Saturday, July 27, 2024
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अलका सिन्हा का डायरी अंश – रूहानी रात और उसके बाद

03 सितंबर, 2008 
21 अगस्त से 31 अगस्त, 2008 तक यूके हिंदी समिति और नेहरू सेंटर, लंदन द्वारा आयोजित अंतरराष्ट्रीय कवि सम्मेलन में प्रतिभागिता करने हिंदुस्तान से मेरे साथ बुद्धिनाथ मिश्र, आचार्य सारथी, अनिल जोशी और सीता सागर के अलावा हर बार की तरह डॉ. केसरी नाथ त्रिपाठी आए हुए थे। यह अवधि बर्मिंघम, नॉटिंघम सहित ब्रिटेन के सात अन्य शहरों में आयोजित कवि सम्मेलनों में गुजरी थी और ये सम्मेलन बहुत सफल रहे थे। इन सभी दौरों का लब्बो-लुआब यह था कि दिन कार्यक्रमों में व्यस्त रहे थे जबकि रातें बातों की भीड़ में खोई रही थीं। आयोजकों के सरकारी लबादे से परे वहां के स्थानीय निवासियों ने बड़ी ही आत्मीयता से हमारे ठहरने की व्यवस्थाएं की थीं। एक पर्सनल टच हर आवास के साथ जुड़ा था। इसलिए थके होने के बावजूद रात का मतलब नींद नहीं था। हर किसी का साथ अपने में पूरी एक कथा है, मगर फिलहाल मैं बात कर रही हूं उन दो दिनों की जो इस यात्रा में ही नहीं बल्कि मेरी जीवन यात्रा में भी बेहद यादगार रहे…
बात वहीं से शुरू करती हूं… बारह दिनों का यह समय कैसे बीत गया, पता भी नहीं चला। 31 अगस्त को वुल्वरहैंप्टन में इस श्रृंखला का अंतिम कवि-सम्मेलन भी भरपूर उल्लास के साथ संपन्न हो गया। अगली सुबह मुझे हिंदुस्तान वापसी के लिए प्रस्थान करना था। मेरे ठहरने की व्यवस्था तितिक्षा शाह के घर थी। तितिक्षा जबान से कम, आंखों से अधिक बोलती थी। मेरा मन कहता था — ठहरी हुई सी इस महिला ने अपने भीतर कोई बाढ़ समेट रखी है। तितिक्षा के साथ रुकना मेरे भीतर अलग तरह का आकर्षण पैदा कर रहा था। 
तो उस अनूठी रात की शुरुआत हुई तितिक्षा की तेज रफ्तार ड्राइविंग से। जब द्वार पर पहुंचे तो तितिक्षा ने आगे बढ़ कर दोनों ओर सजाए दीपों को जला कर स्वागत किया। काव्यात्मक स्वागत के साथ मैंने भीतर प्रवेश किया। तितिक्षा ने हर द्वार पर दीये रख छोड़े थे जिन्हें वह जलाती जा रही थी और मुझे भीतर लिए जाती थी। स्वागत का यह अंदाज मुझे अभिभूत कर रहा था। मुख्य द्वार से होते हुए हम अंदर लॉबी में चले आए थे, फिर एक गलियारा पार करते हुए बाईं ओर खुले कमरे में आ गए। यह स्थान एक तरफ घऱ की दीवारों से घिरा था तो दूसरी तरफ प्लास्टिक के पारदर्शी परदों से। इस प्रकार यह स्थान परदे में भी था और बेपरदा भी। बाहर रात का अंधेरा पूरी तरह घिर चुका था, इसलिए बाहर का दृश्य दिखाई नहीं दे रहा था, फिर भी, खुलेपन का अहसास तो था ही और खुलेपन का अहसास किसे नहीं भाता।  
तितिक्षा के साथ बीती वह रात बड़ी रूहानी थी।
