पकी धूप पेड़ों से छनकर सीधी रूपा के मुँह पर टपक रही थी । उसने शॉल से सूरज के साथ एक पारदर्शिता स्थापित कर ली, अब धूप शॉल में से छन-छनकर आ रही थी । तभी हल्की- हल्की किरणों की तपन उसका चेहरा सहलाने लगी थी, यूँ लग रहा था मानो चेहरे पर गर्माहट की एक परत-सी चढ़ी जा रही हो । कुछ देर बाद उसके गालों पर एक बोझ चढ़ने लगा, उसने गालों को सहलाया, कोई एहसास नहीं, एक अजीब शून्य था वहां । इधर एक निल बट्टा सन्नाटा उसके अस्तित्व पर तारी रहता है । भीतर कोई हलन-चलन नहीं रहती, बस एक बाहरी शोर उसे मथे डालता है । ये दुनिया उसे एक भीषण शोर का गोला नज़र आने लगती है, जहाँ हर कोई स्वयं से नहीं सिर्फ़ दूसरे से प्रश्न कर रहा है, उत्तर कोई नहीं दे रहा, बस हरेक व्यक्ति गोलियों की मानिंद सिर्फ़ सवाल दाग रहा है । रूपा घबराकर कान बंद कर लेती है किन्तु शोर अब सीधे उसकी आत्मा पर हमला करने लगा था । परेशानी और बढ़ती देख वह घर जाने के लिए खड़ी हो गई थी । घर क्या होता है ? उसने भी एक सवाल खुद से दाग दिया था । अत्यधिक बाहरी शोर जब सहन करने की जद से बाहर हो जाए तो आत्मा में भी जज़्ब होने लगता है । ये सवाल उसी का नतीज़ा था ।
उसने पर्स से चाबियों का गुच्छा निकालना चाहा, पर्स में घुंघरू बजने लगे । वह मुस्कुरा दी । चाबियाँ पर्स में कहाँ रखी हैं ये जानने के लिए उसने की-रिंग में घुंघरू पिरो दिए थे ताकि उनकी रुनझुन से चाबियाँ स्वतः मिल जाएँ । वह लीविंग रूम के दीवान में ढह गई । ये घर में उसका पसंदीदा कोर्नर था । रूपा का मानना है कि हर एक घर में एक कोज़ी स्पेस होता है जहाँ व्यक्ति सबसे छुपाकर अपना बचपन, यूथ और पकी उम्र की यादें तह करके रखता जाता है फिर गाहे-बगाहे उन यादों को उलट-पलटकर देख-बुहार लेता है । इसी जाँचा-परखी में कभी-कभार कुछ यादें विस्मृत हो जाती हैं तो कुछ वक्त से फिसलकर दूर जा गिरती है और उनके स्थान पर व्यक्ति कुछ नई यादें संजो देता है । यूँ भी जहाँ से चले थे वहाँ पुनः लौटना चाहो तो मस्तिष्क में बैठा सिक्योरिटी गार्ड यकायक विसल बजाकर रोक देता है । यादों तक जाने की राह यूँ भी वन-वे होती हैं जहाँ से लौटने में दर्द और आहें साथ हो लेती हैं । व्यक्ति नाहक व्यथित होता है लेकिन किसी के रोके से कोई नहीं रुकता बल्कि प्रतिबंधित राहों पर जिज्ञासा के बोर्ड टंगे होते हैं । व्यक्ति जिन्हें पढ़कर रुकता तो नहीं बल्कि उन राहों पर जाता अवश्य है, चाहे लौटते वक़्त कितनी भी तकलीफ़ क्यों न झेलनी पड़े । रूपा भी यादों की टहल लेने अक्सर उन प्रतिबंधित राहों पर आवाजाही करती रहती थी । उस दिन भी यही सिलसिला था । रविवार उसे वैसे भी और दिनों की अपेक्षा बहुत बड़ा लगता था ।
रूपा बाल्कनी में चली आई थी । बाहर किसी का सामान लोड हो रहा था, सामने वाला घर अब पुनः मकान बन गया था, खाली मकानों में सपने पलते हैं और भरे मकानों में उन सपनों की टूटन । उसकी जाने वालों से ख़ास पहचान नहीं थी, बाल्कनी में आते-जाते कभी-कभार का मुस्कुराना भर होता था । उसने नीचे झांककर देखा, जाने वाली स्त्री उसे देखकर हाथ हिला रही थी, उसने भी जवाब में हाथ हिला दिया । रूपा को लगा पहले कुछ और बातचीत हो पाती तो बेहतर होता । अब जाने वालों से क्या बात करे ?
