दिल्ली में करोड़ों रुपये ख़र्च कर ‘स्मॉग टॉवर्स’ लगवाए थे। वे काम ही नहीं कर रहे। वैसे तो भारत में सरकारें ही बहुत मुश्किल से काम करती हैं। तो भला उनकी लगाई मशीनें कब और कैसे काम करेंगी, यह जान पाना आसान नहीं है। देखने में यही आता है कि भारतीय राजनीतिक दल हर समय ‘चुनावी मोड’ में ही लगे रहते हैं। कभी किसी भी सरकार को आम आदमी की समस्याओं या देश की प्रगति के बारे में सोचने का समय नहीं मिलता।
आज जब अपने पुरवाई के सहयोगी पीयूष द्विवेदी ने मुझे बताया कि वह एक लेख पढ़ नहीं पाया तो मैंने मज़ाक में कह दिया, “आलस्य छोड़ो!… और जल्दी से पढ़ डालो।” मगर पीयूष ने बहुत गंभीरता से कहा, “सर नोएडा में हवा इतनी ज़हरीली हो गई है कि साँस लेने से ही बदन में बुख़ार सा महसूस होने लगा है।”
लंदन में भी भारतीय टीवी चैनलों के समाचारों से भारत का हाल पता चलता रहता है मगर जब कोई अपना जानकार स्वयं बताए कि हालात क्या हैं तो चिंता तो हो ही जाती है। अंग्रेज़ी का शब्द स्मॉग (smog) स्मोक और फ़ॉग को मिला कर बना है – यानी कि धुआं और धुंध के मिलने से बनता है स्मॉग। यानी कि धूल, धुआं और कुहासा मिलने पर बन जाएगा ‘धुंआसा’। तो दिल्ली हर वर्ष ‘धुआंसे’ का शिकार होती है।
मुझे याद है जब मैं एअर इंडिया में फ़्लाइट परसर की नौकरी किया करता था तो मध्य नवंबर से लेकर फ़रवरी की शुरूआत तक प्रभात के समय दिल्ली में विमान उतारने में हमेशा हमारे पायलटों को परेशानी होती थी। हमारी उड़ानें बहुत बार दिल्ली से किसी अन्य शहर की ओर मोड़ दी जाती थीं। ज़ाहिर है कि ‘धुआंसे’ की समस्या कोई नई समस्या नहीं है। वर्षों से दिल्ली-वासी इसे झेल रहे हैं। मुश्किल सिर्फ़ इतनी सी है कि अब यह समस्या विकराल होती जा रही है।
अभी नवंबर की 4 तारीख़ ही हुई है और आसमान पर लिख दिया गया है कि “दिल्ली में सांस लेना मना है!” दिल्ली की हवा ज़हरीली हुई जा रही है और वायु प्रदूषण नियंत्रण से बाहर होता जा रहा है।
शुक्रवार 3 नवंबर को दिल्ली-वासी जब सुबह उठे, तो बाहर जैसे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। सरकारी आंकड़ों की तरफ़ ध्यान दें तो दिल्ली के आनन्द विहार में प्रदूषण स्तर रिकॉर्ड 854 अंक तक पहुंच गया था तो ज्यादातर जगहों पर यह 500 से 700 अंक के बीच रहा। दोपहर दो बजे के करीब भी दिल्ली का औसत प्रदूषण स्तर 500 अंक से अधिक बना रहा, जबकि मंदिर मार्ग और लुटियन दिल्ली के आसपास कई इलाकों में यह 650 अंक के आसपास बना रहा।
दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर है। लगातार दूसरे साल भारतीय राजधानी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में टॉप पर है। बांग्लादेश की राजधानी ढाका दूसरे नंबर पर, अफ्रीकी देश चाड की राजधानी नजामिना, तीसरे तजाकिस्तान का दुशांबे, चौथे और ओमान का मस्कट, पांचवें नंबर पर है। दुनिया के पंद्रह सबसे ज्यादा प्रदूषित शहर सेंट्रल और दक्षिण एशिया में है। इनमें से दस शहर भारत के हैं।
- भारत के प्रदूषित शहरों की सूची में अग्रणी हैं – भिवाड़ी (अलवर), गाज़ियाबाद, दिल्ली, जौनपुर, नोएडा, बागपत, हिसार, फरीदाबाद, ग्रेटर नोएडा, रोहतक।
कितना सटीक लिखा है कि सरकारें आम आदमी के लिए स्वच्छ हवा उपलब्ध करवायें। सच है _आम आदमी अपने लिए रोटी,कपड़ा और मकान का जुगाड तो ख़ुद भी कर सकता है लेकिन सॉंस लेने के लिए स्वच्छ हवा कहाॅं से लायेगा?