जैसाकि मेरा अनुमान था, फैशन डिजाइनिंग के पेशे से जुड़ी आधुनिक और दबंग दिखने वाली इस तितिक्षा के भीतर कोई और ही तितिक्षा थी। अपने देश की संस्कृति के प्रति सजग, भारतीय दर्शन और अध्यात्म में गहरी आस्था रखने वाली इस व्यक्तित्व से मिल कर मैं हैरान थी। उसकी भावुकता, उसकी आत्मीयता उसके दिन वाले व्यक्तित्व से बिल्कुल मेल नहीं खा रही थी। रात और दिन जैसे उसके ये दो पहलू उसकी जिंदगी का हिस्सा बन चुके थे। मैं यह जान कर हैरान थी कि वहां भी किसी अकेली महिला को अपनी अस्मिता बचाए रखने के लिए एक कठोर मुखौटे की दरकार होती है। मगर इस वक्त उसके सलोने मुखड़े पर कोमल-सा भाव था। वह बच्चे की तरह सहज और कभी-कभी चंचल भी थी। 
हम केन की चौड़ी कुर्सियों पर बैठे थे। तितिक्षा ने जिक्र छेड़ा था कि कई बार किसी से पहली मुलाकात में ही एक रिश्ता-सा बन जाता है, लगता ही नहीं कि हम उससे पहली बार मिल रहे हैं। तितिक्षा का मानना था कि पूर्व जन्मों के संबंध आगे के जन्मों में भी एक प्रकार के स्वाभाविक आकर्षण से अपने आत्मीय जनों को पहचान लेते हैं। उसने किसी महिला का जिक्र किया जिसके साथ उसने ऐसा महसूस किया था और बाद में ऐसे कई संयोग बने जिनसे यह तय हो गया कि वे पिछले जन्मों से साथ हैं। तितिक्षा की बातें आश्चर्यजनक होने के बावजूद अविश्वसनीय नहीं थीं। ऐसे संयोग लगभग हम सभी की जिंदगी में किसी न किसी रूप में आते ही हैं। ये बात और है कि हर किसी का विश्लेषण अपने तरीके से अलग-अलग हो सकता है। 
कई बार लगता है कि आपने कोई ख्वाब-सा देखा है और कुछ दिन बाद हू-ब-हू वैसा ही कुछ घट जाता है। 
हल्की हवा के झोंके भी जैसे हमारी हां में हां मिला रहे थे। पारदर्शी परदा बीच-बीच में धीरे से हिल जाता तो एक सिहरन-सी महसूस होती। 
मैंने सचेत नजरों से औंघाते दीयों की तरफ देखा। कहना चाहती थी कि प्लास्टिक के परदों के नजदीक इनका जलाया जाना ठीक नहीं, पर मुझसे ऐसा कहा नहीं गया। कितने प्रेम से उसने एक-एक दीया जलाया था। हर दीये से अनूठी-सी आत्मीयता का उजास बरस रहा था। किस तरह उसे बुझा देने की सलाह दे सकती थी। मगर अब तक हम एक-दूसरे के इतने निकट आ चुके थे कि मौन की भाषा भी बखूबी समझने लगे थे। उसने आंखों से एक पल रुकने का इशारा किया और उठ कर भीतर चली गई। लौट कर आई तो उसके हाथ में बड़े चम्मच के आकार जैसा एक उपकरण था जिससे वह एक-एक कर दीये बुझाने लगी। मुझे भला लगा। वो इसलिए कि गांव में कभी मामा (दादी) या फूआ (बूआ) दीये को फूंक कर नहीं बुझाती थीं। उनका मानना था कि दीये फूंक कर नहीं बुझाने चाहिए। वे अपने आंचल के छोर से हवा कर दीये बुझाया करती थीं। तितिक्षा भी बड़े प्यार से एक-एक दीया बुझा रही थी। उसकी वह भंगिमा कहीं गहरे उतर गई थी।
“बिजली की रोशनी मुझे पसंद नहीं,” कहते हुए उसने एक दीया गलियारे में रखे स्टूल पर टिका दिया।
जब वह दोबारा लौटी तो उसकी हाथ में कॉफी के मग थे। 
“इसकी जरूरत लग रही थी।” मैंने लपक कर मग उठा लिया। 
वह ऊनी चादर भी ले आई थी जिससे मैंने खुद को पूरी तरह लपेट लिया। 
अब बात का मजा और भी बढ़ गया था।
