तेलुगु दक्षिण भारत में आन्ध्रप्रदेश की एक भाषा है, तथा इसा भाषा में लिखे गये साहित्य को तेलुगु साहित्य कहते हैं। यह आधुनिक भारतीय भाषाओं में एक प्रमुख भाषा है, जो हिन्दी के बाद सबसे ज्यादा लोगों द्वारा बोली जाती है। इसकी लिपि अलग है तथा इसकी समुन्नत सांस्कृतिक और साहित्यिक परम्परा है। इस भाषा को तेनुगु तथा आन्ध्र के नाम से भी जाना जाता है। यह एक प्राचीन भाषा है।
ऐतरेय ब्राह्मण, महाभारत के सभापर्व, वाल्मीकि रामायण के किष्किंधा काण्ड, अशोक के गिरनार पर्वत में पाये गये शिलालेखों, शाहबाजगढ़ी के शिलालेखों, मनुस्मृति, मत्स्य वायु तथा ब्रह्माण्ड आदि पुराणों तथा इतिहासकार प्लिनी के ग्रन्थ आदि प्राचीन ग्रन्थों में अन्ध्र जाति का उल्लेख मिलता है। उनकी भाषा और भूमि को आन्ध्र कहा गया। इसी भाषा को बाद में तेनुगु तथा तेलुगु कहा गया। अन्ध्र जाति एक अभिशप्त जाति थी जिन्हें विश्वामित्र ने श्राप दिया था। संभवतः शापित होने के कारण ही बाद के अनेक राजाओं (ईसा पूर्व 221 से सन् 218 तका के राजाओं) ने आंध्र जैसे जाति/वंश सूचक शब्द का प्रयोग अपने लिए नहीं किया। चन्द्रवंशी सम्राट् ययाति के पुत्र अनु के प्रपौत्र दीर्घतमा के छह पुत्र थे – अङ्ग, वङ्ग, कलिङ्ग, सुह्म, पुण्ड्र और अन्ध्र। इन्हीं अन्ध्र के वंशज हुए आन्ध्र। उन्हीं के नाम पर आन्ध्रदेश हुआ जिसे आज आन्ध्रप्रदेश कहा जाता है।
तीसरी शताब्दी में पल्लवराज शिव स्कन्दवर्मा के मैदवोलु में प्राप्त एक ताम्रपत्र में तथा हिररडल्लि वाले लेख में अन्धापथीयो (आन्ध्रपथ) तथा सातवाहनिरट्टु (सातवाहन राष्ट्र) नाम मिलते हैं। चीनी यात्री ह्वेन्सांग ने इसे आन्ध्रमण्डल लिखा।
11वीं शताब्दी के तेलुगु के सबसे पहले महाकाव्य भारतग्रन्थ के रचयिता नन्नय भट्टारक के समय के उनके आश्रयदाता राजराज के एक ताम्रपत्र में नन्नय के सहयोगी नारायण भट्ट को आन्ध्रकविताविशारद की उपाधि का उल्लेख है। परन्तु इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय तक इस भाषा के लिए तेनुगु नाम व्यवहार में था। लगभग 1200 ईस्वी के आसपास तेलुगु शब्द प्रचलन में आया।
तेलुगु भाषा के बारे में काल्डवेल और कई अन्य विद्वानों का मत है कि यह द्रविड़ भाषा परिवार का एक सदस्य है परन्तु ‘आन्ध्र भाषा चरित्र’ नामक ग्रंथ के रचयिता विख्यात विद्वान चिलुकूरि नारायण राव इसका खंडन करते हुए इसे आर्य परिवार (भारत-यूरोपीय भाषा परिवार) का सदस्य होना स्थापित करते हैं। पश्चिम के एक विद्वान ओल्डनबर्ग ने अपनी रचना ‘तिपिटक’ में लिखा है कि लंका में प्राप्त बौद्ध ग्रंथों की भाषा पालि ही उस समय आन्ध्र जनपदों की प्राकृत थी। अनेक विद्वानों ने इसी तरह से आर्य भाषाओं से निकली अनेक प्रकार की प्राकृत भाषाओं के ही अलग-अलग ढंग से विकसित होने के कारण ही द्रविड़ भाषाएं भी बनीं तथा तेलुगु भाषा भी।
