महीना कोई भी हो रसोई में जैसे आग बरसती है। सुराही का ठंडा पानी पीकर मुमु ने आस्तीन से माथा पोंछा। खिड़की से बाहर नज़र गयी तो सामने मिसेज़ और मिस्टर अवस्थी बगीचे में खड़े माली से पौधों को लेकर झाँय-झाँय कर रहे थे और पीछे उनके पोते के ख़रगोश बग़ीचे की घास चबाते हुए मिट्टी खोद रहे थे। उसकी हँसी छूटने को थी कि कुर्सी खींचने की आवाज़ आयी। वह समझ गयी अम्मा-अप्पा खाना खा चुके हैं।
“बाप रे!” आज फिर अम्मा दो बोल सुनाएँगी। गैस बंद कर, सिर पर आँचल खींचते हुए वह रसोई से बाहर भागी। खाना खाते हुए उनके उठने से पहले पूछना जो होता है कि कुछ और तो नहीं चाहिए। भले ही इस से पहले वे मना कर चुके हों कि हो चुका खाना। मुमु रसोई से चिल्लाकर पूछ ले तो हिमाक़त समझी जाएगी। कुछ माँगने के लिए बहू को पुकारना वे अपनी तौहीन समझते हैं। यह इस घर की रिवायत है जिसमें चूक हो जाए तो सबके मिज़ाज बिगड़ जाते हैं।
“कोकी के दादा ज़िंदा थे तब मजाल है अपने मुँह से कुछ कह दें। बड़ा ध्यान रखना पड़ता था उनका नहीं तो ग़ुस्से में भूखे उठ जाते थे।” गठरी-सी सिमटी मुमु को विवाह के तीसरे ही दिन इशारों में बात समझायी गयी थी।
नयी-नयी आयी थी तो कितनी नाराज़गी सहनी पड़ती थी कि बहू खाने की मेज पर ध्यान नहीं रखती। अम्मा तो उसके आते ही पूरी तरह रिटायरमेंट मोड में आ गयी थीं। दिन भर उसकी पुकार…मुमु, मुमु। अब एक अकेली मुमु, कहाँ तक दौड़-भाग करे। रसोई सम्भाले कि खाने की मेज। खाना खाते हुए अम्मा चक्कर भी कितने लगवाती हैं। कभी खाने में नमक कम है तो कभी मिर्च। ख़ुदा-न-ख़ास्ता नमक-मिर्च बुरकते हुए ज़्यादा पड़ जाए तो पानी गर्म करने भागो। कभी ऊपर से जीरा चाहिए तो कभी पिसा हुआ पुदीना। टमाटर डालो तो सब्ज़ी खट्टी, न डालो तो बेस्वाद। फिर बनाओ नए सिरे से कुछ। नर्म-कड़क रोटी का संतुलन साधते-साधते तो वह हलकान हुए रहती। घी लगी रोटी हो तो रूखी रोटी, रूखी हो तो घी पिघला कर मेज तक दौड़ लगाओ। इस बीच रोटी ठंडी हो गयी तो मान लो आज जान छूटने वाली नहीं। मौसम के अनुसार तीन तरह का आटा तो सदा ही लगता था।
“बुढ़ापे के रोग हैं सब, मेरी प्यारी मुमु।” उसकी लटों से खेलते हुए कोकी कहता। “इस उम्र में ज़ुबान को आसानी से कुछ भाता नहीं।” मेरे माँ-बाप भी तो इसी उम्र के हैं, वह सोचती। जब हल निकलता नहीं दिखाई दिया तब कुछ दिनों बाद उसने सारे मसाले छोटी-छोटी शीशियों में भरकर खाने की मेज पर ही रख दिए थे। अम्मा ने देखा तो उनकी त्योरियाँ चढ़ गयीं,
“उन्हीं हाथों से खाना खाओ, वही हाथ मसालों के लगाओ। जूठे-सकरे का कुछ ध्यान है भी कि नहीं। पैरों की मेहंदी उतर चली अब तो बहूरानी, चलते हुए क्या छाले पड़ते हैं। घर में इने-गिने तीन लोग। उन्हें भी खाना खिलाते ज़ोर आता है।”
फिर कड़क आवाज़ में बोलीं,
“तुम्हारे मायके में चलता होगा यह सब। हमारे यहाँ नहीं।”
मायके में तो सचमुच यही होता था। अम्मा का इंट्यूशन ग़ज़ब है। वहाँ सब साथ खाते थे। काम भी मिल-जुलकर हो रहता। यहाँ हर छोटा-बड़ा काम मुमु के हिस्से। जब वह नहीं थी तब कैसे सारे काम होते थे! कोकी को ही लो, पहली रात कह रहा था,
“जानती हो, मुझे सारा खाना बनाना आता है। अम्मा की तबियत ख़राब होती है तो मैं और अप्पा मिलकर सब बना डालते हैं। दीदी और दोनों भैया अरसे से बाहर हैं। मैं ही हमेशा उन दोनों के साथ रहा हूँ।”
अप्पा को तो उसने रसोई के पास फटकते भी नहीं देखा लेकिन क्या कोकी उसका हाथ नहीं बँटा सकता? एक दिन मुमु ने कोकी को रसोई से आवाज़ लगाई थी कि ज़रा खाना सर्व कर दे। इस बात पर कैसा तूफ़ान मचा था। सारे रिश्तेदारों को अम्मा ने फोन लगाया था। अम्मा उसे आग्नेय नेत्रों से घूरती जातीं और फोन पर उसकी शिकायत करती जातीं। आवाज़ धीमी कर लेने की औपचारिकता भी वे नहीं निभातीं।
