पाखी बैनर्जी, उसे समझ में ही नहीं आया कि यह नाम दूसरों के लिए इतना महत्वपूर्ण कैसे हो सकता है जबकि उसके नाम ने कोई प्रख्याति नहीं पाई थी, उसने समाज में जन कल्याण के लिए कोई ऐसा काम भी नहीं किया था। जब वह छोटी थी तब उसके पिता ने एक बार किसी बात पर कहा था कि हम किसी का अहित नहीं करते, किसी को तकलीफ़ नहीं देते हैं, देश और समाज के बनाए कानूनों का अनुपालन करते हैं तो यह भी देश सेवा के अंतर्गत आता है। इस तरह से देखा जाए तो मैंने भी देश और अपने समाज के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाह किया है।
यह बात और है कि कानून के लफड़े में पड़ने से बचने के लिए उसने सड़क किनारे दुर्घटना के शिकार उस व्यक्ति की मदद नहीं की थी। उससे इतना भी नहीं हो पाया था कि नजदीक के थाने में एक फोन करके इत्तिला ही कर दे। वह नैतिक जिम्मेदारियों से मुक्त रहकर किनारे चलने वाली प्राणी है। आत्ममंथन करने के पश्चात वह ग्लानि महसूस नहीं करती। वह अपने इस महत्वपूर्ण नाम से संतुष्ट थी| इतने बड़े संसार में यही तो एक पहचान उसकी अपनी थी| बाकी तो सब छूट गए थे| उसने अफ़सोस के साथ आकाश में छा रहे बादलों को देखा| महत्वाकांक्षी लड़की किसी की नहीं हो सकती है। आद्र स्वर में एक पुकार उठी और घुट कर अन्दर ही रह गयी| मन कातर हो उठा| माता-पिता का साया उठने के बाद अब बचा क्या था! घर-परिवार उसके लिए नाम मात्र के रह गए थे| परिवार का अर्थ सामाजिक प्रवंचनाओं में कुछ युगलों का एक साथ दिखाई देना।
जैसे कि पूजा-अनुष्ठान और अदबी मिलना-जुलना ही जीवन का पर्याय है|  नितांत अकेली। उसके हिस्से अब कोई एक दोस्ती का रिश्ता भी ऐसा नहीं बचा था जो उसके मन के परतों को टटोल कर गहरे उतर सके, इसका मतलब ये भी नहीं था कि अपना कहने वाला उसका कोई नहीं| ईला, चंद्रा, सुबोध, विनीत, बकुल दा, विभास दा …कई चेहरे, सारे के सारे युगल छवि। एकाएक सबके चेहरे तमतमा गए। वे सब सामने आकर खड़े हो गए और सवाल करने लगे – क्या हम तुम्हारे अपने नहीं? उसने अपनी जीभ काटी। उसे लगा मानों यह कहकर अपनी बड़ी क्षति कर ली है| अपना कहने में और होने में फर्क तो होता ही है|
एकाएक उसे कई घटनाएँ याद आने लगी| ये ऐसे दोस्त हैं जो बेरोकटोक धड़धड़ाकर कभी भी उसके घर घुस आतें हैं, रसोई तक पर कई बार अपना अधिपत्य जमा लिया करते हैं और अभिभावक की तरह उसके हितों का ध्यान रखते हैं, उस पर हक़ जमाते है| इतना सब पाकर भी नितांत अकेली| उसका युगल छवि अब धूमिल हो गया था। विधवा नहीं थी पर विधवाओं सी जिंदगी जी रही थी| दरअसल उसने खुद से जानबूझकर सबसे दूरी बनाये रखने की कोशिश की है| उन सबको लगता है कि इन सबमें पलास दा का हाथ है, लेकिन सच तो यही है कि इसके पीछे पलाश दा नहीं हैं, ये बात वह कई बार समझा चुकी है फिर भी जाने क्यों लोग अपनी समझ के आगे सोचना ही नहीं चाहते| दरअसल उनलोगों को यह जरा भी हज़म नहीं होती कि उसका एकाकीपन स्वयं का चुना हुआ है|
स्त्री के लिए जाने क्यों समाज ये धारणा बना कर चलता है कि वह अपने लिए अकेलापन नहीं चुन सकती। एकाकीपन की बात सोचते ही दिन भर की आपाधापी का ख्याल आया| मन कसैला हो गया| हुंह एकाकीपन! किस बात का एकाकीपन। सुबह से शाम तक रोटी, कपड़ा और मकान के जुगाड़ में जुटी औरत के भाग्य में एकाकीपन का सुख कहाँ, इसे पाने के लिए  बैंक में प्रचुरता से बैलेंस चाहिए होता है| सोचते हुए मन में एक उफान सा उठा| रोजी-रोटी का सवाल ही आज उसके जीवन का सबसे बड़ा है। उसने घड़ी की और देखा और हडबडाई| तभी फोन की घंटी बजी थी|
“आज शाम फुरसत मिलते ही पहले मेरे घर आना।” मिताली चक्रवर्ती का फोन था| आवाज सुनकर लगा मानों दूर उठता कोई बवंडर करीब बढ़ता आ रहा हो| ठहरे हुए वक्त में जैसे कोई हलचल मचा हो। क्या हुआ होगा?
“आज ही आना है?” सुनते ही जवाब में चौंक कर उसने पूछा था। 
“हाँ, आज ही। जरूरी बात करना है। अर्जेंट समझो|” उसने दबाब महसूस किया|
अब कोई दूसरा विकल्प नहीं था। आज्ञाकारी बच्चे की तरह हामी भर दी लेकिन मन में प्रश्न उफनने लगे। मिताली चक्रवर्ती उसकी दोस्त कम अभिभावक अधिक थी| उनका फोन आने का मतलब उनके आदेशों का अनुपालन करवाना होता था| वह अनिश्चित किसी आशंका से घिर गयी| 
जरूरी बात, ऐसा क्या हो सकता है? मिताली चक्रवर्ती, द ग्रेट मिताली चक्रवर्ती, कभी इस तरह से उसे बुलाएगी, विश्वास नहीं हुआ। आवाज में तीखी सी कंपन थी। सर्र से कलेजे में चुभने वाली। मन अंदेशे से भरा हुआ था। थकी सी आवाज में आदेश से अधिक इस बार निवेदन महसूस हुआ था। मिताली चक्रवर्ती एक मजबूत शख्सियत का नाम है| ऐसी सख्त महिला, एकाएक इतनी कमजोर। कैसे? क्या, क्यों? मन समंदर सा हिलोरें लेने लगा। कुछ तो बात है। तूफान आने वाला है या आकर गुजर चुका है। इसकी वजह कौन हो सकता है?