उसने झूले पर पड़ी किताब उठा ली । किताबें, संगीत और एकांत से प्रेम उसे एकाकी नहीं होने देते हैं । क्या वाकई ? यदि वह एकाकी है तो इसका चुनाव भी तो उसी ने किया है । एक मर्तबा पिता से बहस के दौरान उसने कहा था,
“स्त्रियाँ अपने लिए नियम स्वयं तय करेंगी और ये उनका अधिकार है ।”
“सो तो है बिटिया लेकिन इतनी बड़ी ज़िंदगी अकेले गुज़ारना ?”
“आपने भी तो माँ के बिना एक लम्बा सफ़र अकेले तय किया है पापा ?”
“मेरे पास तेरी माँ की यादें थीं, बेटा !”
“मेरे पास ये नौकरी है, किताबें हैं और आप भी तो हैं पापा ।”
“मैं यहाँ गाँव में ख़ुश हूँ बेटा, तेरी भागदौड़ भरी ज़िंदगी में मेरा मन नहीं लगेगा, मुझे तो तू यहीं रहने दे ।” और पापा ने भी उसे अपने हवाले छोड़ दिया था । इतनी बड़ी दुनिया में अपने जीवन की चुनौतियाँ निबटाने के लिए उसे यूँ भी अपना होना काफ़ी था । इतने बड़े शहर में उस जैसे ना जाने कितने ही लोग होंगे जो स्वयं के भरोसे रहते होंगे । एक सिर्फ़ वही तो नहीं थी जो घर और नौकरी के बीच सामंजस्य बनाये हुए थी । एक गहरी साँस लेकर वह किचन में चली आई थी । अदरक वाली चाय का एक बड़ा कप लिए सोफ़े पर जा बैठी थी । कुछ देर बाद एक कविता डायरी में लिखने लिखी थी-
“पेड़-पौधे
फल-फूल
हवा-धूप
फुनगी-तना
सब ले लो बस जड़ें छोड़ देना
ताकि मैं पुनः उग आऊं…”
शाम तक रूपा यूँ ही डायरी लिए सोती रही थी ।
“नॉक-नॉक, क्या मैं आपके एकात्म को खटखटा सकता हूँ ?”
“कौन ?”
“जी मैं, वो सामने वाले घर में आपका नया पड़ोसी ।” वह एक ख़ाली कप लिए खड़ा था ।
“ओह…जी-जी, बताइए ?”
“एक कप दूध मिलेगा ? वैसे आप चाहें तो औपचारिकतावश अपने नए पड़ोसी को इसी कप में चाय भी पिला सकती हैं, यकीन मानिए मैं कतई मना नहीं करूँगा, मैं अन्दर आ जाऊं ?” और इसी के साथ वह रूपा के सामने वाली कुर्सी पर लगभग आ धंसा था ।
“जी थोड़ा दूध है फ्रिज़ में, आप रुकिए मैं एक कप चाय ही बना लेती हूँ ।”
“एक कप ? क्या आप नहीं पिएँगी?”
“जी नहीं, मैं पी चुकी हूँ ।”
“एक और कप पी लीजिए ।”
“जी नहीं, मुझे ज्यादा कैफ़ीन का शौक नहीं है ।” रूपा ने तनिक झुंझलाकर कहा था ।
“अरे आप चाय जैसे अमृत को कैफ़ीन कहती हैं ?”