इस जानलेवा प्रदूषण के लिए सरकारें और जनता, सभी ज़िम्मेदार हैं। लापरवाही और अदूरदर्शिता समस्या को हमेशा से हवा देती आयीं हैंं,ऊपर से भ्रष्टाचार। दिल्ली सरकार ने करोड़ों ख़र्च करके स्मॉग टॉवर्स लगवाये , यदि वो काम ही नहीं कर रहे तो सरकार की जवाबदेही तो बनती है । इन राजनैतिक दलों में बेशर्मी भी इतनी है कि अपनी असफलताओं के लिए भी दूसरों पर दोषारोपण कर देते हैं,कभी पड़ोसी राज्यों की सरकारों पर तो कभी केन्द्र की सरकार पर।
समस्या का समाधान निकालना अत्यंत आवश्यक है । सरकारों के साथ आम आदमी को भी इस ओर कदम उठाने होंगे, थोड़ा अनुशासन और जागरूकता यहां भी ज़रूरी है।
समय रहते नहीं चेते तो भविष्य और भी कठिनाइयां लेकर आयेगा।
जानकारियों से युक्त सामयिक संपादकीय के लिए साधुवाद !
रचना आपने संपादकीय में चित्रित समस्या को गहराई से समझा है और हमारे पाठकों को समझाया है। आभार।
बहुत विस्तृत जानकारीपरक सुविचारित संपादकीय।
जरूरी है लोगों को कारणों के बारे में बताना। आपने बहुत अच्छे से भयावह स्थिति के बारे में बताया।
प्परदूषण पर रोक लगाने की जिम्मेदारी सरकार सहित हर नागरिक की।
बढ़ते वाहनों के लिए नियम बनाए जाने चाहिएं। एक घरेलू व्यक्ति मात्र दो वाहन ले सकता। पराली न जलाया जाए। पहले खेतिहर ऊपर से काटकर पुआल रख लेते, खूंट को जमीन में ही मिला देते थे, जलाते न थे। अब तो ट्रैक्टर भी है।
इतने जरूरी समसामयिक संपादकीय के लिए साधुवाद
अनिता जी इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
दिल्ली के बढ़ते प्रदूषण के बारे में उत्कृष्ट आलेख।दिल्ली एन सी आर आज मौत का कुँवा बनकर रह गया है। लोग वहाँ से भागने पर मजबूर हैं,पर कबतक?