तेलुगु की लिपि प्राचीन ब्राह्मी की दक्षिणी शाखा से निकली है। दक्षिण भारत की चारों लिपियों में तेलुगु तथा कन्नड़ में घनिष्ठ सम्बंध है। दोनों लिपि मात्र तीन चार शदाब्दी पूर्व एक ही थी जो बाद के दिनों में अलग होती चली गयीं। ग्रियर्सन ने कहा है कि अन्य द्रविड़ भाषाओं से तेलुगु का स्वतंत्र तथा विलक्षण अस्तित्व रहा है।
तेलुगु में 56 अक्षर हैं। सभी शब्द अजन्त या स्वरान्त होते हैं अर्थात् सभी शब्दों के अन्त में स्वर का उच्चारण होता है। इसके कारण इस भाषा में संगीतात्मकता अधिक होती है। विभिन्न क्षेत्रों में तेलुगु का स्वरूप भिन्न है जो स्वाभाविक ही है। तेलंगाना के तेलुगु में उर्दू, तथा तमिलनाडु के सीमावर्ती इलाकों में तमिल, कर्नाटक की सीमा से सटे इलाकों में कन्नड़, महाराष्ट्र के सीमावर्ती इलाकों में मराठी, तथा उड़ीसा के सीमावर्ती इलाकों में उत्कल या उड़िया भाषा का प्रभाव है। कन्नूर, अनन्तपुर, कडया आदि पश्चिमी क्षेत्रों; नेल्लूर, चित्रुर, तथा ओंगोल आदि दक्षिण भाग में; गोदावरी, विशाखापत्तनम आदि उत्तरी भागों में बोली जाने वाली तेलुगु में भिन्नता स्वाभाविक ही है परन्तु उनमें मूलभूत एकता भी है।
जहां तक तेलुगु साहित्य का सवाल है, इसका उद्भव व्यवस्थित रूप से 1050 के आसपास से मिलता है। महाकवि नन्नय भट्टारक ने संस्कृत के भारत (महाभारत के पूर्व स्वरूप) का काव्यानुवाद तेलुगु में किया था, जो तेलुगु साहित्य की पहली उत्कृष्ट रचना है। नन्नय तेलुगु के पहले वैयाकरण भी थे। उनके तेलुगु व्याकरण का नाम था ‘आन्ध्र शब्दचिन्तामणि’, यह अलग बात है कि इसे संस्कृत भाषा में लिखा गया था। इसमें तेलुगु रचनाओं का उदाहरण दिया गया है जिससे सिद्ध होता है कि तेलुगु में लोकसाहित्य या अन्य शिलालेख आदि पहले से ही लिखे जा रहे थे। अधिकतर विद्वान तेलुगु साहित्य का प्रारम्भ इसी कारण सातवीं सदी से मानते हैं, परन्तु यह ग्यारहवीं सदी से ही व्यवस्थित होने लगा।
तेलुगु साहित्य के विख्यात इतिहासकार कं. वीरेशलिंगम् पन्तुलु ने तेलुगु साहित्य का काल निर्धारण इस प्रकार किया है – 700 से 1050 तक अज्ञात युग, 1050 से 1500 तक आदियुग, 1500 से 1750 तक मध्ययुग, तथा 1750 से आधुनिक युग। इन युगों की विशेषताओं के आधार पर चार नाम हैं – शासनयुग, पुराणयुग, प्रबन्धयुग तथा गद्ययुग। शासनयुग लेखों और ताम्रपत्रों का काल था। पुराणयुग संस्कृत के पुराणग्रन्थों के तेलुगु में अनुवाद का युग था। प्रबन्ध युग स्वतंत्र काव्यरचना का युग था। जबकि गद्ययुग गद्य लेखन के प्रभुत्व क युग है।
