छोटा सा सत्संग उत्साह से चल रहा था, महात्मा जी प्रवचन कर रहे थे, वह बालक और उसका परिवार भी भाव विभोर महात्मा जी के वचन सुन रहे थे, महात्मा जी उदाहरण के साथ बता रहे थे, नदी का पानी निर्मल और मीठा होता है, और सागर का जल खारा, पीने योग्य नहीं, क्यों? क्योंकि नदी सिर्फ देना जानती है और सागर सिर्फ लेना, देने की भावना से नदी निर्मल और लेने की भावना से सागर खारा हुआ जाता है….
जिज्ञासु बालक से रहा ना गया, और वो बोल उठा, “ परन्तु किताब में तो मैंने पढ़ा था कि कई रासायनिक क्रियाओं की वजह से सागर का जल खारा हो जाता है।”
प्रवचन में एक पल के लिए विघ्न पड़ गया।
पिता ने बुरी तरह घूर कर देखा,
मां ने चुप रहने के लिए फटकार लगाई,
दादी ने हल्की सी चपत लगाई,
इतने लोगों में अपमानित हो वो हतप्रभ इधर उधर देखने लगा।
महात्मा जी की नजर बच्चे से मिली, उनकी मुस्कान पहले से ज्यादा फैल गई, प्रवचन निर्विघ्न चलता रहा।
एक बार फिर अध्यात्म ने तर्क को सूली पर चढ़ा दिया….

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