भाई इंद्र कुमार जी इस सार्थक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
चलिए साहाब,किसी ने तो पत्रकारिता के गहन गरिमापूर्ण दायित्व को समझा और बेबाकी से सीधे सीधे दिल्ली की सांसों का ऑडिट कर पेश किया। सालोंसाल प्रदूषण में ढकी दबी बेशर्म दिल्ली सांस लेती है मरती है और बस चलती है। राजनीति बार बार बेरहमी और शैतानी had तक निवासियों यानी tax payers के पैसों को अपना बता कर बेवकूफ बनाती और बनाती जा रही है।
आदरणीय संपादक महोदय ने धुआंसे से धांसती खांसती बीमार दिल्ली का समग्र खाका खींचा है,राजनीति का असंवेदनशील अमानवीय चेहरा भी सामने ला दिया है। लोकतंत्र में अब चुनाव शायद साफ हवा और केवल साफ हवा के आधार पर ही लड़े जाएंगे।
जान है तो जहान है,,,,मतदाताओं और विशेष रूप से पढ़े लिखे घटक को वोट देने का पुनीत कार्य करना हो होगा।
कुल मिलाकर एक जानदार और तथ्यात्मक संपादकीय लिखने हेतु पुरवाई परिवार और उसके प्रबुद्ध संपादक को दिल्ली वालों की बधाई।
इसके बाद हो सकता है इसी संपादकीय तर्ज पर और आलेख आएं तो वह एक श्रेणी विशेष में मानें जायेंगे यथा we also ran in the Race!?
देखें राजनीति का कुंभकरण कब जागता है और दिल्ली को दम घोंटू हवा से निज़ात दिलाता है।
भाई सूर्य कांत जी आपका स्नेह हर शब्द में महसूस कर रहा हूं। आपने संपादकीय का रेशा-रेशा पाठकों के सामने खोल दिए हैं। हार्दिक आभार।
आपका संपादकीय सदा जानकारियों का पिटारा होता है तभी इसका इन्तेजार बेसब्री से होता है।
दिल्ली राजधानी है अतः चर्चा में रहती है और फिर पराली वाली बात भी है। कोलकाता में तो पराली नहीं है फिर भी यहां aqi 400 से ऊपर रहता है हरदम। समस्या का मूल कारण आज भी सड़को पर वही पीली अम्बेसेडोर टैक्सी और सरकारी बसें जो शायद 1990 म् खरीदी गई थी। मुझे याद आता है 2002 म् मैं फ्लोरेंस घूमने गया था वहां शहर में किसी भी वहां की इजाजत नहीं है अगर कोई ले जाना चाहे तो भारी एनयरी टैक्स देना होगा। हम जिस टूर बस में थे उसे एंट्री करने के 200 यूरो देने पड़े थे 200 यूरो का मतलब उस समय करीब 8400रुपये। बाकी जहां शहर से बाहर कार पार्किंग की व्यवस्था थी वहां से आप बैटरी कार से जा सकते थे । यह होता हैं पॉल्युशन को खत्म करने की दृढ़ प्रतिज्ञा। अभी सरकारी सुचना पढ़ी दिल्ली में 2020 के पहले के डीजल और 2015 के पहले के पेट्रोल वाहन प्रितबन्धित किये हैं अगर सही है तो काफी हद तक पॉल्युशन पर कंट्रोल होगा। स्मोग टावर कभी भी सक्षम नहीं हो सकते दिल्ली जैसे शहर में वहां तो क्लीन एनर्जी को उपयोग ही केवल उपचार है।
सर आपकी टिप्पणी भी सृजनात्मक लेखन का आभास देती है। हार्दिक आभार।
सराहनीय व व्यंग्यात्मक टिप्पणी सर जी
बढ़ते प्रदूषण पर चिंताजनक आलेख है प्रदूषण पर विस्तृत जानकारी उपलब्ध कराई है ।
समसामयिक संपादकीय के लिए साधुवाद
स्वागत है सीमा। हार्दिक आभार।
आप ही के आलेख से …..भारतीय जनता पार्टी दिल्ली और पंजाब की सरकार पर आरोप लगा रही है तो आम आदमी पार्टी हरियाणा की मनोहर लाल खट्टर की सरकार की तरफ़ उंगलियां उठा रही है। कांग्रेस अपना पल्ला राजस्थान में झाड़ रही है। बीमार हो रहा है आम आदमी… बेचारा सोच रहा है कि वोट लेकर सरकार तो सभी बनाने को तैयार है मगर समस्या का समाधान ढूंढने का समय किसी के पास भी नहीं है।
आभार आलोक।
वायु प्रदूषण पर वैज्ञानिक और राजनितिक कोण से प्रकाश डालता संपादकीय पढ़ कर अच्छा लगा लेकिन प्रदूषण का स्तर दुःखी कर गया। वास्तव में प्रदूषण के लिए बीजेपी, कॉन्ग्रेस या आम आदमी पार्टी से अधिक ‘आम आदमी ज़िम्मेदार है।’
देश वेलफ़ेयर स्टेट क्या बना, जनता की अपेक्षा रहती है कि अगर उसका टॉयलेट गन्दा है तो ये सरकार की ज़िम्मेदारी है।
यहाँ पैदल कोई चलेगा नहीं, साइकिल चलाने में इज्ज़त घटती है। एक-एक बच्चे को छोड़ने एक-एक गाड़ी जाती है। पहले कम ईंधन जलाने वाली मारुति सेंट्रो (22-24 kmpl)आदि गाडियां थीं आज ईंधन फूंँकने बीएमडब्ल्यू और ऑडी (12-13 Kmpl) चल रही हैं। पैसे के दिखावे में लोग अंधे हैं। उन्हें प्रदूषण से होने वाली विज़बिलटी की चिन्ता कहाँ?