 उन्हें तो अपने निजी जीवन में किसी की दखल पसंद नहीं। गम्भीर मसला होगा।  बुलाया है तो जाना ही होगा। 
सोचते-सोचते फिर से वह खुद की ओर लौट गयी|… वह भला क्या मदद कर पाएगी। उसके पास है ही क्या? सिवाय एक ढर्रे में बंधी जिंदगी के, जिसके पास न कोई रास्ता, न ही कोई उद्देश्य।
मन की इस उब से उबरने के लिए आज ऑफिस से छुट्टी लेकर टालीगंज नीलू मामी से मिलने जाने का सोच रही थी| जब कभी स्नेह और अनुराग की चाशनी में पगने  की इच्छा होती, नीलू मामी से मिलने चली जाती| स्निग्ध स्नेह से अच्छादित नीलू मामी का घर उसके लिए मंदिर जाने जैसा था| लेकिन आज अब मन्दिर जाना नहीं हो पायेगा| अब मिताली चक्रवर्ती के यहां जाना होगा| अब सारा प्रोग्राम उल्टा-पुल्टा हो गया है। वहां के लिए मानिकतला से पूरे चालिस मिनट लगते हैं। पहले तो उसने ऑफिस जाने का बहाना बना कर टालना चाहा था लेकिन शाम को आने का कह दिया। वैसे भी बहुत एहसान हैं उनके, काश कि वह उनके किसी काम आ सके। वह अपने कॉलोज के दिनों से ही मिताली चक्रवर्ती के व्यक्तित्व और कृतित्व दोनों से प्रभावित रही है। वे लेखक के साथ फिल्म निर्मात्री भी हैं। ‘आलोर तलाय’ का निर्देशन भी उन्होंने किया था तभी तो फिल्म सुपरहिट रही थी। कभी कभी उसे लगने लगता है कि वह बड़ी किस्मत वाली है, कारण उनकी जैसी महान हस्तियों का साथ किस्मत वालों को ही मिलता है। मास मिडिया में उसका दखल देख उन्होंने शुरू में उसे अपने साथ ही काम पर रखना चाहा था लेकिन उस माहौल को वह अपना नहीं सकी थी| बाद में कह सुन कर उन्होंने ही यह नौकरी लगवाया था|
इस पद पर नौकरी पाना इतना आसान भी नहीं था। बड़े साहब ने प्रतिभा बाद में देखा था, पहले तो उनकी पैरवी ही काम आई थी। बड़े साहब से मिताली चक्रवर्ती का रिश्ता क्या है वह नहीं जानती लेकिन यह सच है कि उनके कहे को बड़े साहब ही नहीं बल्कि इंडस्ट्री के लोग बड़े गौर से सुनते और मानतें भी हैं। 
आजकल तो इस इंडस्ट्री में भी छंटनी चल रही है। लोगों की नौकरियां जा रही है। मार्केट में मंदी का असर मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए भस्मासुर बन गया है। यहाँ भी कामकाज को लेकर ऑफिस का माहौल गर्म ही रहता है और ऊपर से साहबों के ये निजी लफड़े। वातावरण हमेशा गर्म रहता है| गर्मी उस दिन चरम पर पहुंच गया जब बड़े साहब की पत्नी ने ऑफिस में आकर सबके सामने तमाशा किया था। न आगे देखा न पीछे, अपने ही ताव में, लिफ्ट से निकल कर दनादन सीधे केबिन में घुस गई और साहब की पीए सरला के साथ गाली-गलौच करने लगी।
सभ्य घर की महिलाएं इतनी असभ्य भी हो सकती हैं पहली बार जाना था। यह भी सच है कि बात जब अस्मिता की रक्षा की हो तो इंसान कुछ भी करने की हद तक जा सकता है। 
विषय अगर चटपटा हो तो उसे क्यों कर कोई अनदेखा करे? कौन सही कौन गलत, इसकी विवेचना मिर्च मसाले लगा लगा कर अब तक की जा रही है। बड़े साहब जो हमेशा अपने स्टाफ में  हेकड़ी जमाए फिरते थे, पत्नी के सामने एकदम से फुस्स। मैंने उस वक्त सरला की ओर देखा था। किस तरह से सफेद जर्द चेहरे पर दर्द की पीड़ाएं उभर आई थी। कहां ये चौबीस-पच्चीस वर्ष की कवि की कविता सी मधुर सरला, कहां बेढब, थुलथुले पचास साल के प्रौढ़ बड़े साहब। बेकसूर होते हुए भी बेचारी प्रश्न चिन्ह सी कटघरे में खड़ी कर दी गई थी। 
याद आया कि उसने भी तो इस पोस्ट के लिए इंटरव्यू दिया था। लेकिन उसकी जगह सरला चुन ली गई थी। बाद में मिताली दी के कारण यह नौकरी मिली थी। उस दिन के तमाशे और सरला को अपमानजनक स्थिति में देख मन ही मन बुदबुदाई कि ऐसी नौकरी से तो बेरोजगारी भली। अच्छी तनख्वाह वाली पीए की नौकरी, हाथ से छूट जाने का मलाल उस घटना के बाद से जाता रहा था। 
बड़े बाबू का इसके साथ कुछ चल रहा है इस बात का विश्वास इसलिए भी नहीं हुआ क्योंकि वह पहले से ही मिताली चक्रवर्ती से उनके रिश्ते की गहराई का भान था। यह भी हो सकता है कि साहब के कई चक्कर हो, पर सरला वैसी नहीं है। नाम के अनुरूप स्वभाव में सरल और वाणी से मधुर| वह जरूरतमंद है लेकिन आत्मसमर्पण करने वाली नहीं। उस लड़की को  झूठ के पुलिंदों के नीचे दबते-घुटते महसूस किया था। हो न हो उसे यकीन है कि इस पुलिंदे के पहाड़ को खड़ा करने में चपरासी गन्नूलाल का जरूर हाथ रहा होगा। सरला की तरफ मन खिंच गया| रोष की प्रचंड ज्वाला वेग से उठी जो विवशता की छीटों से मंद पड़ गयी थी|
खींसे नीपोड़ कर फाइलों के अंदर चटकारी बातें दबा कर इधर से उधर, मिर्च लगाकर पहुँचाना गन्नूलाल का प्रिय शगल है। उसकी आंखें सियारों-सी है। वश चले तो आज ही उसकी परमानेंट छुट्टी कर दे। लेकिन अफसोस कि ऐसा नहीं कर सकती क्योंकि गन्नूलाल उसके आने के  बहुत पहले, पिछले कई सालों से वहां काम कर रहा है। अनुभवी भी है। बात-बात में उसे यह कहकर टोक दिया करता है कि आप नहीं समझेंगी, मैं आपसे पहले यहां आया हूँ इसलिए ऑफिस के मसलों पर अधिक जानकारी रखता हूँ। 
