों ही चुप बने रहे। फिर जीशान डूबती आवाज में बोला – ‘यार सबकुछ अच्छा था, ऐसा कैसे हो गया?’
‘कुछ नहीं, दुनिया खत्म नहीं हो गई है। अभी और कंपनियाँ आएंगी। डोंट वरी’ –ऋषभ ने उसके कंधे थपथपाए। 
विनय ने उसके बालों को बिखरा दिया – ‘अच्छी रैंक है तेरी, सब ठीक होगा।’ 
जीशान एकाएक खड़ा हो गया – ‘इकबाल चचा से मिलना चाहता हूँ।’
ऋषभ ने विनय से कहा – ‘तू जा तैयारी कर, मैं जीशान के साथ जा रहा हूँ।’ 
जब वे इकबाल चचा के घर पहुँचे तो वे चाय पी रहे थे। जीशान को देखकर उन्होंने नजरें झुका ली। इशारे से बैठने को कहा। 
जीशान ने भी उनकी चुप्पी का मान रखा। टेबल पर उन दोनों के लिए चाय आ चुकी थी। इकबाल चचा की चाय खत्म हो चली थी। वे उठकर भीतर चले गए। ऋषभ ने जीशान को चाय का कप पकड़ाया और दूसरा कप उठा लिया। 
इकबाल चचा बाहर आए तो उनके हाथ में एक अखबार था। उन्होंने उस अखबार को खोलकर जीशान के सामने पटक दिया। खबर थी – ‘ओएनजीसी के दो मुस्लिम अधिकारी के जैश से संबंध’। 
जीशान ने इकबाल चचा की तरफ देखा… उन्होंने बेबसी में अपने कंधे झटकाए और ऊपर नजर की।  
एकाएक बादल गरजने लगे थे। 

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