“अरे ओ पिंटू, नयी बहू पढ़ी-लिखी तो घणी है पर हमारे किसी काम की नहीं। कोकी से काम कराना चाहे है।” उधर से कुछ घुट्टी पिलायी जाती जिसे पीकर अम्मा और उबल पड़तीं।
“टिन्नी, बहू के लक्षण ठीक ना हैं। हम तो ठग लिए गए। कोकी की भी मति मारी गयी थी। गुड्डन के ब्याह में देखते ही बावला हो गया। गोविंदगढ़ वाली लड़की कितनी सुंदर थी। रंग भी इस से गोरा था पर भाग्य में ही पत्थर लिखे हों तो कोई क्या करे।” कहते-कहते जब अम्मा रोने लगतीं तब उनकी पीठ थपथपाते हुए पानी भी मुमु पिलाती। किताबों में पढ़ी थीअरेटिकल दुनिया अब वास्तविक फ़ील्ड में बदल गयी थी और वह ऐसी प्लेअर थी जो खेल में दक्ष नहीं थी।
जो भी घर आता अम्मा उसके आगे मुमु का चिट्ठा खोल कर बैठ जातीं।
“आजकल की लड़कियों के पर निकले हुए हैं। बित्ते भर की छोरियाँ आते ही धणी को बाँध लेना चाहे हैं पल्लू से।” बड़े मिट्टी के माधो हैं न ये पुरुष कि स्त्रियाँ उनको मन मुताबिक़ गढ़ देंगी। दुनिया भर पर हुकूमत करते मर्द ऐसे अबोध ठहरे क्या जो आँख बंद कर औरतों के पीछे चल दें। मुमु ऐसे मौक़ों पर अम्मा के आगे पड़ने से बचती।
कोकी से बात की तो उसने भी बहाना बना कर पल्ला झाड़ लिया था।
“यार, अम्मा का ब्लड प्रेशर यूँ ही हाई रहता है। मुझे काम करते देखेंगी तो और परेशान हो जाएँगी। समझो न! कुछ समय की बात है। एक बार ट्रान्स्फ़र हो जाए फिर हम दोनों को ही रहना है। तब तक कर दो अम्मा-अप्पा की सेवा। दुआएँ देंगे तुम्हें।”
क्या कोकी को उनकी दुआओं की ज़रूरत नहीं! चादर की सिलवटें निकालते हुए उसने सोचा था। कोकी ने तो उसे मीठी गोली दे टरका दिया था लेकिन वह समझ नहीं सकी थी कि बेटे का काम करना अम्मा को परेशान क्यों करेगा। ऐसे कब तक चल सकेगा। उसने सोचा क्यों न अप्पा से बात कर घर में नए नियम बना लिए जाएँ। उसने देखा है अप्पा की बात सभी मानते हैं। लेकिन उसके मंसूबे धरे रह गए जब उसी रोज़ अप्पा ने उस से पानी माँगा और उसने गिलास भर कर उन्हें दिया था। हाथ में गिलास लेते ही जैसे बादल फटा था।
“तुम्हें सलीक़ा नहीं है? कितनी बार कहा है कोई पानी माँगे तो गिलास आधा ही भरा करो। पूरा गिलास पानी कौन पीता है? पानी की बर्बादी होती है।”
मुमु हतप्रभ थी कि इतनी सी बात इतना ग़ुस्सा! अप्पा ने कहा तो था लेकिन सारा दिन भागते-दौड़ते बहुत-सी बातें वह भूल जाती है। वह कुछ क्षण चुप रही। इस बीच आँसू उसके क्रोध से वाष्पित हो उड़ गए लेकिन क्रोध अप्पा की झुर्रियों में जा अटका। खुद को सम्भाल कर उसने कहा था,
“हाँ अप्पा, आपकी बात ठीक है। क्यों न हम एक कैम्पर भर कर यहाँ रख दिया दें। जो जितना पीना चाहे, यहाँ से आप भर ले। हमारे घर पर भी..”
“घर? कौन सा है तुम्हारा घर? ख़बरदार जो आगे से ऐसा कहा। अब तुम्हारा घर यह है और तुम्हारे माँ-बाप हम। याद रखना।” अप्पा गरजे थे। मुमु का क्रोध घाटियाँ पार कर दोबारा उस तक पहुँचने को था कि उसने अप्पा के शब्दों को परखा। अप्पा का कथन तो विज्ञान को चुनौती दे रहा था। इस बात पर रिसर्च होनी चाहिए कि कैसे भारत में शादी के बाद लड़कियों के लिए जेनेटिक्स के नियम तक बदल जाते हैं।
अपनी मुस्कुराहट छिपाते हुए वह चुपचाप पलटी तो अप्पा फिर बोले थे, “और बहू के होते हुए हम बूढ़े लोग पानी भरकर पिएँगे। यही सिखाती है तुम्हारी शिक्षा। तुम लोगों का अत्याचार सहते बुढ़ापा बीतेगा अब। तुम्हारा बस चले तो कोने में पटक दो हमें। घर की बहू हो, लिहाज़-शर्म रखो। आँखों का पानी मरने मत दो।” कहकर वे दोबारा अख़बार में डूब गए थे। अरे! बहू है कि जादू की पुड़िया। मुमु की नज़र अम्मा पर पड़ी जो दीवान पर अधलेटी, अधमुँदी आँखों से उसकी ओर देखते हुए आधी-पूरी मुस्कुराहट के बीच डाँवाडोल हो रही थीं। वह डिस्टर्ब हुई, बहू बनने का अर्थ क्या यह होता है!
