“उफ्फ्फ ! फोन क्यूँ नहीं उठा रहे ? न जाने क्या होगा, एक अजीब सा भय मन में हर पल अपना डेरा जमाये रहता है | लोगों को भी चैन नहीं, जिम, स्विमिंग पूल कब खुलेंगे ? सोसायटी में पढ़े-लिखे लोग रहते हैं पर मात्र कहने भर को | सरकार ने भी सिनेमा हॉल्स, मॉल, रेस्टोरेंट आदि खोल दिए | इतना क्या जरूरी था यह सब ? कहने को पचास प्रतिशत लोग दाखिल हो सकते हैं इन स्थानों पर ऐसे नियम तो बना दिए | पर क्या यहाँ कोई नियम चलते हैं ? आम धारणा तो यही है कि नियम तो बने ही तोड़ने के लिए होते हैं”  सुमी मन ही मन बड़बड़ा रही थी | डॉक्टर की पत्नी हुई तो क्या, है तो वह भी आम इंसान ही न | उसका  भी अपना परिवार है, जरूरतें हैं, जिम्मेदारियां हैं | 
“मम्मा पापा कब आएंगे”  छः वर्षीय पलाश ऑंखें मलता हुआ कमरे से बाहर आया | 
आएंगे बेटा, मैं ने अभी फोन किया है उन्होंने उठाया तो नहीं पर कॉल बैक तो जरूर करेंगे | 
पूरे दिन वह अपने पति विवेक के फोन का इंतज़ार करती रही | न तो फोन ही आया और न ही वह स्वयं | करीब पंद्रह दिन इसी तरह से बीत गए थे यदि विवेक कभी फ़ोन करते भी तो मास्क पहने रहते, आवाज़ भी क्लीयर नहीं आती | 
वह मैसेज देकर छोड़ देती, तो पूरे दिन उसके जवाब का भी इंतजार करती रहती, देर रात कभी जवाब मिलता और कभी तो वो भी नहीं | 
आखिर चल क्या रहा है अस्पताल में, वह बार-बार टी. वी. ऑन करती और  एक के बाद एक चैनल सर्फ़ करती |
“उफ़ ! वही मास्क पहनो , सैनीटाइज़र का इस्तेमाल करो, सोशल डिस्टेंसिंग मेंटेन करो अभी तक क्या सीखे नहीं लोग ? जिन्हें नहीं सिखना वे कैसे भी नहीं  सीखेंगे | सीख ही लेते तो ये सैकिंड वेव आती ही क्यूँ ? अस्पतालों में जगह नहीं, मुम्बई के मॉल भी अस्पताल में तब्दील हो गए हैं | अस्पतालों की लिफ्ट लॉबी में भी बेड्स लगा कर कोरोना मरीजों का इलाज चालू है | कितनी भयावह स्थिति है, पर लोग हैं कि जैसे मौत को गले लगा कर ही दम लेंगे | इतनी ही निडरता है तो सरहद पर क्यूँ नहीं चले जाते ऐसे लोग ? पड़ौसी मुल्क के दुश्मन से पंगा क्यूँ नहीं लेते ? अनुशासन का पालन करना तो जैसे इन्होने सीखा ही नहीं | मन में आये भावों के उतार-चढाव के साथ उसकी खीज बढ़ती ही जा रही थी |  बार-बार फ़ोन  उठा कर देखती  कहीं विवेक का मैसेज आया हो तो | 
“मम्मा भूख लगी है” पलाश की आवाज़ सुन कर उसकी तन्द्रा टूटी |
“नाश्ता तो बनाया ही नहीं, क्या दूं इसे खाने को” मन में मची उथल-पुथल के चलते किसी काम में मन भी तो नहीं लग रहा |
अपने मासूम बेटे की तरफ देखा तो ऑंखें भर आयीं | उसे गोद में उठाया और बात बनाते हुए बोली “आज तो मम्मा आपको सरप्राइज़ करने वाली है, बस पांच मिनट और झटपट नाश्ता हाज़िर | तुम यहाँ किचन प्लेटफॉर्म पर बैठो और अपनी आँखें बंद करो, फिर देखो मॉम्स मैजिक”
पलाश को प्लेटफार्म पर बैठा वह झटपट नाश्ता बनाने लगी थी | “आप क्या बना रही हो मम्मा, बहुत अच्छी खुशबू आ रही है, मैं ऑंखें खोलूं ?”