जनता को अपनी ख़ुद की सन्तान (जो 1 या 2 होती हैं) की फ़िक्र नहीं तो सरकार सवा सौ करोड़ से ज्यादा जनता की फ़िक्र क्यों करेगी।
नियम लाख बना दिये जायें जनता का आम चरित्र सिर्फ़ नियम तोड़ने का रहता है। मन से ग़ुलाम अभी तक हम ब्रिटिश राज की मानसिकता में जी रहे हैं।
एक बात से मैं इत्तिफ़ाक़ नहीं रखती कि चुनावी मोड में रहने से सरकारें काम नहीं करतीं। वास्तव में चुनाव के डर से ही सरकारें काम करती हैं। बीजेपी ने पिछले 7 वर्षों में जितना काम किया उसका चौथाई भी कॉन्ग्रेस ने 60-62 सालों में नहीं किया। क्योंकि शासन को उन्होंने अपना पुश्तैनी हक़ मान लिया था और चुनाव का डर ही नहीं था।
शैली जी आपकी असहमति पढ़ ली। इस पर बात करेंगे। हार्दिक आभार।
आदरणीय संपादक महोदय,
यह पुरवा हवा चलने का मौसम तो नहीं है, परंतु लंदन पहुंची हवा “पुरवाई” बनाकर यहां के समाचार आप तक पहुंच रही है !
आपने जो एयर प्यूरीफायर के काम न करने की बात कही है, उसके बारे में मेरा यह मानना है कि यदि वे अपनी पूरी क्षमता से काम करें तो भी दिल्ली के प्रदूषण को कम नहीं कर सकते । यह बात वैज्ञानिकों को भी मालूम रही होगी परंतु वैसा लगता है कि यह सब धन कमाने का एक रास्ता था।आज से 15-20 साल पहले जब दिल्ली में प्रदूषण की समस्या उठी तब गैस आधारित वाहनों के आने से इस समस्या में काफी सुधार हुआ था।परंतु अब लोगों की संपन्नता और दिल्ली की आबादी का घनत्व इतना बढ़ गया है कि वहां चलने वाले जनरेटर, एयर कंडीशनर ,वाहन सभी इस समस्या को बढ़ा रहे हैं।
कहने को तो भारत में ‘गरीबी’ बढ़ती जा रही है।परंतु आजकल चार पैसे कमाने वाला आदमी भी अब ‘चार चक्का ‘वाहन रखने के सपने देखता है!
