आज फिर खत आ गया उनका, वो फिर नही आए। बस एक ख़त भेज कर अपने कर्तव्य की इति श्री समझ लेते हैं। मेरा कुछ नहीं सोचते कभी, कि दिल कितना बेचैन होता है। 
जब भी दूर से आते डाकिये के साइकिल की घंटी की आवाज़ सुनाई देती है और लंबे इंतज़ार के बाद जब खत आता है तो दिल की धड़कन कानों में स्पष्ट सुनाई देती है लगता है जैसे दिल सीना फाड़ कर बाहर गिर जायेगा लेकिन खत को पढ़ते ही आँखों मे आंसू भरे हुए चप्पल को घसीटते हुये कमरे तक आना जैसे सात समंदर का सफ़र तय करना बन जाता है ।ये सब वो नहीं जानते और कभी जानने की कोशिश भी नहीं की उन्होंने।
आज भी यही तो हुआ फिर से। डाकिये के साइकिल की घंटी सुनते ही मेरा पूरा शरीर जैसे कान बन गया था और जब उसने साइकिल की ब्रेक हमारे दरवाज़े पर लगाई तो रोज़ पहियों की  बेसुरी लगने वाली,कानों को फाड़ने वाली आवाज़ जैसे घुँघरूओं की मधुर छनछन बन गई थी।
मैंने आव देखा न ताव न कपड़े देखे बस जैसे तैसे साड़ी को लपेट हवा पर उड़ते हुये जा कर मैंने चिटकनी खोली और थरथराते हाथों से खत लिया था। डाकिये की तीखी नज़रें जैसे मेरे जिस्म पर गड़ी हुई थी पर मैं इन सब बातों से बेख़बर अपने नाम का खत देखकर बदहवास सी हो गई । इतना भी सब्र नहीं हुआ कि कमरे में आकर खत को खोलूँ, वहीं लिफ़ाफ़ा फाड़ कर एक साँस में ही खत पढ़ डाला और ग़ुब्बारे से निकली हवा के मानिंद एकदम लड़खड़ा गई। 
किवाड़ का सहारा ले कर खुद को गिरने से बचाया किसी तरह । आँखों से गंगा जमुना कब बह चली पता ही न चला, आँचल जमीन पर गिर गया, और मैं मन-मन भारी पाँवों को घसीटते हुये फिर से कमरे तक का सात समंदर वाला फासला बड़ी मुश्किल से तय कर पाई। चुपचाप किवाड़ पर चिटकनी लगाते ही हिचकियाँ बाँध टूट गया। नहीं जानती कितनी देर तकिया भीगता रहा, हिचकियां उबलती रही।
आँखें रो रो कर जब थक गई तो सर उठा कर देखा कमरे मे एकदम अंधेरा हो गया था, ना जाने कितनी देर रोती रही थी मैं ! अब तो ना आंसुओं का हिसाब रह गया था ना इंतज़ार का। आँखें रो-रो कर गुड़हल के फूल की तरह सूज गईं। यंत्रवत सी उठी कमरे मैं रौशनी करने के लिए। दिल में चाहे जितने भी अंधेरे हों लोगों को कमरे में उजाला ही दिखना चाहिए सही तो रीत है दुनिया की और इस समाज की। 
एक अकेली औरत कमरे में अँधेरे में बैठी दिख जाये मुहल्ले में किसी को तो सब की ज़ुबानें उपहास और तीखे बाणों के चटखारे लेने लगती हैं। इतने बेसिर-पैर की बातों की झड़ी लगती है कि सीना चाक हो जाता है। इन्हीं प्रश्नों और व्यंग्यों के डर से जाकर चुपचाप पीली मटमैली सी रौशनी देने वाले बल्ब का बटन दबा दिया और चारों ओर एक गीली सी रौश्नी पसर गई मेरी क़िस्मत की तरह की।दिमाग उसी तरह अपने में ही उलझा हुआ था। एक गहरी साँस लेते हुये लेट गई बिस्तर पर। 
जानती हूँ यहाँ कोई नहीं समझता है किसी की पीड़ा को, बस दिखावा करते हैं और चलते बनते हैं,लेकिन उनकी मुस्कुराट को पीठ पर चुभता हुआ बड़ी आसानी से महसूस कर लेती हूँ मैं। लेकिन ये क्या मेरी गलती है कि वो घर नहीं आते , हर छः महीने बाद जब भी आने का होता है तो एक सजते से जवाब के साथ ख़त आ जाता है , कभी अम्मा की बीमारी के लिये पैसे का बहाना हो या छुटकी (ननद) की शादी का कुछ, बस बहला देते हैं कि अभी पैसे भेज रहा हूँ।
ससुराल की ज़रूरतों और घर की मजबूरियों के आगे मैं हमेशा घुटने टेक देती हूँ लेकिन क्या मैं समझती नहीं इन बहानों का कारण, पड़ोस की शीला का पति भी तो इनके साथ ही काम करता है दिल्ली में। उसके घर मे हम से ज़्यादा मजबूरियाँ है लेकिन वो कैसे हर छुट्टी पर घर भागा आ जाता है। गली में सब की चुभती बातों का सामना मैं कैसे करती हूं ये तो बस मैं जानती हूँ या मेरा भगवान ही जानता है।
