हिंदी साहित्य में आजकल ऐसा कम देखने को मिलता है कि किसी बड़े लेखक/लेखिका की किताब पर कोई अन्य बड़ा लेखक/लेखिका लिखे। मगर पुरवाई के लिए यह अत्यंत गर्व की बात है कि वरिष्ठ व्यंग्यकार पद्मश्री ज्ञान चतुर्वेदी ने वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला के उपन्यास ‘कौन देश को वासी : वेणु की डायरी’ की समीक्षा हमारे लिए लिखी है। हम सूर्यबाला जी को इस समीक्षा के लिए बधाई देते हैं तथा ज्ञान चतुर्वेदी जी का यह समीक्षा हमें भेजने के लिए आभार व्यक्त करते हैं।
श्रीलाल शुक्लजी से एक बार बेहद दिलचस्प चर्चा हुई । चर्चा यह कि कोई किताब कभी खूब ही चर्चित हो जाती है पर कभी-कभी कोई बेहद खूबसूरत किताब भी एकदम अचर्चित रह जाती है तो क्यों? कारक क्या होते हैं इस संयोग या दुर्योग के?
बात ‘राग दरबारी’ की बेहद लोकप्रियता के संदर्भ में उठी थी। वे रागदरबारी की लोकप्रियता की बात सुनकर मुस्कुराते रहे पर अपनी कोई राय देने से बचते रहे। फिर हमारी बात हिंदी साहित्य की उस निर्मम राजनीति की तरफ मुड़ गई थी जहां कुछ बेहद अच्छी हिंदी कृतियां भी मठवादी आलोचकों और पूर्वाग्रही संपादकों की मिली-जुली धांधलेबाजी की भेंट चढ़ जाने को अभिशप्त रहती हैं।
वे बेहद आहत थे कि हिंदी में शनै: शनै: माहौल इस तरह का हो गया है जहां अच्छा दिखना तभी अच्छा है जब आपसे अपनी अच्छी किताब की अच्छी मार्केटिंग भी बनती हो। इसी तारतम्य में श्रीलाल जी ने उस दिन इसकी एक और थ्योरी दी; एक बेहद दिलचस्प थ्योरी। थ्योरी यह कि “हर किताब की एक जन्म-कुंडली होती है, उसकी जन्मपत्री बनाई जा सकती है और आप इस विचार को लाख दकियानूसी कह लें पर इससे भी किताब का भाग्य निर्धारण होता है। आपने लाख अच्छी किताब लिखी हो, यदि कुंडली में उस किताब का चर्चित होना नहीं लिखा है तो बेहतरीन किताब भी अचर्चित रह सकती है।”
कुछ इस तरह की दिलचस्प भाग्यशाली बातें भी श्रीलालजी ने की थीं उस दिन, और अगले ही पल वे खुद अपनी इस बात पर हंसते भी रहे थे वे अच्छी रचना को भाग्य से जोड़कर देखा से उसका श्रेय जीने दे रहे हैं। पर एक अच्छी किताब का अचर्चित रह जाना और कैसे समझा जाये? कहीं से एक्सप्लेन नहीं होता है यह अन्याय । भाग्य के बिना और किस आधार पर बताया जाये कि एक अच्छी किताब कैसे अचर्चित रह जाती है? बताइये न? कैसे?
