ऐसे लगता है जैसे सारी मनौतियाँ पूरी करने कर के गंगा नहा आई हूँ या हज से लौटी हूँ या पवित्र रोमनगरी से हो आई हूँ । शब्दों के धागे जैसे मन की भावनाओं को गूँथ ही नहीं पा रहे । बस महक रही हूँ मैं अखंड तृप्ति के फूलों की सुगंध से । विश्वास ही नहीं हो पा रहा कि जो सोचती थी, वो सच हो जाएगा । पिछले एक साल से वो सपना रोज़ रात बड़ी शिद्दत से मेरा पीछा करता था । मुझे जैसे रह रह के दौरे पड़ते थे – जैसे मुझे कोई बुला रहा हो । मेरा शहर, दिल्ली, मेरी जन्मभूमि, मेरा वो पुराना मोहल्ला, वहाँ की मिट्टी, मेरी पुरानी हमकदम सहेलियाँ । दिल के कूएँ में यादों का पानी छमाछम उछल-उछल कर पागल कर रहा था मुझे । अभी भी उस वहशत के बुखार से थकी ऑंखें जल रही हैं । खोल ही नहीं पा रही हूँ उन्हें । जैसे सुबह के भूखे बच्चे ने ज़रूरत से ज़्यादा खा लिया हो और हज़म ही न हो रहा हो । कल चल-चल के टाँगे चूर चूर हो गईं थीं । बदन भी दर्द के मारे कलफ लगे कपड़े सा अकड़ गया था । नींद ऐसे आई जैसे सालों से सोई न होऊँ । सच भी तो है । कितने सालों से पीछा करते सपने को मुदृतों बाद हकीकत की ज़मीन मिली थी चलने को । मैने घूँट-घूँट कर के अपने पुराने मोहल्ले को दिल की सुराही में उतार लिया था | कल सुबह ही तो मैं गृहनगर सुविधा (होमटाऊन फैसिलिटी) ले कर मुंबई से दिल्ली आई थी क्योंकि अभिलेखों के अनुसार तो दिल्ली ही मेरा गृहनगर (होमटाऊन) था । चाहे उस दिल्ली से मेरा रिश्ता छूटे पूरे तेईस साल बीत चुके हैं ।
शादी के बाद पति की स्थानांतरण की नौकरी के कारण कितने ही शहर घूम लिए हैं मैने । इस बीच दिल्ली से मेरे परिवार जन भी अपनी अपनी परिस्थितियों के कारण बिखर कर कहाँ -कहाँ चले गए । किसी भी पुराने मित्र से संपर्क ही नहीं रहा । शादी के बाद बच्चे और फिर संयुक्त परिवार, इन सब की ज़िम्मेदारियाँ उठाते-उठाते दिल्ली से मेरा रिश्ता बिल्कुल ही टूट गया । पर पिछले एक साल से न जाने कहाँ से ये निगोड़ा सपना पलकों की दहलीज़ पर आकर पसर गया था । रात हुई नहीं कि निद्रा के प्रथम झोंके के साथ ही कूद कर ये सपना ऑंखों में चला आता और अल्लसुब्ह तक बना रहता । रोज़ सुबह आँख खुलने पर भी ये सपना ऑंखों में बसा रहता । मेरा वही पुराना मोहल्ला, वही मकान, मेरा परिवार, मेरा बचपन सभी मुझे दिखता । थका ही डाला था इस सपने ने मुझे । जैसे वो कोई बच्चा था जो बार बार मेरा आँचल खींचता था ।
आखिर थक-हार कर मैने गृहनगर सुविधा ली और पहुँच गई अपनी दिल्ली । रास्ते में गाड़ी में एक सहयात्री दूसरे सहयात्री से बड़ी प्यारी सी बात कह रहा था – क्या करें यार, झाँसी छोड़े इतने साल हो गए पर जब भी कहीं गाड़ी से जाते हुए रास्ते में कहीं झाँसी आए तो चाहे कितनी ही रात क्यों न हो, आँख अपने आप खुल जाती है । अजीब इत्तफाक था । मेरी भी तो अपनी दिल्ली के लिए यही सोच थी । कहीं भी दिल्ली का नाम आए तो आँख भर आती थी । हाँ मेरा शहर है मेरी दिल्ली । जैसे मेरी रग-रग में दिल्ली बसी हुई थी । कोई दिल्ली वाला मिला नहीं कि भावुक होकर उस हमशहर का हाथ थामने को जी करता ।
