यह मेरे लिए एक अपूर्व आह्लाद से कम न था कि मैंने फोन लगाया और दूसरी ओर निर्वासित तिब्बती सरकार के पूर्व केलन ट्रिपा यानी प्रधानमंत्री प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे ने ‘हैलो “कहा।
“प्रणाम आदरणीय रिम्पोचे जी, टाली डिशेक ! मैं अग्निशेखर बोल रहा हूँ। ”मैंने विनम्रता के साथ कहा।
वह बहुत प्रसन्न हुए।
“बहुत दिनों के बाद आपने फोन किया। कहाँ से बोल रहे हैं?”उनकी आवाज़  वात्सल्य से भरी है ,”कैसे हैं आप? परिवार में सब ठीक हैं?”
“बहुत मुश्किल से आपका मोबाइल नं मिला। कवि तेन्ज़िन त्सुन्दू   ने आपके एक सचिव का नं दिया।उन्होंने आपका नंबर इंबाॅक्स किया।”मैंने उन्हें बताया।
“जम्मू में आप लोगों के क्या समाचार हैं?”उनकी संवेदनशीलता अभिभूत करती है।
 “मैं परसों धर्मशाला आ रहा हूँ। आपसे मिलना चाहूँगा। ”मैंने उनसे कहा। “धर्मशाला पहुँच कर मुझे एक फोन करें।”उन्होंने फोन रखा।
मैं देर तक प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे के बारे में सोचता रहा। धर्मशाला पहुँचने पर मेरे युवा मित्र रतन ने मुझे अपनी कार में बिठाया और हम चल पड़े मैक्लोडगंज की ओर। एकसाथ कई-कई स्मृतियाँ कौंध गयीं।
‘वत्सलनिधि’ की ओर से कुफ्री ,शिमला में एक लेखक शिविर में भाग लेने के लिए  पहुँचते ही इला डालमिया ने स्वागत करते हुए कहा था,”आपके लिए एक सरप्राइज़  है।  आपको मैंने प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे जी की बगल में कमरा एलाट किया है।”
यह सच में एक सुखद संयोग था। मैंने देखा वत्सलनिधि के उस शिविर में आए निर्मल वर्मा,लक्ष्मीमल सिंघवी,दया पवार,प्रयाग शुक्ल,गिरिधर राठी, शीन काफ निज़ाम आदि सब प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे की सौम्य उपस्थिति से अभिभूत थे।
एक विख्यात बौध भिक्षु, शिक्षाविद्, दार्शनिक, तिब्बती शरणार्थियों के मानवाधिकारों के संघर्ष में अग्रणी गांधीवादी सेनानी की बगल में मेरा कमरा था, मैं फूले न समा रहा था।
प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे के बारे में मैं ऊपर ऊपर से इतना भर जानता था कि वह दलाई लामा के बाद दूसरे सम्मानित लामा हैं जो मूल नाम लोसंग तेन्ज़िन छोड़कर चौथे सम्दाङ्ग रिम्पोचे के अवतार के रूप में तिब्बतियों में उसी तरह मान्य हैं जैसे दलाई लामा मूल नाम ल्हामो थोन्डुप से चौदहवें दलाई लामा के रूप में  मानित हैं।  तिब्बतियों मे दलाई लामा चेनरिज़िग अर्थात् अवलोक्तेश्वर माने जाते हैं।  उसी तरह सम्दाङ्ग रिम्पोचे भी दिव्य अस्तित्व वाले होते हैं।
इला जी स्नेहवश स्वयं मेरे साथ चली आईं थीं मुझे मेरा कमरा दिखाने।  संयोग से देवदारों की सघन और मोहक छाँव में हरी दूब पर अपने कमरे के सामने बेंत की गोल कुर्सी में बैठे प्रोफेसर सम्दाङ्ग  रिम्पोचे  दूर पार के पर्वत पर तैर रहे सफेद मेघों को निहार रहे थे।
   इला डालमिया उनकी तन्मयता देखकर  धीरे से रुक गयीं थीं सहसा।
  “रिम्पोचे जी का ध्यान भंग हो जाएगा अग्निशेखर।  क्या करें?”इला जी ने मेरी तरफ देखा।
चारों तरफ चुप वातावरण में एक माधकता थी। इला जी मानसर, जम्मू के वत्सलनिधि शिविर के बाद से लगभग मेरी दोस्त सी बन गईं थीं।  अज्ञेय जी की ओर से और अपनी ओर से भी उनके पत्र आते।