गन्नूलाल से मुंह लगाना मतलब खुद की फजीहत करवाना है। इसी मुंहजोरी के चक्कर में पिछले वर्ष घर के बाहर पालतू कुत्ते को हगाने-मूताने को लेकर पड़ोसी से उसकी बात चीत बढ़ गई थी। मोहल्ले के इस छोटी सी बात में झगड़ा इतना बढ़ा कि उसकी पत्नी पड़ोसियों के हत्थे चढ़ गई।  विवाद गाली-गलौज से हाथापाई तक पहुंच गया था। गुंडों  ने लाठी से धुन दिया था। अंदरूनी हिस्से में चोट लगने से अनियंत्रित रक्तस्राव हुआ, पत्नी की  हालत अधिक बिगड़ गयी थी। गम्भीर अवस्था में अस्पताल पहुंचाया गया।  पुलिस दरोगा, कोर्ट कचहरी सब हुआ। मार खाया सो अलग, केस भी हार गया था। इधर पत्नी का महीनों इलाज चला लेकिन वह फिर दुबारा बिस्तर से उठ नहीं पाई। पिछले महीने ही बेचारी स्वर्ग सिधार गई। सुना है गन्नूलाल की पत्नी अच्छे कुल खानदान से थी। गन्नूलाल वहां ड्राइवर की नौकरी करता था। उसने घर से भागकर ड्राइवर के साथ शादी कर ली थी। 
वह जब गन्नूलाल को देखती तो सोचती थी गन्नूलाल में क्या देखा होगा उस बड़ी घर की लड़की ने। उसे ऐसी नामुराद लड़कियों पर चिढ़ छूटती थी जो बिना आगे पीछे देखे, जो सामने आया, जिसने इजहार किया उसी से प्रेम कर लिया। प्रेम करने से पहले न जात देखा, न समाज। ठीक है, प्रेम कर भी लिया तो क्या शादी करना जरूरी था। गन्नूलाल का छिछोरापन पत्नी के जाने के बाद से अधिक बढ़ गया था। मन झुनझुलाहट से भर गया|मेरा वश चले तो तुरंत इसे नौकरी से बेदखल करवा दूं| उसे लगा क्यों किसी अन्य के बारे में इतना सोचा रही है? किसी की निजी जिंदगी से उसे क्या, वैसे आज उसी गन्नूलाल की वजह से ऑफिस से जल्दी निकल पाई थी।
अकाउंट सेक्शन में कोई जरूरी काम भी नहीं था इसलिए समय से पंद्रह मिनट पहले निकल पाई। मिताली चक्रवर्ती को इंतजार नहीं करवाना चाहती। पता नहीं क्यों बुलाया है, क्या हुआ होगा? मन फिर भंवर में उलझ गया।
ऑफिस के बाहर मेन रोड पर सामने बस स्टॉप पर चौकस खड़ी ही हुई कि सामने आती यात्रियों से लदीफदी लाल रंग की स्टेट बस के रुकते ही वह झटके से अगले दरवाजे तक पहुँच गई। बस में चढ़ने की धक्का-मुक्की में पीछे से आती भीड़ ने अंदर की ओर ठेल कर उसे सीट तक पहुंचा दिया था। इस ठेलमठेल में उस खाली सीट तक जा पहुँची जिस पर बैठा लड़का हड़बड़ा कर अभी-अभी उठ खड़ा हुआ था। उसे इसी स्टाप पर उतरना था। खुद को भीड़ में रेड़ता हुआ बस से नीचे उतरने के उपक्रम में लगा हुआ था। उसकी हड़बड़ाहट ऐसी थी मानों उसका स्टाप पीछे छूट गया हो। वह तुरंत खाली सीट की ओर लपकी और  निश्चिंत होकर बैठ गई।  खिड़की से बाहर की तरफ देखने लगी।
“आप पाखी बैनर्जी हैं ना?” बगल में बैठे हुए यात्री ने उसकी ओर देखते हुए पूछा। वह चौंक उठी। उसने सहमति में सिर हिलाया और सोचने लगी। यह कौन हो सकता है? होगा कोई! वैसे भी ऑफिस में प्रतिदिन कितनों से मिलना होता है, होगा कोई एक उनमें से ही।
यात्री ने आगे बातचीत जारी रखने की कोशिश में अपना परिचय देने की असफल कोशिश की। उसने खिड़की के बाहर देखने का बहाना करते हुए उसे अनदेखा किया। इस अनदेखेपन किए जाने को वह समझ चुका था। कलकत्ते के लोगों में समझ की बुद्धि तीव्र होती है।
मिताली चक्रवर्ती ने कई बार समझाया उसे कि आसपास के लोगों के बारे में जानने समझने की कोशिश किया करे, आँखें खुली रखा करे, लेकिन उसने कभी अनुसरण नहीं किया। वह अपने आप में सिमट कर रहने की आदी हो गई है। अब उसे खुद को फिर से नहीं बदलना था। कई बार खुद पर भी शक करने लगाती, क्या वह सच में बदल गई है? उसने अपने आप से पूछा। कई चेहरे आंखों में तैर गए। बैडमिंटन, कोर्ट और पलास दा। 
जाने क्यों वह जिनसे भागती है वही अधिक पीछा करते हैं, बेचैनी देते हैं| याद नहीं करना चाहती| यादों में जख्मों के फूल हरे हो गए। पलास दा के साथ के कारण उसने बहुत कष्ट भोगे हैं। प्रेम किया, अपनी पसंद से शादी की| चार साल साथ रहे, लेकिन अंतिम परिणाम  अलग होना था। घर तो उसने ही छोड़ा था। दोनों ने शादी को सह जीवन के रूप में चुना था लेकिन पलास दा को सह जीवन में सहचरी नहीं बल्कि अनुगामिनी चाहिए था जो उसे मंजूर नहीं था। उसने प्रेम किया था गुलामी नहीं| घर का आधा किराया देती थी। बाकी सभी खर्चों में भी बराबरी की हिस्सेदारी थी तो किस बात की अनुगामिनी बनती वह? वह भी जबरदस्ती| पलास दा इतनी सी बात नहीं समझ पाए कि लड़की प्रेम करती है बराबरी का अधिकार पाने के लिए।| शादी के रूप में यह सह जीवन का चुनाव दोनों ने मिलकर किया था। असफलता का कारण वही बरसों पुरानी मान्यता कि स्त्री घर सम्भालने के लिए है और पुरुष कमाने के लिए। और दोनों के बीच का करार अचानक तकरार में बदल चुका  था|