कल मुंबई से दिल्ली आते ही गाड़ी से उतर कर स्टेशन की मिटृी को चूम कर माथे से लगाया । आँख भर आई थी । कितना अजीब लग रहा था कनॉटप्लेस में अपने कार्यालय के अतिथिगृह में पहुँच कर । यही शहर था जहाँ मैं पैदा हुई, पली बढ़ी और आज इतनी बेगानी कि अतिथिगृह में रहना पड़ रहा है । अतिथिगृह में सामान रख के नहा धो कर जब बाहर निकली तो मेरी हालत ऐसी थी कि जैसे बरसों से बंधी टाँगों से रस्सी खोल दो और टाँगों को समझ न आए कि चलना कैसा होता है ——- कहाँ जाना है । पर तभी वही सपना, खुली ऑंखों से आके बाहें फैला के फिर से मुझे बुलाने लगा । अतिथिगृह से निकल कर मैने स्वंय को हवाओं के सुपुर्द कर दिया । सभी विकल्प खुले छोड़ दिए मैने । जहाँ रास्ते ले जाएंगे, वहीं जाऊँगी मैं । बिल्कुल मंत्रबिद्ध दशा थी मेरी । जैसे कोई चुंबक मुझे खींचे जा रहा था । अजीब गुरूत्वाकर्षण था मेरी दिल्ली की ज़मीन में । मद्रास होटल देखा तो वही पुराने दिन याद आ गए । बस तुरंत होटल की सीढ़ीयाँ चढ़ गई । मन हुआ वहाँ की दीवारों से पूछूँ – “पहचानती हो मुझे । मैं पहले भी तो यहॉं आती थी । तुम्हारे शहर की हूँ । बेगानी थोड़े ना ही हूँ ।“ वेटर आया तो उससे भी कहने को जी किया – “मुझे पहचानो, मैं पहले भी तो यहॉं आती थी ।“ यहाँ तो कुछ भी नहीं बदला । बस मैं अकेली हो गई । कॉलेज के दोस्त, सहेलियॉं सभी बिछड़ गए ।
मद्रास होटल से निकली तो बसस्टाप के पास दिखी वही पुरानी किताबों की दुकान जिसे देखते ही किताबों के लिए वही चिरपरिचित खु़मार चढ़ आया । बसस्टॉप पर पहुँची तो फौरन राजागार्डन, मेरे पुराने मोहल्ले में जाने वाली सभी बसों के नंबर तेज़ी से मन में कवायद करने लगे । आज भी वही नंबर की बस सामने खड़ी थी । कुछ भी तो नहीं बदला हो जैसे । कोई जादू था जो खींच रहा था मुझे । कंडक्टर के पूछने से पहले ही व्यग्रता से बोली – “राजागार्डन ।“ पूरे रस्ते को आंसू भरी ऑंखों से पीती आई मैं । हाँ, यही शादीपुर डिपों है जहाँ से साढ़े बारह का पास बनवाते थे । और ये मोतीनगर, जहाँ हम सपरिवार घूमने आते थे और ये रमेशनगर, जहाँ हमारा स्कूल था और अब आ ही गया, राजागार्डन जिसे देखते ही मैं इतनी बेचैन हो उठी कि कंडक्टर भी चकित रह गया । बोला – “हाँ, हाँ, राजागार्डन में रूक रही है बस । आप ज़रा रूकिए मैडम । चलती बस से कूदने का इरादा है क्या ।“ पर मुझे होश कहाँ था । आँखे पानी-पानी हो रहीं थीं । राजागार्डन के बसस्टॉप पर उतर कर लगा –
“अरे बस दो मिनट में अपना पुराना मकान ढूँढ लूँगी मैं । पूरे सोलह साल रहे हैं हम यहाँ । मेरा पूरा बचपन इन गलियों में खेला है । यहॉं की ईंट-ईंट से वाकिफ हूँ मैं । पर उस मोहल्ले में पहुँच कर तो अपने मकान वाली वो गली तक नहीं पहचानी जा रही थी मुझसे । उस चिरपरिचित गली को ढूँढने में मुझे दो घंटे लग गए । अपने पुराने मकान का वो दरवाज़ा ही खो गया था जो मुझे खटखटाना था । गलियों में भटकती मैं ऊंगलियों से दिशाएं नाप रही थी । अपना पुराना मकान ढूँढने के लिए मैं घरों को गिन रही थी । तभी ग्रोवर हलवाई का घर दिख गया उसकी दुकान का बोर्ड देख कर । अब लगा कि अब ज़रूर वो मकान जल्दी ही मिल जाएगा ।
मगर जैसे टूटी चूडि़यों का खिलौना होता है न जिसमें कभी खुले डिज़ाइन बनते हैं तो कभी तंग । मुझे उस मोहल्ले को देखकर यही एहसास हो रहा था । मेरा पुराना खुला-खुला मोहल्ला बिल्कुल तंग सा बन गया था । अल्हड़, मासूम किशोरों जैसे मुहल्ले के चेहरे पर भी जैसे झुर्रियॉं पड़ गईं थीं । ढूँढे नहीं मिल रहा था अपना मकान ।