अज्ञात युग में शिलालेख, ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण तेलुगु तो मिलते ही हैं, कुछ अन्य रचनाएं भी मिलती हैं। भाषा का रूप प्राचीन है। दूसरे प्रकार के साहित्य में तुम्मेदपदमुलु (भ्रमरगीत), गोव्विपदमुलु, यक्षगानमुलु, मेलुकोलुमुलु (प्रभातियां), सुद्दलु आदि भी मिलते हैं।
पुराणयुग की रचनाओं का मूल उद्देश्य धर्मचर्चा तथा सांस्कृतिक उत्थान था। बौद्ध तथा जैन विचारधाराओं के मुकाबले सनातन धर्म पर आधारित रचनाएं बड़ी संख्या में सामने आयीं ताकि सनातन धर्म की रक्षा की जा सके। नन्नय ने महाभारत जिसे पंचम वेद भी कहा जाता है के तीन पर्वों का अनुवाद किया था कि अरण्य पर्व के अनुवाद के समय उनकी मृत्यु हो गयी। उन्होंने अरण्य पर्व का थोड़ा ही अनुवाद किया था। उनके निधन के लगभग 200 वर्षों बाद कविब्रह्म तिक्कन सोमयाजी ने शेष 15 पर्वों का अनुवाद किया। 14 वीं शताब्दी के मध्य में अधूरे अरण्य पर्व का अनुवाद तीसरे महाकवि प्रबंध-परमेश्वर यरप्रिगडा ने पूरा किया। ये कवित्रयी के नाम से विख्यात हैं। इस युग के अन्य कवियों में प्रमुख हैं – राजा नन्नेचोड, नाचन सोमनाथ, पाल कुरिक सोमनाथ, रायनि भास्कर, बमोर पोतना, तथा महाकवि श्रीनाथ। प्रमुख रचनाएं जो तेलुगु के गौरवग्रन्थ माने गये वे हैं – कुमारसम्भवमु, उत्तर हरिवंशमु, भास्कर रामायणमु, आन्ध्र महाभागवतमु, काशीखण्डमु, श्रृंगार नैषधमु, तथा वसवपुराणमु ।वसवपुराणमु एक स्वतंत्र गन्थ है। इस युग की प्रमुख काव्यधाराएं थीं – संस्कृत काव्यरीतियों का अनुसरण करने वाली मार्गी रचनाएं, तथा दूसरी ठेठ तेलुगु रचनाएं जिनकी शैली जनरूचि के अनुरूप थी।
प्रबन्धयुग को तेलुगु साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है। मौलिक प्रबन्ध काव्य की रचनाएं तेलुगु में होने लगीं। कातकीय शासकों के समय से होने वाले मुस्लिम आक्रमणों के विरुध्द हिन्दू राष्ट्र की स्थापना महात्मा विद्यारण्य के दिशा निर्देशन में हुई जिसे विजयनगर राज्य के नाम से जाना गया। कृष्णदेवरायलु विजयनगर राज्य के सबसे प्रतापी राजा हुए। वह स्वयं भी विद्वान और कवि थे। उनके दरबार का नाम था – भुवन-विजय सभा। उस सभा में उन्होंने अष्ट दिग्गज महाकवियों को प्रश्रय दिया। ये कवि थे – अल्लसानि पेद्दना, नन्दितिस्मना, तेनालिरामकृष्ण, धूर्जटि, भटुमूर्ति, मादयगारि मल्लना, अय्यलराजु रामभद्र कवि, तथा कन्दुकूरि रूद्रकवि। इस युग की प्रमुख काव्यरचनाएं थीं – मनुचरित्रम्, पारिजातापहरणम्, पाण्डुरंगमहात्म्यम्, कालहस्तीश्वरशतकम्, तथा वसुचरित्रम्।
