वह दरअसल अपने गांव के बारे में कभी सोचता नहीं था। उसे बताया तो गया था गांव के बारे में; रोज़ ही तो वह सुनता था। दिन शुरू ही होता था इस वाक्य से.. 
असां ने  ग्रां विच…’  लेकिन वह सब कुछ वैसा ही था। जैसे रोज़ सुबह सूरज का उगना हो बस।  कौन भला रोज़ सुबह सूरज के उगने या शाम को ढल जाने से इस कदर प्रभावित हो जाता है मानो कुछ बहुत ही नया या अलगसा हो गया हो।   उसने कभी इस और ख़ास ध्यान ही दिया था। यह अलग बात थी कि  बचपन से वह सब  सुनकर उसके दिलोदिमाग में एक तस्वीर सी ज़रूर बन गयी थी कि गांव कुछ ऐसा होगा ज़मीनें ऊँचीसी होगी चारों तरफ पहाड़ों का घेरा सा होगा  और नीचे से एक दरिया बहता होगा। पहाड़ों पर से उतरता साफ़ पानी वाला दरिया। माँ कहती उसका पानी रेशम की तरह है। वह इस बिम्ब को भुला नहीं पाया कभी कि पानी रेशमसा हो। ज़मीनों में पेड़ ही पेड़ होंगे जिनमें बोड़ी  का पेड़ बड़ा होगा और आमली का उससे छोटा क्योंकि माँ जाने क्यों इस दो पेड़ों  का ज़िक्र हमेशा ही किया करती। कभीकभी जानवरों को शेर उठा कर ले जाता होगा और कभी किसी गांव वाले को शेर ने घायल कर दिया होगा और फिर  वह इतना ज़्यादा  डर  गया होगा कि हर आहट  उसे शेर के आने जैसा कुछ लगती होगी। यह सब कुछ ऐसी बातें थी जो उसके नन्हें से दिल को अपनी तरफ खींचती थी। बाकी  ऐसा कुछ नहीं था कि इन सब बातों से वह ऐसा महसूस करे कि गांव कहीं क्यों नहीं है। एक और बात यह थी कि उसकी दिनचर्या में गांव जैसा कोई शब्द था नहीं था उसकी अपनी भाषा में उसने हमेशा ग्रां  ही सुना था जो ग्राम  का  अपभ्रंश था। ग्रां  उसके जीवन में प्रत्यक्ष कभी नहीं था वह सिर्फ़  एक निराकार निर्गुण जैसी कोई चीज़ था।लेकिन वह कोई वैक्यूम नहीं था। वह कबीर के निर्गुण जैसा कुछ था। जब से उसने होश संभाला था उसने अपने इर्द गिर्द एक शहर  को पाया था। शहर नाम  की चीज़ उसे अपनीसी  लगा करतीशहर की गालियां उसे अपनी लगतींशहर के मोड़ और शहर के चौराहे उसे अपने से लगतेवह शहर की सड़के नापता और उसे लगता वह किसी अपनी जगह पर है बिलकुल अपनी। यहाँ तक की शहर   कि   सडकों के किनारे लगे बड़ेबड़े पेड़ों से भी उसे अपनेपन का अहसास होता। लेकिन फिर अचानक जैसे एक परिवर्तनसा हुआ जिसने उसे विचलित कर दिया। जब उसने देखा कि  वे सब हमेशा गांव चले जाया करते थे। वे यानी उसके आसपास के बहुत सारे लोग।  उसके इर्दगिर्द के अधिसंख्य  लोग गांव चले जाया करते थे  । ऐसा हमेशा होता था। वे लौट  कर आते और फिर गांव की बातें किया करते। और फिर अगली बार गांव चले जाया करते। शुरू में उसे लगता कि गांव उनके लिए कोई बोझ जैसी चीज़ है जहाँ उन्हें जबतब जाना पड़  जाता है।  वे त्यौहार में गांव चले जाया करते; वे सुख में गांव  चले जाया करते; वे दुःख में गांव चले जाया करते।  वह समझ नहीं सकता था कि इनके लिए शहर के  क्या अर्थ रखता होगा या कोई अर्थ रखता भी होगा क्या !! यह सिलसिला वैसे तो हर तीनचार माह में हुआ करता। फिर बीच में कोई सुखदुःख आता तब भी ऐसा ही होता। वे हर मृत देह को गांव ले जाया करते। उसे लगने लगा  कि शहर कोई  हवा  – सी चीज़ है जहां  पाँव  टिक ही नहीं सकते हैं। उसे लगता वे शहर को इतनी नामालूम सी चीज़ समझते है कि अपनों की निष्प्राण देह  भी यहां नहीं छोड़ना चाहते । 
वे गांव  से अनाज लाया करते तो उसे माँ   की याद जाती जब माँ  कनक और बाजरे की बातें करतींउसे दुःख होता कि  माँ की वे बातें उन दिनों उसने कितने कम ध्यान से सुनी थी।  पकी  हुई कनक को काटना एक मुश्किल और ऐसा काम था जिसे टाला नहीं जा सकता था। यह वह तब बताया करती जब वह किसी काम से ना नुकुर किया करता या तब जब वह किसी काम में परेशानी ज़ाहिर किया  करतावे सब ग्रां  की बातें उन दिनों उसने सुनी तो थी पर वे अब तक किसी सपने की तरह थी।  