मैं पगलाई सी ढूँढ रही थी । फिर वो दूध का डिपो दिखा तो लगा – अरे हाँ, तब तो ये नया नया खुला था पर इसके साथ ही तो खुला मैदान था, तंदूर था, जहॉं हम गर्मिंयों में रोज़ रोटियाँ बनवाने जाते थे। पर अब तो वहॉं सघन पार्क बना हुआ था । अब सब कुछ सिकुड़ गया था पर जिदृी बच्चे की तरह मन ने भी ठान ही लिया था कि कैसे भी अपना मकान ढूँढ ही लेना है ।
तभी सामने की दुकान पर बैठी मेरी हमउम्र भली सी औरत ने प्यार भरी सवालिया ऑंखों से मेरी ओर देखा जैसे कह रही हो – “बोलो मैं तुम्हारी क्या मदद करूँ ।“ मैं उसकी ओर देख कर होंठों से हँसी ज़रूर पर ऑंखों में थे छमाछम ऑंसू। मैं खु़द पर हँस भी रही थी और रो भी रही थी । क्या पूछूँ इससे । मैने पानी भरी से आँखों से उस औरत को देखा और कहा – “जी, आप सुनोगे तो हँसोगे, हम 23 साल पहले जहाँ रहते थे, मैं वो मकान ढूँढ रही हॅूं । डब्लयु ज़ेड – 42, पर अब तो यहाँ मकानों के नंबर भी सब बदले हुए हैं । उस औरत ने बड़ा दिलासा देते हुए कहा – “नहीं जी, इसमें हँसने की क्या बात है । मेरे साथ भी ऐसे ही हुआ था। मुझे भी ऐसे ही अपना आज़ाद मार्केट वाला मकान बड़ा याद आता था और वहाँ का मंदिर तो मेरे सपनों में आता था । तब मैने अपने पति से कहा था, “जी आप मुझे वहाँ मत्था टिकवा आओ “ और तब ये मुझे वहाँ ले गए ।“ उसकी बात सुन कर बड़ी तसल्ली मिली कि अपने जैसा भी कोई है । फिर मैने उस औरत को अपने पुराने पड़ोसियों के नाम बताए तो उसने झट से मुझे मेरे पुराने मकान तक पहुँचा दिया । मकान के नए मालिकों ने पुराने ढर्रे के दरवाज़े को तोड़कर नए रिवाज़ानुसार गेट बनवा लिया था । बाहर से तो मकान बिल्कुल नए ढंग का बनवा लिया था उन्होंने । अंदर से भी क्या सब कुछ तोड़ दिया होगा उन्होंने सब । वो मेरा बचपन, उससे जुड़ी यादें। मेरी ऑंखों से धाराप्रवाह आँसू बह रहे थे । जैसे ही ये ख़बर मोहल्ले में फैली कि उस मकान में रहने वाली कोई औरत आई है तो पड़ोसन सुनारन आंटी नंगे पैर भाग के आई और दो मिनट मुझे एकटक देखती रही और फिर उन्होंने एकदम मुझे जफ्फी डाल दी – “नी, ए ते सावित्री दी कुडी है, कित्थे चली गई सी तू । तैनूँ ते लब लब के ल्याई दा सी । ( ये तो सावित्री की बेटी है । कहाँ चली गई थी तू । तुझे तो हम ढूँढ ढूँढ के लाते थे ।) ।“ तभी उनका लड़का भी चुपचाप वहाँ आ के खड़ा हो गया । लड़के से पुरूष में रूपांतरित । कहाँ तो हम इकठ्ठे बैठ कर तू-तड़ाक करते थे और कहाँ आप-आप कर के बात कर रहे थे ।
पर असली ड्रामा शुरू हुआ, उस मकान की मौजूदा मकान मालकिन के बाहर गेट पर आने पर । तब तक मैं गेट पर ही खड़ी पड़ोसियों से बात कर रही थी । वो औरत भीतर नहा रही थी । उसकी सास भी बाहर आयी । उस दुकान वाली औरत ने यह कह कर परिचय कराया कि आपसे पहले ये लोग यहाँ रहते थे और आज ये अपना पुराना मकान देखने के लिए मुंबई से यहॉं आई है ।
