1. नदी और बाँध

जीवन के सुखमय प्रवाह पर
यह बाँध बनाया है किसने
घेर कर मुझे दीवारों से
असहाय बनाया है किसने ।

ऎसे बाँधा है मुझको कि
रह गया है सब उस पार
छोड़ दो मेरे मन को पूरा
क्या होगी दो चार धार ।
हो-हो कर एकत्र मैं
नदी से सरोवर हो गई
चंचलपन है अब बात पुरानी
गंभीर धरोहर हो गई ।
अपने लाभ की लालसा में
डुबा दिये सब आशा के गाँव
लहलहा उठी तुम्हारी धरा
और सूख गई मैं बिन छाँव ।
रोक सकोगे कब तक मुझको
हूँ तो आखिर नदी ही मैं
मिल जायेगा आकार पुनः
कर लूंगी प्रतीक्षा एक सदी भी मैं
निर्मित हो रहा है शनैः शनैः
आधार मेरा क्षण प्रति क्षण
जीर्ण हो रही नींव तुम्हारी
क्षरित हो रहा है कण कण ।
बह निकलूंगी ऊपर से एक रोज
बहना ही मेरी प्रकृति है
अस्तित्व तुम्हारा मिट जायेगा
मिटना ही तुम्हारी नियति है ।
2. मेरे खाली हाथ
देखती हूँ अक्सर, इन खाली हाथों को,
बटोरने चाहे थे, जिनसे कुछ सुख,
वो सुख…जिनके मायने…
तुम्हारे लिये कुछ खास न थे,
और मेरे लिये उन सुखों से बढकर थी….
कुछ विवश मर्यादायें,
कुछ निष्ठुर वर्जनायें,
बना दी थी जिसने,
मेरे इर्दगिर्द,
हजारो….अभेद चारदीवारियाँ….
जिन्हे लाँघ पाने की सोचना भी,
मेरे सोचने की बात न थी….
सो बस खोलकर वो एकमात्र संदूक,
जिसकी कीमती वस्तुयें,
लगभग खप चुकी थीं….
सहेज कर रख लिये उसमे मैंने,
सारे अनमोल सपने,
सब अपूरित इच्छायें,
सारी अप्राप्य अनुभूतियाँ…..
बनाकर इन्हे ही पूजन सामाग्री,
मान कर तुम्हे ही आराध्य,
मैं लीन हो गई सिर्फ तुममे,
मेरा मौन….मुझे महान बनाकर,
थोप गया मुझपर,
कितनी अस्वीकृत सहमतियाँ……
पर विकल्प थे तुम्हारे पास चयन के,
और चुनना था तुम्हे सर्वोत्तम….
सो हाथ छुङाकर निकल गये तुम,
स्वतंत्र तेज कदमो से,
जिसकी धमक… चौंका देती है मुझे आज भी,
और पङ जाती है नजर उन खाली हाथों पर,
जिनसे फिसल चुके थे ,
तुम कबके……
3. बरखा बहार बसंत
बिखरा है रंग डाल डाल पर ,
रंगपर्व मनाती हों वादियाँ जैसे,
रंगा रंगा हर पत्ते का मुख,
गुलाल खेलती हों घाटियाँ जैसे l
धुला रही मुख इंद्रधनुष का,
चंचल मदमस्त फुहारें,
खड़ी है लेकर दर्पण नदी,
कब इंद्रधनुष इस ओर निहारे ।

झरने के संग बैठ सूरज,
बाँट रहा है धूप के प्याले,
छलकाती मदिरा अंग अंग से,
प्रकृति बांटती रूप के प्याले ।

कहीं धूप है कहीं छाँव है,
बादल छतरी लेकर खड़े हैं,
बरखा बहार बसंत सब साथ,
धरती के दामन मे जड़े हैं ।

झुका जाये आकाश धरा पर,
हाथ बढाकर जैसे बुला रहा है,
बेसुध हुई जाती है धरा,
बादल बाँहों मे झुला रहा है ।

बहरों की विदाई इतनी सुंदर,
पतझरों का स्वागत ऐसा अनोखा,
तिलिस्म बिछा है चारो ओर,
या खा रही हैं आँखें धोखा ।

करता कोहरा बढकर अगवानी,
और आनंद बाट जोहता है,
अद्भुत उत्सव है धरती पर,
हर प्राणी को न्योता है ।

स्नेह पीयूष
संपर्क – snehsonkar@gmail.com

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