शीला जब चटखारे ले ले कर बता रही थी कमला भाभी को तब सब सुन लिया था मैंने खिड़की से। कितने फूहड़ तरीक़े से हँस रहीं थी बाकी पड़ोसनें मुंह में पल्लू ठूँसे। शीला सब को बता रही थी कि बाबू लाल जी ने वहाँ दूसरी रख छोड़ी है तभी तो घर नही आते हमारे गुप्ता जी देखो कैसे भागे आते हैं घर और फिर मंद-मंद मुस्कुराहटें और फुसफसाती हुई वही हंसी की आवाज़ें। कैसा कसैला सा हो गया था मन ये सब सुन कर, लेकिन इसमें मेरी क्या गलती है जो सब के कटाक्ष का निशाना मैं होती हूँ । मन कितना रोआँसा हो गया था ये सब सुन कर ।
डबडबाई आँखों से धीरे से खिड़की बंद कर के पलंग पर आ गई थी। अम्मा जी भी तो कभी कुछ नही बोलतीं इन्हें, उन्हें भी तो बेटे का पैसा चाहिए बस। जब भी कोई पड़ोसी पूछता है कि क्या बात है रामदई तुम्हारा बाबू नहीं आया इस बार भी छुट्टियों में तो तो अम्मा जी की भंवें कमान की तरह तन जाती और मेरी तरफ अग्निबाण छोड़ती हुई  मुझे कोसने लगतीं ये जाने कैसी मनहूस को ब्याह लायें हैं कि तकदीर ही फूट गई है हमारी, कहते-कहते मुंह में पल्लू जाल कर ज़ोर से रोने की आवाज़ निकालती हुई बोलने लगती और उनके अग्निबाणों की वर्षा और तीव्र गति से मुझ पर होने लगती। 
मैं चुपचाप घूंघट ओढ़े बर्तन घिसने में अपनी हिचकियां रोकने की नाकाम कोशिश करने लगती। बात बे बात पर मुझे कोसना और तानों की वर्षा करना अम्मा जी की दिनचर्या बन गया था, अब तो हर समय उनकी बातें कलेजे को बींधतीं रहती कि कैसी बेहया बेशर्म है जो पति को बांध कर नहीं रख सकती, इसी कमबख़्त के कारण तो हमारा बेटा घर नहीं आता और मैं अवाक सी उनका मुंह देखती रहती हूँ।
दिल में आता है की पूछूं अम्मा जी आप स्त्री होकर भी मेरा दर्द नहीं समझतीं, लेकिन दिल की बात होंठों पर कभी नहीं पहुंचती अंदर ही कहीं घुट कर दम तोड़ देती है। क्या करूं कहाँ जाऊँ कुछ समझ नही आता है। अब तो आदत सी हो गई है इन बातो की, इसीलिए बाहर निकलना छोड़ दिया है , घर के कामों में ही उलझी रहती हूँ दिन भर। अम्मा जी को बेटे से कितना प्यार है सब जानती हूँ बस बोलती नहीं । हमेशा अपनी बीमारी या ननद जी के दुखड़े इन्हें चिट्ठी में लिखवाती रहतीं हैं। जैसे ही इनके पैसे आते हैं ननद जी की साड़ी जमाई जी के कपड़े सब खरीददारी शुरू हो जाती है। 
अभी भी मुझे पूरा याद है,पिछली बार जब ये आये थे तो धीरे से अम्मा से बोले थे कि अम्मा तुम कहो तो अब मैं यहीं आ जाऊँ , अब तो घर पक्का बन गया है, फुलवा (ननद जी) की शादी भी हो गई है । कब तक परदेस में अकेले रहूँगा। बस इतना सुनना था कि अम्मा बुक्का फाड़ कर रोने लगी थी कि हाँ हाँ अब तो तुझ पर हम भारी हो गये हैं, बहन की शादी क्या हो गई वो तो पराई हो गई है, अब तो तुझे इस महारानी के साथ ही रहना है। हम सब तो तुझ पर बोझ हो गये है और न जाने क्या क्या बोलती रही थी अम्मा। अगले दिन सुबह ही ये चुपचाप चले गये थे और उसके बाद से पस पैसे ही आये थे ये नहीं आये थे। लेकिन अब जब हर जगह खुसर-पुसर शुरू हो गई तो सारा इल्जाम मुझ पर लगाया जाने लग पड़ा है।
मैं बेबस क्या करूँ, मायके में कोई है नहीं, कहाँ जाऊँ । इसी बात का ही तो ये माँ बेटी फायदा उठाते हैं । सारा दिन कोल्हू के बैल की तरह खटतीं रहती हूँ और रात को जब सब की बातें याद आती हैं तो चुपचाप तकिया भीगता रहता है । इसी तरह छः महीने निकल जाते हैं और न चाहते हुए भी फिर इक उम्मीद जाग पड़ती है जो पैरो को जबरन घसीटकर दहलीज़ तक ले जाती है, कान भी हर साईकल की घंटी पर चौकन्ने हो जाते हैं कि शायद इनके आने की खबर आ जाए….
रमा शर्मा जापान में रहती हैं. संपर्क - 8061658299

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