इसी संदर्भ में उनके उपन्यास ‘मकान’ की बात उठी । वे ‘रागदरबारी’ से कहीं बेहतर और परिश्रम-साध्य काम अपने उपन्यास ‘मकान ‘को मानते थे निराश तो नहीं थे पर नाराज से रहते थे कि हिंदी वालों के बीच कभी ‘मकान’ की उस तरह से चर्चा हुई ही नहीं जैसी होनी चाहिए थी। ‘मकान’ और ज्यादा चर्चा डिज़र्व करता था, उनका मानना था। उन्होंने बात का पटाक्षेप करते हुते यह भी कहा था कि मुझे केवल भाग्यशाली मत मान बैठना , और ऐसा भाग्यशाली तो बिल्कुल नहीं जो बस भाग्यवश रागदरबारी लिख बैठा; हां, जो भी मैंने अभी कहा है वैसा भी सोच लेता हूं कभी कभी । मैंने भी हंसकर इसमें अपनी यह थ्योरी जोड़ी कि “किताब की कुंडली से ज्यादा जरूरी है लेखक की कुंडली का संपादक और आलोचक की कुंडली से मिल पाना; यदि वह न मिली तो आप लाख कलम घसीट लें, लिख-लिख कर कलम भी तोड़ दें बात कही भी उस तरह नहीं बनेगी जैसी एक अच्छी किताब रचने के बाद बननी चाहिये थी।” उनसे बात करना आपको हमेशा ही बड़ा बना देता था ।
श्रीलाल शुक्ल जीसे कभी की गई यह बात सूर्यबाला के उपन्यास ‘कौन देश को वासी – वेणु की डायरी’ को दोबारा पढ़ते हुये अभी मेरे मन में आई, और फिर लगातार कौंधती ही रही है क्योंकि मेरे लिये आज भी यह समझ पाना बेहद कठिन है कि सूर्यबाला जी की यह अद्भुत किताब किन कारणों से उस तरह से चर्चा में नहीं आ सकी जो अक्सर इससे कमतर किताबें भी यूं ही आ जाती रही हैं। मेरे लिखे उनका यह उपन्यास बस एक और लेखक का बस एक और उपन्यास मात्र नहीं है। इसमें वह सब है, भाषा, चरित्र, घटना में, जीवन, फिलासफी, भावनाओं का धूप-छांव वाला खेल जो एक उपन्यास को संपूर्ण बनाया है। कहीं कोई जल्दी नहीं सूर्यबाला जी को। प्रतिभा और किस्सागोई की धीमी आंच पर वे इस किस्से को इतना स्वाद लेकर डूबकर पकाती हैं कि हर पेज की अपनी ही ऐसी खुश्बू है कि उनका यह उपन्यास मेरे लिये कई मायनों में उपन्यास लेखन की कार्यशाला बन गया है।
आसान काम नहीं रहा होगा सूर्यबाला जी के लिये यह वृहद उपन्यास रचना। लिखने का एकदम पारंपरिक तौर तरीका और फिर भी कई अर्थों यूं कुछ नया सा प्रयोग। सूर्यबाला जी किस्सागोई की कला में हमेशा ही निष्णात रही हैं। उनकी यह कला इस उपन्यास में चरम पर है। उपन्यास में कैसे कथा को शुरु करना, कैसे कथा के मर्म में बिना हल्ला मचाये प्रवेश कर जाना, कैसे एक-एक चरित्र को धीरे से स्थापित करते चले जाना ,कैसे उनको साथ-साथ कथासूत्र में गूंथते जाना और कैसे एक पूरे जीवन की वितान यूं हौले से खड़ा कर देना कि वह तीन पीढ़ियों तक विस्तार पाकर भी वर्तमान की कथा बनी रहे। एक बड़े कलेवर का उपन्यास जिसमें दसों तरह के अलग अलग चरित्र आते चले जायें, फिर भी एक भी चरित्र मात्र कैरीकैचर भर बनकर न रह जाये, यह आसान काम नहीं रहा होगा।
बड़ी कथा रचते हुये कई बार लेखक ही किसी चरित्र को विस्मृत कर बैठता है या उसमें से कुछ इस तरह बाहर निकल आता है कि फिर बाकी की कहानी में वह उस चरित्र को उस इंटेंसिटी से पकड़ ही नहीं पाता। सूर्यबाला जी का कमाल था कि वे अपने हर चरित्र को उस हद तक कहानी का हिस्सा बनने देती हैं जहां वह कहानी के लिये जरूरी है , उससे न एक दृश्य ज्यादा, न एक दृश्य कम। इसके लिये बड़ा लेखकीय संयम चाहिये और खुद की लेखनी में परमात्मविश्वास भी कि उनकी पकड़ चरित्रों पर वैसी ही बनी हुई है जैसी इस उपन्यास की दरकार है। सूर्यबाला जी इस बड़े उपन्यास के हर छोटे-बड़े चरित्र को उसकी निर्धारित नियति तक न केवल पहुंचाती हैं उस पहुंचने की राह को वे इस वृहद कथा में इस अनोखे ढंग से बुनती चली जाती हैं कि हर छोटा बड़ा चरित्र अपनी संपूर्णता पा जाता है और साथ ही उनकी कथा भी ।
एक महाकाव्यात्मक उपन्यास रचना आसान काम नहीं होता । सूर्यबालाजी ने यह उपन्यास अपने जीवन के उत्तरार्ध उस समय उठाया जब वे जीवन को मानो हस्तामलकवत समझ चुकी हैं वरना जीवन के इतने सारे रंगों को एक जगह पकड़ने की कोशिश करने की सोचना भी इतना चुनौतीपूर्ण था कि जब तक लेखक की गति जीवन व्यापार में, सतह से गहराई तक एक समान न हो वह वैसा रच ही नहीं सकता जैसा सूर्यबालाजी ने इस उपन्यास को रचा है। इस उपन्यास को पढ़कर मुझसे किसी विद्वान ने यह भी कहा (और जाहिर है की ईर्ष्या में ही कहा कि) इस उपन्यास में आपको ऐसा नया क्या लग गया है कि आप तो इसकी तारीफ करते नहीं अघा रहे? क्या ऐसा नया है इसमें? सब वही तो है। दसों बार दोहराई गई रिश्तों की पिटी पिटाई कथा। अपनी ही पुरानी कहानियों को उठकर नये सिरे से एक थकी हुई कहानी ही तो कही गई है इसमें? वही एक मध्यमवर्गीय घर, उनकी आर्थिक चुनौतियां और उनसे जूझना, वही रीति रिवाजों कीदुनियावी कथायें, बेटे की अमेरिका में नौकरी लग जाना, बाद में उस घर में पैसे आ जाना, फिर दूसरे तरह के सपने, तनाव, शादियां – ऐसा एक भी कथामोड़ नहीं है इस कथा में जो नया हो!
