“क्या रे पुनी क्या कर रही है?” 
“खेल रहे हैं” बरामदे पर अपने मिट्टी के बरतन सजाती पुनीता ने बिना सिर उठाए, बिना देखे ज़वाब दिया। लंबू भैया, जिनका असली नाम उसे नहीं मालूम, संजु भैया के कॉलेज के दोस्त हैं और ताई के कमरे में घंटों बैठे-बतियाते देखा है उसने। कई बार दोनों पैर से पकड़ कर उसे गोद में उठा लेते हैं और जाँघ के बीच अपना हाथ घुसा कर झुलवा झुलाने लगते हैं तो उसे अच्छा नहीं लगता है, लेकिन माँ कुछ नहीं कहती। वे हँसते हुए कहते हैं, “ज्यादा छटपटाएगी तो अपने साथ लेकर चले जाएँगे और रूम में बंद कर देंगे।” वह कुछ नहीं कह पाती है, बस सहम जाती है। साझा मकान है। संजु भैया सबसे बड़े हैं, फिर उसकी सुमि दी और राम भैया, फिर ताऊ की बेटियाँ और वह सबकी दुलारी। उसका सब पर राज है, चूल्हा अलग हो तो हो, उसे क्या, वह तो सबकी बेटी है। ताई की भी, चाचा-चाची की भी और अपने माँ-बाबूजी भी। मगर भैया जब लंबू भैया को देखते हैं तो उसको साझे बरामदे से हटकर, भीतर कमरे में खेलने कहते हैं और ताई के कमरे में जाने से भी मना करते हैं। अपना खेल बीच में रोकना उसको अच्छा नहीं लगता, इसलिए कई बार अनसुना कर देती है। उसे कभी समझ नहीं आता कि भैया लंबू भैया से चिढ़ते क्यों हैं। लंबू भैया सारे छोटे बच्चों को लेमनचूस खिलाते हैं। कभी-कभी सोहना के दुकान का रसगुल्ला भी। वह बच्चा टीम में सबसे छोटी है तो उसको जबरदस्ती ज्यादा देते हैं, जबकि ताई की छोटकी बेटी रिंकू दीदी, तोता भैया को घेरे रहती है। उसने मीतू दीदी को भी स्कूल जाते नहीं देखा, रिंकू दीदी को भी नहीं, जबकि वह तो उससे बहुत बड़ी है और फुटबॉल जैसी भी। मीतू दीदी शांत रहती है, मगर वह लंबू भैया से लड़ती है कि आप पुनी को ज्यादा मानते हैं।
आज भी जब लंबू भैया ने टोका तो उसने आवाज़ पहचान ली, मगर अनदेखा कर दिया। “लेमनचूस नहीं लेगी?”
“नहीं” वह अपने खेल में लगी रही। बाबाधाम से लौटते हुए बाबूजी ने बरतन का सुंदर सेट खरीद दिया था, उसमें चूल्हा भी था और माँ की रसोई में रखे पतीले जैसे बरतन भी। अब वह रोज़ खाना बनाने और गुड़िया को खिलाने में मगन रहती है। उसका हमउम्र कोई नहीं, जो खेले, ताई का सबसे छोटा बेटा बाबू तो बस बाबू ही है और काका का बेटा तो छुटकू-सा गोद में है। दाँत भी नहीं उसके और ज्यादा बोलता भी नहीं।
बिना पलटे ही उसे कुछ भारीपन महसूस हुआ तो जल्दी से सामान समेटने लगी, तभी संजु भैया की आवाज़ सुनाई दी, “यहाँ इसके पीछे खड़े होकर क्या कर रहे हो? चलो यहाँ से। खेलने दो, हमेशा तंग करते रहते हो।”
 “अरे हम तो….”लंबू भैया कुछ कहते हुए कमरे में घुस गए। उसने चैन की साँस ली। पहले उसे भी लंबू भैया के साथ खेलना, ज़िद करना अच्छा लगता था, मगर अब तो वह उनकी तरफ देखने से भी बचती है। कैसे ताई की बड़ी चौकी पर बैठे-बैठे ज़बरन गोदी में बिठा लिए थे और उसके  दोनों पैरों को फैलाकर हाथ से दबोचे रखा था, एक पिलपिलापन महसूस होता रहा था, अजीब-सा! छटपटाती रही थी देर तक। ताई का ध्यान नहीं गया, संजु भैया का ध्यान गया तो डाँटा था उन्हें और तब उतर कर तेज़ी से भागी थी वह। अपने कमरे में भी थोड़ी देर तक दिमाग पर ज़ोर देती रही, ‘बाबूजी, काका या जीजाजी या और किसी के गोद में वैसा महसूस नहीं हुआ कभी, माँ की गोद में तो बिलकुल नहीं।’