इंट्यूशन और टेलीपैथी से जुड़ी कई घटनाएं हमारी अंतरंगता में उतरती चली जा रही थीं। उस रात का एक-एक पल अनूठा था। 
ऐसी बातों में कहीं नींद आती है, फिर भी जब आंखें मुंदने लगीं तो मैंने समय जानने की कोशिश की। 
ओ माई गॉड, सुबह के पांच बज रहे थे। 
“अनबिलीवेबल, तुम्हारी हर बात पर यकीन कर सकती हूं, पर इस बात पर नहीं।” 
मैंने हैरानी से कहा तो वह हंस पड़ी, “जी मोहतरमां, रात बीत चुकी है।”        
पारदर्शी परदे के पीछे अभी भी रात जैसा अंधेरा था, न चिड़िया चहकी थी न बगीचे के फूलों ने आंखें खोली थीं। मगर घड़ी की ढीठ सुइयां इन सब से बेपरवाह अपनी बात पर कायम थीं।  
तितिक्षा का मानना था कि मुझे कुछ देर सो लेना चाहिए, मगर मैं डर रही थी कि रात भर के जगे हैं, कहीं समय पर आंख न खुली तो? और अभी तक तो मैंने पैकिंग भी नहीं की थी। तितिक्षा के पास हर सवाल का जवाब था। उसने सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और मैं आज्ञाकारी बालक की तरह सो गई।
जब तक आंख खुली, तितिक्षा मेरा सामान पैक कर चुकी थी। बहुत सामान नहीं था मेरे पास, बस हरे रंग का एक सूटकेस। तितिक्षा उसमें ताला ठोक चुकी थी और अब निगाहें फाइनल टच से उसे देख रही थीं। उसकी निगाहों में कुछ उधेड़बुन थी। मगर जब तक मैं कुछ जानने की कोशिश करती, उसने कुरसी की पीठ पर टंगी लाल रंग की गोटे वाली चुनरी उठाई और चर्र की आवाज के साथ दो टुकड़े कर दिए। मैंने आगे बढ़कर हाथ रोकना चाहा, मगर तब तक वह अपने मन की कर चुकी थी।
“भीड़ में अपना सामान पहचानने में दिक्कत नहीं होगी।” उसने बिना मेरे कुछ पूछे ही सफाई दे डाली।
“मगर ये तो मेरे साथ ही रहना था, हैंड बैग…खामखा इतनी सुंदर चुन्नी भी फाड़ दी।”
जयपुरी चुनरी का वह खूबसूरत टुकड़ा मेरे सूटकेस के हैंडल से बंधा था और दूसरा टुकड़ा तितिक्षा के पास था, हमारी दोस्ती की मिसाल बनकर।
मेरे लिए उसे अलविदा कहना बड़ा मुश्किल पड़ रहा था। मैं अपनी अतिरेक भावुकता के कारण असहज हो रही थी जबकि सुबह के उजाले के साथ तितिक्षा के चेहरे पर वही निर्लिप्त-सी मुस्कान डेरा डाल कर बैठ गई थी जो उसे रात वाली शख्सियत से बिलकुल अलग करती थी। मैंने खुद को थोड़ा संयत किया और ऊपरी संतुलन के साथ तितिक्षा के साथ अगले सफर को निकल पड़ी।
पहले अख्तर आपा के घर जाना था, वहां से सीता सागर को लेना था। 
तितिक्षा ने अपनी बड़ी-सी गाड़ी में पीछे की तरफ मेरा सामान रख लिया। मैं आगे वाली सीट पर बैठ गई। तब तक तितिक्षा अपना जूस का गिलास थामे ड्राइविंग सीट पर आ बैठी। मैं चाहती थी कि वह पहले जूस तमाम कर लेती मगर जितना मैं उसे जान पाई थी, वह ऐसा हरगिज न करती, कुछ कहना भी फिजूल था। तो जूस के स्वाद के साथ गाड़ी की स्पीड कम-ज्यादा होती रही और हम अख्तर आपा के घर जा पहुंचे।
‘आज जाने की जिद न करो, यूं ही पहलू में बैठे रहो…’ अख्तर आपा की सुरीली आवाज कानों में मिश्री घोलती रही।