“अरे, तुम भी मुमु। पूरे की जगह आधा भर दो गिलास। इतनी सी बात को दिल से ना लगाया करो। बड़े हैं, कभी कुछ कह भी देते हैं। एक कान से सुन कर, दूसरे से निकाल दो।” रात को कोकी ने अनमनी मुमु के ब्लाउज़ का हुक खोलते हुए कहा था। ऐसा है तो उस दिन घर के खर्चे को लेकर बड़े भैया से हुई बहस के बाद कोकी क्यों इतना नाराज़ हो गया था। ज़रा अपनी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कोई बात हुई नहीं कि फुदका-फुदकी शुरू। सब दूसरों को कहते हैं लेकिन अपने समय समझदारी कहाँ चली जाती है। कुछ देर बाद, करवट बदल कर सोते हुए कोकी को देख उसने सोचा।
होली पर पीहर गयी तो माँ को बताया था। माँ हँस दी थीं। उसकी उदासी को लड़ियाते हुए माँ ने दादी के अनगिनत क़िस्से सुनाए जिनमें मुमु को दादी विलेन से कम नज़र नहीं आ रही थीं लेकिन माँ कह रही थीं यही तो बड़ों का प्यार और आशीर्वाद होता है।
“जानती है मुमु, जाते समय तेरी दादी अपनी सबसे सुंदर साड़ियाँ तेरी बुआओं को न देकर मुझे दे गयी थीं। उनके बाद तेरे दादा ने चाबियों का गुच्छा मुझे सौंप दिया था। मन ही मन सब बहुत कुढ़े लेकिन मेरे लिए तो यह ईनाम से कम न था। बड़ों की आत्मा प्रसन्न रहती है न तो पीढ़ियाँ तर जाती हैं।” कहते हुए माँ की आँखों में सूरजमुखी की सुनहरी आब आ बैठी थी। लेकिन उसे तो बाद में साड़ी और गहने नहीं चाहिए। उसे चाहिए अभी की ख़ुशी और शांति। वह किसी का अपमान नहीं कर रही लेकिन उसकी आत्मा की ख़ुशी के लिए कौन जवाबदेह होगा! चाय सुड़कते हुए मुमु की आँखों में पाखी फड़फड़ाये। उसने माँ को देखा जो उसके लिए अचार और पापड़ बाँधते हुए कह रही थीं, “माँ बिन मायका न सास बिन ससुराल। जितने कड़वे बोल, उतना गहरा सम्बन्ध।”
माँ की नन्हीं लड़कियाँ, सास तक पहुँचते स्त्रियाँ हो जाती हैं। फिर उन्हें उँगली की नहीं, आकाश की दरकार होती है। कड़वाहट से सींचने पर मिठास कैसे पनपेगी रिश्ते में! सोचते हुए वह झूले पर जा बैठी थी। ग़लती शायद उनकी नहीं है। बस सबकी ज़रूरतें अलग हैं । दो लोगों के बीच, दो अंतरालों के बीच ‘ईक्वल टू’ का निशान नहीं लगाया जा सकता।
तीन साल बाद जब कोकी का ट्रांसफर नॉएडा हुआ तब जाकर मुमु का मन स्थिर हुआ। सिकोड़ कर रखे गए पाँव इतने समय बाद फैलाए तो अंगड़ाई लायक़ जगह निकल आयी। जिबह होने से ठीक पहले कोई मेमना अनायास ही आज़ाद हुआ हो ऐसे हुलास के साथ मन भागता फिरा, किसी दरीचे पर टिक कर अगले दरीचे तक लम्बी कूद को आतुर।
निकलते वक़्त अम्मा ने कहा था, “ओसाण राखियो, बिगाड़ियो न चीज़ों को। मेरे बेटे की जेब में छेद न हो जाए।”
ढेर सारी हिदायतों, उलाहनों की गठरी बाँध कर यहाँ पहुँची तब तक बोझ हल्का हो चला था। पुराने दिन केंचुल छोड़ने लगे। यहाँ आकर ज़मीन पर रखा पहला कदम ज्यों हवा के ग़ुब्बारे की उड़ान। यह उसका घर था, उसका अपना स्पेस जहाँ वह मन का कुछ कर सकती थी। सबसे बड़ी बात थी निगरानी रखे जाने और डाँट पड़ने के सतत डर से मुक्ति। बड़ी भाभी ने फ़ोन पर हँसते हुए कह भी दिया था,
“मुमु रानी, क़ैद से छूटने की बधाई हो। तुम तो भई बड़ी लकी हो। इन के ट्रांसफर के लिए मैंने वैष्णो देवी की मनौती माँगी थी तब जाकर काम हुआ था। वह भी पूरे दस साल बाद। तुम तो सस्ते में छूट गयी।” लेकिन पड़ोसियों की कानाकानी में उसने सुना था कि घर में चलने वाली कलह के कारण भाभी ने आत्महत्या की कोशिश की थी इसीलिए भैया उन्हें लेकर चले गए थे। भैया घर नहीं छोड़ना चाहते थे पर भाभी की अवस्था देख अंततः वह पसीज गए। कुछ अपने बच्चों के लिए भी वे घबरा गए थे। धक्का अम्मा को भी लगा था कि उनका प्रिय पुत्र जो ख़ानदान में श्रवण कुमार के नाम से प्रसिद्ध था, उनके आगे सदा सिर झुकाए रखता था, एक झटके में उन्हें छोड़ चला गया। बड़े दिनों तक रोना-पीटना, भाभी को कोसना चलता रहा था। आज भी भाभी आती हैं तो कहाँ कोई उनसे सीधे मुँह बात करता है। मुमु सोच कर काँप जाती है घर की दीवारों में अवसाद भी चिना रहता है।
“जा रही हो लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि जिम्मेदारियाँ ख़त्म हो गयी हैं। अम्मा-अप्पा को सम्भालना तुम्हें ही है। दोनों भैया दूर रहते हैं और हमारा तो तुम जानती ही हो कितना व्यस्त रहते हैं। हमारा जल्दी-जल्दी आना सम्भव नहीं होगा।” कुंतल दीदी इतना ज़ोर से बोल रही थीं कि तारों से जंजाल से निकलकर आवाज़ एक शक्ल लेकर सामने आ खड़ी हुई थी। प्रकारांतर में वे कह रही थीं कि उड़ने की ज़रूरत नहीं है। तुम्हारी बेड़ियों का खूँटा अब भी यहीं गड़ा है।
कोकी चाहता था अम्मा-अप्पा भी साथ चलें लेकिन उनसे घर छोड़ते नहीं बना। घर की दीवारें जर्जर होती उम्र के लिए बेशक़ीमती हो उठती हैं। ज़िंदगी के आख़िरी पायदान पर, खरखराती साँसों में, बेजान पत्थर ज़िंदगी की कतरनें रख देते हैं। अम्मा-अप्पा के अकेले रह जाने की चिंता उसे भी थी। आते समय अम्मा के पैर छू कर मुमु ने कहा था कि वह मिलने आती रहेगी। अम्मा भी आएँगी तो उसे अच्छा लगेगा। अम्मा तमतमायी थीं,