सहसा हमने देखा कि सम्दाङ्ग रिम्पोचे ने पलटकर हमारी तरफ देखा। हम आगे बढ़े।
“यह अग्निशेखर जी हैं कश्मीर से। हिंदी के अच्छे और अलग कवि हैं।आपकी बगल में रहेंगे।”इला डालमिया ने सम्दाङ्ग  रिम्पोचे जी को मेरा परिचय दिया।
प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे ने सदाशयतावश कुर्सी से उठकर हाथ जोड़कर मुझ अदना से व्यक्ति का अभिवादन किया था। मैंने तुरंत झुककर उनके पैर छू लिए थे।मुझे मेरा कमरा दिखाकर इला जी लौट गयीं थीं।
मैं उस शिविर के दौरान कई बार सम्दाङ्ग रिम्पोचे जी के कमरे में उनकी इच्छा और अनुमति से देर तक बैठता।उन्हें देखता।उन्हें सुनता।उन्होंने मुझे बहुत स्नेह दिया। यहाँ तक कि मैंने उन्हें कश्मीर आने का न्यौता दिया जो उन्होंने तब स्वीकार भी किया था।
कश्मीर लौटकर मुझे उनका कई बार ध्यान आया कि उन्हें बुलाना है। कश्मीर विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में डाॅ त्रिलोकीनाथ गंजू से बात भी की थी कि सम्दाङ्ग  रिम्पोचे जी को बौधदर्शन  की प्रासंगिकता पर व्याख्यान के लिए बुलाया जाए।
लेकिन कश्मीर के हालात तेज़ी से बदल रहे थे।नहीं संभव हो सका ..सहसा मित्र  रतन ने मैक्लोडगंज के चहल-पहल भरे तिब्बती बाज़ार में कार रोकी और मैं उससे विदा लेकर पोस्ट ऑफिस के पास तिब्बती गैस्ट हाऊस की ओर बढा।
मैंने प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे के निर्देशानुसार उन्हें फोन किया। उन्होंने मेरे मैक्लोडगंज पहुँचने पर निश्छल प्रसन्नता व्यक्त की और बोले,”आप दो बजे मेरे पास आइए।”
मैंने पूछा, ”आप कहाँ मिलेंगे ?”
“हाँ, आप मुख्य विहार के पास दाहिनी तरफ जाती सड़क से करीब आधा किलोमीटर नीचे लौहे के पहले द्वार तक आएं। वहाँ गाडी खड़ी करके आप सुरक्षाकर्मी से कहकर अंदर चले आएं।फिर एक और लौहे का दरवाज़ा आएगा। वहाँ भीऐसे ही अंदर आएं।वहाँ से मुझे फोन करें। मेरा एक व्यक्ति आपको  लेने आएगा। “
मैंने घड़ी देखी।अभी दो घंटे थे। मैंने तिब्बती कविमित्र तेनज़िन त्सुन्दू तथा अन्य मित्रों को फोन पर बताया कि वे चार बजे से पहले मुझसे मिलने न आए।
बाहर आकाश से मेघों की छोटी छोटी टुकडियां देवदारों तक उतर आईं थीं।  कुफ्री की वो घटना याद आई जब मैं पहाडों से नीचे उतरे बादल धीरे धीरे आकर मेरी खुली खिड़कियों से कमरे मे चले आए थे और सब कुछ भीग गया था।मैं जल्दी से खिड़कियाँ बंद करके बगल के कमरे में प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे के पास गया था।
उन्होंने गज़ब की बात कही थी,”हमें ऐसे ही सदविचार अपने अंदर देने चाहिए।”
कुफ्री के बाद सन् 1991 में जम्मू में आयोजित  ‘पनुन कश्मीर’ के प्रथम ऐतिहासिक दो दिवसीय सम्मेलन और  प्रथम विश्व कश्मीरी पंडित सम्मेलन    में प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे को मुख्य अतिथि के रूप में आमंत्रित करने के लिए मेरे निवेदन का उन्होंने मान रखा। वे सहर्ष चले आए थे कश्मीरी निर्वासितों के संघर्ष से जुड़ने।