“उफ़्फ़…”
“आपने कुछ पूछा?” वह अचकचाकर चलने को हुआ था ।
“आप बैठिए ! मैं चाय बनाकर लाती हूँ ।” रूपा को अपने व्यवहार पर संकोच हो चला था ।
“ये उतनी भी खडूस नहीं जितनी चौकीदार ने बताया था ।”
“अब आपने कुछ कहा?”
“कहने-सुनने में मैं अधिक विश्वास नहीं करती ।” रूपा ने बेरुखी से जवाब दिया था । रूपा को ज्ञात था कि लोग उसके बारे में क्या राय रखते हैं, वह मुस्कुराकर चाय छानने लगी थी । पड़ोसी उसके संकोची व्यवहार को अमूमन अभिमान आंक लेते हैं जबकि ये दोनों निहायत अलहदा हैं । ख़ैर उसे कोई एतराज़ नहीं, जिसे जो सोचना है सोचे । किसी के कहने से कोई अच्छा-बुरा नहीं हो जाता, फ़र्क तब पड़ता है जब आप इसे मान लेते हैं, वैसे भी व्यक्ति दूसरे को अनुभवों से कम पूर्वाग्रहों से अधिक आँकता है तो फिर ये कौनसे अजूबे ग्रह से आया है, है तो ये भी आदम का जन्मा ।
रूपा ने चाय के साथ एक तश्तरी में कुछ बिस्कुट भी रख दिए । उसने स्वयं के लिए भी आधी प्याली चाय ले ली थी ।
“जी, शुक्रिया ! कल शाम को ऑफिस से लौटते ही मैं सारे इंतजाम कर लूँगा फ़िर भी गाहे-बगाहे आपको कष्ट दूंगा, आख़िर आप भी तो पुन्य कमाएंगी इस गरीब की मदद करके ।”
“मैं भी शाम तक ही घर लौट पाती हूँ, भला मैं क्या आपकी सहायता कर पाउंगी ?” रूपा ने अपने हालातों के ज़रिए बात स्पष्ट करने की कोशिश की थी ।
“तब तो मैं आपकी भी मदद कर पाऊंगा, क्यों न कल शाम का खाना आप मेरे घर पर खाएँ?”
“अरे नहीं-नहीं, आपको नाहक तकलीफ़ होगी । आपका तो सामान भी अभी ठीक से खुला नहीं होगा, आप भला मुझे क्या डिनर करवाएंगे ?”
“तो आप अपने घर खिचड़ी बना लीजिए, मैं पापड़ खुद सेक लूँगा आकर ।”
“जी-जी…” रूपा कुछ कह भी नहीं पाई थी कि उससे पहले वह स्वयं को आमंत्रित कर लिया था । वह सेक हैण्ड की मुद्रा में डिनर के लिए रूपा से वचन लेने के लिए हाथ बढ़ाये खड़ा था । वह कुछ सोच पाती इससे पूर्व ही उसने रूपा की हथेली को अपने हाथ में लेकर हल्के से थपका दिया था ।
“मान न मान मैं तेरा मेहमान ! कौन है ये महाशय? यही सोच रही हैं न आप?”