“बेटे का घर है, बुलावे की ज़रूरत ना है।” कहकर मुँह मोड़ बैठ गयी थीं। मुमु देखती रह गयी थी उस साम्राज्ञी को जिसके साम्राज्य से वह अब भी निष्कासित थी।
पाँच साल हुए नॉएडा आए। अब तो अपना मकान भी हो चला है। अम्मा-अप्पा महीने-दो महीने में आ जाते हैं। हफ़्ता-दस दिन रुकते हैं फिर वापस। इतने सालों बाद भी ज़ुबान का तीखापन और मिज़ाज का रूखापन वैसा ही है। वे आते हैं तो घर की हवा यूँ भारी हो उठती है जैसे पीठ पर पत्थर बाँध कर फेंका गया क़ैदी। काम के लिए बोले गए शब्दों को अबोले की कैंची कतरती रहती है। उनके ग़ुस्से की तलवार अपनी नोक पर सदा लाल रहती है लेकिन वह अशिष्ट नहीं हो पाती। उसे ऊँची आवाज़ें नहीं सुहातीं, व्यवहार का कसैलापन परेशान कर देता है लेकिन कुछ दिनों की बात है सोचकर नज़रअन्दाज़ कर देती है।
कसौटी ज़िंदगी की…टीवी की आवाज़ तेज़ हो गयी थी। अम्मा को यह सीरियल इतना पसंद है कि रिपीट टेलीकास्ट भी नहीं छोड़तीं। उसने मुड़कर देखा। अम्मा मुस्कुराते हुए प्रेरणा और अनुराग का प्रणय दृश्य देख रही थीं। यह दृश्य देखते समय अम्मा के चेहरे पर जो स्निग्धता है, मुमु को यक़ीन नहीं हुआ यह वही अम्मा हैं जो बात-बात पर दहक उठती हैं। नायक और नायिका के राग का प्रतिबिम्ब बन रहा है अम्मा का चेहरा। चेहरे के काँटों को चीरती हुईं जैसे नयी अम्मा निकल आयी हों। अम्मा-अप्पा के जूठे बर्तन समेटते हुए वह क्षण भर के लिए चकित रह गयी, बंजर ज़मीन में नमी देख। अम्मा की नज़र उस पर पड़ी तो उसे अपनी ओर देखता पा वह अकबका गयीं।
“घूर क्या रही है? हमारा आना नहीं सुहाता तो बता दे, नहीं आएँगे। हुँह।” चेहरे की चिकनाहट को उनका ताव गड़प कर चुका था। उसके सामने कुकरी क्लास वाले संजय सर घूम गए जो बैलसामिक विनेगर की बात करते हुए कहते थे ताप लगा, श्राप चढ़ा अर्थात गर्म होते ही वह अपने गुण खो देता है। अम्मा की साँसों में घुली गरमी उस तक पहुँच रही थी। अम्मा की नसों के उतार-चढ़ाव से वह परिचित थी। ग़ुस्से में अम्मा के माथे का गूमड़ और फूल जाता है। “खाना तो ठीक से खिला कोकी को। इतने सालों बाद भी रंग-ढंग नहीं बदले।”
कोकी खाने की मेज पर आ गया था। वह खाना परोसने लगी। डोंगे-कैसरोल सब मेज पर रखने के बावजूद यह औपचारिकता उसे निभानी पड़ती है। नहीं तो दो हाथ आदमियों के, दो हाथ औरतों के।
“कोकी, दाल इतनी ही है। अभी बच्चे और मैं बचे हैं।” तीसरी बार दाल की कटोरी भरते हुए वह बोली थी।
“हाँ तो और बना लेना।” कहते हुए कोकी ने लापरवाही से छाछ का ख़ाली गिलास आगे बढ़ा दिया था।
“कभी तो तुम एक कटोरा भी नहीं लेते और कभी…।” वह फुसफुसायी थी पर अम्मा तो फुसफुसाहट पर अपने कान धर कर शब्द-शब्द सुन लेती हैं। अम्मा की कान की मशीन औंधी गिरी पड़ी थी। उसके बग़ैर भी सारे शब्द अम्मा के कमान में तीर बनकर जा गिरे जिनका इस्तेमाल अब वे मुमु के ऊपर करने वाली थीं।
“हाय,हाय। पति के खाने पर भी नज़र रखती है। यह नहीं कि ख़ुश होकर खाना खिलाए बल्कि उसके खाने से जला करे है। राम-राम कैसा अँधेर आ पड़ा है दुनिया पर। हमने आज तक न देखी ऐसी औरत।” अम्मा की आवाज़ में बम फटा था जो मुमु को चारों खाने चित्त करने के लिए काफ़ी था पर मुमु तो एकटक उन्हें देख रही थी। मन तो मुमु का चाह रहा था उनकी बलैयाँ ले ले, औरतों की ऐसी रेयर स्पीसी जो खोज निकाली है अम्मा ने पर उनके नज़दीक जाने का जोख़िम कौन ले। अम्मा का तैश वह तूफ़ान है जो अपने रास्ते पड़ने वाली हर चीज़ तहस-नहस करता चलता है।
“इतनी पढ़ी-लिखी होके भी इत्ती समझ न आयी। डायन भी सात घर छोड़ देवे है और तू उसी को खा रही है जो तुझे खिलाता है। कैसी आग लगी पड़ी है पेट में! हमसे पूछो जो पानी पीकर पड़ जाते थे पर मजाल है जो घर में किसी के खाने में कटौती की हो।” उसने आश्चर्य से अम्मा को देखा। अब तो थ्री कोर्स मील के बिना उनका काम ही नहीं चलता। पकाने वाला कोई और हो तो क्या पेट में दस सब-सेक्शन खुल जाते हैं।
“रात दो बजे भी उठकर रसोई करनी पड़े तो आलस न था हमको।” अम्मा कह रही थीं।
कोकी भरे मुँह से उसे लगातार इशारा कर रहा था। मुमु का इतना ज़्यादा चुप रहना उसे अम्मा-अप्पा का अपमान लगता है। अरे यार एक सॉरी बोलो और बात को चलता करो। हज़ार बार समझाया है मुमु को।
“नहीं अम्मा, अभी ट्यूशन वाले बच्चे आ जाएँगे न। दोबारा खाना बनाने का टाइम..।” न चाहते हुए भी उसे अब बोलना ही पड़ा।
“हाँ, हाँ तू तो बड़ी पराइम मिनिस्टर ठहरी जो टेम न है। ट्यूशन, ट्यूशन। नाक में दम कर रखा है मेरे बेटे के। धेला भर न मिलता। वक़्त बर्बाद करा करे है।”
