कहते हैं जो जितना बड़ा व्यक्तित्व होता है वह उतना ही विनम्र होता है और मालती जोशी जी से अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है कि जिस लेखिका को हर पाठक पहचानता है वह बड़ी सादगी से कह जाती हैं कि उनकी आत्मकथा कोई क्यों पढ़ेगा या आजकल की लेखिकाओं के पास विषय का फलक बहुत बड़ा है और वह तो घर की चारदीवारी में परिवार के मध्य कथाएं बुनती रहीं। वास्तव में भारतीय परिवेश में परिवार का बहुत महत्त्व है और निश्चय ही मालती जी का परिवार बहुत बड़ा रहा। जब उनकी कहानियां धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में आने लगीं तो उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली, उनकी कहानियों से भारतीय जनमानस अत्यधिक जुड़ाव का अनुभव करता रहा और आज भी करता है।
आँखों से आँसू अनायास ही बह निकले और ये आँसू मात्र मेरी आँखों से नहीं वरन् कई जोड़ी आँखों को भिगो रहे थे, संवेदना का इतना उद्रेक कहाँ से फूट पड़ा था!! यह सोता फूटा था वरिष्ठ लेखिका हमारी प्रिय मालती जोशी की कहानी से। हिन्दी की कक्षा में मैं मालती जोशी जी कहानी पढ़ा रही थी ‘ नैहर छूटो जाए ‘ और पढ़ते पढ़ाते कंठ रुंध जाता, आवाज भर्रा जाती। यह कहानी सम्भवतः हम सबकी अपनी कहानी थी जहां एक समय के बाद मायका छूटता जाता है लेकिन फिर भी एक डोर हर लड़की को जोड़े रखती है अपने मायके से। मालती जी जिस सूक्ष्मता से छोटे किन्तु महत्त्वपूर्ण मनोभावों का संस्पर्श करती हैं कि हर व्यक्ति उस छुअन को अन्तरात्मा तक महसूसता है।
ऐसी सैकड़ों कहानियां चाहे वो ‘स्नेहबंध’ हो, ‘तोही उरिन मैं नाही हो’ या सन्नाटा या बाबुल का घर। जब भी उनकी कहानियाँ कक्षा में पढ़ाती हर विद्यार्थी उनसे तादात्म्य स्थापित कर लेता । घर-परिवार,रिश्ते नातों में आबद्ध उनकी कहानियाँ हम सबको बहुत अपनी सी मालूम देती। मालती जी ने अपने एक प्रचलित साक्षात्कार में स्वयं कहा है “ जिस घरेलूपन’ का मुझ पर आरोप लगा है वही मेरी लोकप्रियता की वजह है “। निश्चय ही उनकी कहानियों का घरेलू पन हमे बहुत अपना सा प्रतीत होता है जिससे हम प्रतिदिन दो चार होते हैं।
मालती जी के सरल सौम्य व्यक्तित्त्व की छाप उनकी कहानियों में परिलक्षित होती हो वो चाहे कथ्य के स्तर पर हो या भाषा के स्तर पर। एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वयं स्वीकार किया है कि यदि भाषा क्लिष्ट होगी तो पाठक को उसे समझने में कठिनाई होगी इसलिए सरल भाषा की हिमायती रहीं मालती जोशी जी।
4 जून 1934 को महाराष्ट्र के औरंगाबाद में जन्म लेने वाली अद्भुत प्रतिभा की धनी मालती जोशी जी ने हिन्दी और मराठी भाषा में साठ से अधिक पुस्तकों का सृजन किया। पद्मश्री सहित अनेक पुरस्कारों से पुरस्कृत मालती जी की यह अनूठी विशेषता थी कि वे अपनी कहानियों का पाठ अपनी स्मृति के आधार पर बहुत सुन्दर ढंग से करती थीं। भारतीय मूल्य और संस्कृति की पक्षधरता उनके साहित्य का मूल स्वर रहा है जिसमें आधुनिकता का समावेश भारतीय मानकों की परिधि में सिमटा हुआ है। उनके अनेक साक्षात्कारों में उन्होंने कहा कि जो लेखन हृदय से निकलता है, जिसमें ईमानदारी होती है उसका प्रभाव भी उतना गहरा होता है। अपने हाल के साक्षात्कारों में भी वे जीवंतता से, आत्मीयता से परिपूर्ण और ऊर्जा से संपृक्त प्रतीत हो रहीं थीं। 89 वर्ष की अवस्था में भी उनकी आवाज उतनी ही स्पष्ट और मुखर थीं।
मालती जोशी जी अपने प्रारम्भिक दिनों में गीत लिखा करती थीं उनके गीतों के कारण होल्कर महाविद्यालय में जहां से उन्होंने एमए, बीए किया, बहुत प्रसिद्धि मिली और वरिष्ठ साहित्यकार शिव मंगल सिंह सुमन ने ‘ मालवा की मीरा ‘की उपाधि दी ,लोगों के बीच भी उन्हें इसी नाम से जाना जाने लगा।