जब से फसलों की कटाई हार्वेस्टर से होने लगी है तब से धान के पुआल की समस्या बढ़ती चली जा रही है।जब हाथ से कटाई होती थी तब पौधा जड़ के काफी नजदीक से काटा जाता था और पौधे का जो भाग बचता था, वह हल चलाकर जमीन में दबा दिया जाता था। पुआल के भी कई उपयोग होते थे ,यह पशुओं के नीचे बिछाने और सर्दियों में फर्श पर डालकर गर्माहट पाने के लिए प्रयोग होता था। अब पशु तो रहे नहीं सारी खेती यांत्रिक हो गई है ।घरों में पुआल के बदले फो़म के गद्दे आ गए हैं गाड़ियों की सीटों आदि में भी अब संश्लेषित पदार्थ भरा जाता है।
इस समस्या पर नियंत्रण पाने के लिए उपाय तो सोच जा रहे हैं जैसे कि पराली की ईंटें बनाकर थर्मल पावर हाउसेस में उनका उपयोग करना, शवो को जलाने के लिए लकड़ी के स्थान पर इन ईंटों का प्रयोग करना आदि परंतु यह उपाय अभी इस स्तर तक नहीं पहुंचे हैं कि किसानों को पुवाली जलाने से रोक सकें। पराली को खेत में ही शीघ्रतिशीघ्र खाद में परिवर्तन करने के भी प्रयोग किया जा रहे हैं।
अब तो ऐसा लगता है कि भगवान को ही कुछ सोचना पड़ेगा जैसे की उत्तर भारत का भी तापमान कभी इतना ना गिरे की हवा में उपस्थित नमी बूंद का रूप ले सके, धान के पौधे ऐसे हो की जड़ में ही उनकी बालें आ जाएं। जब भी परली जलाई जाए उन दिनों तेज हवाएं चलती रहे ,जिससे कि प्रदूषण का स्तर अधिक न बढ़ाने पाए। अथवा सर्दियों में हर दूसरे दिन भारी वर्षा होती रहे । और सबसे अच्छी बात तो यह है होगी कि हम इतने म्यूटेट हो जाएंगे हमारे फेफड़ों घने धुएं से भी ऑक्सीजन निकाल ले और ठोस पदार्थ को बलगम के साथ बाहर निकाल ।
भविष्य के लिए शुभकामनाओं सहित
सरोजिनी पाण्डेय्
सरोजिनी जी, आपकी सार्थक और सारगर्भित टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।
धुँआसे पर अच्छा शोध है ।
समस्या विकराल है जीवन से सीधे सम्बद्ध हैं ये कार्य ,आधारभूत संरचना सुधारने में सभी राजनैतिक दलों को एकमत होना ही होगा ।
साधुवाद
Dr Prabha mishra
हार्दिक आभार प्रभा जी।
मेरी पहली टिप्पणी जो अल सुबह ही पोस्ट की है,अभी तक मॉडरेशन की प्रक्रिया में है !?
जी, पहली टिप्पणी प्रकाशित हो गई।
With you,Tejendra ji,in your appeal to the governments of today to make clean air available to its citizens devoid of all smog that is present today,specially in Delhi n Mumbai.
These months require extra measures by the governments as winters set in( what with smoke emitted from the waste that is being burnt and the fog hanging in the air due to cold) in order to dispel the pollutants that enter the air.
Very relevant Editorial indeed.
Warm regards
Deepak Sharma
Thanks so much Deepak ji for your supportive comment.