यहां पहुंचना तो बड़ा भला लगा, मगर यहां से जाना फिर वैसा ही भावुकता भरा प्रसंग था। आखिर जीवन के पिछले दस दिन जिन लोगों के साथ जिये थे, उनसे बिछुड़ने का खयाल कैसे भावुक न करता। दिव्या माथुर जी का निश्छल स्नेह, जय वर्मा जी की बेहतरीन मेहमान नवाजी। उषा वर्मा, महेंद्र वर्मा, तेजेंद्र शर्मा, ऊषा राजे सक्सेना, शैल अग्रवाल आदि से हुई स्नेहिल मुलाकातें। अख्तर आपा और केके की मीठी जुगलबंदी… और आयोजन की पर्फेक्ट तैयारी सुनिश्चित करते पद्मेश गुप्त…
हमें हवाई अड्डे पर छोड़ने पूरा हुजूम आया हुआ था। फिलहाल मेरे अलावा सीता सागर और आचार्य सारथी ही आज की सवारियां थीं, बाकी साथी किसी-न-किसी कारण से बाद में लौटने वाले थे।
भागती सीढ़ियों के सहारे हम किसी ऊपरी मंजिल पर आ पहुंचे थे जहां एक प्रकार से विदाई चाय का बंदोबस्त किया गया था। अब तक मैं काफी हद तक संभल चुकी थी। सिक्योरिटी अनाउंस होने पर हमने सभी से पहले हाथ मिलाकर और बाद में देर तक हाथ हिलाकर विदा ली। अब पूरी मंडली आंखों से ओझल हो चुकी थी और ख्वाब से जगने के बाद के अहसास की तरह मैं सारी स्थिति का जायजा ले रही थी। 
बर्मिंघम एयरपोर्ट का नजारा अजब उत्साह भरा था। हर काउंटर पर खासी भीड़ थी। जो भी लाइन कुछ छोटी मालूम पड़ी, हम उसी में जा खड़े हुए। एअरलाइन में कार्यरत होने के कारण मेरे लिए तो यह रोज का नजारा था। आयोजकों की स्थिति का अनुमान लगाते हुए मैं सोच रही थी कि हमें विदा कर ये आज चैन की नींद सोएंगे। आखिर पिछले कितने दिनों से व्यस्त रहे होंगे। सब के चेहरे पर एक तरह का संतोष और इत्मीनान था जबकि मैं स्वभावतः भावुक हुए जा रही थी। बचपन में भी गांव से लौटते हुए मुझे खुद को बहुत संभालना पड़ता था। तो क्या विदेश में रह रहे इन प्रवासी लेखकों ने मुझे गांव के उसी अपनत्व भरे अहसास से जोड़ दिया था जिसकी स्मृति मेरे हृदय की गहराइयों में कैद है? संभव है, इसीलिए मेरा मन बार-बार भर आ रहा है। मुझे थोड़ा बेहतर महसूस हुआ, मगर अगले ही पल लगा कि क्या जरूरी है कि अपनी भावुकता के साथ कोई जस्टिफिकेशन दिया ही जाए? क्या हुआ अगर मैं ऐसी ही हूं तो? आखिर इस संवेदनशीलता के कारण ही तो मेरी लेखनी चलती है। 
“चेक-इन पीसेज़?”  काउंटर पर बैठी अंग्रेज महिला का स्वर कुछ अधिक ऊंचा था। मुझे अहसास हुआ कि वह मुझसे दूसरी बार यह सवाल कर रही थी।
“ओनली हैंड बैग।” मैंने उसकी तरफ ऐसे देखा जैसे उसका काम कुछ हल्का कर दिया हो।
बोर्डिंग कार्ड लेकर मैं कतार से बाहर निकल आई।
दौड़ती सीढ़ियों पर चढ़कर हम दूसरे तल पर आ पहुंचे थे। यहां हम दोबारा एक लंबी कतार का हिस्सा बने। कतार लंबी थी मगर काम चुस्ती से चालू था। लगभग आधे-पौने घंटे में हमारा नंबर आ गया था। मैंने अपना सूटकेस एक्स-रे मशीन में डाल दिया और खुद फ्रिस्किंग के लिए नीले परदों के पीछे चली आई। बाहर निकलने के बाद पाया कि मेरा सूटकेस खोले जाने के लिए रोक लिया गया था। मेरे लिए ये सब रोज का हिस्सा थीं। मैंने पूरे सहयोग भाव के साथ सूटकेस खोल दिया। उस गोरे ने एक-एक कर मेरा सामान निकलवाना शुरू किया — बॉडी शॉप से लास्ट मिनट की गई अति महत्त्वपूर्ण शॉपिंग का लगभग सारा सामान मेज पर निकाला जा चुका था। हेयर ऑयल, शैंपू और बॉडी क्रीम से उन्हें क्या परेशानी हो सकती थी। मगर उन्हें इन सब आइटमों से परेशानी थी।