आते वक्त पलास दा ने कहा था कि वे इंतजार करेंगे। लेकिन अब वापस उस जीवन में नहीं लौट सकती। यादों में बिछोह के समंदर ने उफान लिया। सर्दियों की शामें और लम्बी लम्बी सड़कें। एक दूसरे में खोए हुए, कितने पनीले सपने खुली आंखों से दोनों ने मिलकर देखें थे। सपनों की सतरंगी डोरी में बंधे दोनों ने लम्बी लम्बी पींगे भरी थी| उसके इर्दगिर्द सब बिखरा पड़ा है| वह चाह कर भी उन्हें समेट नहीं सकती है| 
जीवन में गलतियाँ दोहराई नहीं जाती बल्कि उनसे सीख लेनी होती है। उसने धैर्य को डांर बना कर अंतर्मन में उठती लहरों को समेटना चाहा, पर असफल रही| यादों की नाव धीरे धीरे आगे बढ़ने लगी। 
पलाश दा। ऊंचे कद काठी के भरे-पूरे मर्द। गोरा रंग, घुंघराले बाल। उनके नाम में कैसा एक नशा है जिसके स्मरण मात्र से उसका मन हरसिंगार हो जाता है| अब भी रोम-रोम उनके नाम से पुलक उठता है। पलाश दा हैं ही ऐसे। जब पलास दा उसके जीवन में आए थे तब उसे जीवन की समझ नहीं थी। थियेटर आर्टिस्ट पलास दा। कैमरा के सामने रोमांटिज्म के पुतले| जब वह थिएटर जाती, नाटक पूरा होने तक वहीं रहती थी। पलास दा के अलावा कुछ और सूझता ही नहीं। एकदम पागल हो चुकी थी। पलास दा गम्भीर और सिद्धांतवादी, साथ ही एक अच्छे प्रेमी। सब अच्छा था| उनके सामीप्य में वह खुश थी| उसके मन पर पलास दा ने अपना अधिकार पूरी तरह से जमाया और जताया भी। तन को इन सबसे परे ही रखा था, यह इस रिश्ते का सबसे खूबसूरत पक्ष था।
यादों के झिलमिलाते रथ सड़क पर बस के घुमते पहिये के साथ दौड़ रहे थे कि तभी नज़रें सामने लालचंद कॉलेज के बोर्ड पर गया और सहसा उसका ध्यान टूटा। श्याम बाजार जाने के लिए इस बस में सवार हुए करीब आधे घंटे से ऊपर हो गया है। उसने बाहर शोरूम के साइन बोर्ड को नोटिस किया तो  एहसास हुआ कि वह गलत रूट के बस में चढ़ बैठी है। तभी तो कहूं कि भीड़ में आज एक भी चेहरा परिचित क्यों नहीं है। परिचित होने का मतलब किसी रिश्ते में होना नहीं था। परिचित चेहरे रोजमर्रा के आवागमन में सहभागी एक महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। घड़ी के नौ बजते ही प्रतिदिन एक साथ बस स्टैंड पर खड़े रहना। एक ही रूट के बस में चढ़ना। फिर अपने अपने स्टॉप के आने का इंतज़ार करना, मंजिल आते ही उतर जाना। जैसे कि कंधे पर नीला बैग टांगें एक लड़के के साथ उस लड़की रोज  बस में चढ़ना। उनके बीच बातचीत का न होना। लेकिन एक दूसरे से एकदम सट कर खड़े होना। गाड़ी के धचके से रूकने पर एक दूसरे से टकराना, फिर तुरंत ही झेंप कर सॉरी कहना। 
नर्म मुलायम समय के पंखों पर उभरती प्रेम की तितलियाँ उड़ाती रहती और अपने आँखों से दृश्य खींचते हुए पलकों की कूची से चित्र बनाया करती थी। रोज सुबह ऑफिस जाते हुए सबको महसूसते कब उसका स्टॉप आ जाता है, पता नहीं चलता। ठीक इसी तरह से घर लौटना भी होता है। 215 नम्बर की यह भरी हुई बस हावड़ा से माणिकतला तक रोज सवारी पहुँचाती।
पता नहीं आज कहां ध्यान था उसका कि गलत बस में बैठ गयी। कलाई पर बंधी घड़ी पर नजर पड़ी, देर हो गई है। मन ही मन कुनमुनाई| एक दिन के लिए भी वह वक्त को मुट्ठी में नहीं पकड़ पाई। मिताली चक्रवर्ती उसके देर होने पर क्या सोच रही होंगी। शाम का वक्त बीत चुका था। रात की रौशनी से जगमगाता कोलकाता, नशे में मानों चूर हो गया था। ऊँची-ऊँची बिल्डिंग, सड़क के दोनों ओर मॉल, रेस्तरां, हॉकर्स कॉर्नर और बाजार, सब उसके ही मन की गति से चल रहे थे। उसे अगले स्टॉपेज पर उतरना होगा।
उसे याद है, इसी तालतला वाले रूट में पलास दा के साथ पहली बार  डेट पर आई थी। उनके साथ सबसे पहले धर्मतल्ला गयी थी। देर तक विक्टोरिया के स्टैच्यू के सामने बैठे रहे थे दोनों। पलास दा के जीवन में थियेटर पहले था और वह उसके बाद। उनके जीवन में वह दूसरे दर्जे पर है इस कारण मन दुश्चिंताओं में घिरा तो रहता ही था। उस दिन थियेटर से निकल कर विवेकानंद रोड पर फ्लाईओवर पर देर तक दोनों बात करते हुए पैदल चलते रहे। कब दूर तक निकल आए पता नहीं चला। वापस पैदल लौटना मुश्किल था सो उन्होंने टैक्सी बुक किया था। वह इससे पहले कभी किसी पुरुष के साथ अकेले टैक्सी में नहीं बैठी थी। पलास दा उससे एक दम सट कर बैठे थे। रॉक्सी सिनेमाघर में फिल्म देखते समय पलास दा ने उसका हाथ पकड़ कर सीधे अपने सीने से लगा लिया था। वह थरथरा उठी थी। अंधेरे में उन्होंने जिस तरह के प्यार से स्वयं को अभिव्यक्त किया था, उसे अच्छा लगा था। उम्र ही ऐसी थी। ढाई घंटे की फिल्म,  कैसे बीत गई, पता ही नहीं चला। जब तक फिल्म चलती रही वह नज़र झुकाए बैठी रही। वे कला समीक्षक भी थे। पलास दा सीन की प्रस्तुतियों के बारे में बतलाते जाते, वह मंत्रमुग्ध हो सुनती जाती। यादों को गहरा धक्का लगा, बस झटके से रुकी। यात्रियों में शोर मचा। वह हड़बड़ा कर उतरने का उपक्रम करने लगी। फिर से एक बार कसमसाती भीड़ से गुजर कर गेट तक पहुँचना आसान नहीं था। अगले स्टॉप पर उतरना जरूरी था क्योंकि अब यहाँ से मिताली चक्रवर्ती के घर के लिए अलग अलग दो बसों  में चढ़ना होगा। 
