मौसम में उमस बढ़ गई थी ।बारिश के बाद भी गर्मी कम होने का नाम नहीं ले रही थी ।बल्कि बारिश ने उमस और बढ़ा दी थी ।दिल बेचैन सा हुआ ,तो शुभ्रा थोड़ी देर बालकनी में आ खड़ी हुई ।उसका ध्यान किसी एक जगह पर केंद्रित ही नहीं हो रहा था ।रह रह कर अपनी ख़ास सहेली के लिए टीस सी उठ रही थी।
लेखा, शुभ्रा की सबसे पुरानी और ख़ास सहेली थी। अब सहेली क्या कहना ,अब तो वो उसके परिवार का हिस्सा थी।लेखा की हर दुख तक़लीफ की वो एक मात्र साक्षी थी।लेखा जो ना  कह पाती ,वो भी शुभ्रा ,लेखा के आँखों से पढ़  लेती,और आज भी उसने लेखा की आँखों जो पढा ,वो उसे बैचेन कर रहा था ।वो जानती थी की वो चाहकर भी उसके लिए कुछ नहीं कर पा रही है ।समाज और समाज की सड़ी गली मान्यताएं जो एक पुरुष के लिए अलग है और स्त्री के लिए अलग ।आज हम आज़ादी के 75 सालों का जश्न मना रहे हैं पर क्या वाक़ई हमें इन सड़ी गली मान्यताओं से आज़ादी मिली है ?
लेखा ने 35 साल की उम्र में अपने पति समर को खो दिया ।दो बच्चों के साथ लेखा के सामने दुनिया भर की तकलीफ़ें आ खड़ी हुई।बड़ी मुश्किल से एक स्कूल में नौकरी मिली जिससे घर और बच्चों का गुज़ारा हो पाया ।उस उम्र में लेखा के लिए ये सब अकेले संभालना आसान न था ।पर वो काजल की कोठरी में से बेदाग़ निकल आयी ।ग़ौर वर्ण ,ऊँचा माथा ,काले बाल सब जैसे उसके दुश्मन हो गये थे ।क्या चमकते हीरे को कोठरी में छुपाया जा सकता है ?पर लेखा सब सहती हुई बच्चों के लिए समर्पित हो गई ।दोनों बच्चियां तेज़ निकली और इंजीनियरिंग कर विदेशों में बस गई ।लेखा को भी अपने पास बुलाना चाहा पर लेखा किसी पर बोझ नहीं बनना चाहती थी ,सो यही रह गई ।उम्र बढ़ जाती है पर क्या अरमान और चाहतें  भी मर जाती है ।भले ही लेखा 50 की हो गई थी पर आज भी क़द काठी और रंग वैसे का वैसा धरा रखा था।
स्कूल के नए चेयरमैन अनुराग बजाज जो अभी अभी विदेश से लौटे थे, लेखा की परेशानी का सबब बन गये थे ।अनुराग जी बहुत ही सुलझे और आकर्षक व्यक्तित्व के व्यक्ति थे ।सोच का खुलापन और सरल स्वभाव उनके व्यक्तित्व और गंभीरय को बढ़ाता था ।लेखा के सरल स्वभाव और मीठी वाणी से प्रभावित थे ,और मन ही मन उसे अपनाने की बात ठान चुके थे ।पर उन्होंने जब भी लेखा के सामने विवाह प्रस्ताव रखा तो लेखा निरुत्तर हो गयी ।ऐसा नहीं लेखा उनसे प्रभावित नहीं थी। पर समाज की मान्यताओं और उम्र ने उसे बोलने का साहस नहीं दिया।
मैंने इस विषय पर कई बार लेखा का मन लेना चाहा पर जितनी बार लक्ष्मण रेखा पार करने की कोशिश करती उतनी ही बार ख़ाली हाथ लौट जाती ।लेखा ने अपने चारों ओर निराशा और समाज की इतनी बड़ी दिवारें खड़ी कर ली थी कि उन्हें पार करना संभव नहीं था ।साथ वाले जैन साहब को देखो 45 की उम्र में बीवी मरी है ,साथ में दो जवान बच्चे हैं ।पर तीन ही महीने में दुल्हन घर ले आए ।सभी घर वाले भी पूरा साथ दे रहे थे ।सभी के मुँह पर एक ही बात थी ।
“औरत न रहने से कहीं घर संभालता है भला !”
“अच्छा हुआ शादी कर ली …इधर उधर मुँह मारने से तो अच्छा है।”
मुझे आज तक ये बात समझ नहीं आयी अकेली औरत घर ,बच्चे ,नौकरी सब संभाल सकती है ।गिद्ध भरी निगाहों से ,कुत्ते जैसी लार टपकाते लोगों से बच सकती है ।पर एक मर्द ,औरत के बिना घर नहीं संभाल सकता ?क्या इस समाज के नियम मर्द के लिए अलग और औरत के लिए अलग नही?
मैं लेखा को बचपन से जानती हूँ ।इस उम्र में वो अपनी ज़िम्मेदारियों से मुक्त हो चुकी है ।अब उसे भी एक सहारे की ज़रूरत है। उसे भी एक कन्धे की ज़रूरत है ,जहाँ सर रख के वो कुछ सुस्ता सके।उसे अनुराग पसंद है, पर समाज के डर से वह कभी नहीं कहेगी सब कुछ अंदर अंदर सह लेगी पर आगे नहीं बढ़ेगी। समाज में बदलाव की ज़रूरत है। बदलाव तो सृष्टि का नियम है। जहाँ पानी रुक जाता है वहाँ सड़न की बदबू भर जाती है ।अगर इस बदबू से बचना है ,तो पानी को नदी की धार के साथ बहाना ही होगा ।क्यों समाज औरतों को लेकर असंवेदनशील हो जाता है ?औरतों को कमज़ोर माना जाता है। पर अकेले रहने पर उनसे सबसे मज़बूत बने रहने की आशा क्यों की जाती है !क्या उसकी शारीरिक ज़रूरतें ,उसकी भावनाए कोई मायने नहीं रखती ?स्त्री का जीवन दो भागों में बँटा होता है -स्त्रीत्व और मातृत्व। पर मातृत्व जीते समय उसके स्त्रीत्व भाग को काटकर फेंक दिया जाता है ।पता नहीं कब ये समाज औरतों की भावनाओं को सम्मान दे पाएगा ?और कब औरतें अपने को दोष न देकर समाज से इतर अपने हक़ में फ़ैसला करना सीख पाएगी ?
सहायक प्रोफेसर दिल्ली विश्वविद्यालय. अध्ययन, अध्यापन, लेखन में रुचि। अर्थशास्त्र में एम.ए., एम.फ़िल और पी .एच .डी । पिछले कई सालों से दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन कर रही हैं, ।कहानियों के माध्यम से अपनी साहित्य में रुचि को सभीके सामने रखने प्रयास करतो हैं। संपर्क - richaguptaeco1@gmail.com

5 टिप्पणी

  1. समाज मे बदलाव जरूरी है,पर पहल खुद से की जाए ,औरत अकेले जीवन निकाल लेती है,पर आदमी के बस की बात नही है,बिन औरत के रहना
    शानदार शब्दो मे पिरोए है ये बदलाव के मोती

  2. बदलाव तो हर प्रथा , हर पद्धति में हो रहा, होना भी उचित ! लेख जैसी कितनी महिलायें यों ही जीवन को नीरस बना के जियेंगी ?

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