वे कहते गये, मैं उनका मुंह देखता रहा। जब कोई आदमी वह बोल रहा हो जिसके बारे में मुझसे ज्यादा वह कन्विन्स हो कि वह गलत बोल रहा है तब उस आदमी की शक्ल का अध्ययन करना बड़ा मज़ा देता है मुझे। मैं उनका मुंह देखता रह गया। धन्य हैं आप, यह तो नहीं कह सका पर मां-बाप, भाई-बहन और अन्य रिश्तेदारियों को मात्र स्टॉक चरित्रों की तरह न बरतकर, उनको हर बार एक नये जीवंत चरित्र की भांति रचने में कितना कथा-कौशल लगता है यह बात मैंने उनसे जरुर कही।
दुनिया में आप जब भी रिश्तों की और रिश्तों के सहारे जीवन की कहानियां लिखने रचने बैठेंगे तो यह खतरा हमेशा रहेगा कि लोग कहने लगें कि इसमें नया क्या है? वही तो है… वे ही लोग… वे ही पिटे- पिटाये, घिसे-घिसाये चरित्र । पर मेरे लिये हर पहचाना हुआ चरित्र भी हमेशा ही नया होता है और अलग ही, एकदम हस्तरेखाओं की भांति अनोखा। लेखक में यदि प्रतिभा है, यदि वह इस जीवन को तीन सौ साठ डिग्री पर हर कोण से देख समझ पाता है तो फिर उसकी कथाओं में कोई भी चरित्र दोहराया नहीं जाता, कोई घटना पुरानी नहीं होती, वही कहानी बार बार पुनर्नवा होती जा सकती है, सदियों तक। हम प्रेमकथाओं के उदाहरण से इस बात को खूब समझ सकते हैं। एक नायक, एक नायिका, उनका मिलना, बिछुड़ना, बाधायें, विरह, चिंतायें, चुनौतियां, सपने, दिवास्वप्न, सभी कमोवेश एक ही जैसे होते हैं पर जीवन की कलम से लिखी हर प्रेमकथा एकदम अलग होती है क्योंकि उसमें लेखक अपने प्रांण शामिल कर देता है। इस उपन्यास के हर चरित्र के साथ सूर्यबाला यूं घुल-मिल गई हैं कि उन सबके हृदय के स्पंदन में लेखक का हृदय धड़कता है; और यही तथ्य इस उपन्यास की खूबसूरती है। आप हर चरित्र से ‘सीमलेसली’ (बेजोड़) जुड़ते चले जाते हैं । कहानी का हर मोड़ आप पहले से जान लेते हैं कि आगे क्या में ऐसा ही होगा परंतु फिर भी जब वह मोड़ आता है तो नया सा लगता है । यही तो कथा कहने की कला है। कहीं कुछ भी अप्रत्याशित न घटे पर हर प्रत्याशित में भी पाठक को अप्रत्याशित की उत्तेजना और आनंद मिले। चार सौ पेज तक यही चमत्कार और किस्सागोई बार बार घटती चली जाये तो उपन्यास स्वयं: एक बड़ी रचना में तब्दील हो जाता है। कोई भी उपन्यास अपनी मोटाई और पेज नंबर से वजनी नहीं बन जाता, उसमें वजन आता है कुल किस्से में धड़कती श्वांसों से। इस कथा की हर पंक्ति जीवंत और धड़कती है। हर शब्द में श्वास है। हर चरित्र आपका तब भी पीछा करता है जब वह अभी कथा के नेपथ्य में वह अपनी बारी आने का इंतजार कर रहा है। आपको लौट लौटकर उस चरित्र का ख्याल आता है। ऐसी अनुपस्थित की चमत्कारी उपस्थिति ही इस उपन्यास की वह विशेषता है जो किसी रचना में तब आती है जब लेखक अपने वजूद का एक हिस्सा उस रचना में होम कर देता है।