कोलकाता स्मार्ट सिटी सिर्फ एलीट वर्गों के लिए है। पुराने बाशिंदों के लिए सीलन भरी सन उन्नीस सौ सत्तर के दशक की जिंदगी है जहाँ संकरी गलियों में एक छोटी सी कार के आने भर से घंटों का ऐसा जाम लग जाता है। सच कहूं तो इतनी संकरी गलियों में पैदल चलना भी दूभर है। 
बस के दरवाजे पर बाहर झूलता कंडक्टर अचानक जोर जोर से चिल्लाया, “उल्टाडांगा, उल्टाडांगा!” वह सीट छोड़ कर उठ खड़ी हुई। पर्स सम्भाल, गेट की तरफ बढ़ी। उसे उतरने की जल्दी थी। बस कहीं आगे न बढ़ जाए, वह जोर से चिल्लाई, “थाम रे बाबा थाम, अरे, उतरने तो दो!”
भीड़ में देह को घसीटती हुई किसी तरह वह गेट तक पहुँची। किसी तरह नीचे उतरते ही जान सांसत में आई। यहाँ से उसे श्याम बाजार जाने के लिए फिर से बस पकड़ना होगा। कोई खाली बस देखना होगा। तभी उसे एक अनचाहा स्पर्श ध्यान आया जिसे उसने बस से उतरते हुए महसूस किया था। भीड़ में उसके साथ कुछ ऐसा हुआ था जो नहीं होना चाहिए था। याद आते ही वह तिलमिला उठी। मन मसोस उठा। वह कर भी क्या सकती थी। स्त्री होने पर उसे एक बार फिर से ग्लानि हुई।
वह सड़क के दूसरी तरफ जाकर बस की राह ताकने लगी। मन हुआ टैक्सी कर ले। वह पर्स की सबसे छोटी जेब में हाथ डाल कर रुपए टटोलने लगी। उसने मुड़ी तुड़ी कुछ नोटों से अंदाजा लगाया और मायूस होकर फिर से दूर आती बस को देखने लगी। गेट के बाहर पायदान पर झूलती सवारियों को देख देह में झुरझुरी सी महसूस हुई। गलत मंशा रखने वालों को वह रोक क्यों नहीं पाती। खुद पर झुंझलाई। रोक तो वह पलास दा को भी नहीं पाई थी। मृदुभाषी पलास दा अचानक चिड़चिड़े रहने लगे थे। दरअसल वे अपने सिद्धांतों की रक्षा करते करते हार गए थे। शराब पीने लगे थे। उसने रोकने की कोशिश  की पर वह हार गई। अंततः उसने दूरी बनाना शुरू कर दिया था।
धीरे धीरे पलास दा एकदम से जिद्दी होते गए। अपनी बात मनवा लेने की जिद, हदों के पार निकल जाना| उस दिन जब थियेटर में लाइटमैन से विवाद बढ़ा, वे हाथ पाई पर उतर आए थे। कला जगत का काला पक्ष मुनाफे के लिए निर्माता का अपना गणितीय दृष्टिकोण है कि जो बिकेगा वही दिखेगा| सभी वर्गों को ध्यान में रखकर निर्माता को फिल्म बेचने योग्य मसालेदार बनाना था और पलास दा को मसालों से मतलब नहीं था बल्कि वे मसलों को केंद्र में रखकर काम करना चाहते थे| मनहूसियत से भरे वे दिन थे| जिंदगी तो उनकी रुपहले परदे से ही जुड़ी थी फिर भी फिल्म और थियेटर की दुनिया उसकी राजनीति उन्हें रास नहीं आई| विपरीत परिस्थितियों ने ऐसा शिकंजा कसा, अंततः उन्हें सब छोड़ने पर विवश कर ही दिया था। उनका यह फैसला खुदकुशी करने से कम नहीं था|  
गम्भीर, सिद्धांतवादी पलास दा को कोलकाता ने भीड़ का हिस्सा बनने पर मजबूर कर दिया था। पलास दा और भीड़! हाँ, वही भीड़ जो जड़ होती है। उसके जीवन को भीड़ ने ही प्रभावित किया था| सामाजिक नियमों के भीड़, बस के भीड़, रंगकर्म से जुड़ें दोहरे चरित्रों की भीड़| दोहन कोमलता का ही होता है| चाहे पलाश दा हो या स्त्री के रूप में वह स्वयं|
वह कई बार सोचा करती थी कि भीड़ स्त्रीलिंग होने के बावजूद उसकी मानसिकता पुरुषवादी और प्रवृत्ति भोगवादी क्यों होती है? वह नर हो यह नारी भेद नहीं करती,अस्मिता पर मौका पाते ही चोट करती है। क्षणांश भर ही सही, दूसरों की तिलमिलाहट में आनंद प्राप्त करने का यथासंभव प्रयास करता रहता है। अनदेखा करना मजबूरी है। अन्यथा वे  समाज में अवांछित करार दी जाएगी। जाहिर है अस्मिता रक्षा में तो जीना मुश्किल हो सकता है। स्त्रीत्व पर सेंध अक्सर भीड़ ही लगाती है| उसे बस में सफ़र करना पसंद नहीं लेकिन महानगर में यह कीमत चुकानी पड़ती है| 
स्त्री पक्ष पर उसे मिताली चक्रवर्ती की बातें सटीक और तर्कसंगत लगती है कि-  स्त्री मात्र शरीर नहीं है। हम अपने शरीर को क्यों इतना तवज्जो देते हैं? जब कोई आपका हाथ छूता है तो आपको ग्लानि नहीं होती, अकस्मात किसी के टकराने पर कंधे भिड़ जाएँ तो भी आपको ग्लानि नहीं होती। यह समझना होगा, खुद से प्रश्न करना होगा कि औरत महज़ छू भर जाने से लुट कैसे सकती है?