ये सुनते ही उस औरत के चेहरे के हावभाव बदल गए । गुस्से से उसके चेहरे का रंग ही लाल हो गया । “ये क्या तमाशा है, हमने भी आज तक कई मकान बदले हैं । हम कोई अपने बचपन के मकान थोड़े ही देखने जाते हैं । ये क्या पागलपन है । हमने कभी आपको देखा भी नहीं, न हम आपको जानते हैं । कैसे आपको अंदर आने दें । “ वो बौखलाई सी बोली । ये क्या हो गया । मुझे तेज़ झटका लगा । मैं मुंबई से ख़ास छुट्टी ले कर यहाँ आई, बड़ी मुश्किल से मैने घर ढूँढा और अब ये औरत मुझे अंदर आने नहीं दे रही । रोते रोते मेरी हिचकियॉं बँधने लगीं तो उस औरत की सास ने मुझे झट गले लगा लिया और अपनी बहू से बोली – “नहीं बेटा, ऐसे नहीं करते । देखने दे इसको इसका पुराना घर । इसकी यादें जुड़ी हैं इस घर से । हमें भी अपना पाकिस्तान वाला घर बहुत याद आता है ।“
बड़ा हौसला मिला मुझे । मैं डबडबायी ऑंखे लिए अंदर गई । चमत्कार ——– अंदर घर वैसे का वैसे ही था जैसे हम छोड़ गए थे । वही रसोई, जहाँ मम्मी अंगीठी पर गर्म साग बनाती थीं और ठंड के दिनों में बोरियों पर बैठ कर हम उनके हाथ के गरम-गरम फुलके खाते थे । तब ये डाइनिंग टेबल का कहाँ रिवाज़ था । हाँ कमरे भी वही थे जहाँ हम बहनें लड़तीं भी थीं और गीट्टे भी खेलती थीं । जी गई चंद सॉंसों भर में मैं । रूहानी तृप्ति से भर गई मैं । तसल्ली से मोहल्ले में सबसे मिल के, अपने पुराने स्कूल को देख कर, सब कुछ आँखों के कैमरे में कैद कर लिया मैने ।
बस स्टॉप पर पहुँची तो सड़क के पास की दुकान पर मेरी नज़र पड़ी – नानक हलवाई का बोर्ड । हाय रब्बा, ये तो वही दुकान है जिस जगह पर रूक कर हम गुड़गट्टा खाते थे । तब कहाँ थे अंकल चिप्स, पेप्सी वगैरा । दुकान देख कर लगा जैसे सपने की आखिरी हद को छू रही हूँ । दुकान पर एक चौड़ा कंजी आँखों वाला गबरू जवान बैठा हुआ था । बड़ी मीठी सी मुस्कान से बोला – “ओ जी, आप तो यहाँ तिवारियों के पड़ोसी थे न । मैं तो आपको दूर से ही पहचान गया था ।“ उसकी बात सुन कर मेरी आँखों में फिर से नर्मी से पानी उतर आया ।
ये कैसी पहचान थी । जैसे वो भी मेरा कोई पुराना बिछड़ा दोस्त था । । पाँच मिनट हम दोनों चुप । वो चुपचाप बैठा रहा | मैं ख़ामोश खड़ी रही । ख़ामोशी ख़ामोश नहीं थी मगर |
Oh my God! Anita, rooh ko chhuu Gaya ye lekh! You write so well! Maine bhi aapke saath yaatra kar li aur aapka purana ghar dekh liya! Powerful expression! Keep it up✌️
कहानी अच्छी है। पर मुझे लगता है कि पुरानी जगहों पर नहीं जाना चाहिये, यादों में जो छवि होती है, वो बदले हुए रूप से तादात्म्य बैठा नहीं पातीं, पुरानी यादें और नयी छवियां गड्डमड हो जाती हैं और पुरानी यादों को भी बर्बाद कर जाती हैं, हाॅं पहली बार जब किसी बचपन की जगह बहुत दिन बाद जाने का मौका मिलता है तब तक वैसी ही उत्सुकता होती है,जैसी आपने लिखी।
Oh my God! Anita, rooh ko chhuu Gaya ye lekh! You write so well! Maine bhi aapke saath yaatra kar li aur aapka purana ghar dekh liya! Powerful expression! Keep it up✌️
कहानी अच्छी है। पर मुझे लगता है कि पुरानी जगहों पर नहीं जाना चाहिये, यादों में जो छवि होती है, वो बदले हुए रूप से तादात्म्य बैठा नहीं पातीं, पुरानी यादें और नयी छवियां गड्डमड हो जाती हैं और पुरानी यादों को भी बर्बाद कर जाती हैं, हाॅं पहली बार जब किसी बचपन की जगह बहुत दिन बाद जाने का मौका मिलता है तब तक वैसी ही उत्सुकता होती है,जैसी आपने लिखी।