उसका खेल से मन उचट गया। गुस्सा भी आया। एक तो एतबार को धूप में खेलने का मौका मिलता है, उ भी …..। जाड़े की मीठी धूप उसी बरामदे पर अच्छी लगती। आँगन में धूप के साथ तेज़ हवा भी लगती तो धूप का मज़ा न मिलता, इसलिए घर के काम निपटाकर माँ भी वहीं चटाई बिछाकर बैठती है और चावल-दाल चुनती है। ताई भी सुतली से बुने मचिए पर बैठती है। ताऊ कुर्सी पर। जब ताऊ बैठते हैं, तब माँ नहीं आती। मगर उसे क्या, वह तो अपने खेल में मस्त रहती है और उसे कोई टोकता भी नहीं।
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‘लंबू भैया अपने घर में क्या कर रहे हैं?’ स्कूल बस्ता कंधे पर लटकाए उसने दरवाजे से देखा और पलट कर आँगन होकर दूसरे कमरे में जाने लगी कि माँ ने पुकारा, “कहाँ जा रही है?”
“आ रहे हैं।”
“भैया तुमरे लिए बैठा है। बोल रहा है, तुम गुस्सा हो।”
उसे समझ नहीं आया कि क्या कहे, वह वहीं दरवाजे पर खड़ी रही।
“अच्छा, मत बात करना, चॉकलेट तो ले लो” लंबू भैया बोले।
“नहीं चाहिए!”
“पुनी!” माँ ने डाँटने के अंदाज़ में पुकारा तो वह कमरे में आई और उसकी ओर बढ़ी। लंबू भैया ने रंगबिरंगी पन्नियों में लिपटे लॉजेन्स और टॉफियाँ भरी हथेली सामने फैला दी। उसने माँ की तरफ देखा और उनकी हथेली से टॉफियाँ उठाने लगी तो उन्होंने फिर हल्के से पकड़ा, “अच्छा पहले बोलो, हमसे काहे गुस्सा हो? हमको देखकर भागती काहे हो?”
“अरे, बड़ी मन-मतंगी है। आप ई बच्चा पर एतना काहे सोचते हैं। आप तो सब बच्चा को प्यार करते हैं, हम देखते नै हैं क्या!” माँ ने ज़वाब दिया।
उसके मन में आया कि कहे, नहीं चाहिए लॉजेन्स और टॉफी, मगर चुप रही। 
“अच्छा लो” कहकर उन्होंने उसकी नन्ही हथेली पर सारी टॉफियाँ रख दीं। “अब देखकर मुँह मत घुमाना, समझी।”
“अब बात नै माने तो हमसे कहिएगा।” माँ बोली तो उसने गुस्से से भीतरी नज़र से माँ को देखा। ‘सारा दिन दीदी और माँ हमको अल्हड़, लोल बोलते रहती है। दूसरे के आगे भी।’ अपनी सोच पर उसे आश्चर्य हुआ, ‘लंबू भैया उसे और राम भैया को अपने नहीं लगते, दीदी और माँ को कैसे लगते हैं!’ वह उदास हो गई। हथेली की टॉफियाँ मुट्ठी में लिए-लिए दूसरे कमरे में गई और काठ की अलमारी में रख दी, जहाँ माँ खाने की चीज़ें रखती है, फिर दूसरे दरवाजे से निकलकर आँगन में जा बैठी। स्कूल से लौटकर खाना खाने के बजाय ये सब … उसे अच्छा नहीं लगा। भूख से पेट कुलबुलाने लगा तो रसोई की तरफ बढ़ी। सुबह बाबूजी के साथ खाकर स्कूल जाती है, दोपहर में वहीं कुछ खा लेती है, तो शाम को 4 बजे छुट्टी होते ही घर भागती है। सोचा था, माँ से समोसा के लिए कहेगी, फिर मूढ़ी-समोसा खाएगी, मगर मूड खराब हो गया। ‘हम लंबू भैया से टॉफी नै माँगते हैं, नै लेते हैं तो आसमान टूट गया क्या जो माँ के सामने दुलार दिखाने आए!’ दबे पाँव बढ़ते आक्रोश ने उसकी मुस्काती आँखों में अंगार भर दिया था। 