मुमु कुछ सालों से लगातार टीचर की नौकरी के लिए परीक्षा दे रही है। लिखित परीक्षा तीन-चार दफे निकाल ली पर इंटरव्यू में सफलता नहीं मिली। आख़िरी दो साल और बचे हैं फिर उम्र ऊपर हो जाएगी। यूँ अब उसे ज़्यादा उम्मीद भी नहीं है। जानती है नंबर लगना आसान नहीं है। प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने की उसकी इच्छा नहीं। इधर पिछले दो सालों से पास की बस्ती से कुछ बच्चे उसके पास पढ़ने आने लगे हैं। दो बच्चों से शुरू हुआ कारवाँ बारह तक आ पहुँचा है। जब से बच्चों का रिज़ल्ट सुधरा है, बच्चों के माता-पिता का विश्वास भी उस पर जम गया है। मुमु के पढ़ाने से बच्चों का भविष्य सुधर जाए तो वे गंगा नहा लें। इधर बच्चे भी मुमु मैडम, मुमु मैडम करते नहीं अघाते। दोपहर में समय निकालकर दो-एक घंटे उन्हें पढ़ा देती है पर यह बात अम्मा की आँखों में किरकिरी बन चुभती है। जब-तब उसे ताने देती हैं।
“अपना घर संभलता नहीं है, दूसरों को बनाने चली है महारानी। इतनी ही होशियार है तो ख़ुद की परीक्षा काहे पास न कर ली?” अपने जाने वह मुमु की दुखती रग छेड़ती हैं पर मुमु जाने कौन मिट्टी की बनी है। असर ही नहीं लेती।
“मरे, ऐसी बास मारते हैं। जाने बैठती कैसे है ऐसों के पास।” जबकि मुमु के पास आते समय वे नहा कर, अपने दो जोड़ी कपड़ों को जतन से धो कर, बदल कर पहनते हैं। सरसों का कड़वा तेल सिर में रमा, क़रीने से काढ़े गए बाल देख मुमु स्नेह से भर उठती है। लेकिन अम्मा-अप्पा के होते हुए बच्चों को घर के बाहर बैठ कर ही पढ़ा पाती है।
“जाने कौन जात के लोगों का लंगर खोल रखा है।” अप्पा बड़बड़ाते हैं। “हम तो घर में न घुसाने वाले। हमारी पीठ पीछे जो करो पर देख कर हम मक्खी नहीं निगल सकते।”
कोकी ने तो हमेशा की तरह बेफ़िक्री से कह दिया था, “अभी तो सर्दियाँ हैं। खिली हुई धूप में बैठ कर आराम से पढ़ाओ। विटामिन डी मिलता रहेगा तुम सबको।” कहकर उसकी पीठ पर धौल मारते हुए वह ज़ोर से हँसा था। “गर्मियों में एक पंखा और एक शेड लगा लेना। हो गयी प्रॉब्लम सॉल्व।” कहते हुए उसने अपना कॉलर ठीक किया। ऑफ़िस में उसकी मैनेजमेंट स्किल का लोहा सब ऐसे ही थोड़े न मानते हैं। अब कोई कोकी से पूछे ट्रैफ़िक के शोर में और पड़ोस में खेल रहे बच्चों की चिल्ल-पौं में कैसे ठीक से पढ़ाई हो। आईने में मुमु को देखते हुए कोकी ने फिर कहा,
“यार, बाहर के लोगों के लिए घर वालों का जी कौन दुखाता है। वैसे भी अम्मा-अप्पा कौन-सा हमेशा यहीं रहते हैं। दो-चार दिन की बात है। मन-मुटाव क्या करना। बड़ों का दिल दुखाने का पाप मैं तो अपने सिर नहीं ले सकता। आगे जो तुम्हारी इच्छा हो वो करो।” इच्छा हो वह करने पर तो घर की चूलें हिल जाएँगी। जाने अम्मा, कोकी के मन की बातें कहती हैं या कोकी अम्मा की तरफ़दारी करता है।
वह बच्चों को खाना देकर बाहर जाने को थी कि अप्पा ने चटकते हुए स्वर में उसे पुकारा, “अरे, दवाई तो पकड़ा दो। यहाँ कोई मरे इनकी बला से, इनका क्या जाता है। कितनी बार कहा है मोबाइल में अलार्म लगा लो कि अप्पा को दवाई देनी है पर नहीं साहब। अपनी ही धुन में दौड़ती-फिरती हैं।”
अप्पा की आँख का ऑपरेशन पिछले हफ़्ते ही हुआ है। यहाँ अस्पताल अच्छे हैं। देखभाल भी ठीक से हो जाती है। और फिर अब महीने भर में जाना भी है। कोकी का ट्रांसफर बैंगलोर हो गया है। अम्मा ने कहा है उसे तो शऊर है नहीं। वह सामान बँधवा कर ही जाएँगी। सोचते हुए मुमु उदास हो गयी। वह यह घर छोड़ कर नहीं जाना चाहती। उसने कहा भी कि वह यहीं रह जाती है, कोकी अकेला चला जाए। सुनते ही कोकी को जैसे काठ मार गया।
“ऐसी अनहोनी बातें कैसे सोच लेती हो तुम? अलग ही रहना हो तो लोग शादी क्यों करते हैं?” मुमु मन ही मन ऐसे नाम गिनने लगी जो अलग-अलग कारणों से दूर रहते हैं, फिर भी उनका वैवाहिक जीवन खुशहाल है। और वह हमेशा के लिए तो कह नहीं रही। मुमु के चेहरे के भाव देख कोकी जज़्बाती हो गया,
“मैं तुम्हारे और बच्चों के बिना कैसे रहूँगा।”
“बच्चों के दोस्त, स्कूल सब तो यहीं हैं। बार-बार बदलने से कितनी दिक़्क़त होगी।” उसने व्यावहारिक बात कही। वैसे भी उसके और बच्चों के साथ वह कितना-सा वक़्त बिताता है। ऑफ़िस से बचे हुए समय में नेटफ़्लिक्स और बिलियर्ड्स से फुर्सत मिले तब न।
“यह भी भली कही। बच्चे फ़्लेक्सिबल होते हैं। एडजस्ट हो जाएँगे।” इस बार कोकी ठिनका। “एक-दो महीने की बात तो है नहीं। पूरे तीन साल की बात है।”
“तीज-त्योहार पर छुट्टी मिलती है। तब तुम आ जाना। बच्चों की छुट्टियों में मैं आ जाऊँगी। तीन साल ही तो हैं, झट निकल जाएँगे। इतने समय के लिए बंद करेंगे तो मकान भी तो मिट्टी हो जाएगा।” उसने सहजता से कहा।
“मकान की चिंता है, परिवार की नहीं।” कोकी ने झुँझलाते हुए कहा। उस रात नाराज़ होकर वह जल्दी सो गया था। सुबह उठा तो स्वर बदला हुआ था।
“तुम मुझे छोड़ने के बारे में तो नहीं सोच रही हो न?”