वास्तविकता तो यह है कि अनचाहे स्पर्श से स्त्री नहीं लुटती, स्त्री लुटती है अपनों के छल और कपट से। यह छल-कपट डकैती की श्रेणी में आता है और ऐसी डकैती भावनात्मक लगाव रखने वालों के हाथों होती है। पलास दा ने प्रेम का वास्ता देकर विश्वास लूटा था। उसने पलास दा को उस मारवाड़ी लड़की के साथ उसी विवेकानंद रोड पर हाथों में हाथ डालकर घूमते हुए देखा था जहां कभी वे दोनों वक्त बिताया करते थे। दरअसल उस दिन पहली बार लुट जाने का एहसास हुआ था। मन फिर से कसैला हो उठा। वह अंदर तक तिलमिला उठी। बसों में गुजरती जिंदगी, इस बस से उस बस| इस गली से उस गली तक, इस मोड़ से उस मोड़ तक, अब वह भीड़ में भी तनहा है।
मिताली चक्रवर्ती का घर आ चुका था। गेट खोलकर जैसे ही अंदर जाने लगी कि विंड चाइम्स की मीठी आवाज गूंजने लगी। 
“आओ, बड़ी देर कर दी।”
“हाँ दी, बस में आज बड़ी भीड़ थी।”
“तुम यहां बैठो, मैं चाय चढ़ा कर आती हूँ।”
इस बार पूरे सात महीने बाद आई थी। सामने दीवार पर लगी ये जयपुर पेंटिंग्स की तस्वीरें तो नई लगाई गयी हैं। यहां पहले सरस्वती जी की बड़ी तस्वीर हुआ करती थी। वह कमरे में जमे समानों पर एक एक कर नजरें फिराने लगी। 
मिताली चक्रवर्ती का बंगला, आखिर आलीशान क्यों न हो? इसके लिए उन्होंने बहुत मेहनत की है। जब मिताली चक्रवर्ती को पहली बार देखा था मन पुलक उठा था। ऊंचा कद, गोरी छरहरी काया, हल्के आसमानी रंग की बालूचेरी कॉटन सिल्क की साड़ी में उनका गरिमामय व्यक्तित्व और अधिक प्रभावित करने वाला था।
तब नहीं सोचा था कि एक दिन वह उनके करीबियों में गिनी जाएगी। उसके पारा में  सार्वजनिक काली पूजा के अनुष्ठान की ख्याति दूर दूर तक फैली हुई है। लोग कोलकाता के दूरस्थ इलाकों से पूजा देखने आया करते हैं। सात दिन लगातार सांस्कृतिक कार्यक्रम आयोजित होते हैं। उस वर्ष दुर्गापूजा के पहले दिन सांस्कृतिक समारोह के उद्घाटन में फीता मिताली चक्रवर्ती ने ही काटा था। 
वह दूर दर्शकों में बैठी उन्हें निहारती रही थी। मिताली चक्रवर्ती गायन में भी अव्वल दर्जे की हैं। रूना लैला के साथ मंच पर ऐसा शमां बांधा था कि कई महीनों तक मिडिया के चर्चा के केंद्र में रही। वैसे तो अपनी फिल्मों की सफलता से वह चर्चा में रहती ही थी। जब वह नौकरी की तलाश में थी तब कॉर्नर के मकान में रहने वाले उसके पड़ोसी फेलू दा ने उसे कहा था कि तुम इतना अच्छा लिखती हो, कभी मिताली चक्रवर्ती से मिलो, अगर वे तुम्हारे लिखे को पढ़ेंगी तो अवश्य तुम्हें काम देंगी। 
वह बड़ी हिम्मत करके गई भी थी मिलने, लेकिन वे उस वक्त विदेश टूर पर थीं। उस दिन अपनी फाइल वहीं जमा करवा कर आ गई और  इस बात को भूल भी गई। करीब महीने भर बाद मिताली चक्रवर्ती के स्टाफ का फोन आया कि मैडम आपसे मिलना चाहती हैं। 
मिताली चक्रवर्ती के कारण उसे सीरियल में स्क्रिप्ट लिखने का मौका मिला था। वक्त पर पेमेंट भी हुआ लेकिन उसका इतने कम में कुछ नहीं होने वाला है, यह सोचकर उसने मिताली चक्रवर्ती से अनुरोध किया था कि वह परमानेंट काम करना चाहती है। उन्होंने तात्कालिक रूप से एक इंटरव्यू देने को कहा और ऑफिस में नौकरी पर रखवा दिया था। 
उसके जैसे अनेकों लोग हैं जिन्हें मिताली चक्रवर्ती ने काम दिलवाया है। रोजगार के साधनों का सृजन करना उनके लिए बड़ी बात नहीं थी। इतने परिवारों का पालन-पोषण देने वाली  कार्यरत सभी कर्मचारीगाहों को वे अक्सर मदीना कहती थी। वे इसे हज पर जाने जैसा पुण्य का काम मानती हैं। लेकिन आज इस तरह से उस कर्मनिष्ठा का आकुल होना चिन्ता का विषय था। जरा ही देर में उदासीन चेहरा लिए वह चाय के दो प्याले ट्रे में रखकर लौटी। 
“इस वक्त आप अकेली घर में हैं, सब कहां गए?”