ये सारे चरित्र सूर्यबाला ने अपने आसपास के मध्यमवर्गीय जीवन से उठाये हैं । वे अमेरिका में रहकर उस समाज का अपनी ही तरह का समाजशास्त्रीय अध्ययन भी करती रही हैं ।खासतौर पर वहां के प्रवासी भारतीयों तथा अन्य प्रवासियों के जीवन का भी। उनके सपने, उनके घर, उनका सबसे अलग अपना ही सीमित समाज, सब उनके कथाकार की पैनी नजरों में है। वे अमेरिका जाकर रहीं भी तो उनका सैलानी व्यक्तित्व से अधिक उनका कथाकार जाग्रत रहकर वहां के जीवन को अपनी पैनी रचनात्मक दृष्टि से देखता, समझता और पड़ताल करता रहा है।
‘कौन देस को वासी’ वृहद अर्थों में संपूर्ण मानव संघर्ष की कथा बन गई है । कैसे हमारे बड़े दिखते सपने साकार होने के साथ ही छोटे लगने लगते हैं और कैसे जीवन के बड़े प्रश्न वेंणु को बड़े सपनों की तलाश में वापस अपने ही देश और समाज की दिशा में मोड़ देते हैं, यही बात इस साधारण सी प्रतीत होती स्टोर-लाइन को अंततः एक विराट स्वरूप दे देता है और उपन्यास को बड़ा बना देता है। फिर यह सब रिश्तों की कथा नहीं रह जाती। यह बहुत बड़े प्रशनों पर अपने पाठक को ले जाकर छोड़ती है। जीवन का अर्थ क्या है? सफलता के आंकने के खुद के ही पैमाने जब छोटे साबित होने लग जाते हैं तो आदमी किसे अपनी सफलता समझे और किसे खाली हाथ रह जाना? कैसे हम गहरे आत्मीय संबंधों से परे के जीवन को समझकर वापस उन्हीं संबंधों को एक नितांत नये आलोक में देखने, समझने और महसूस करने लगते हैं? इस उपन्यास में सूर्यबाला का हर चरित्र मानो खुद को तलाशने की इस यात्र पर निकला है और पेज दर पेज अपने पाठक को उस रचनात्मक अनुभव और समझ से गुजारता चला जाता है जहां उपन्यास ख़त्म होते होते स्वयं पाठक एक हद तक उस द्वंद का हिस्सा बन जाता है जिसे ये चरित्र गुजर रहे हैं। पाठक निश्चित ही कुछ नई जीवन दृष्टि लेकर ही उपन्यास बंद करता है फिर । यही इस उपन्यास का बड़ा होना है और यही इस उपन्यास को अद्भुत बनाता है।
अद्भुत होने का मतलब दो की जगह तीन टांगें होना या सर के बल चलना नहीं होता है, वह तो साधारण मनुष्य और साधारण जीवन में मौजूद असाधारणता के साक्षात्कार से मतलब रखता है। यह उपन्यास बखूबी यह काम करता है। मैंने यह उपन्यास एक साल के अंतराल में दो बार पढ़ डाला तो इसके पीछे दो ही कारण रहे होंगे। एक, कि यह बेहद रोचक है। कठिन काम है चार सौ पेज तक एक जानी पहिचानी सी प्रत्याशित कथा को इस हद तक रोचक बनाये रखना कि आप कोई भी पेज यूं ही न पलट जायें। किस्सागोई यूं ही सूर्यबाला की छोटी बड़ी कहानियों का महत्वपूर्ण गुंण रहा है। पर उसी किस्सागोई में अपने पाठक को इतनी दूर तक बांध लेना बड़ी चुनौती रही होगी उनके लिये।
इस किताब को दूसरी बार पढ़ने का दूसरा कारण कदाचित यह रहा कि हर बड़ी रचना के पुनर्पाठ से आपको फिर से एक नई रचना पढ़ने को मिलती है जिसे देखने से आप पहले पाठ के दौरान चूक गये होते हैं। मैं इसे दोबारा पढ़ते हुते इन दोनों ही भावनाओं से गुजरा हूं। और इस सोच ने मुझे फिर एक बार बेहद परेशान कर डाला है कि क्यों, इतने अद्भुत उपन्यास पर उस तरह से आलोचना की निगाह ही नहीं पड़ी जिसका यह पूरा हकदार था और है ।
डॉ ज्ञान चतुर्वेदी जी के उपन्यास पर उदगार सुलझे हुए हैं ।
नमन