“नहीं  अभी नहीं, पहले मम्मा का मैजिक पूरा होने दो” उसने शेल्फ में रखा  सुन्दर कार्टून वाला  बाउल निकाला और उसमें नाश्ता सर्व कर टेबल पर लगा दिया | पलाश को गोद में उठा कर डायनिंग टेबल के चेयर पर बैठा दिया | 
“अब ऑंखें खोलो पलाश” उसके स्वर में ममता भरी थी |
“नूडल्स मेरा फेवरेट, वाओ यू आर ऑसम मॉम”  पलाश ने फोर्क से खाना शुरू किया | वह स्वयं भी बेमन से फोर्क हाथ में लेकर कुछ सोचते हुए नूडल्स खाने लगी थी | उसे न तो कोई स्वाद आ रहा था और न ही कोई खुशबू |
लक्ष्ण तो कोरोन के ही हैं, उसके मन का भय दोगुना हो गया था |  पर बनाते वक़्त तो खुशबू आ रही थी, मसाला भी तो चखा था उसने तब स्वाद भी आया था | शायद पलाश के स्नेह भरे शब्द और उसकी जिम्मेदारी उसे काम करने की ऊर्जा दे रहे थे |
लेकिन जब मन ही अच्छा न हो तो कैसा स्वाद और कैसी खुशबू ?  
उसने बेमन से नाश्ता खाया और बर्तन धोने लगी | जब से कोरोना ने पैर पसारे कामवाली से लेकर पलाश की माँ, टीचर, दोस्त और विवेक की पत्नी सारे रोल तो वही निभा रही है | सिर्फ घर ही नहीं बाहर के सभी कार्यों की जिम्मेदारी भी तो उसी की है | डॉक्टर बाबू को तो साँस लेने भर की भी फुर्सत ही नहीं | 
बिल्डिंग में आस-पास के फ्लैट्स में कोरोना के बढ़ते नम्बर उसे और चिंतित कर रहे थे | इस बार तो धड़ाधड़  पेशेंट्स की गिनती बढ़ती जा रही है | 
“एक बार और फोन करती हूँ, क्या पता अब विवेक फोन उठायें” वह अनवरत फोन कर रही थी, कभी घंटी जाती तो कभी फोन स्विच्ड ऑफ होता | युद्ध की सी स्थिति है पूरे देश में, ऐसे में परिवार का एक सदस्य यदि घर से बाहर हो तो नींदें हराम  होना तो निश्चित है | डॉक्टर्स तो इस समय देश के सैनिक की सी स्थिति में हैं | जब युद्ध छिड़ा हो तो सरहद पर सैनिक भी न जाने कितने दिनों, हफ़्तों तक अपने परिवारों से संपर्क तक नहीं कर पाते | न जाने कैसे उनकी माएं, बहिनें और पत्नियाँ उन्हें जंग के लिए रुखसत करती होंगी?
उन्हें अपने स्थान पर रख वह अपने आप को ढाढस बंधा रही थी, और कोई चारा भी तो नहीं था | कहने को तो उसके परिवार वाले सास-ससुर, माता-पिता, भाई-बहिन उससे निरंतर संपर्क बनाये हुए हैं पर उनसे अपने मन में बैठी फ़िक्र साझा कर वह उन्हें भी तो फ़िक्र में नहीं डाल सकती |     
मन भी तो एक काम में टिकता ही नहीं,  हार कर टी. वी. ऑन कर बैठ गयी | देश भर के अस्पतालों के दृश्य एवं वीडिओ उसे विचलित कर रहे थे | पिछ्ली बार फर्स्ट वेव के समय भी तो कितने डॉक्टर्स कोरोना की चपेट में आ गए थे | उफ्फ्फ ! मैं ये क्या सोचने लगी विवेक ही तो कहते हैं “बी पॉजिटिव एन्ड थिंक पॉजिटिव”  पर आजकल ये कमबख्त “पॉजिटिव” शब्द ही तो जानलेवा बीमारी की पहचान है | कैसे थिंक पॉजिटिव का पालन करूँ ? 