उसकी हँसी छूट गयी। ये पुरुष भी क्या-क्या सोच लेते हैं। उसकी बात का यह अर्थ भी निकाला जा सकता है, कल्पना तक नहीं की थी। खिड़की की जाली से सूरज की महीन किरणें फिसल रही थीं। वह भी उन पर सवार हो गयी। घर की एक-एक चीज़ बड़ी मशक़्क़त और हसरत से जोड़ी हुई। सोफ़े, मेज से लेकर तस्वीरों और पेंटिंग तक। बग़ीचे के पौधे जो शहर की प्रदर्शनियों से बटोरे हैं। घर के अलग-अलग कोने जो अलग-अलग काम के लिए नियत हैं। कहीं बैठकर बच्चों से लाड़ लड़ाती है, कहीं बैठकर ख़ुद से। कहीं बैठकर चाय पीना पसंद, कहीं बैठकर शर्बत। बायाँ कोना अख़बार पढ़ने के लिए तो वह दायाँ वाला बारिश देखने के लिए। छत कबूतरों को दाना डालने के लिए तो चबूतरा कुत्तों को रोटी खिलाने के लिए। और वह गौरा गाय जो उसे देखते ही रंभा उठती है। दीवारों का हरा रंग ज्यों जंगल को पनाह दी हो। सफ़ेद माइका की अलमारी जैसे बादल के टुकड़े को घर के भीतर बिठा दिया हो। बड़ा-सा वृत्ताकार पलंग ज्यों पृथ्वी का केंद्रबिंदु। घर उसके भीतर संगीत-सा लहराता है। यह घर ही तो है जिसने उसके अस्तित्व को जस का तस स्वीकार लिया है। इसको छोड़ कर जाते उसकी आत्मा दुखती है। घर एक ही होता है। दुनिया में कहीं भी रहें, लौटने के लिए पुकारता है। उसके लिए यह वही जगह है।
“ट्यूशन वाले बच्चों की बोर्ड परीक्षा भी है अगले साल। अभी चली जाऊँगी तो उनका रिज़ल्ट बिगड़ जाएगा।” मेज साफ़ करते हुए उसने बात आगे बढ़ायी।
“हमारे देश में ग़रीबों की कमी है क्या? समाजसेवा ही करनी है न तुम्हें, बैंगलोर में कर लेना।” सैंडविच कुतरते हुए कोकी ने कहा। “और तुम्हें इन्हीं का उद्धार करना है तो हमारी कम्पनी की वेलफ़ेयर स्कीम से एक लैपटॉप दिलवा दूँगा इनको। पढ़ाती रहना ऑनलाइन सबको।” ये दी पटखनी मुमु मेमसाब को। “ऐपल शेक भी बना दो। सैंडविच का मज़ा दुगुना हो जाएगा।” कोकी ने अपने कंधे उचकाए।
“राम जी! यह है असली कारण।” अम्मा ने हँकारते हुए कहा। तुमने क्या ठेका ले रखा है उनका। फ़ालतू कामों की बजाय घर देखो।तुम जाओगी तो उन्हें कोई और मिल जाएगा। अच्छा है तुम्हारा पिंड छूटेगा। गले की हड्डी बने बैठे हैं।” अम्मा तक जाने हर बात कैसे पहुँच जाती है। अब जब बात पहुँच ही गयी तो ज़लज़ला उठना तय था। तुरत-फुरत बैठक बैठी।
महीने भर के लिए चंडीगढ़ गयी अम्मा को छोटी भाभी ने पाँच दिन में लौटा दिया था। तब से अम्मा ने उन से बात नहीं की थी लेकिन आज तो उन्हें भी वीडियो कॉल मिलाया गया। अम्मा ने रोना रोया,
“अरे हमारे ज़माने में भी आदमी बाहर कमाने जाता था लेकिन वह बात और थी। तब भरा-पूरा कुनबा होता था, परिवार में एक औरत कम होने का मतलब था दो हाथ कम होना। परिवार को नयी जगह बसाने के लिए पति के पास कहाँ रुपया-पैसा होता था। इसलिए लुगाई पीछे गाँव में रहती थी लेकिन कितना तरसती थीं अपने आदमी के संग-साथ के लिए। एक ये हैं जिन्हें पति आँखों पर बिठा रहा है तब भी उल्टी गंगा बहा रही हैं।” कहते हुए अम्मा ने प्यार से अपने बेटे को देखा जो उनकी आँखों में बेचारा, मुमु का मारा है। मुमु न हुई, मछुआरे का जाल हो गयी।
भाभी तिरछी मुस्कान से साथ सब सुनती रहीं फिर ठठा कर हँस पड़ीं। हँसते हुए उनकी लौंग का लश्कारा स्क्रीन के बाहर आ गिरा। कोई और टाइम होता तो अम्मा उनकी इस अदा पर मुँह बिचका देतीं पर आज तो बात ही दूसरी थी।
“देख लेना अम्मा कोई और मामला न हो। याद है न आपको चिंकी की ननद का क़िस्सा…।” रहस्यमयी मुस्कान के साथ उन्होंने जानबूझ कर बात अधूरी छोड़ दी। चिंकी, अम्मा की जेठानी की पोती…उसकी ननद ने तलाक़ लेकर अपने प्रेमी से विवाह किया था। पति उसका बाहर नौकरी करता था। बरसों बरस बाद भी इस बात पर चटखारे लिए जाते हैं।
भगवान भला करे। अम्मा ने दोनों कानों को हाथ लगाया। यह कलजुग जो न दिखाए वह कम। उन्होंने मुमु की लचीली कमर को देखा। उसकी साड़ी बंद करवाएँगी जल्द ही। सूट बेहतर है। कम-अज़-कम सब छिपा तो रहेगा। आज चाय के साथ पकौड़े खा कर भी वह मुँह फुलाए रहीं। अप्पा चश्मे के पीछे से सारी बातों का जायज़ा ले रहे थे। सब मान कर बैठे थे कि आज मुमु की खैर नहीं। मुमु थी कि पारदर्शी शीशे की भाँति सब आर-पार। यह सब उसके भीतर ठहरता नहीं है।
