सरोमा के घर में आज ढेर सारे मेहमान आए हुए हैं. बाबा सभी मेहमानों का खुब आवभगत कर रहें हैं. सरोमा का स्कूल जाने का समय होने वाला था. वह शीशा के सामने खड़ी होकर चोटी गुंथ ही रही थी कि मां ने रसोई से आवाज दी ‘‘सरोमा आज तुझे स्कूल नहीं जाना है.‘‘
सरोमा चकरा गई यह अचानक मां को क्या हो गया जो उसे स्कूल जाने से मना कर रही है. ‘शायद आज घर में ढेर सारे मेहमानों के आ जाने से उनके लिए अकेले खाना बनाने में परेशानी होगी. इसलिए स्कूल जाने से रोकना चाहती है.‘
‘लेकिन आज तो स्कूल में चित्रांकन का स्पेशल क्लास है. शहर से कुछ बड़े चित्रकार उसके गांव डोभा आने वाले हैं. वे बच्चों को चित्रकला के बारे में बताएंगे. क्लास टिचर महतो सर ने एक हफ्ता पहले ही बता दिया था. ऐसे में वह आज स्कूल मिस कर देगी तो फिर बड़े चित्रकारों से मिलने का मौका दूबारा नहीं मिलेगा. चित्रकला में उसकी रूचि है.‘
महतो सर ने उसके हाथ के बनाए चित्रों को देखकर एकबार सराहा भी था. उस दिन वह मारे खुश से फुली नहीं समाई थी. स्कूल से घर लौटकर बाबा के साथ बाजार गई. ड्राइंग पेपर, रंगीन पेंसिल खरीदवाई. अब वह रोज स्कूल से आने के बाद कम से कम एक घंटा चित्र बनाने का अभ्यास करती है.
उस दिन दीनू काका कितना बड़ाई कर रहे थे उसके बनाए चित्रों को देखकर. कह रहे थे ‘अरे सरोमा यह तो तुमने अपने गांव का ही चित्र बना दिया. यह जो सामने ऊंचा पहाड़ बनाया है यह दलमा पहाड़ है और इसके नीचे बहती हुई नदी अपनी स्वर्णरेखा नदी है. नदी से मटका में पानी ढोती औरतों का चित्र तो तुमने एकदम से सजीव बना दिया है. जादू है रे तेरे हाथों में तो.‘ एक दिन तो गांव का मुखिया भी अपना फोटो उससे बनवाया. अब तो सभी उसे चित्रकार के नाम से पुकारने लगे हैं.
वह अपना नया नाम पाकर बहुत खुश थी.
शीशा के सामने खड़ी उसे रह रहकर झुंझलाहट होने लगी ‘इन मेहमानों को आज ही के दिन आने का समय मिला था.‘
हिम्मत करके बोली ‘‘मां, आज स्कूल जाना बहुत जरूरी है. शहर से बड़े चित्रकार आने वाले हैं. जो बच्चा सबसे अच्छा चित्र बनाएगा उसे वे पुरस्कार भी देंगे.‘‘
‘‘सरोमा, देखती नहीं कि तुम्हें लड़के वाले देखने आए हैं. वे तुम्हें पसंद कर लेंगे तो फिर तुम्हारी शादी होगी. तुम ससूराल जाओगी.‘‘ मां ने तेज आवाज में कहा.
अपनी शादी की बात सुनते ही घबरा गई ‘मां बाबा उसकी इच्छाओं पर पानी फेर रहे हैं. वैसे अभी तो उसकी उम्र भी नहीं हुई है शादी लायक. आठवीं क्लास में पढ़ रही है. अभी और आगे पढ़ना है. एक बड़ा चित्रकार भी बनना है.‘
उसे ऐसा महसूस हुआ जैसे कोई उसके हाथ से ड्राइंग पेपर और रंगीन पेंसिलें छीन रहा हो. उसका मन कर रहा था खुब जोर जोर से रोए लेकिन घर में मेहमानों के होने के कारण ऐसा नहीं कर सकी. उस दिन वह स्कूल नहीं जा सकी. मन मारकर मेहमानों के सामने चली गई. मेहमानो ंने उससे कुछ सवाल पुछे जिसका जवाब हां न में देकर वह चुपचाप उनके सामने खड़ी रही. फिर बाबा ने उसे अंदर जाने को कह दिया.