आदरणीय संपादक महोदय, मैं उत्तराखंड की निवासी हूं और सुखद यह है कि मैं पहाड़ों के बीच में ही रहती हूं। आपका आलेख बहुत महत्वपूर्ण बिंदुओं को उजागर कर रहा है । मानवता को बचाने के लिए एक नई सोच का विकास करना होगा जो इस ज्वलंत समस्या के समाधान में समाज का कल्याण करने में कारगर सिद्ध हो,
महत्वपूर्ण संपादकीय लेखन हेतु आपका हार्दिक आभार
गुड्डी जी, आपने बहुत बढ़िया राय दी है। हार्दिक आभार।
आपका संपादकीय सदा ज्वलंत मुद्दों को उठता है। धुआंसे का यह मुद्दा भारत के घर-घर का मुद्दा है। खासकर दिल्ली का। सबसे ज्यादा मुश्किल उन वृद्ध लोगों को है जो सांस की समस्या से ग्रसित है। गले में खराश और सांस की दिक्कतें बढ़ती जा रही है।
आपको संपादकीय के लिए साधुवाद
हार्दिक आभार भारती।
आपका संपादकीय सदा ज्वलंत मुद्दों को उठता है। धुआंसे का यह मुद्दा भारत के घर-घर का मुद्दा है। खासकर दिल्ली का। सबसे ज्यादा मुश्किल उन वृद्ध लोगों को है जो सांस की समस्या से ग्रसित है। गले में खराश और सांस की दिक्कतें बढ़ती जा रही है।
आपको संपादकीय के लिए साधुवाद
हम दिल्ली और वहाँ के आसपास वाले मानते रहे हैं कि वायु प्रदूषण पर हमारा ही स्वामित्व है , कभी पटाखे तो कभी पराली तरह तरह के इल्ज़ाम आयद होते रहे हैं.
लेकिन मानना पड़ेगा मुंबई वाले प्रगति की इस दौड़ में हमें पराजित कर ही डाल रहे हैं. बधाई मुंबईकर !
और तो और इस पुण्य कार्य में सहयोग देने के लिए बीएमसी को भी ज़बरदस्त बधाई देना बनती है जिसने हालाँकि बजट प्रस्तुत करते समय आठ महीने पूर्व घोषणा की थी कि एडवाइजरी जारी किया करेंगे लेकिन वायु प्रदूषण के डरावने स्तर के वावज़ूद चैन की नींद में है. प्रदूषण से लड़ना छोड़िये एडवाइजरी भी कौन जारी करे .
विले पारले जहां शहर को शिक्षित करने वाली अगर विश्व स्तर की नहीं तो कम से कम राष्ट्रीय स्तर की संस्थाएं हैं वहाँ एयर क्वालिटी इंडेक्स 400 से 411 के ख़तरनाक स्तर के बीच झूल रहा है उनमें भी इसे लेकर कोई घबराहट नहीं ग़ज़ब का अमन चैन है .और कुछ नहीं तो कम से कम वहाँ इस प्रदूषण को ले कर आठ दस ठो सेमिनार ही कर लेते पर यह सब करने से शहर का सकारात्मक माहौल भला क्यों बिगाड़ें.पड़ोसी अंधेरी बस इस दौड़ में कुछ ही पीछे है . और लो भाई , इस दौड़ में दक्षिणी छोर का मज़गाँव एरिया भी कुछ ही पीछे रह गया है .
और भाई हम और आप सारे मुंबईकर भी भला कहाँ पीछे रहने वाले हैं , दीपावली आ रही है पटाखे छोड़ अपना श्रमदान कर ही देंगे . अगर कोई पर्यावरण प्रेमी कुछ बोलेगा तो समझा देंगे कि क्रिसमस , नव वर्ष , ईद पर पटाखे छोड़ने वालों कोई कुछ नहीं बोलता तो हम ही निशाने पर क्यों हैं .
और हाँ , मुंबई के बढ़ते वायु प्रदूषण से शहर के व्यवसाय में वृद्धि होनी तय है , डॉक्टर , नर्सिंग होम और स्पेशलिटी हॉस्पिटल अच्छा व्यवसाय करेंगे , अधिक दवाएँ बिकने से फार्मा उद्योग भी अच्छा प्रॉफिट बुक करेगा .
इसलिए आराम से से बैठिए चिल कीजिए , टीवी पर तो इसे ले कर कोई बहस होनी नहीं है अख़बारों में विज्ञापनों के बीच अगर इसे लेकर चिंता संबंधी कोई रिपोर्ट दिखे उसे इगनोर कर दीजिएगा.