मुझे याद है सिरी फोर्ट ऑडिटोरियम में 27 दिसम्बर 1993 को अपने उद्घाटन समारोह में उन्होंने मंच पर विराजमान  निर्मल वर्मा, केशव मलिक,मनोहर कौल,माँ निर्मला देवी, अनुपम खेर,पं भजन सोपोरी, राजेन्द्र तिक्कू, हरिकृष्ण कौल, शशिशेखर तोषखानी जैसे साहित्य और कला से जुडे मनीषियों तथा वरिष्ठ पत्रकार  अरुण शौरी,पूर्व राज्यपाल जगमोहन आदि की उपस्थिति में एक धीर गंभीर उद्बोधन प्रस्तुत किया था।
 मैं उस समय चौंक गया था जब उन्होंने मेरी ओर संकेत करते हुए  कहा था,”..मैं यहाँ आते आते सोच रहा था कि अग्निशेखर जी ने मुझे कश्मीरी पंडितों के  इस विश्व सम्मेलन में मुख्य अतिथि के रूप में क्यों बुलाया ..फिर मुझे ध्यान में आया कि कश्मीर के आचार्य आसङ्ग और ‘अभिधर्मकोश’ के  रचयिता वसुबंधु जैसे अनेक महारथी बौध भिक्षु हमारे  तिब्बत आए थे। उन्होंने हमें भारतीय  ज्ञान परंपरा से जोड़ा।आप हमारे गुरु हैं। इसलिए कश्मीरी पंडितों के साथ हमारा गुरू शिष्य परंपरा का रिश्ता है …”
सहसा तेन्ज़िन त्सुन्दू ने टैक्सी भेजी और कुछ ही समय के बाद मैं प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे के निर्देशानुसार सभी सुरक्षा परिधियों को पारकर उनके सामने था।
यह एक आयताकार लगभग तीस फीट लंबा और बारह फीट चौडा पाॅलिशिड लकड़ी का हाल था। सामने खुली खुली चौडी काँच मढी विशाल खिड़कियाँ थीं जिनसे जंगलों के ऊपर से छितरे मेघों वाला आकाश दीख रहा था।
 मुझे हाॅल में प्रवेश करते देखते ही वह स्वागत में अपने सोफे से उठ खड़े हुए। उनके चेहरे पर असीम प्रसन्नता थी।
उन्होंने मुझे अपने पास वाली कुर्सी पर बैठने को कहा।
“वैसे के वैसे हैं ..सुंदर ..सुदर्शन ..
केवल बाल झड़ गये हैं..आपके साथ किसी अन्य इतिहासवेत्ता को भी आना था । ”उन्होंने अपनापे से कहा।
 “धर्मशाला आने का निमित्त क्या है आपका  ?”उन्होंने पूछा।
मैंने उन्हें बताया कि एक तो धर्मशाला मुझे बहुत पसंद है ..  यहाँ आने का बहाना चाहिए …दूसरे, मैं तिब्बती समाज की शरणार्थी अथवा निर्वासन चेतना और कश्मीरियों की निर्वासन चेतना (exile consciousness) पर काम करना चाहता हूँ। “
 “यह तो बहुत ही गहरा विषय है..”प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे बोले।
“जैसे इसका एक पक्ष आपके नेतृत्व में सीधे संघर्ष का रहा है ..आपके समकालीन जो तिब्बती साहित्यकार आए होंगे उनके यहाँ तथा चित्रकारों के यहाँ यह मूल संवेदना कैसी आई है .. आपकी पीढ़ी के बाद यह जो तेन्ज़िन त्सुन्दू जैसे तिब्बती साहित्यकार हैं या चित्रकार हैं उन तक यह निर्वासन चेतना किस तरह मिलती है …उनके यहाँ आपकी पीढी के संघर्ष के  प्रति कैसा भाव है..स्वयं वे अपने ढंग से कैसे सोचते हैं, इनमें मातृभूमि का प्यार कैसा और कितना है, यह मैं देखना चाहता हूँ। ”मैंने उन्हें ज़रा विस्तार से बताया।
“यह तो बहुत ही महत्वपूर्ण काम होगा।”प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे अभिभूत थे।
“इसकी तुलना कश्मीर से निर्वासित हमारे कवियों,कलाकारों, संगीतकारों, चित्रकारों  और रंगकर्मियों में जो सन् 1990 के बाद से अभिव्यक्त हुई निर्वासन चेतना है उसके साथ तुलना करके देखना चाहता हूँ..इसके लिए आपका मार्गदर्शन और आशीर्वाद चाहिए । ”मैंने देखा वे मेरी बात में दिलचस्पी ले रहे थे।
“जी ..!”