वसुचरित्रम् के रचयिता भटुमूर्ति ने नरसभूपालीयम् नामक एक रीतिग्रन्थ, तथा हरिश्चन्द्र नलोपाख्यानम् नामक एक द्वयर्थी काव्य ग्रंथ की रचना की थी। महाकवि पिंगलि सूरन्ना ने कलापूर्णोदयमु नामक अद्भुत् महाकाव्य की रचना की थी जो सर्वलक्षणसम्पन्न काव्य था जिसके बराबर का कोई ग्रन्थ तेलुगु साहित्य में नहीं है। स्त्री कवि आतुकूरि मोल्लाने ने एक रामायण लिखी जो अत्यन्त लोकप्रिय है।
इस युग के उत्तरार्ध में विजयनगर राज्य का पतन हो गया तथा उसके बाद दक्षिण के तंजाऊर के राजाओं ने कवियों को प्रश्रय दिया। रघुनाथरायलु तथा अच्युत विजयराघव नामक राजा तो स्वयं भी विद्वान कवि थे। तंजाऊर की तरह ही मदुरै में तिरूमल नायक आदि राजाओं ने साहित्य को प्रश्रय दिया। इस काल के महत्वपूर्ण कवि और उनके ग्रन्थ हैं – सुकवि चेमकूर वेंकटकवि का विजयविलास, शेषम् वेंकटपति का ताराशशांकविजय, स्त्री कवि मुद्दुपलनिका का राधिखास्वान्तनमु, विजयराघव का रघुनाथनायकाभ्युदयमु, , स्त्री कवि रंगाजम्मा का उषापरिणयमु आदि।
अनुवाद तथा प्रबंधकाव्यों के अतिरिक्त तेलुगु शतक-साहित्य की भी रचानाएं हुईं जो उल्लेखनीय हैं। ऐसी रचनाएं सुप्रसिद्ध शैव कवि पण्डिताराध्य की 1171 की रचना शिवतत्वसारम् के साथ प्रारम्भ हुईं। लगभग एक हजार शतक काव्य लिखे गये जिनमें से आज केवल छह सौ ही उपलब्ध हैं। इनमें भक्ति, श्रृंगार, नीति आदि का प्रभुत्व रहा। महत्वपूर्ण शतक ग्रंथों में शामिल हैं – वृषाधिपशतक, नारायण शतक, दाशरथिशतक, वेमन शतक, सुमति शतक, आन्ध्रनायक शतक, भास्कर शतक, तथा नरसिंह शतक। इस विधा के प्रमुख कवि हैं – यथावाक्कुल अन्नमय्या पालकुटिकि, सोमनाथ, पोतनामात्य, गोपन्ना, बेना, बद्देन, भास्कर, कूर्मनाथ कवि, कासुल पुरूषोत्तम कवि आदि।
इस युग में गीति-साहित्य की रचनाएं भी हुईँ। इनके रचयिता मुख्यतः सन्त थे जिनमें प्रमुख थे – 15वीं सदी के ताल्लपाक अन्नमाचार्य, क्षेत्रय्या, गोपन्ना (रामदास) , नादयोगी त्यागराज आदि। इन रचनाओं में भक्ति, श्रृंगार, एवं नीति की प्रधानता थी।
इस युग में यक्षगान की रचनाएं हुईँ। यक्षगान तेलुगु में दृश्यप्रबंधों को कहा जाता है जिसमें संगीत, नृत्य, अभिनय आदि होते हैं। कन्दुक्करि रूद्रकवि की रचना सुग्रीवविजयमु, तंजाऊर के राजा विजयराघव की रचना रघुनाथाभ्युदयमु, सन्त त्यागराज की रचना प्रह्लाद भक्तविजयमु जैसे यक्षगान प्रसिद्ध हैं। रामायण, महाभारत, तथा पुराणों पर आधारित यक्षगानों की भी परम्परा रही।
वर्तमान् युग मुख्यतः गद्य का युग रहा है। 1650 से 1900 तक तेलुगु साहित्य के लिए यह ह्रास का युग रहा। अंग्रेजों के आने के बाद तेलुगु साहित्य पर भी इसका प्रभाव पड़ा। परन्तु ईसाई धर्मप्रचारकों तथा कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने तेलुगु भाषा और साहित्य को प्रोत्साहन अपने निजी हितों के लिए दिया। इससे भी तोलुगु का भला हुआ। इस सन्दर्भ में सी पी ब्राउन का नाम उल्लेखनीय है जिन्होंने तेलुगु शब्दकोष ‘ब्रोन्य निघंटुवु’ की रचना की। देशी पण्डितों में जूलूरि अप्पयशास्त्री तथा चिन्नयसूरि के नाम उल्लेखनीय हैं।