उसने फिर से मोबाईल  हाथ में ले लिया था | बार-बार विवेक को फोन करती, दूसरी तरफ से कोई रेस्पोंस नहीं था | हार कर उँगलियों ने अपनी भूमिका अदा करना शुरू किया और न जाने कितने मैसेज उसने विवेक को भेज दिए थे |
इस बार मैसेज बॉक्स में सभी मैसेज पर ब्लू टिक के निशान देख वह खिल उठी, ख़ट से एक मैसेज और टाइप कर दिया | 
“विवेक घर कब आओगे?”  पलाश बार-बार पूछता है “पापा कब आयेंगे, उसे कितना समझाऊँ ? आखिर वह तो बच्चा ही है न, आप तो ऐसे बिजी हो गए जैसे घरबार से कोई मतलब ही नहीं, कम से कम दिन में एक बार तो रोज अपडेट कर दिया करो”
विवेक ने सारे मैसेज पढ़े, किन्तु टाइप कर उनका जवाब देना मुश्किल था, हाथ में ग्लव्ज़, पूरा शरीर पी पी ई किट में ढका और मुंह पर मास्क …जैसे कोरोना ने संचार माध्यम को भी ध्वस्त कर दिया हो | एक बार उसने वॉईस रेकॉर्डिंग और टाइपिंग की कोशिश भी की पर मुंह पर चढ़े मास्क के कारण मोबाइल का आर्टिफिशियल इंटेलीजेन्स भी फेल हो जाता है | वह बोलता कुछ तो रेकॉर्ड और टाइप कुछ और ही होता | यदि मास्क उतारना चाहे तो हर तरफ दुश्मन घात लगाए बैठा है, न जाने कब उस पर आक्रमण कर दे |  जल्दबाजी में सिर्फ इतना ही लिख पाया “थिंक पॉजिटिव” 
वह अपनी पत्नी की मनःस्थिति समझ रहा था | फर्स्ट वेव के समय वह इस से भी ज्यादा  अधीर थी, कुछ डॉक्टर्स के पॉजिटिव होकर मरने की ख़बरें उसे बार-बार विचलित कर देती थीं |  लेकिन उसका सकारात्मक सन्देश पाते ही वह  धैर्य धारण कर लेती थी “आखिर ड्यूटी है, निभानी तो पड़ेगी”  
इतनी मौतें, कि शमशान घाट भी कम पड़ गए, प्लास्टिक में बंधी लाशों के ढेर अस्पतालों को शमशान किये जा रहे थे फिर भी इस युद्ध से मेरा सकुशल बाहर आना उसे नयी ऊर्जा दे गया था | शायद इसी लिए उसकी उम्मीद कायम है कि वह रोज न जाने कितनी बार फोन करती है और न उठाने पर मैसेज भी भेजती है | 
आज थोड़ा समय निकाल कर वह अस्पताल से बाहर खुले में आया, अपना मास्क उतारा और अपनी पत्नी को फोन किया | एक ही रिंग में उसने फोन उठा लिया मानो पहले से जानती हो कि विवेक का कॉल आने वाला है  |
“सुनो इस बार बच्चों और युवाओं की सँख्या ज्यादा है, खासकर बच्चों का  इम्यून सिस्टम वयस्कों से कमजोर  होता है, वायरस पहले की अपेक्षा ज्यादा स्ट्रोंग हो कर आया है, पेशेंट भी एक घर से चार-पांच  एक साथ पॉजिटिव हो कर आ रहे हैं, मुझे बिलकुल फुर्सत नहीं | पर यह मेरा कर्तव्य है कि एक भी जान  मेरी किसी लापरवाही से न चली जाये, वर्ना मैं ज़िंदगी भर स्वयं को माफ़ न कर सकूंगा | तुम फ़िक्र न करो, पलाश का ख़याल करो और थिंक पॉजिटिव” विवेक ने फोन काट दिया था |
उफ्फ्फ ! सब से खतरनाक शब्द “पॉजिटिव” को कैसे गले लगाया हुआ है तुमने विवेक ? उसे अपने डॉक्टर पति पर गर्व हो आया था |
कविताएँ, आलेख, कहानी, दोहे, बाल कविताएँ एवं कहानियाँ देश की प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित | 'जो रंग दे वो रंगरेज' कहानी-संग्रह प्रकाशित | चार साझा कहानी-संग्रहों में भी कहानियाँ शामिल | गांधी हिन्दुस्तानी साहित्य सभा एवं विष्णु प्रभाकर प्रतिष्ठान, दिल्ली द्वारा “काका कालेलकर सम्मान वर्ष २०१६ सहित अनेक सम्मान प्राप्त । सम्प्रति - डाइरेक्टर सुपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी प्राइवेट लिमिटेड | संपर्क - sgtarochika@gmail.com

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