“तरल या क्रीमी सामान हैंड बैग में नहीं ले जाया जा सकता।”
समझ न आ सकने वाली अंग्रेजी के बावजूद मुझे समझने में दिक्कत नहीं हुई। कितनी ही बार किसी को एअरपोर्ट पर ‘सी-ऑफ’ करते समय मैंने चेताया है कि किसी भी प्रकार का तरल पदार्थ वे हैंड बैग में न ले जाएं, चेक-इन बैग में रख लें। आज मुझसे ये गलती कैसे हो गई? दरअसल मैंने तो चेक-इन बैग बनाया ही नहीं था, शायद इसी कारण यह लापरवाही हो गई। जो खुद को बहुत होशियार समझते हैं, कई बार उनसे ज्यादा बेवकूफ कोई नहीं होता। मैं खुद पर झल्ला रही थी। ये मेरा एअरपोर्ट नहीं था कि मैं कोई वैकल्पिक व्यवस्था कर लेती।
खैर, ‘एचओपी’ यानी हाथ का पार्सल बना कर भेजने की व्यवस्था तो यहां भी होगी।
मैंने गोरे से थोड़े अनुरोध भरे स्वर में अपनी बात कही। एअरलाइन में अपने कार्यरत होने की बात भी कही। यों मैं सुरक्षा कार्य में जरा भी दखलअंदाजी खुद स्वीकार नहीं करती, किंतु इस वक्त मेरे पास अपने अनुरोध का जस्टिफिकेशन था। ये सब तोहफे मेरे लिए बेशकीमती थे और मेरा तो कोई चेक-इन बैग भी नहीं था। लिहाजा इसे आसानी से चेक-इन बैग में बदला जा सकता था।
अंग्रेज कर्मी शायद मेरे तर्कों से संतुष्ट था या फिर मेरे एअरलाइन कर्मी होने का लिहाज था कि उसने उन वस्तुओं का एक पैकेट बनाकर मेरे हवाले कर दिया कि मैं इसे बुक करा आऊं।
मैंने जल्दी से उस पैकेट को पकड़ा और बाकी सामान सीता सागर के पास छोड़ दिया ताकि मैं जल्द से जल्द चेक-इन काउंटर से लौट सकूं। मैंने चेकिंग के झमेले से बचने की गरज से अपना पर्स भी सीता सागर के कंधे पर टांग दिया और खुद बिजली की गति से नीचे की मंजिल की तरफ भागी।
‘दिल्ली फ्लाइट चेक-इन काउंटर,’ का पता पूछते हुए मैं ऐसे भागी जा रही थी जैसे दमकल की गाड़ी टनटनाती हुई भागी जाती है। जैसे-तैसे मैं अपेक्षित काउंटर पर जा पहुंची।
मगर यह क्या?  काउंटर पर ‘क्लोज्ड’ का बोर्ड लगा था। मेरा मन घोर निराशा में डूब गया। पॉलीथिन बैग से नवजात भतीजे के लिए शौक से खरीदे बेबी ऑयल और शैम्पू दिखाई पड़ रहे थे… और भी बहुत कुछ…
मैं मन-ही-मन अपने सभी मित्रों और परिजनों से भरपूर मायूसी के साथ क्षमा मांग रही थी, बड़ी जतन के साथ जिनके लिए मैंने शॉपिंग की थी। मगर अभी इसका सोग भी न मना पाई थी कि यह ख्याल कौंधा कि ‘चेक-इन क्लोज्ड’ का मतलब है – सिक्योरिटी प्रारंभ। अब मेरे भीतर दूसरे तरह की खलबली पैदा हुई। मेरा सारा सामान, यहां तक कि मेरा पासपोर्ट भी मेरे पास नहीं था। अब मैं दुगुनी तेजी से ऊपर की तरफ भागी जा रही थी।