“हाँ… मेरा मतलब कि नहीं-नहीं ।” रूपा अचकचा गई थी ।
“मेरा नाम वर्धन है और मैं आपका नया पड़ोसी हूँ, एक प्राइवेट फ़र्म में एच. आर. डिपार्टमेंट देखता हूँ । ये अपार्टमेंट दरअसल मुझे कम्पनी ने दिया है । आपके हावभाव देखकर यूँ लग रहा है मानो आपको मुझसे मिलकर कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई किन्तु मुझे आपके जैसी गुणी पड़ोसी पाकर अत्यंत प्रसन्नता हुई है ।”
“ऐसी कोई बात नहीं, मेरा नाम रूपा है जो कि नेम प्लेट पर आपने देखा ही होगा और मैं एक लाइब्रेरियन हूँ ।”
“बढ़िया… तो कल खिचड़ी पक्की रूपा ?” वह हैरानी से देखती हुई रूपा को नमस्ते की मुद्रा में छोड़कर चल दिया था ।
ये अजनबी उसे अच्छा पड़ोसी धर्म सिखा गया ।
अगली शाम को जब वह लौटी तो इस बाबत बिल्कुल भूल ही चुकी थी । शाम को खाना बनाने किचन में गयी तब याद आया कि वर्धन ने कैसे स्वयं को जबरन न्योता था उसके घर । ये नई जेनरेशन कितनी सहज है, रूपा मुस्कुराते हुए खिचड़ी के साथ रायता भी बनाने लगी थी । ठीक शाम आठ बजे वर्धन उसके घर दाखिल हो गया था, डिनर के बाद उसने ज़िद करके बर्तन भी धो दिए थे । वह देर तक अपने परिवार वालों के बारे में बतियाता रहा था । उसकी बातों से ही पता चला था कि उसके मम्मी-पापा उसके साथ रहने आने वाले हैं और वह उन्हें शहर घुमाने में कोई कसर नहीं रखना चाहता था । एक बात जो अहम थी उसने रूपा से उसके जीवन के बारे में कोई बात नहीं पूछी थी न ही अन्य लोगों की तरह उसके अविवाहित होने पर कोई प्रश्नचिन्ह लगाया था ।
“आप भी क्यों नहीं हमारे साथ शहर को दुबारा महसूस करती रूपा ?”
“मैं ज़रूर चलना चाहूँगी अगर किसी दिन छूट्टी के रोज़ तुम लोग कोई कार्यक्रम बनाओ ।” कई कार्यक्रम बने और रूपा उनका हिस्सा हुई भी बल्कि रूपा अनचाहे उन गॉसिप्स का हिस्सा भी होने लगी जो कॉलोनियों के नुक्कड़ पर प्रायः घर की स्त्रियों द्वारा किसी बड़ी उम्र की लड़की के अनब्याहे रहने पर होती हैं । रूपा जानती थी कि जो कुछ नहीं करते वे आलोचना करने लगते हैं और यही उस जैसी एकाकी स्त्रियों के साथ अमूमन होता है । मसला तवज्जोह के लायक न हो तब भी ऐसी अनचाही बातों की तरफ़ उसका ध्यान आकर्षित होना ही था । वह ये मानकर चुप रही कि कुतर्कों के तर्क अंतहीन होते हैं । एक बात का जवाब दस नए सवाल पैदा करता है इसलिए मौन से बेहतर कोई जवाब न हुआ है न होगा । हाँ, उसने वर्धन से कुछ दूरी ज़रूर बना ली थी ।
दूरियां अंत नहीं होती, अमूमन दूरियों के पश्चात कई नए रिश्तों का जन्म होता है । रूपा की अपनी बंधी-बंधाई एक समयसारिणी थी जिस पर वह वर्षों से अथक चली जा रही थी और उसे पुनः उसी प्रक्रिया में ढलने में कोई परेशानी न हुई लेकिन वर्धन के साथ ऐसा नहीं था । एक बैचेनी थी जो उसके सीने के बाईं ओर रह-रहकर धड़क उठती थी । उसने कई मर्तबा रूपा को फ़ोन किया तो कई बार बेसबब रूपा के घर चला आया । रूपा की चुप्पी और कॉलोनी की फुसफुसाहट में कोई तार जुड़ता उसे स्पष्ट दिखाई दे रहा था ।
“सुप्रभात ! क्या आप अब भी इन ऐसी बातों की फ़िक्र करती हैं ?” एक रोज़ व्हाट्सअप पर सुबह-सुबह मैसेज झिलमिलाया था ।
“सुप्रभात !” इससे आगे रूपा ने कोई जवाब नहीं दिया था ।
अगले कई रोज़ रूपा अपने स्कूलों के इम्तेहान की ज़िम्मेदारियों में व्यस्त हो गई थी ।
एक शाम वर्धन अपने माता-पिता के साथ उसके घर आया था । “दरअसल मम्मी-पापा वापस लौटाना चाहते हैं एक ज़रुरी काम अचानक आ गया है, आप व्यस्त थीं तो सोचा….”