“जानती हो, तुम्हारी सारी बातें अजीब हैं। हमसे न सही अपने पति से तो लगाव रखो।” मुमु ने सोचा यह आवाज़ वैज्ञानिकों द्वारा खोजे गए वुर्टसाइट से अधिक कठोर होगी या कम। अपनी इस तुलना पर वह रीझती इस से पहले उस ख़याल आया कि सब उसकी ओर देख रहे हैं।
“नहीं, वह बात नहीं है अप्पा। बार-बार घर-शहर बदलना आसान नहीं है और अब मेरा भी मन यहाँ रम गया है।”
“मन!” अप्पा आग-बबूला हो गए। “मन क्या होता है। मन की करनी तो हमें ही नसीब नहीं हुई और घर-शहर बदलने में क्या मुश्किल। बैलगाड़ी पर लद कर नहीं जाना तुम्हें।”
मुमु से अपेक्षा थी कि वह नज़रें नीची कर ले पर वह तो खिड़की के बाहर क्षितिज पर नज़रें टिकाए हुए थी। अम्मा से उसकी यह गुस्ताखी बर्दाश्त नहीं हुई।
“घर और मन क्या पति से अलग होवे है। वहाँ तुम्हारे बिना कोकी को रहने-खाने की परेशानी होगी, उसका क्या? ऑफ़िस से आकर खुद खाना बनाएगा या नौकर के हाथ का कच्चा-पक्का खाएगा। लड़का कुम्हला न जाएगा। पति इनके लिए वहाँ खटता रहे, पत्नी यहाँ मज़े लूटे। पति के मन की भी सोचो।” उनकी बूढ़ी आँखों में क्रोध की जवान, हरी लकीर लपलपा रही थी।
“देखो, कैसे मुँह में दही जमाए बैठी हैं। बाहर वालों से तो खूब बोलती हैं।” कुंतल जीजी ठीक उसी स्वर में बोलीं जिसमें शादी के दूसरे दिन कोकी का नाम लेने पर उन्होंने मुमु को सबके सामने झिड़का था। “दो-चार बच्चों को मुफ़्त में पढ़ा कर घमंड से भर गयी हैं। यहाँ से जाएँगी तो चौकड़ी भरना भूल जाएँगी।” उन्होंने दाँत पीसते हुए कहा। अम्मा ने उन्हें इस सभा के लिए ख़ास बुलाया था। वह होती हैं तो अम्मा दुगुनी ताक़त से भर उठती हैं।
“बच्चों के बारे में तो सोचो मुमु। बढ़ती उम्र है। बाप साथ न हो तो बच्चे आवारा हो जाते हैं।” राजेंद्र जीजाजी ने चाय का घूँट भरा। “हमने तो अपनी आँखों से कितने परिवार बर्बाद होते देखे हैं।”
“तुम्हारे माता-पिता को पता है तुम्हारा निर्णय? अब तुम कुछ नहीं कहोगी तो हमें उनसे बात करनी होगी।” अप्पा ने तुरुप का पत्ता चला। इस बात के बाद कोई कुछ न बोला। सब चुपचाप उसको टोह रहे थे कि वह कुछ बोले। मुमु को स्कूल के दिन याद आ रहे थे जब गलती करने पर प्रिन्सिपल के सामने पेशी लगती थी। कमरे के भीतर सघन मौन पसर गया था जो टूटा कोकी के फ़ोन की आवाज़ से। कोकी ने बेमन से फ़ोन उठाया लेकिन बात करते हुए कोकी की बाँछें खिल गयीं। उसने मुमु को देखा जो चुपचाप बैठी सबके शब्दों को चुभला रही थी।
“हाँ, हाँ। थैंक यू, थैंक यू। थोड़ी देर में बात करवाता हूँ।” उधर से जाने क्या कहा गया कि उसकी आवाज़ का मौसम बदल गया। उसने फ़ोन रखा और पहली बार सबके सामने मुमु को गले लगा लिया लेकिन सकुचाकर तुरंत पीछे हट गया। ऐसा क्या हो गया! सब कोकी को ऐसे देख रहे थे जैसे ऐन मौक़े पर उनकी टीम के खिलाड़ी ने पाला बदल लिया हो।
“देख लो, मैं न कहता था सत्तू बाँधकर पीछे पड़ो तो सवाल ही नहीं तुम्हें सफलता न मिले।” उछाह से भरकर वह कह रहा था। यह कोकी कब कहता था! मुमु ने सोचा और सवालिया निगाहों से उसकी ओर देखा।
“इंटरव्यू क्लीयर हो गया है भाई। जल्दी से हलवा बनाकर भगवान को भोग लगा दो और सबका मुँह भी मीठा करवा दो।” कोकी ने सबकी ओर इशारा किया। मुमु ने गर्दन घुमायी।
“अरे अब भी नहीं समझीं? स्वाति का फ़ोन था। तुम्हारा फ़ोन नहीं लग रहा इसलिए मुझे कॉल किया। लेकिन तुमने बताया नहीं इंटरव्यू देने कब गयी।” शिकायती स्वर में कोकी ने कहा।
इंटरव्यू निकल गया। वह भावशून्य होकर कोकी को देखती रही। मुमु को खबर जज़्ब करने में कुछ समय लगा। मतलब..मतलब उसे नौकरी मिल गयी है। इतनी बड़ी घटना क्षण भर में घट गयी। यह क्षण कितने बदलावों का प्रस्थान बिंदु हो सकता है। उसने इस क्षण को ठीक से परखा और गाँठ देकर अपनी स्मृति में बाँध लिया। उसकी पलकें इस ख़बर के सुख से मुँद गयीं। खुलीं तो वहाँ सपने झिलमिला रहे थे।
“बताया तो था। दिल्ली गयी थी…”। काँपते हाथों से उसने मोबाइल निकाल कर अपना रोल नंबर डाला। वह खुद देखना चाहती थी।
