हमारे यहां बैसवारा में बसंत पंचमी के दिन धोबिन एक थाल में आम के बौर (मंजर) , सिंदूर और साथ ही शिव पार्वती और गणेश की मूर्ति सबके घर लाती। यह थाल वह महिलाओं को दिखाती है। महिलाएं थाल से सुहाग लेती हैं और बदले में एक भेली गुड़, ब्लाउज का एक कपड़ा और श्रद्धानुसार कुछ पैसे भी देती हैं। यह थाल इस बात की आधिकारिक रूप से घोषणा होती कि अब फलों के राजा आम का आगमन होने वाला है।
इसके कुछ ही दिनों बाद बौर (मंजर) में से छोटे-छोटे टिकोरे (अमिया) नजर आने लगते। कुछ और बड़े होते और कभी तेज हवा, आंधी चलती तो टिकोरे जमीन पर गिर जाते । जिस रात आंधी आती , उसके अगले दिन हम बच्चे लोग सुबह मुंह अंधेरे ही आम के पेड़ के नीचे पहुंच जाते और झोलों में अमिया बीन कर ऐसे खुश होते गोया कि अशर्फी लूट लाए हों।
कुछ टिकोरे तो हम रास्ते में ही चट कर जाते। कुछ टिकोरे अजिया दाल में डाल देती, जिससे साधारण सी दाल का स्वाद कई गुना बढ़ जाता। कुछ टिकोरों की धनिया, पुदीना के साथ सिलबट्टे में पीसकर स्वादिष्ट चटनी बनती। चटनी पीसते समय भौजाई कुछ टिकोरे छुपाकर रख लेती और बाद में नमक के साथ खाती। पता नहीं क्यों घर की अन्य महिलाएं उन्हें ऐसा करते देख मुस्कराने लगती और वह शरमा कर अपने कमरे में चली जाती या घूंघट में मुंह छिपा लेती।
यही टिकोरे जब कुछ और बड़े होते तो उनके अंदर सफेद गुठली सी पड़ जाती। गुठली पड़ने के साथ ही कलमी टिकोरों में मीठापन और देशी टिकोरों में खट्टापन बढ़ जाता था। इसलिए इन टिकोरों के प्रति हमारा चाव भी और अधिक बढ़ जाता था।
हम जब भी कभी हरहा-गोरु लेकर या कभी ऐसे ही जंगल की तरफ जाते तो दो-चार अमिया सबकी नजर बचाकर जरूर तोड़ते। अमिया तोड़ने के बाद उसके ऊपर वाले भाग को घास या जमीन में अच्छे से रगड़ देते ताकि चोपी निकल जाए। यह चोपी बड़ी गरम और अम्लीय होती थी। अगर मुंह के किसी भी हिस्से में लग जाये तो उस स्थान पर फदक आता था और फिर हमें दो कष्ट होते थे-
1. इसके लग जाने से होने वाली जलन और पीड़ा
और
2. घर वालों से पिटाई।
वे कहते कि कच्ची अमिया खाये हो, मुंह तो खराब कर ही लिए हो, अब गर्मी में नाक से खून भी निकलेगा।
खैर , तमाम डर और खतरों के बावजूद हम अमिया को नमक के साथ स्वाद ले -लेकर खाते। कोइली (काले रंग की पकी हुई अमिया) होती तो थोड़ी मीठी लगती, उसे हम बिना नमक के खाते और खूब खुश होते।
फिर हम बच्चा पार्टी “आम के आम और गुठलियों के दाम” वसूल करते थे। अमिया चट कर जाने के बाद हम उसके अंदर की सफेद, चिकनी गुठली को अंगूठे और तर्जनी उंगली के बीच दबाकर किसी दोस्त या खुद का नाम लेकर जोर से ऊपर उछाल देते और कहते-
“गुठली रे गुठली बस इतना समझा दे।
‘रज्जन’ की मेहरारू का पता बता दे।।”
उस समय हमारा ऐसा दृढ़ विश्वास था कि जिस दिशा में अमिया की गुठली जाएगी, जिसके नाम से गुठली उछाली गई है, उस लड़के की शादी उसी दिशा में होगी ।
आपके इस लेख ने बचपन की याद दिला दी। आम के इन दिनों की एक ऐसी दुर्घटना दिमाग में बसी हुई है जो हर साल ही आम के दिनों में याद आती है। सन् ६५से आज तक एक भी साल ऐसा नहीं गया जब हमने उसकी याद न की हो।
अमिया की गुठली को उछाल कर शादी की दिशा का पता करना ;इस तरह की छोटी-छोटी न जाने कितनी ही परंपराएं हम लोगों के जीवन से जुड़ी हैं।
सुन्दर लेख के लिये आशा जी बधाई आपको।
आपके इस लेख ने बचपन की याद दिला दी। आम के इन दिनों की एक ऐसी दुर्घटना दिमाग में बसी हुई है जो हर साल ही आम के दिनों में याद आती है। सन् ६५से आज तक एक भी साल ऐसा नहीं गया जब हमने उसकी याद न की हो।
अमिया की गुठली को उछाल कर शादी की दिशा का पता करना ;इस तरह की छोटी-छोटी न जाने कितनी ही परंपराएं हम लोगों के जीवन से जुड़ी हैं।
सुन्दर लेख के लिये आशा जी बधाई आपको।
नीलिमा जी, बहुत बहुत आभार