    “ यहाँ क्या करने आए थे लंबू राम?” राम भैया रूखे स्वर से पुनी समझ गई कि वे चले गए है।”
   “ऐसे ही! नौकरी लगा तो अशिरबाद लेने आया था।”
‘माँ हमसे तो बोली, भैया तुमरे लिए आया है। राम भैया से बोल रही है, अशिरबाद लेने आया था!’ वह एक बार फिर उलझ गई।
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“स्कॉलरशिप परीक्षा असान नहीं होता है राघव बाबू। हमको लगता है, इसको कोय घर में पढ़ाई समझाता भी नै है। वहाँ भी कोसचने नहीं समझ पाई, आन्सर आता था उसको, बाद में सुनाई हमको” मास्साब अफ़सोस करते हुए बोले।
“फिर भी इसका दिमाग देख कर लगता है, आगे पाँचवी में परमोशन पाइये लेगी। तब उसको छठी नहीं पढ़ना होगा। बड़ी होनहार बच्ची है आपकी।” 
    बाबूजी ने हाथ जोड़ दिए। “हमको भोर छह बजे से रात आठ बज जाता है नौकरी और पार्ट टाइम में। फिर थक जाते हैं और ई बच्चा लोग भी सो जाता है।”
“आगे और चांस मिलेगा, चिंता मत करिये। अभी उमरे क्या हुआ है!” मास्साब कहते रहे कुछ-कुछ, बाबूजी सुनते रहे। उसे ज्यादा समझ नहीं आया। अभी-अभी तो सात साल पूरा हुआ। माँ मंदिर लेकर गई थी और परसाद चढ़ाया था। स्कूल में सारे मास्साब प्यार करते, उसे हर प्रोग्राम में भाग लेने कहते और उसे भी मजा आता, और खुश भी होती जब मास्साब बाबूजी से तारीफ करते। बस, दीदी किताबी कीड़ा कहती रहती। 
  “किताब पढ़ने से सारा अकल नहीं आ जाता। किसी बड़ा से बात करने का तो सहूर नहीं है, बस तपाक से जबाब देने आता है। सबसे भिर जाती है। भूल से भगवान बेटी बना दिया, बेटी वाला एकको लक्षण तो है नहीं। ई पंडिताई करके क्या होगा बुरबक लड़की।” दीदी कहती, तब भी माँ उनको कुछ नहीं कहती। 
    उसके भीतर हताशा की परत जमने लगी, मन कमज़ोर पड़ने लगा। ‘बोल्डनेस कहाँ और कैसे गायब हो रही है?’ वह अकेले में कई-कई बार सोचती, फिर सोचना छोड़ दिया।    
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     “चाची, पुनी को साथ ले जाएँ? यही पावरोटी फैक्टरी तक जाना है।” रिंकू दीदी ने पूछा तो माँ ने हामी भर दी। रिंकू दीदी उससे चार या पाँच साल बड़ी है, गोल-मटोल, गहरा रंग और वह उसके सामने छुटकी-सी दुबली-पतली बच्ची, फिर भी साथ लेकर जाती है। उसे हँसी आई, मगर कुछ कहा नहीं।
  सड़क पार कर, स्कूल की दीवार की बायीं गली में परली तरफ पावरोटी फैक्टरी से ताज़ा पावरोटी-बिस्कुट लेने घर से कोई न कोई अक्सर आता रहता था। रिंकू दीदी के साथ जाने में उसे भी ऐतराज न हुआ। घेरदार फ्रॉक पहने, पाँव में सेंडिल डाल कर उछलती-कूदती चली। सड़क पार करके फैक्टरी वाली गली में मुड़ते ही रिंकू दीदी बोली, “लंबू भैया का लॉज भी यही हैं।” 
“लॉज मतलब?”