मालती जोशी जी का विवाह हुआ और उसके बाद वे कहानियों की ओर अग्रसर हुई और फिर कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। वे कहती थी कि उनकी सफ़लता के पीछे एक पुरुष है और वह उनके पति हैं।उनका परिवार उनकी प्राथमिकता रही । परिवार के उत्तरदायित्वों का निर्वहन करते हुए उन्होंने लेखन किया ,इससे उन्हें कोई क्षोभ नहीं वरन् आत्मसंतुष्टि का भाव गोचर होता है।
कहते हैं जो जितना बड़ा व्यक्तित्व होता है वह उतना ही विनम्र होता है और मालती जोशी जी से अच्छा उदाहरण क्या हो सकता है कि जिस लेखिका को हर पाठक पहचानता है वह बड़ी सादगी से कह जाती हैं कि उनकी आत्मकथा कोई क्यों पढ़ेगा या आजकल की लेखिकाओं के पास विषय का फलक बहुत बड़ा है और वह तो घर की चारदीवारी में परिवार के मध्य कथाएं बुनती रहीं। वास्तव में भारतीय परिवेश में परिवार का बहुत महत्त्व है और निश्चय ही मालती जी का परिवार बहुत बड़ा रहा। जब उनकी कहानियां धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान में आने लगीं तो उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली, उनकी कहानियों से भारतीय जनमानस अत्यधिक जुड़ाव का अनुभव करता रहा और आज भी करता है।
मालती जी के अनेक संस्मरण मन की तरंगों को हौले से झंकृत करते हुए जीवन में मिठास घोल देते हैं। अपने संस्मरण ‘इस प्यार को मैं क्या नाम दूँ ‘ में उन्होंने घर परिवार के द्वारा ससुराल के लोगों द्वारा आपने साहित्यिक सम्मान की बात लिखी है और यह सम्मान किसी भी अन्य सम्मान से अधिक महत्त्वपूर्ण है। सच ही तो है जो स्नेह जो सम्मान घर परिवार, ससुराल के लोगों से उसके लेखन या अन्य उपलब्धियों के लिए मिलता है वह किसी भी स्त्री के लिए हृदय गद-गद करने जैसा है । मालती जी ने अपने जीवन में मिलने वाले हर व्यक्ति के स्नेह को संजोए रखा वह चाहे बड़ा व्यक्ति हो या छोटा। इस स्नेह अपरिमित शक्ति के कारण ही सम्भवतः वह नवासी वर्ष की भी अवस्था में सकारात्मकता से परिपूर्ण रहीं।
मैंने उन्हें विभिन्न ऑनलाइन कार्यक्रमों में, यूट्यूब चैनल के माध्यम से जब भी देखा उनमे मुझे मेरी माँ, मेरी मौसी, मेरी नानी, दादी का स्वरुप दिखा क्योंकि वे जो भी कहानी कहती या अपनी बात रखती मुझे वह सब अपना सा प्रतीत होता और शयद अधिकांश लोगों का ऐसा ही अनुभव होगा। करीने से सिल्क की सुन्दर साड़ी में
सजी, माथे पर सूर्य की तरह दमकती बिंदी, गौर वर्ण, मुखरित स्वर, ऐसा सौम्य और प्रभावी व्यक्तित्व था मालती जोशी जी का पर यह सौम्य व्यक्तित्व स्त्री के विरुद्ध अन्याय सहने का पक्षधर कभी नहीं रहा । उन्होंने स्वयं कहा कि उनकी कहानियों की स्त्री पात्र न अन्याय करती हैऔर न अन्याय सहती है । स्त्री के अधिकारों के लिए हमेशा क्रांति का बिगुल फूंकने की जरूरत नहीं।
हिन्दी, मराठी में तो उन्होंने बहुत सृजन किया जिसमें, कहानी, उपन्यास ,बच्चों के लिए कहानी, संस्मरण। इसके साथ ही उनका बहुत सारा साहित्य उड़िया, बांग्ला, अँग्रेजी आदि भाषाओं में भी अनूदित हुआ। साहित्य के साथ संगीत की रागिनी भी उनके जीवन में रस घोलती रही। उनसे जब भी कोई कहता वह बिना किसी ना- नुकुर के गीत गा कर सुनाती।
… सोचा था मालती जोशी जी से कभी जरूर मिलूंगी पर यह इच्छा अधूरी ही रह गई। 16 मई 2024 को मालती जोशी पंचतत्व में विलीन हो गई लेकिन वे अपनी सौम्य ,सरल, आत्मीय कहानियों के माध्यम से हम सब के हृदय में विराजती रहेंगी और साहित्य के शिखर को सुवासित करती रहेंगी। मेरा सादर नमन
साहित्यकार दैहिक रूप से तो चले जाते हैं पर अपने लेखन के माध्यम से कई कई पीढ़ियों /सदियों तक हमारे बीच हमेशा के लिए बने रहते हैं..मालती जी की कई किताबें मेरे पास हैं,उनके बारे में ये प्रसिद्ध था कि उन्हें अपनी कहानियाँ मुँह ज़बानी याद रहती थीं..उनकी स्मृतियों को नमन
मालती जी को आत्मीय श्रद्धांजलि !
साहित्यकार दैहिक रूप से तो चले जाते हैं पर अपने लेखन के माध्यम से कई कई पीढ़ियों /सदियों तक हमारे बीच हमेशा के लिए बने रहते हैं..मालती जी की कई किताबें मेरे पास हैं,उनके बारे में ये प्रसिद्ध था कि उन्हें अपनी कहानियाँ मुँह ज़बानी याद रहती थीं..उनकी स्मृतियों को नमन