ओ माई गॉड, सिक्योरिटी काउंटरों पर बलखाती लाइनें थीं। ठीक है, मेरे पास कोई सामान नहीं था कि मेरी जांच में देर होती, मगर जांच तो तब होती न जब मेरी बारी आती। इस लाइन में लग कर तो मैं समय के भीतर कतई नहीं पहुंच सकती थी। कुछ करना था, जल्दी। मैं लाइन छोड़कर आगे निकल आई।
“सर, मेरी फ्लाइट की बोर्डिंग शुरू हो चुकी है, प्लीज मुझे पहले निकल जाने दें।” लाइन में लगे यात्रियों की आपत्तियों की परवाह किए बगैर मैं बड़बड़ाती हुई आगे बढ़ती जा रही थी।
अजब-सी अफरातफरी का माहौल हो गया था। तब तक कुछ यात्रियों की प्रतिक्रियाएं भी प्रखर होने लगीं। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता था कि मेरी फ्लाइट छूट जाएगी। व्यवस्था का उल्लंघन या उसमें छूट उन्हें कतई बरदाश्त नहीं थी। उन्होंने मुझे रास्ता देने से इनकार कर दिया। 
मैं लगभग रुआंसी हो गई कि जाने कहां से वह गोरा वहां प्रगट हुआ जिसने मुझे अपने हाथ से पैकेट बना कर बुक करने भेजा था। उसने फर्राटेदार अंग्रेजी में मुझे दूसरी ओर से भीतर चले आने का इशारा किया। उसी फर्राटे से मैं रस्सियों के नीचे से निकलती हुई उसके नजदीक जा पहुंची।
हताशा के साथ मैंने वह पैकेट उसे वापस सौंप दिया।
‘मैंने तो पहले ही कहा था’ वाले अंदाज में जब उसने कंधे उचकाए तो मन बड़ा दुखी हुआ। मैं खामखा ही आभारी हो रही थी कि इसने मेरी पीड़ा को समझा है। दरअसल तो ये भी सबकी तरह ही रोबोट है। फिर भी, इसने मुझे लाइन से अलग प्राथमिकता तो दी ही थी। मैंने नाराजगी भूलकर तहे दिल से उसका शुक्रिया अदा किया और पैकेट वहीं छोड़ दिया। 
उस अध्याय को वहीं बंदकर अगले चरण पर ध्यान केंद्रित किया।
सीता सागर कहां है…? मेरा पर्स…? पर्स में पासपोर्ट…? 
अब मेरे होश फाख्ता हो गए। जिस जगह सीता सागर को मेरा इंतजार करना था, वहां वह नहीं दिखाई दी। अब मैं बिल्कुल निहत्थी थी। बिना पासपोर्ट… बिना करंसी… बिना सामान…  
उस देश की सौगातें उसी देश को लौटा चुकी थी… अब मेरे हाथ में सिवाय मेरे बोर्डिंग कार्ड के कुछ भी नहीं था। यहां तक कि आयोजक मित्रों के संपर्क और मोबाइल फोन तक उस बैग में थे जो मैंने सीता सागर को थमा दिया था।
सीता वहां नहीं थी तो कहां हो सकती थी? मैंने नर्वस होना छोड़कर हिम्मत से काम लेना शुरू किया।
जाहिर सी बात है, सिक्योरिटी अनाउंस हो गई होगी और वह सुरक्षा लाउंज की तरफ चल पड़ी होगी। क्या पता, वहीं मेरा इंतजार कर रही हो। यहां आखिर कब तक रुकती, मेरे पीछे अपनी फ्लाइट तो नहीं न मिस कर देती। गलती सरासर मेरी है। मुझे अपना पासपोर्ट वगैरह तो अपने पास रखना चाहिए था। बिना पासपोर्ट मैं सुरक्षा लाउंज में कैसे प्रवेश कर सकती थी। मैं भारी दुविधा में फंस गई थी… 
मगर बोर्डिंग कार्ड तो था मेरे पास जिसे दिखा कर मैं सुरक्षा लाउंज में प्रवेश कर सकती थी, उन्हें थोड़े ही पता था कि मेरे पास मेरा पासपोर्ट नहीं है। बस मुझे जल्दी से जल्दी सुरक्षा लाउंज में पहुंच कर सीता सागर को खोजना था। 