लेकिन इधर यह परिवर्तन हुआ कि उसे लगने लगा कि ग्रां की तस्वीर धीरेधीरे साफ़ हो रही है अफसोस  था कि  उसने उन बातों से और बातें निकाल कर मां से बहुत सारे सवाल क्यों नहीं किया थे।   मगर ग्रां वैसे था तो अब उसके  पार था  जिसे वे सरहद का नाम देते थे।  लोगों के लिए वह सरहद थी और मां के लिए किसी काली रात का एक बुरा सा ख़्वाब ;उस काली रात और बुरे ख़्वाब के आगे एक सफ़र  था जो अलगअलग जगहों से गुजरता हुआ बस ग्रां तक पहुँच जाता था हमेशा ही  ।  जब वे गांव की बात करते तो उसे माँ  की याद जाती और माँ के ज़रिये वह बड़ी आसानी से ग्रां तक के फासले तय कर लेताउसे लगता कि दुनिया का भूगोल और किसी एक शख्स का भूगोल अलग हो सकता है। उसे लगता  पूरी दुनिया का  इतिहास एक हो सकता है और किसी एक शख्स का अपना अलग ही इतिहास हो सकता है।  उसे लगा एक ही ज़मीन का इतिहास और भूगोल हर शख्स के लिए अलगअलग हो सकता है।  मां कहा करती हम ग्रां  छोड़ कर नहीं आये थे वह तो हमारे साथसाथ गया था।  उन दिनों ये बातें उसे बेमानी लगा करती। अब जबकि  वे गांव की बातें करते तो वह माँ  के अंदर के ग्रां  की बहुत बातें  मिस किया करता उसे लगता वह भी माँ की तरह थोड़ा सा ग्रां लेकर अपने लिए रख लेना चाहता है जहां वह हर दो तीनमाह में चला जाया करेगा जैसे वे हर दो  तीन माह में गांव चले जाया करते हैं।  उसे लगा करता कि उसके इर्दगिर्द के हर शख़्स  की नाल किसी एक गांव से जुड़ी  हुई है और वह जब ऐसा महसूस करता तो उसे लगता कि वह एक हवा में तैरता हुआ शरीर है बस। 
आपका गांव कहां है ?’
उसका यह एक नया प्रश्न था जो वह हर किसी से करने लग गया था। 
तो फिर आप यहां क्यों हैं?’ 
यह उसका दूसरा प्रश्न हुआ करता 
इस दूसरे प्रश्न पर लोग अलगअलग तरह की प्रतिक्रिया दिया करते। 
कुछ तो बिफर भी जाते 
कमाने  के लिए
यह भी उत्तर होता। 
कुछ की आंखें गीली हो जाया करतीं । 
वह दिन पर दिन किसी  गहराई में उतरता  जा रहा था।  
फिर उसे लगा कि हर शहर भी एक गांव ही है जहाँ वे आकर फिर एक दूसरे   से जुड़ गए है और बेकार ही इसे शहर का नाम दे रहे। 
उसे लगा की ज़मीन  की हर चीज़ उखड़ सकती है सिवाय गांव के।  उसे लगा जब आंधियां  आती होंगी या तूफ़ान जैसी कोई चीज़ आती होगी तो चीज़ें तहस नहस हो जाया करती होंगी  लेकिन ग्रां  कभी भी उखड़ते नहीं। उनकी ज़मीन कहीं गहरे धंसी हुई है बेहद मज़बूती से जो कभी अलग नहीं हो सकती।  शायद इसीलिए वे हमेशा गांव चले जाते यही ताकि अगर कभी शहर तबाह हो जाएँ तो वे गांव की ज़मीन पर अपने पैर  उसी मज़बूती से दायर कर सकेंगे। वे शहर के साथ अन्याय कर रहे थे।  उसे ऐसा भी लगा। उसे लगा वे कभी किसी शहर के नहीं  हो सकते और वे जब इसे अपना शहर  कहते हैं यहीं तो वे सफ़ेद झूठ  बोल रहे होते हैं। उसे लगता कि वे जब शहर को अपना कह रहे होते है तो दरअसल वे एक बहुत ही बड़ा सा कोई पज़ल तैयार कर रहे होते हैं  जिसमें वे बस  एक अलग से टुकड़े की तरह होते है वे सब मिल जाते हैं तो एक शहर बन जाया करता है। वे दरअसल बिलकुल अलगअलग होते हैं बिल्कुल ही अलग। 
वह मगर उन सबका का हिस्सा कभी नहीं बन पाया। वे जब ही गांव की बात करते उसे वे अलग से लगने लग जाते। 
बहरहाल वह अब एक नतीजे पर पहुँच चुका था। 
एक दिन  अपने इसी फैसले के तहत ट्रेन  पकड़ ली थी। 
वह एक लंबी यात्रा थी बहुत लम्बी यात्रा।
उस यात्रा के दौरान वह अकेला ही था। 
कहाँ तक’ 
हमसफ़र उससे पूछते
बस अपने ग्रां’  
कुछ मुस्कुराते। 
कहाँ
 फिर सवाल आता…  
सवाल दर सवाल…  
स्टेशन दर स्टेशन…  
वह चलता जा रहा था
उसके लिए सरहद के कोई मायने नहीं थे। उसकी दृष्टि बिलकुल साफ़ थी उसे सिर्फ़  और सिर्फ़  अपना ग्रां दिखाई दे रहा था।  उसके पास माँ की दी हुई तस्वीर थी जिसमें ग्रां बिल्कुल भी धुंधला नहीं था, वक़्त की कोई धूल उसपर नहीं थी। 
यह सब  कोई दसेक बरस पुरानी बात है। 
तब से अब तक उसे किसी ने देखा नहीं
वह अब तक लौटा नहीं है
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