प्रदीप भाई आपने पूरे विस्तार से स्थिति का आकलन किया है।
बढ़िया आलेख! सोच रहा हूं कि एक शर्ट ऐसी सिलवा लूं जिसके कॉलर हमेशा ऊंचे रहें। अब चूंकि दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन गया है, सो दिल्ली वासी होने के नाते कॉलर ऊंचा करना तो बनता है।
सुमित आपकी व्यंग्यात्मक टिप्पणी सब कुछ कह रही है।
अनिल उपाध्याय दो लाइनों में सब कुछ बयां कर देते हैं:
उन्होंने जेब से सिगरेट निकाल कर सुलगाई और गहरा कश भर के बोले ..”प्रदूषण के कारण आज मॉर्निंग वॉक नहीं गया”
और…….
सूरज फिर निकलेगा!
सारगर्भित टिप्पणी निखिल जी।
वायु प्रदूषण की भयावहता और उसके पीछे राजनीतिक दलों की असफ़लता और प्रदूषण से संबंधित विस्तृत जानकारी देते हुए सचेत कराते हुए आदरणीय सर का प्रासंगिक आलेख।
हार्दिक आभार जया।
बहुत ही विचारणीय स्थिति भारत की राजधानी जहां यमुना नाले का रूप ले चुकी है,वायु धुआंसे का। राजनेताओं को सिर्फ अपनी कुर्सी प्यारी है आज जिस पर आरोप-प्रत्यारोप हो रहे हैं अपनी कुर्सी बचाने के लिए कल उनसे गठबंधन भी कर लिया जायेगा ,पर जनता को बचाने के लिए कुछ नहीं किया जायेगा।
एक-एक वाक्य सत्य! आभार।
प्रदूषण पर विश्लेषणात्मक संपादकीय। मुझे याद है ज़ब हम छोटे थे तब आकाश में तारे झिलमिलाते रहते थे। आज कभी कभार ही तारे देखने को मिलते हैं। तारों की बात आज संयोग से इसलिए निकल आई क्योंकि आज मैंने अहोई अष्टमी का व्रत रखा था जिसमें तारे देखकर ही खाया पीया जाता है।
बचपन की यादें ख़ूबसूरत होती हैं। प्रदूषण उनको भी नहीं छोड़ता।
आपके हर संपादकीय में नवीनता तो होती ही है, जागरूकता अभियान के लिए जगाने की विशेष तलब दिखाई देती है जो सबको झंझोड़ तो देती ही है।
वास्तविक स्थिति तो बेचारे दिल्ली वासी भुगत ही रहे हैं। दिल्ली में किसी से भी बात होने पर इसकी चर्चा तो होती ही है। सब अपने दुखड़े बयान करते हैं लेकिन एक दूसरे के कंधे पर बंदूक रखकर चलाने से कोई हल निकल सकता है क्या?
वहाँ के स्थानीय निवासी जो हर वर्ष इस स्थिति को भुगतते हैं, उनको भविष्य में क्या और कठिनाई का सामना करना पड़ेगा, उसके बारे में सोचने से ही घबराहट होने लगती है।
एक चैतन्य संपादक के रूप में आप निष्ठा से जागरण की भूमिका का निर्वाह करते हैं। काश ! सब मिलकर प्रयास कर सकें तो संभवतः स्थिति में कुछ सुधार आ सकता है। वर्ना तो ऊपर वाला ही मालिक है।
वैसे भी – – – देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान ! सर्वे भवन्तु सुखिनः
प्रणव जी, आपने संपादकीय के नवीन विषयों की प्रशंसा की है। हार्दिक आभार। दिल्ली और NCERT क्षेत्र की जनता के फेफड़ों को प्रदूषित हवा ने ख़ासा डैमेज कर दिया है।
न तड़पने की इजाज़त है
न फ़रियाद की है
घुट घुट के मैं मर जाऊँ
यह मर्ज़ी, मेरे सैयाद की है