“यहाँ लंबू भैया और उनका दोस्त लोग भाड़ा पर रहता है। यह घर नहीं है।”
“तो?”
“कुछ नहीं!”
“देख लेंगे, बुलाएँगे तो जाना पड़ेगा न!”
“रिंकू दी, तुम जाना, हम नहीं जाएँगे। जो खरीदना है खरीदो, घर चलो।” फैक्टरी के दरवाजे के पास रुकती हुई पुनी बोली।
“ देखो, भैया छत पर हैं। बुला रहे हैं।”
“रिंकू दी!” तुमको कुछ खरीदना है कि नहीं या ऐसे चक्कर काटने आई हो?” बिना सिर उठाए पुनी झल्लाई। “कभी गई हो घर…लॉज, जो तुम बोली? और काहे जाओगी?” पुनी को आवेश में आता देख रिंकू धीरे से ‘हाँ’ बोलकर चुप हो गई। पुनी असमंजस में पड़ी, खड़ी रही। लंबू भैया ने आवाज़ लगाई, “रिंकू ऊपर आ जाओ। संजु का नोट्स लेती जाना।”
“चल न! नोट्स लेकर, तुरतते आ जाएँगे। पावरोटियो लेना है।”
“तो लेकर आ जाओ न! हम खड़े हैं यही”
“हाँ, और अगर कोय तुमको यहाँ खड़ा देख लिया तो डाँटेगा नहीं। नोट्से तो लेना है, लेकर चल आएँगे।”   
रिंकू पर भुनभुनाती-खिजलाती पुनी पुराने टीन के दरवाजे से भीतर घुसी। पहली सीढ़ी पर पाँव रखते हुए जाने क्यों उसकी देह में झुरझुरी-सी दौड़ गई। पुरानी-सी पलास्तर उखड़ी, इकहरी सीढ़ी पर संभलकर पाँव रखती हुई छत पर पहुँची। सामने लंबू भैया मुस्कुरा रहे थे।
“नोट्स माँगो।” पुनी ने कोहनी मारी।
रिंकू कुछ कहे, इसके पहले लंबू भैया ने उसके हाथ में रुपए थमाते हुए कहा, “पुनी पहली बार आई है। सोहना के यहाँ से काला जामुन लेकर आओ।” 
“हमको नहीं खाना है।” उसने सपाट-सा उत्तर दिया। रिंकू भी उतनी दूर जाने के मूड में नहीं आई तो उन्होंने फिर बहलाते हुए कहा, “अच्छा, चंदुआ के यहाँ से ही ले आओ। तुम दोनों को सोहना के यहाँ का ज्यादा पसंद है, इसलिए बोले थे।”
“पुनी सीढ़ी उतरने आगे बढ़ी तो लंबू भैया ने रोका, फिर रिंकू दी के हाथ में तुड़ा-मुड़ा एक और नोट पकड़ाते हुए बोले, ई तुम्हारे लिए, जो खरीदना हो, खरीद लेना। ई बच्चा को कहाँ ले जाओगी, जल्दी जाओ, जल्दी आना, तब तक हम नोट्स निकालकर रखते हैं। रिंकू दी को भी क्या सूझा, बिना उसकी तरफ देखे धड़धड़ाती हुई सीढ़ी उतर गई। 
“चल पुनी भीतर बैठते हैं। मेरा लॉज नहीं न देखी हो, दिखा दें।” लंबू भैया ने बिना गोद लिए या पकड़ने की कोशिश किए कहा तो उसका अनजाना भय कुछ कम हुआ। वह इधर-उधर ताकती रही।
“चल न!”