‘ओह हाँ। अब इतनी बार इंटरव्यू देने गयी हो कि याद नहीं रहता न।” खिसियाते हुए कोकी ने कहा। उसे याद आया वह दिन। अम्मा कितना नाराज़ हुई थीं कि वह खाने-नाश्ते के समय बाहर क्यों जाती है। पीछे से परेशानी होती है। लौटकर मुमु ने खाना ऑर्डर किया था जिसके लिए उसे बहुत डाँट पड़ी थी।
“हो गया इस बार! हम तो उम्मीद ही छोड़ चुके थे।” जीजाजी अब नमकीन फाँक रहे थे।
“चलो अच्छा है। अब भैया अपना साइडबिज़नेस शुरू कर सकते हैं। कब से प्लान कर रहे हैं। ख़ून निचोड़ लिया इस नौकरी ने। दो जन कमाने वाले हों तो एक-दूसरे का सहारा रहता है। पढ़ाई-लिखाई का कुछ तो फ़ायदा हुआ।” कुंतल जीजी ने पाँव फैलाते हुए गहरी साँस भरी।
कोकी बहुत समय से अपना व्यापार शुरू करने की जुगत में था पर घर में कमाने वाला इकलौता सदस्य था इसलिए रिस्क लेने की हिम्मत नहीं हो रही थी। इस नौकरी में हाड़तोड़ मेहनत के बाद भी वैसा लाइफ़ स्टाइल नहीं जैसा वह चाहता है। अब मुमु की नौकरी पक्की हो गयी है तो अपने मनचाहे इक्स्पेरिमेंट कर सकेगा। व्यापार के लिए पैसा मुमु की तनख़्वाह से निकल आएगा। घर की किश्तें, नयी कार, इग्ज़ाटिक वेकेशन सब आसान हो जाएगा। सबसे पहले तो अपने दोस्तों को पार्टी देगा। महँगे क्लब में महँगी शराब। इतनी बार सबकी पार्टी में पी चुका। उसकी ख़ुशी रह-रहकर होंठों से बाहर छलक रही थी। कमाल कर दिया मुमु ने तो।
अम्मा को औरतों का इस तरह मारे-मारे फिरना पसंद तो नहीं है लेकिन बेटे की भलाई की बात सुन कर बोलीं, “अब तुम सबकी राजी इसी में है तो ठीक है। मुमु हमारा ध्यान ढंग से रख सके तो हम इतना कर सकते हैं कि बच्चों के लिए यहाँ आ जाएँ। हमें तो तीन टेम का खाना चाहिए बस।”
“हाँ, हाँ मुमु। तुम लोगों को बार-बार जगह नहीं बदलनी पड़ेगी। तुम भी तो यही चाहती थी। मैं आता रहूँगा। तुम्हारी छुट्टियों में तुम आओगी ही। बच्चों को मेरी कमी नहीं खलेगी। रही बात खाने की, बैंगलोर में खाने की कोई कमी है क्या। इतने यार-दोस्त हैं, एक से एक टिफ़िन सेंटर और मेस हैं।” कोकी उत्साह से हाँफने लगा था। “देखना, हम मिल कर सब ऐडजस्ट कर लेंगे।” व्यापार की सेटिंग ठीक बैठ गयी तो नौकरी छोड़ जल्द वापस आ जाऊँगा। थोड़े समय की बात है।” कोकी फिर चहका।
“फिर यही तय रहा। अब नौकरी करनी है तो त्याग दोनों को करना होगा। आगे तुम लोगों का ही फ़ायदा है।” अप्पा ने अपना फ़ाइनल वर्डिक्ट दिया। “और मुमु तुम तो भाग्यशाली हो। पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर चलने का अवसर मिला है।”
सबका बदला हुआ स्वर सुनकर मुमु ने मोबाइल से सर उठाकर देखा। अभी तक परिवार की एकता पर व्याख्यान देने वालों का मत कितनी जल्दी बदल गया था। थोड़ी देर पहले तो उसे उठाकर कोकी के साथ भेज रहे थे। अब अपनी सुविधानुसार यहीं रख रहे हैं। वे प्रश्न जो उसके यहाँ रुकने में आड़े आ रहे थे, उनके जवाब कितनी जल्दी ढूँढ लिए गए। हर मुश्किल का हल निकाल लिया गया। उसे गुदगुदी हुई। वह मुस्कुरायी।
“ठीक है। आप सबकी यही मर्ज़ी है तो मैं पैकिंग करती हूँ।”
“पैकिंग क्यों?” सब अवाक। शोर थम गया।
“पोस्टिंग असम के खानापारा में मिली है।” कहकर मुमु कमरे की ओर बढ़ चली। अम्मा ने देखा उसकी कमर हमेशा से ज़्यादा लहरा रही थी। उस पर लम्बी चोटी, साँप से भी ख़तरनाक। सब उसे ऐसे देख रहे थे जैसे भूत देख लिया हो। सबके हाथों के तोते उड़ गए थे। सिर से सिर जोड़े वे इस नयी स्थिति से निबटने का सामान तैयार करने लगे। सरगोशियाँ तेज़ हो गयीं।
“अरे! पर हमने तो सोचा कि नौकरी यहीं लगी होगी। इसीलिए नौकरी के लिए हाँ कह दिया था।”
“नौकरी कौन ज़रूरी है भई। घर बैठो अपने।”
“ट्रांसफर का जुगाड़ करना होगा।”
“वह कोई रहने की जगह है?”
“इतनी दूर कैसे?”
“दिमाग़ ख़राब..”
“घर छोड़कर..”
“बच्चे..”
“अकेली..”
“पति..”
“ज़िम्मेदारी..”
शब्द अलट-पलट कर उस तक पहुँच रहे थे। सवाल गड्डमड्ड हो आपस में उलझे पड़े थे पर इन सब बातों के जवाब तो अभी-अभी वे ख़ुद ही दे चुके थे। वह मज़े से सबको सुन रही थी। मुमु का मन हुआ पलट कर, एक आँख दबा कर, जीभ निकालकर, टिली-लिली कर दे।