मैंने चारों तरफ नजर दौड़ाई। मेरे आसपास खासी भीड़ थी। सभी अपने-अपने सुरक्षा गेटों की तरफ बढ़ रहे थे। 
मुझे किस लाइन में लगना चाहिए? मैंने अपने आप से सवाल किया। 
जवाब नदारद। 
तमाम कोशिशों के बावजूद मैं अपना संतुलन नहीं बना पा रही थी और पैनिक हुए जा रही थी। 
अरे, मैं एअरलाइन्स में काम करती हूं, ये सब मेरे रोजमर्रा का हिस्सा हैं… मैंने अपना खोया हुआ विश्वास बटोरने की कोशिश की और तेज चाल से आगे की तरफ बढ़ चली। मगर जाऊं किस तरफ? चार कदम चलते ही लड़खड़ा गई। मेरे दायें-बायें, हर तरफ लंबी लाइनें थीं।
“सर, आई हैव टु टेक फ्लाइट टु इंडिया, विच लाइन फॉर सिक्योरिटी चेक?”  कुछ संकोच के साथ मैंने एक यात्री से पूछ ही लिया।
“चेक इन द मॉनीटर।” वह यात्री यंत्रवत आगे बढ़ गया।
मेरी आंखें छलछला आईं। बड़ी शिद्दत से अपने वतन की याद आई। सच है,  दूर रह कर ही किसी की अहमियत को समझा जा सकता है। भारत में किसी से पता पूछा होता तो पूरा नक्शा बता देता…
एक बेगानेपन के साथ उस भीड़ भरे सैलाब में मैंने खुद को गोते लगाने छोड़ दिया। आंखें फाड़-फाड़ कर मैंने जगह-जगह लगे मॉनीटरों को पढ़ना चाहा, मगर मुझे कुछ भी समझ नहीं आया। मैं बहुत असहाय महसूस कर रही थी। किसी से दोबारा पूछने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थी और आंखें थीं कि मॉनीटर पढ़ ही नहीं पा रही थीं। मैं अक्षर पढ़ तो रही थी पर उनसे पहचान नहीं बना पा रही थी।
कहीं सीता बोर्ड न कर चुकी हो। मैंने फिर अपनी प्रयत्नशीलता को उकसाया।
“जी, हिंदुस्तान की फ्लाइट के लिए किस लाइन में सिक्योरिटी करानी होगी?” मुस्लिम दिखाई दे रहे व्यक्ति से मैंने जानबूझ कर हिंदी में बात की।
जबान के अपनेपन का असर हुआ। उसने मेरे चेहरे पर छाई चिंता की बदली को पूरी गंभीरता से लिया और बाकायदा मेरे बोर्डिंग कार्ड से जानकारी लेकर मॉनीटर पर दिखाते हुए मुझे सही लाइन का इशारा किया।
‘हिंदू-मुस्लिम भाई-भाई’, मैंने मन-ही-मन दोहराया। 
वैसे हकीकत तो यही है, अगर राजनीतिकरण न किया जाए तो दोनों देशों के नागरिक एक-दूसरे से स्नेह रखते हैं। मुझे इत्मीनान हुआ।
मेरी लाइन बहुत लंबी नहीं थी। मैं सामने स्क्रीन पर देखने लगी। कमाल है, अब मुझे उसकी भाषा समझने में कोई दिक्कत नहीं हो रही थी। कितना साफ तो सब लिखा था, मेरे बोर्डिंग कार्ड पर छपे विवरण और मॉनीटर पर उससे संबंधित जानकारी। मैं उस चेहरे को एक बार फिर देखना चाहती थी जिसने मेरी आंखों की रोशनी और पढ़ने की ताकत लौटाई थी, मगर वह नाटक के उस पात्र की तरह भीड़ में गुम हो चुका था, जो अपनी भूमिका अदा कर चुकने के बाद स्टेज से रुखसत हो जाता है।