मां बाबा की बात मानकर उनके सामने वह चली तो गई मगर मन ही मन ठान लिया जितना जल्दी हो सके शादी से अपना पिंड छुड़ाना है. दूसरे दिन वह स्कूल पहुंची तो सबसे पहले महतो सर ने उसे स्कूल नहीं आने के कारण खुब डांट पिलाई. सरोमा की आंखों से टप टप आंसू चु रहे थे.
महतो सर ने पुछा ‘‘क्या बात है सरोमा, तुम रो क्यों रही हो!‘‘
उसने महतो सर को अपनी शादी वाली बात बताई. महतो सर अवाक रह गए ‘‘अरे सरोमा अभी तुम्हारी उम्र ही क्या हुई है जो वे तुम्हारी शादी करना चाहते हैं!‘‘
‘‘सर मैं शादी नहीं करना चाहती हूं. मां बाबा जबरदस्ती मेरी शादी करना चाहते हैं. मैं अभी पढ़ना चाहती हूं. चित्रकार बनना चाहती हूं. मुझे बचा लीजिए सर.‘‘ वह फफक पड़ी.
महतो सर की आंखे भी गीली हो गई. वे गांव वालों को अच्छी तरह से जानते थे. वे अपने बच्चों को स्कूल भेजने के बजाय उन्हें अपने साथ जंगल ले जाकर लकड़ियां ढुलवाते हैं. बीड़ी बनाने के लिए केंदू पत्ता चुनवाते हैं. लड़कियों की हालत तो और भी खराब है. दस बारह साल होते होते उनकी शादी कर देते हैं. ऐसी लड़कियां कम उम्र में बच्चे पैदा करने के कारण असमय ही मर खप जाती हैं. कम उम्र में मां बनने के कारण उनके बच्चे भी कुपोषण का शिकार हो जाते हैं. ये अंधविश्वासी बीमार होने पर डाक्टर के पास जाने की अपेक्षा ओझा गुणियों से झाड़ फूंक करवाते हैं.
सरोमा की शादी वाली घटना पहली नहीं थी. ऐसे अनेको सरोमाओं को महतो सर ने असमय शादी होते, उनके बाल बच्चे होते और मरते भी देखा था लेकिन वे अकेले कुछ बोल नहीं पाते थे. मुढ़ गांव वालों को समझाना खतरे से खाली नहीं था. एक बार उन्होंने गांववालों को समझाने का प्रयास भी किया था लेकिन उसका परिणाम बदनामी के रूप में भुगतना पड़ा था. उनकी अध्यापकी की नौकरी खतरे में पड़ गई थी. गांववालों ने यह कहकर उन्हें बदनाम करना चाहा कि वे उस लड़की से फंसे हुए हैं इसीलिए उसकी शादी नहीं होने देना चाहते हैं. तब से उन्होंने अपना जबान सिल लिया था.
सरोमा की हिचकियां बंद होने का नाम ही नहीं ले रही थी. वह सिसक रही थी. उन्होंने सरोमा के सर पे हाथ रखकर कहा ‘‘अब ऐसा नहीं होगा बेटी. तुम्हारी जिंदगी बचाने के लिए मुझसे जितना कुछ होगा, करूंगा. भले मेरी नौकरी रहे या जाय.‘‘
वे सरोमा को लेकर प्रधानाध्यापक गगराई बाबू के पास गए. उन्हें सारा हाल बताया. गगराई सर ने सरोमा से एक ‘एप्लीकेशन‘ लिखवाया ‘वह एक नाबालिग छात्रा है और अभी विवाह नहीं करना चाहती. उसके मां बाबा जबरदस्ती उसकी शादी करना चाहते हैं. वह अभी आगे पढ़ना चाहती है.‘
गगराई बाबू काफी पढ़े लिखे व सुधारवादी विचारो से ओतप्रोत इंसान थे. वे भी अपने समाज में व्याप्त कुरीतियों जैसे अंधविश्वास, बालविवाह, गरीबी, शोषण से दुखी थे. वे जिस आदिवासी समाज से ‘बिलोंग‘ करते थे उनका वह समाज अशिक्षित व पिछड़ा हुआ था. घोर तंगी में जीवन यापन कर रहा था. मर्द दारू हड़िया पीकर घर में बैठे रहते और औरतें बाहर काम करने जाती हैं. लड़कियां इसलिए पढ़ने नहीं जाती कि उन्हें जंगल मे लकड़ियां, केन्दू पत्ता चुनने जाना पड़ता था.