“ताकि एक अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य में भी इस अध्ययन को रखा जाए। साहित्यिक, दार्शनिक और ऐतिहासिक स्तर पर। इससे हमारा व्यवहार, हमारी सोच कैसे प्रभावित होती है, कई बार तो विखंडित व्यक्तित्व बन  जाता है कि कौन जाएगा अब तिब्बत या कश्मीर ..तिब्बत में क्या रखा है ..जाएंगे तो चीन मारेगा ..इसी तरह कश्मीर में पाकिस्तानी मारेंगे,आतंकवादी मारेंगे..परंतु दिल उसका धड़कता है तिब्बत के लिए ..कश्मीर के लिए ..”मैं कहकर रुका। उनकी प्रतिक्रिया जानना चाह रहा था।
 वह हँस दिए।
“आपकी इस योजना के लिए कोई स्पोर्ट है क्या?”उन्होंने पूछा। जब मैंने ‘नहीं ‘ कहा तो चिंतित हुए,”आपके संकल्प को पूरा करने में सहायता हो जाती।”उनकी संवेदनशीलता बोल रही थी।
फिर उन्होंने सहसा कश्मीरी पंडितों की कश्मीर में वापसी, वर्तमान सरकार की कश्मीर नीति, 35-ए, धारा 370 को लेकर आ रहे परस्पर बयानों पर मेरी राय जाननी चाही।
“इतने साल हो गये ..आप लोगों के ‘कोर इष्यू’ पर ,जैसा आप बता रहे हैं, कोई ध्यान क्यों नहीं दिय़ा गया ..ताकि कोई स्थायी समाधान निकलता। “उन्होंने पते की बात पर मुझे टिप्पणी करने को प्रेरित किया।
मैंने विस्तार से उन्हें अपने मत से अवगत कराया। हमारी चर्चा कश्मीर की वर्तमान परिस्थितियों से होकर भारतीय स्वाधीनता आंदोलन, देश विभाजन आदि तक पहुँच गयी। सहसा उन्हें जैसे कुछ याद हो आया।
“कश्मीर में जो हिंदू है जो आप लोगों के  साथ नहीं आ पाए,उनकी क्या स्थिति है?”प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे ने पूछा।
मैंने उनकी जिज्ञासा शांत की और पुनः मैं  मूल विषय पर लौट आया ,”आपकी दृष्टि में  निर्वासन-चेतना क्या है ? यह जो आपकी त्रासदी है, आपके तिब्बती साहित्यकारों में, कलाकारों में आई  है क्या ?”
उन्होंने छूटते ही जवाब दिया,”मैंने दुर्भाग्य से इस विषय का कभी कोई संज्ञान नहीं लिया है।जहाँ तक निर्वासन में ऐसी पेंटिंग्स की बात है तीन-चार चित्रकार हैं हमारे जो ऑस्ट्रेलिया,न्यूज़ीलैंड और यूरोप में रह रहे हैं,उन्होंने पारंपरिक और आधुनिक शैली को मिलाकर कुछ इस तरह का काम किया है। उनके नाम मुझे याद नहीं।  वैसे हमारे चित्रकार पारंपरिक थान्का (Thangka) चित्रकारी  ही करते हैं।”
“इसका कारण ? राजनीतिक चेतना से विलगाव ? सामुदायिक पीड़ा, जलावतनी, जीनोसाइड, शरणार्थी जीवन को तो आना चाहिए था।”मैंने जिज्ञासा व्यक्त की।
“जब आप थन्का शैली में बुद्ध देवमाला में ही लगे रहे तो उस सबके लिए स्पेस नहीं बचता। और अमेरिका में तो लोग थन्का पेंटिंग को कला में ही नहीं गिनते,अक्सर दोहराया जाने वाला क्राफ्ट ( शिल्प अथवा शैली मात्र) मानते हैं जिसमें कोई मौलिकता नहीं है। अब उस सोच में कुछ बदलाव दिखता है। “
“और साहित्य में ?” मैंने जानना चाहा।
“यों तो मैं साहित्य से ज़्यादा नहीं जुड़ा हूँ। लेकिन यहाँ भारत में  भी और वहाँ तिब्बत में भी इस प्रकार का साहित्य लिखा गया है।चर्चित भी हुआ है।अंग्रेज़ी अनुवाद के माध्यम से बाहर आया है।  यहाँ तो आप कवि तेन्ज़िन त्सुन्दू और अन्य कवियों को तो जानते ही हैं।”