“दीघा गए हैं घूमने। देखो न, मिन्नी भी जिद करके साथ चली गई है।” मिताली चक्रवर्ती की आँखों में उसने अपने हृदय की विरानगी देखी तो चौंक उठी। ऐसी स्थिति में वह जा सकती हैं यह सोच से परे की बात थी। विधाता की नजर में राजा रंक एक समान ही होता है, उसे एहसास हुआ।
“अच्छा है न, अब आपको आराम मिल जाएगा।” उसने मिताली चक्रवर्ती की जगह खुद को आश्वस्त किया।
“इस जन्म में आराम कहाँ पाखी।” वह अचानक से गम्भीर हो गई। उनके स्वर में व्यथा झलक रही थी। वह एकटक उन्हें देखती रही। लगभग पचास वर्ष की आयु होगी लेकिन चेहरे पर चमक नवयौवना जैसी। जब वह मिताली चक्रवर्ती को नहीं जानती थी तब बात दूसरी थी। मिताली चक्रवर्ती के बारे में दूसरों की तरह उसने भी कयास लगाए थे कि वह अकेली रहती हैं तो शायद ड्रिंक भी करती होंगी। शूटिंग के दौरान उनकी बातों में हड़बड़ाहट से लगता था कि वह अस्त-व्यस्त दिनचर्या जीती होगी। लेकिन जब उनके करीबी आई तो जाना कि वास्तव में उन बातों से उलट थी। बिंदास, बेबाक, बुद्धिमत्ति पुस्तक और पात्रों के सहारे जीने वाली मिताली चक्रवर्ती को नए सिरे से जाना था। भाई-भाभी और माँ, सब लोग उनके आसपास, कभी अकेले रही नहीं, वह अपने परिवार के साथ ही हमेशा से रहती थी। भाई-भाभी निःसंंतान थे और मिताली चक्रवर्ती आजन्म शादी न करने पर अडिग। बाद में उन्होंने अनाथालय में लिखा-पढ़ी कर, एक बच्ची मिन्नी को गोद लिया था जो उन्हें माँ और उनकी भाभी को भाभी माँ कहकर पुकारती है।
उसे इतना ही समझ में आया कि मिताली चक्रवर्ती अपने बनाए उसूलों पर अपने हिस्से की पूरी जिंदगी जीने को ही महत्व देती है। 
“मैं संन्यास लेना चाहती हूँ।”
प्रतिकूल आवाज सुनकर मैं चौंकी। “क्यों?”
  “बहुत काम कर लिया, अब यात्रा पर जाना चाहती हूँ।”
“कौन सी यात्रा?” उसने घबराकर पूछा।
“कैलाश मानसरोवर।”
  “और मिन्नी का दायित्व?”
  “वह तो भैया को अधिक मानती है। उन्हीं के नजदीक रहती है। दरअसल मिन्नी को मुझसे अधिक पिता अच्छे लगने लगे हैं।”
 “यह तो अच्छी बात है। फिर किस बात की चिंता, आप अगर इजाजत दे तो मैं भी आपके साथ आना चाहूंगी।”
  “मेरे साथ आना चाहती हो, यह अच्छी बात तो है लेकिन इतना सब किसे सौंप कर जाऊं?”
  “आपके पास इतनी बड़ी टीम तो है।”
 “टीम नहीं है। वे सब बस नौकरी कर रहे हैं। उनको जितना कहती हूँ उतना ही करते हैं।”
  “ओह।”
  “तुम पर भरोसा करना चाहती हूँ। तुम्हें अपना सारा काम सौंपना चाहती हूँ।”
 “मैं भरोसे के लायक नहीं हूँ मिताली दी। मुझसे नहीं हो पाएगा। इन चीजों में मेरी जानकारी भी कम है।”
  “पलाश से बात हो गई है। वह तुम्हारी मदद करेगा।”
  “पलाश दा!” उसे झटका लगा।  
“नहीं, नहीं! उनके साथ मेरा सब खत्म है, आप जानती तो हैं। मुझसे नहीं होगा। नहीं कर पाऊंगी।” आँखों में बेबसी उतर आई। वह याचना भरे स्वर में बोली तो जवाब मिला, “होगा, सब कर सकती हो। कल ऑफिस से छुट्टी ले लेना। पलाश के साथ तुम्हारी एक मीटिंग रख लेते हैं। मैं साथ रहूँगी। वह तुम्हें अच्छे से समझा देगा।” मुस्कुराते हुए मिताली दी ने कहा तो ऐसा लगा मानो वह पहले से ही सब तय कर चुकी थी।
“पलाश दा से मेरी नहीं पटती है, ऐसे में काम कैसे कर पाएंगे हम।” वह चिंता के मारे दुर्बलता का अनुभव करने लगी। ऐसा लगा जैसे कि वह बीमार पड़ गई हो।
“पलाश पिछले छह महीने से मेरे साथ काम कर रहा है। अधिकांश समय यहीं बितता है उसका। मैंने महसूस किया है कि वह तुम्हें बहुत मानता है।”
“रहने दीजिए, उसका सच आप नहीं जानती। मैंने उनके साथ रह कर करीब से देखा है।” कहते हुए मेरे होंठ काँपने लगे।
मिताली दी ने मुझे स्पेश दिया। काफी देर तक वहां चुप्पी छाई रही। मुझे लगा कि मैंने कुछ अधिक ही महत्व दे दिया है इस बात को। मुझे धैर्य रखकर बात करना चाहिए था।
  “एक बार और करीब से देखने की कोशिश करो।” उन्होंने समझाने की कोशिश की।
  “मैंने करीब से जाना है। उसका सब आंखों देखा है।”  
  “कभी कभी आंखों देखा भी गलत साबित होता है। वह अच्छा इंसान है। उसने मूक-बधिर गीता तक की भी मदद की है।”
  “कौन गीता?”