उन्होंने कितने ही गरीब आदिवासी स्त्री, पुरूष, बच्चों को जंगल माफियाओं के हाथों शोषित होने से बचाया था. वे जानते थे ये जंगल माफिया आदिवासियों को दारू पीलाकर उनके खेत खलिहानों को गिरवी रखवा लेेते हैं. यही नहीं वे इनकी लडकियों पर गलत निगाह रखते हैं. ये लोग उनकी नजरों से बचाने के लिए लड़कियों को कम उम्र में ही शादी विवाह कर देते हैं.
एक तरफ जंगल माफिया उन्हें परेशान करते हैं तो दूसरी तरफ ओझा गुणी गांव वालों को टोना टोटका, झाड़फूंक, डायन बिसाही के मकड़जाल में फंसाये रखना चाहते हैं ताकि उनकी मुर्गा दारू चलती रहे. गरीबी में जकड़े ये लोग अपने बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल नहीं भेज पाते हैं. कुछ बच्चे आते भी हैं तो स्कूल में मिलने वाला मीड डे मील का खाना खाने के लिए. खाना खाकर फिर गायब. ऐसे कितने बच्चों को उन्होंने कक्षा में बैठाकर उनको काॅपी पेंसिल देकर पढ़ने का लालच दिया था. उन्होंने सरकार से कहकर स्कूल में कम्प्युटर और इंटरनेट लगवाया ताकि पढ़ने वाले छात्रों को बाहर की दुनिया से परिचय कराया जा सके.
महतो सर भी प्रगतिशील विचारों के थे. वे भी प्रधानाध्यापक गगराई बाबू की तरह आदिवासी समाज के नौनिहालों को शिक्षित करने के लिए कृतसंकल्प थे. उनके आते ही स्कूल का कायाकल्प होने लगा. महतो सर अकेले ही गांव में निकल जाते और आदिवासियों को शिक्षा का महत्व समझाते. बच्चों को पढ़ने के लिए स्कूल में ले आते. जो स्कूल का मैदान पहले शराबी, जुआड़ियों से भरा रहता था अब वहां छात्र छात्राएं फुटबाल खेलने लगे थे. उनके शारीरिक, मानसिक व कौशल विकास के लिए धनुर्विद्या तथा चित्रकला की शिक्षा दी जाने लगी. जो स्कूल पहले सन्नाटे में गुजरता था वहां छात्रों की किलकारियां गुंजने लगी. अपने दृढ़इच्छा के बलबुते दोनो शिक्षकों ने एक असंभव कार्य को संभव कर दिखाया. दोनो शिक्षकों के अथक प्रयासों से बच्चे धीरे धीरे स्कूल आने लगे थे.
डोभा गांव का प्राथमिक विद्यालय एक आदर्श विद्यालय के रूप में जाना जाने लगा. साल में एकबार स्कूल में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन भी होने लगा जिसमें किसी खास क्षेत्र के अनुभवी आदमी को बुलाया जाता. उनके हाथों खेलकुद से लेकर चित्रकला, पढ़ाई में अव्वल आने वाले छात्रों को पुरस्कृत किया जाने लगा. गांव वाले भी निमंत्रित रहते. इस आयोजन में उन्हें भी भाग लेने का मौका मिलता. उनसे खेत खलिहान संबंधी प्रश्न पुछे जाते. विजेता को भी अलग से पुरस्कार दिया जाता.