“जी अच्छा किया । मैं भी आने वाली थी लेकिन कुछ व्यस्तता…” रूपा ने बात अधूरी छोड़ दी थी । वह जानती थी कि जब शब्द मष्तिष्क का साथ न दें तो बातें अधूरी छूट जाती हैं ।
“इसलिए ही हम आ गए बेटा !” वर्धन की मम्मी ने उसे स्नेह से दुलारते हुए कहा था ।
“आप बैठिए ! मैं चाय बना लाती हूँ ।”
“नहीं, तुम बैठो और इसकी बातें सुनो ध्यान से पहले ।” वर्धन की मम्मी ने उसे अपने पास बिठाते हुए कहा था ।
“क्या आपके घर में मेरी जगह है ?”
“मतलब?” रूपा ने विस्मय से पूछा था ।
“दरअसल मैं आपसे शादी करना चाहता हूँ । क्या आप भी मुझसे शादी करना पसंद करेंगी ? मैं आपकी नौकरी की कद्र करता हूँ, आपकी सक्सेस को सेलिब्रेट करूँगा और आपके हर काम में मददगार बनूँगा, और…”
“और कुछ नहीं, मेरी उम्र जानते हो?” रूपा ने चौंकते हुए वर्धन की बात काट दी थी ।
“क्यों नहीं ? आप मुझसे आठ वर्ष बड़ी हैं तो क्या हुआ ? इससे क्या फ़र्क पड़ता है ? एक विवाह के लिए यदि लड़का बड़ा हो सकता है तो लड़की क्यों नहीं हो सकती ?”
“रिवाज, परिवार और फिर ये समाज…?”
“समाज हमने बनाया है और मेरा परिवार मेरे साथ है ।” वर्धन ने अपने मम्मी-पापा की तरफ़ देखते हुए कहा था ।
“रिवाज, परिवार और समाज किसी रिश्ते और प्रेम से बढ़कर नहीं हो सकते । फ़र्क इससे पड़ता है कि तुम क्या सोचती हो बेटी ?” वर्धन के पापा जो अब तक चुप थे उन्होंने रूपा से कहा था ।
“मेरे पास अच्छी नौकरी है बस घर किराए का है । क्या मैं आपके घर आ जाऊं या आप मेरे घर आना पसंद करेंगी ?” वर्धन ने रूपा को देखकर मुस्कुराते हुए पूछा था । अगले कई रोज़ पापा और भाई-बहनों से बात-चीत में रूपा के फ़ोन आते-जाते रहे थे । उन सबका सोचना था कि रूपा को वही करना चाहिए जो वह करना चाहती है ।
“ए बड़ी उम्र की लड़की !
मेरे पास सब तो है
फिर भी इधर एक अधूरापन पसरा है,
एक नेम प्लेट बनवा लाऊँ ?
जिसमें मेरा नाम लिखा हो तेरे नाम के बाद ?”
फिर एक रोज़ वर्धन ने मैसेज किया था ।
“सुप्रभात ! आज डिनर में खिचड़ी बनाउंगी आ जाना ।” रूपा ने जवाब दिया था ।
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रजनी मोरवाल
जन्म 1 अगस्त 1968, राजस्थान ।
कृतियाँ : “नमकसार” चर्चित कहानी-संग्रह सहित चार कहानी-संग्रह एवं दो उपन्यास- “गली हसनपुरा” तथा “बटन रोज़” जो हाल ही में प्रकाशित एवं चर्चित है।