“वही, जिसे तुमने उसके साथ देखा था।”
  वह और कुछ नहीं कह पाई। शायद मिताली चक्रवर्ती सही कह रही हैं। इस वक्त जाने ऐसा क्या हुआ कि पलाश दा की एक भी बुराई याद नहीं कर पाई जिसका वास्ता देकर वह सामने बैठी मिताली चक्रवर्ती को समझाने की कोशिश करती। शायद गलती तो उससे भी हुई थी। निर्णय अनिर्णय के बीच यह कैसा क्षण था।फिर से वक्त स्वर्ण हिरण था और वह सीता| मान-सम्मान दाँव पर लगा कर उसके पीछे भागी थी। इस रिश्ते में सिवाय हताशा के कुछ भी नहीं पाया था। वह जिद्दी नहीं थी, आत्मसम्मान की आकांक्षा रखती थी। भौतिकता की सतह पर खड़ी वह चारों ओर से घिरा द्वंद्व की दीवारों पर सिर पटकती। अब अपना कहने को कुछ भी तो नहीं था।
“समझने की कोशिश करो पाखी। वक्त कभी एक जैसा नहीं रहता है। इंसान परिस्थितियों से निरंतर कुछ न कुछ सीखता रहता है। पलाश बहुत बदल गया है अब तुम भी बदलो। अपने को खोकर ही अपने को पाया जा सकता है|”
उठकर सामने की टेबल से एक फाइल उठा लाई। “इसे घर लेकर जाओ। पूरा पढ़ना और कल साथ में लेकर आना।” 
  “इसमें मेरी जिम्मेदारी क्या होगी? क्या काम करना होगा मुझे।”
  “प्रोडक्शन हाउस तुम्हारे नाम कर रही हूँ। ये सब कर्मचारी अब से तुम्हारे लिए, तुम्हारे कहे अनुसार काम करेंगे,… पलाश भी।”
  “पलाश जा मेरे अंडर में काम नहीं कर सकते। सब बिखर जाएगा मुझसे दी। मुझमें आप जैसी न काबिलियत है न ही प्रतिभा।”
“कल से तुम मुझे असिस्ट करोगी। जाने से पहले मैं तुम्हें प्रशिक्षित कर जाऊंगी।” मिताली चक्रवर्ती की आवाज में दृढ़ता थी। “तुम्हारे ऑफिस में भिजवाने के लिए मैंने इस्तीफा पत्र तैयार करवा कर लिफाफे में रख दिया है। तुम हस्ताक्षर कर दो। कल मैं उनसे मिलने भी जा रही हूँ।” 
“किनसे?”
“तुम्हारे ऑफिस के बड़े साहब से।” कहते हुए उनके गाल एक दम से लाल हो गए। प्यार का रंग लाल क्यों होता है यह बात समझ में आया। 
प्रेम  में विश्वास की बेल को सींचना पड़ता है तभी वह पुष्पित और पल्लवित होता है। पलाश दा उसके जीवन का सबसे कठोर और जटिल तप है। उसे तपना और तपाना अभी चलते चलते ठिठक कर उसने आकाश की ओर गहरी नजरों से देखा मानो उसकी गहराई नाप रही हो।

1 टिप्पणी

  1. बहुत ही सुन्दर कहानी। हालाँकि एक बार पहले भी पढ़ चुका था लेकिन बिल्कुल भी ऊब नहीं हुई। एक बार जो पढ़ना शुरू किया तो हर एक किरदार बहुत खूबसूरती से अपना अभिनय करता नज़र आया। एकदम सजीव् चित्रण किया है, हर एक मंज़र का। किरदारों को सजीव बनाने में बहुत मेहनत की गई। केवल शब्दों से भी तस्वीरें बनाई जा सकतीं हैं, यह कहानी पढ़ने के बाद मालूम चला। जब पलाश दा का ज़िक्र होता है तो एक अधेड़ उम्र का व्यक्ति ज़िन्दगी के तल्ख़ तजुर्बात लिए अपने ही उसूल बनाता हुआ, ढीली सी ओपन शर्ट और राजकपूर स्टाइल वाला पेंट पहने, आँखों पर नहीं बल्कि माथे पर, बड़े लेंस का चश्मा लगाए , एक निर्देशक की तरह , “कट इट” का आदेश देता हुआ खड़ा हो जाता है। जब पाखी का ज़िक्र होता है तो एक अपने आप में खोई -सी लड़की लेकिन आत्म विश्वास से भरपूर, कोलकाता के किसी बस स्टॉप की रौनक बन जाती है, और दूर से आती हुई बस के ब्रेक की चरमराहट की आवाज़ सुनाई देती है और उससे आधा सा लटका हुआ कंडक्टर दौड़ कर उतरा है। तभी पाखी अपने शरीर को ढोती हुई बस में अपनी सीट तलाशती है। जब मितली का ज़िक्र होता है तो किसी ऐसी निर्देशिका की छवि उभरती है जो बड़े सलीके अपने खूबसूरत जिस्म को साड़ी से लपेटकर चेहरे पर बनावटी मुस्कुराहट बिखेरती नज़र आती है। ऐसा लगता है जब सब कुछ इसके बस में था तो फिर सब कुछ त्याग कर मान सरोवर यात्रा पर क्यों जाना चाहती है?कहीं इसके उत्तर में एक बार फिर पाखी और पलाश दा के प्रेम पल्ल्वित करने की  कवायद तो नहीं। खैर जो भी हो, पढ़ते-पढ़ते कहानी तो खत्म ही जाती है लेकिन तिश्नगी अभी बाकी रह जाती है। काश! दो घूट पानी और मिल जाता।   ऐसा लगता है कि मिताली जी मानसरोवर यात्रा पर चली जाएँ और फिर एक और कहानी शुरू हो।यह कहानी, एक बहुत बड़ा प्लाट लिए हुए है। हालाँकि किरदार तो तीन ही नज़र आते हैं लेकिन मंज़र और पसमंज़र अनेक हैं। और सबका अपना अपना रंग है। एक के बाद एक पर्दा गिरता जाता है और अगला दृश्य कुछ और ही कहानी लेकर आता है। इतनी सुन्दर रचना के लिए हार्दिक बधाई।

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