“रिंकू दीदी आ जाएगी तब।”
“अरे तब तक यहीं खड़े रहेगी? सामने वाली काकी पूछेगी, यहाँ क्या कर रही हो तो क्या कहोगी? और आज कल तो लंगूर भी छत पर आता है और बच्चा को उठा ले जाता है। देखी हो लंगूर…. ”  
लंबू भैया बहलाते-फुसलाते भीतर ले गए। बड़ी-सी पुरानी छत के बाद एक भद्दा-सा कमरा था, जिसमें एक ज़रा ऊँची चौकी थी, दीवार के एक छोर से दूसरे छोर तक रस्सी टंगी थी और उस रस्सी पर कुछ कपड़े झूल रहे थे। पुनी का ध्यान उनकी ओर गया। लंबू भैया ने अभी शर्ट-पैंट नहीं पहना था, बल्कि सीने तक चढ़ी बनियान और लूँगी जो सामने से सिली हुई भी नहीं थी, जैसा कि राम भैया पहनते हैं, बंद वाली। लंबू भैया के चलने से नंगा पैर बार-बार बाहर हो जाता, मगर वे बेफिक्र थे। पुनी सिकुड़-सी गई। भैया ने उसे गोद में उठाकर चौकी पर बिठा दिया और टेबुल फैन उसकी तरफ घुमा कर तेज़ कर दिया, फिर बाहर छत की तरफ चले। पंखे की घरघर और फ्रॉक उड़ने से परेशान होकर पुनी ने उतरने की कोशिश की, मगर उसका पैर न पहुँचा तो जुगत सोचने लगी। 
      लंबू भैया के चेहरे पर इत्मीनान उतर आया। उन्होंने किल्ली नहीं लगाई, मगर दरवाजा अच्छी तरह से भिड़ा दिया और पुनी के पास आए। 
“बड़ी हो गई हो अंss” कहते हुए पुराने अंदाज़ में गोद में उठाया, दोनों गालों को ज़ोर-ज़ोर से चूमा फिर लिटा दिया। वह उठकर बैठने की नाकाम कोशिश करती, मगर उसके दोनों हाथों की उँगलियों से भैया खेल रहे थे। कभी उँगलियाँ चूमते, कभी अपने खुले सीने में उगे बालों को छुआते। छुआते-छुआते उसका छोटा-सा हाथ अपने पेट से नीचे ले जाने लगे, सफल नहीं हुए तो उसे उठाकर, पहले की तरह ही पैर को फैलाते हुए गोद में बिठा लिया। लूँगी बँधी तो थी, मगर उनकी दोनों जाँघों से उघड़ गई थी। पुनी को ज़ोर की सूसू आने लगी। अचानक भैया ने उसके फ्रॉक के भीतर हाथ डालकर कमर को छुआ तो उसे करंट-सा लगा। गोद में इस तरह बैठे-बैठे उसे अपनी जाँघों में तेज़ दर्द महसूस होने लगा। वह उतरने को कसमसाई। पंखे की कर्कश आवाज़ में उसकी मिमियाती आवाज़ खोती रही। उसे झुनझुनी महसूस होती रही। भैया यों ही कमर पर पकड़ बनाए, चिपकाए उसके गाल-बाल और उँगलियों को चूमते-चाटते रहे जब तक कि रिंकू आवाज़ लगाती दरवाजे पर आ न खड़ी हुई। भैया ने उसे गोद से उतार कर चौकी पर बिठा दिया। फिर उसी इत्मीनान से बोले, “धक्का दो, खुल जाएगा। बाहर लंगूर आए थे, इसलिए सटा दिया था।” रिंकू मिठाई थमाती हुई बोली, “अब आप खाइये, इसका चेहरा देखकर लग रहा है, घर पर हम मार खाएँगे।” पुनी का सिर अबतक झनझना रहा था। बस चेहरे का रंग उड़ा था। वह ऐसे बैठी रही, जैसे वह वहाँ हो ही नहीं। 
“घर नहीं चलना?” 