लाइन धीरे-धीरे आगे बढ़ रही थी। मेरे भीतर का डर अब बहुत हद तक काबू में आ चुका था। सुरक्षा गेट पर खड़े कर्मी ने मेरे बोर्डिंग कार्ड पर मोहर लगा कर मुझे भीतर भेज दिया। भीतर घुसते ही मेरी निगाह ने यात्रियों की भीड़ में सीता सागर को स्क्रीन कर लिया। मैं दौड़ कर उसके करीब जा पहुंची। मेरी अनुपस्थिति उसे भी चिंतित किए हुए थी। मुझे वहां पा कर उसने भी चैन की सांस ली। हालात सामान्य हो गए। 
हम विमान में प्रवेश कर चुके थे। खिड़की से बाहर का दृश्य बेशक बहुत लुभावना रहा होगा, मगर मेरी चेतना में कुछ देर पूर्व की घटना कब्जा जमाए बैठी थी। मैं खुद को बेतहाशा दौड़ते-हांफते देख रही थी। मैं देख रही थी कि हड़बड़ाहट व्यक्ति की सामान्य सोच-समझ तक छीन लेती है… मैं सोच रही थी कि प्रतिकूल परिस्थितियों में भी मानसिक संतुलन बनाए रखकर चुनौतियों का सामना करना चाहिए… मैं अपनी सीट को छू-छू कर भी तसल्ली कर रही थी कि मैं हकीकत में विमान में बैठ चुकी हूं और पूरे होश-ओ-हवास में अपने वतन वापस लौट रही हूं…


अलका सिन्हा
अलका सिन्हा
‘काल की कोख से’, ‘मैं ही तो हूँ ये’, ‘तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ’ (कविता-संग्रह); ‘सुरक्षित पंखों की उड़ान’, ‘मुझसे कैसा नेह’ (कहानी-संग्रह); खाली कुरसी (नेशनल बुक ट्रस्‍ट की नवसाक्षर साहित्‍यमाला के अंतर्गत प्रकाशित कहानी पुस्तक); जी-मेल एक्‍सप्रेस (उपन्‍यास) प्रकाशित. संपर्क - [email protected]
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4 टिप्पणी

  1. डायरी का अंश पढ़ते हुए, भाषा, सूचना, स्थान और मानवीय समन्वय के साथ जो कहन की रवानगी है, उसने मन को बांध लिया है। अल्का जी का लेखकीय अंदाज खूबसूरत है। इस अंश में वे चाहती तो बातों को लच्छेदार बनाते हुए खींच देती लेकिन उनकी कलम संतुलित रही। बेहद रोचक रहा पढ़ना। खूब बधाई आपको

  2. कल्पना जी, आप स्वयं एक संवेदनशील कथाकार हैं, आपकी प्रतिक्रिया उत्साह बढ़ाती है। बहुत धन्यवाद आपका।

  3. अलका जी आपको जब भी पढ़ा है उसकी रवानगी में डूबते उतराते हुए बहुत कुछ सीखा भी है । कविता हो कहानी हो या उपन्यास, और आज यह संस्मरण भी , हर विधा में आपका सृजन उत्कृष्ट होता है । जी-मेल एक्सप्रेस तो अदभुत ही है। आपसे मिले भी अरसा हो गया था इस बीच आपके सृजन को मिस किया । आज यह पढ़ने के साथ आपके साथ बिताया समय भी जीवंत हो गया। हां एक बात पर हैरान हूं कि इतने दिन के प्रवास जिसमे कई कार्यक्रम भी शामिल थे का समान एक केबिन बैग में कैसे समा गया । क्या इसमें भी कम शब्दों में अधिक कह देने के लेखकीय कौशल जैसा ही कोई कौशल छिपा है । कभी मिले तो जरूर समझूंगी।

    • बहुत खूब कहा आपने एक सूटकेस में बारह दिनों का समान!
      दरअसल, कम सामान में सफर आसान होता है। मैं उतना ही सामान रखना पसंद करती हूं जितना खुद ढो सकें। इसलिए सचमुच इतना ही सामान था कि एक सूटकेस में समा गया। बल्कि एक साथी के सामान का वजन अधिक हो रहा था तो उसे भी अपने साथ क्लब कर लिया था… ः

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