”रंगमंच और लोक साहित्य की क्या स्थिति है ?” मैंने जानना चाहा।
“थियेटर नहीं के बराबर है।  इंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट में काम तो हो रहा है लेकिन वो बात नहीं जो आप जानना चाहते हैं। “
वह कहकर थोड़ा रुकते हैं,फिर कहते हैं,”वास्तव में हमारी जनसंख्या कम है।जब मैं 2011में पदासीन ( केलन ट्रिपा था यानी प्रधानमंत्री) था तब 96 हज़ार के आस पास थी।जब सन् 1959 में आए थे हम अस्सी हज़ार थे।”
“1959 से तो साठ साल हो गये और जनसंख्या में बढ़ोतरी क्यों नहीं है?”मैं हैरान था।
प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे बोले,”59 से 1969 तक पहला दशक तो अपने को यहाँ वहाँ पैर टिकाने में लगे।और दूसरी बात यह कि तिब्बत से भागकर आने वालों में ज़्यादातर पुरुष ही थे। भिक्षु और सिपाही थे।परिवार जन तो पीछे ही छूट गये थे।  शादी -ब्याह तो बहुत बाद में लोगों ने किए।”
यह मेरे लिए नयी जानकारी थी जो हृदयविदारक थी।
“तिब्बत में कितनी जनसंख्या होगी आपकी जो चीन के आधिपत्य में हैं और लगातार उत्पीड़न झेल रहे हैं?”मैंने पूछा।
“साठ लाख..जिनमें सन् 59 से 69 तक कोई ग्यारह-बारह लाख लोग खत्म हो गये।संघर्ष में, जेलों में।भुखमरी और आत्महत्या की ऊँची दर रही।  जीनोसाइड है यह।”
प्रोफेसर सम्दाङ्ग रिम्पोचे की इस  बात से कोई भी दहल सकता है।
“कोई आशा दिखती है?” मैंने उनसे पूछा। वह सामने खिड़की के कांच के पार दूर आकाश में देखते रहे।
तभी उन्होंने मुझसे पूछा ,”इधर आप क्या लिख रहे हैं?”
मैंने उन्हें ‘नो अर्थ अंडर अवर फीट’ (No Earth Under Our Feet ) की एक प्रति भेंट की, ”यह मेरी और क्षमा कौल की निर्वासन चेतना की कविताओं का अंग्रेज़ी अनुवाद है जो प्रसिद्ध अंग्रेज़ी लेखक प्रोफेसर  अरविंद गिग्गू ने किया है। “
उन्होंने सहर्ष पुस्तक ली और उसे ध्यान से  उलट पुलट कर देखा। मैंने साथ में जोड़ा,”मेरी छठी कविता-पुस्तक ‘जलता हुआ पुल’ शीघ्र आ रही है। आपको उसकी एक प्रति भेजकर मुझे अपार प्रसन्नता होगी।”
“मुझे भी।” उन्होंने आने वाले कविता संग्रह के लिए मुझे बधाई दी और कहा, ”मैं अवश्य पढूंगा आपकी पुस्तक। “
और मैंने उनसे विदा ली। उन्होंने मुझे स्व-हस्ताक्षरित  दलाई लामा की एक  पुस्तक भेंट की और बोले :
“अब तो आपके पास मेरा मोबाइल नं भी है। सम्पर्क में रहें।  आप आए, मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।“
वह मुझे विदा करने के लिए मेरे पीछे पीछे द्वार तक चले  आए और वहीँ से मेरे ओझल होने तक मुझे देखते रहे।

अग्निशेखर
संपर्क – agnishekharinexile@gmail.com

3 टिप्पणी

  1. भेंट वार्ता बहुत अच्छी लगी बहुत ही सौम्य भावों और विचारों से अवगत हुए।आभार आदरणीय।

  2. अद्भुत प्रेरणादायी और ज्ञानवर्धक इश्वर ने मनुष्य को ही महानता की अनंत उंचाईयां छूने के अवसर दिए है सम्माननी रिम्पोंचे सादगीसे भरे महान कज्श्य को समर्पित व्यक्तित्व उन्हें नमन और पुरवाई को आभार श्रेष्ठ साक्षात्कार के लिए

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