“रिंकू ने उलाहने भरे स्वर में कहा तो पुनी का रुका बाँध टूट पड़ा। हिचकियाँ ले-ले कर रोना शुरू किया तो रोती ही रही।
“एतना देर कैसे लगा दी रिंकू? पुनी घबरा गई है। दुलार से समझा-बुझा कर ले जाना….”
पुनी के सुन्न पड़े कान पूरा न सुन सके, न समझ सके। उसे चौकी से उतारा गया तो पैर काँप रहे थे। पतली जंघाएँ दर्द से चीत्कार कर रही थी। रिंकू उससे देरी के लिए माफी माँगती रही। उसके रोने का कारण कुछ और भी हो सकता है, वह सोच ही न सकी। वह जितना चुप कराने की कोशिश करती, पुनी का स्वर तेज़ होता जाता। अब लंबू भैया सकपकाए कि कहीं उसकी आवाज़ अगल-बगल के मकान तक न पहुँच जाए। उन्होंने मिठाई का थैला रिंकू को पकड़ाते हुए कहा, “तुम्हारे इंतज़ार में रो-रोकर हलकान हो गई। केतना दुलार किए मगर इसको तो कुछ अच्छे नै लगता है। ले जाओ, घरे पर खाना-खिलाना। हम खुद्दे नोट्स दे आएँगे जाकर। बाप रे बाप! अब कभियो मत लाना इसको।” 
   रिंकू ने घबराती निगाह से एक बार उनकी ओर देखा और पुनी को मनाती हुई सीढ़ियाँ उतरने लगी। 
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   माँ दबी ज़बान से ससुराल से आई सुमि दीदी से बतिया रही थी, “रिंकुआ का गलती नै है क्या? दूध पीता बच्चा है। अपनी पुनी तेरह की होने जा रही है त सोच सत्रह की त ऐस ही हो गई। एतना अकल तो होवै के चाही। अरे, जब घर में कोय नै था तो काहे उ मुँहझौसा के साथ दरबाज़ा बंद करके पड़ल थी? कोनो कीर्तन चल रहा था? लगा गया न दाग! कर दिया न मुँह काला! राम त शुरुवे से उसको पसंद नै करता था। देखो लेकिन, कैसे पेटे पेट बात पचा गया सब? जब उल्टी-पुल्टी शुरू हुआ तो डॉक्टर को देखाने के बहाने ले गया है माय-बाप सफ़ैया के लिए। अरे जब रिंकू को शुरुवे से पैसा और समान दे-देकर चंगुल में कर रहा था, तब कोय नै टोका, कि काहे दे रहा है। दोस्त संजु का है त रिंकूवा को रोज़ समोसा-रसगुल्ला, फलाना-ढेमका देलाने का क्या मतलब? अब भुगते…..”  माँ पुनी की उपस्थिति पर बिना ध्यान दिए बोलती रही। नौवीं की परीक्षा देकर लौटी पुनी सोचती रही, ‘माँ, तुम भी तो उनसे लेमनचूस नै लेने पर हमको डाँटती थी!’ उसके आगे रील घूमता रहा। उस दिन एक बार फिर उसने अपनी उँगलियाँ घिस-घिस कर धोईं और चेहरे पर छींटा मारती सोचती रही, ‘रिंकू दीदी, तुमने मेरे रोने का कारण पूछा-समझा होता और रास्ते में माँ की कसम देकर चुप, एकदम चुप न कराया होता तो शायद बंद दरवाजे की शिकार न होती!’
तीन कविता संग्रह, दो कहानी संग्रह, दो बाल साहित्य, दो आलोचना संग्रह, 40 से अधिक पुस्तक अनुवाद, धारावाहिक ध्वनि रूपक एवं नाटक, रंगमंच नाटक लेखन, 20 से अधिक चुनिंदा पुस्तकों में संकलित रचनाएँ, बतौर रेडियो नाटक कलाकार कई नाटकों में भूमिका. विभिन्न उच्चस्तरीय पत्रिकाओं में सतत लेखन. सत्यवती कॉलेज,दिल्ली में अध्यापन. सम्पर्क - dr.artismit@gmail.com

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