उन्नीसवीं सदी के अन्त तथा बीसवीं सदी के प्रारम्भ के प्रमुख रचनाकार थे कन्दुकूरि वीरेशलिंगम् पन्तुलु, जिन्हें आधुनिक तेलुगु साहित्य का जनक माना जाता है। इनकी रचनाओं में अंग्रेजी का प्रभाव है परन्तु इन्होंने नाटक, उपन्यास, निबन्ध आदि सभी क्षेत्रों में रचनाएं कीं।
उनके पश्चात् के प्रसिद्ध तेलुगु साहित्यकार रहे – गुरजाड अप्पाराव मण्डयाक पार्वतीश्वर कवि, बहुजनपल्लिसीतारामाचार्युलु, वेंद वेंकटरायशास्त्री, धर्मवरम् रामकृष्णाचार्य, वड्डादिसुब्बारायकवि, जयन्तीरामय्या, गिडुगुराममूर्ति पन्तुलु, चिलुकूरि वीरभद्रराव, कोमर्राजु लक्ष्मणराव, कोटू श्यामल कामशास्त्री, वाविल्ल रामस्वामिशास्त्री, तिरुपति वेंकटकबुलु, वेंकट पार्वतीश्वर कबुलु तथा सुरवरम् प्रतापरेड्डी आदि। कोप्परपुकबुलु का भी आशु कविता में बड़ा नाम है।
अनेक संस्थाएं आज तेलुगु की सेवा में लगी हैं और अनेक रचनाकार भी। आधुनिक युग के प्रख्यात कवियों में हैं – रायप्रोलु, सुब्बाराव, तल्लावज्झल शिवशंकर स्वामी, महोपाध्याय काशी कृष्णाचार्य, श्रीपाद कृष्णमूर्ति शास्त्री, विस्वनाथ सत्यनारायण, राल्लपल्लि अनन्तकृष्ण शर्मा, गडियारम् शेषशास्त्री, कालोजी नारायण राव, श्रीरंगम श्रीनिवासराव, तुम्मल सीताराममूर्ति चौधरी, गुर्रम् जाषुआ, पुट्टपति नारायणाचारी, पिंगलि काटूरि कविद्य, देवुलपल्लि कृष्णशास्त्री आदि।
शोध, भाषा का इतिहास, निबन्ध आदि लिखने वालों में प्रमुख नाम हैं – वेटूरि प्रभाकर शास्त्री, जनमचिशेषाद्रि शर्मा, चिलुकूरि नारायणराव, अडिवि बापिराजु आदि।
उपन्यास के क्षेत्र में उल्लेखनीय रचनाकार हैं – उन्नवलक्ष्मीनारायण पन्तुलु, विश्वनाथ सत्यनारायण, नोरिन नरसिंह शास्त्री, अडिवि बापिराजु, मीक्कपारि नरसिंह शास्त्री, मधिरसुब्बन दीक्षित, गुडिपाटि वेंकचरम् आदि।
प्रमुख कहानीकारों में हैं – श्रीपादकृष्णमूर्ति शास्त्री, चिन्तादीक्षितुलु, अडिवि बापिराजु, मुनिमाणिक्यम् नरसिंह राव, विश्वनाथ सत्यनारायण, गोपीचन्द्र, कोडवटिंगटि कुटुम्बराव, पालगुम्मिपद्मराजु आदि।
बेदाल तिरुवेंगलाचारी, सन्निधानम् सूर्यनारायण शास्त्री, जम्मुलपडक माधवराव शर्मा जैसे विद्वान भी उल्लेखनीय हैं जिन्होंने संस्कृत के ग्रंथों के प्रामाणिक अनुवाद किये हैं।
आलोचकों में प्रमुख हैं – राल्लपल्लि अनन्तकृष्ण शर्मा, विश्वनाथ सत्यनारायण, शिष्टला सूर्यनारायण शास्त्री, पुट्टपति नारायणाचार्य आदि।
चंद्रमौलि चंद्रकांत
राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी संस्थान
वारंगल -506004
मो. 8702454196
बेहतरीन शोधपरक लेख