देहली में भी बस यही हो रहा है। दिल्ली प्रशासन के नेता अपनी कुर्सियों को बचाने और कायम रखने के चक्कर में पागलों की तरह से दौड़ लगा रहे हैं। जन्ता बेचारी जाये कुएँ में, इस से उन्हें कोई मतलब नहीं। बस मेरी कुर्सी बनी रहे।
विजय भाई, आपने काव्यात्मक अभिव्यक्ति में सब कुछ कह डाला। आभार।
आदरणीय तेजेन्द्र जी
तीन विशेषताएं आपके संपादकीय को विशिष्ट बनाती हैं, जिसके कारण पढ़ने वालों को संपादकीय का इंतजार बेसब्री से रहता है।
1- विषय
2- तथ्यगत वो महत्वपूर्ण जानकारियांँ, जो विषय को और स्पष्ट करते हुए समझने में मदद करती हैं।
3- सजगता,सचेत चैतन्य दृष्टि, निष्पक्षता और निडरता जो एक एक सच्चे एवं जागरूक संपादक के लिये आवश्यक अर्हता है और जो आप में नजर आती है पर बाहर आजकल कम दिखाई देती है या शायद दिखाई नहीं देती है।
एक लंबे समय से दिल्ली के प्रदूषण के बारे में सुना जा रहा है लेकिन आज उसको बेहतर समझ पाए कि वास्तव में वह प्रदूषण है क्या?वह कब और कैसे होता है?और फिर कब, किस-किसके लिये किस-किस तरह से कितना नुकसानदायक हो जाता है।
स्मॉग को जाना,pm 2•5 के खतरे को समझ पाए।
हम तो सामान्यतः एक ही बात जानते रहे कि खेतों में नरवाई का जलना, फैक्ट्री का धुआंँ,गाड़ियों का धुआंँ, ए सी, इत्यादि इस प्रदूषण के कारक हैं। पर प्रदूषण में हवा इतनी जहरीली कैसे हो जाती है कि साँस लेने पर बन आए?यह नहीं पता था।आपको पढ़कर देश विदेश में प्रदूषण की स्थिति को समझ पाए और देश में प्रदूषण के स्तर के आंकड़ों को जान पाए।
इस दृष्टि से आपकी संपादकीय से सीखने के लिए भी बहुत कुछ मिलता है जिसे जानना सिर्फ पुरवाई के पाठकों के लिए नहीं बल्कि सभी के लिये बहुत जरूरी है। हमने आप से इजाजत लिये बगैर अपने बच्चों को भी यह संपादकीय साझा किया ताकि वे भी जान सकें। इसके लिये क्षमा प्रार्थी हैं।
वैसे तो हर संपादकीय को पढ़ते हुए लगता है कि यह महत्वपूर्ण है लेकिन फिर भी तुलनात्मकता में आज का संपादकीय इस दृष्टि से अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि यह साँसों से जुड़ा हुआ है।इसमें सांँस लेने पर बन आई है।
दिल्ली देश की राजधानी है। जब वहांँ के ही यह हाल हैं तो बाकी जगह का तो भगवान ही मालिक है।केंद्रीय सरकार जहाँ पर स्वयं वास करती है और जिसे सिर्फ अपने होने की फिक्र है लेकिन पर्यावरण की स्वच्छता पर ध्यान नहीं दे पाए तो फिर सरकार के लिए क्या ही कहा जाए!!!!!!
एक दिशाहीन नेतृत्व के तले देश जी रहा है।
एक सामान्य गृहस्थ भी प्रायोरिटी के हिसाब से परिवार के लिये खर्च व व्यवस्था को समझता व संभालता है पर हर नेता जीतने के बाद सिर्फ स्वयं को संभालने में लग जाता है।
जनता की मुश्किलों को सुनने समझने और उसका निदान ढूंढने से उसका कोई वास्ता ही नहीं होता। देखने और सुलझाने का दिखावा मात्र करते हैं।
हर पार्टी के नेता के लिये सम्वेत रूप से समस्त भेदभावों को भुलाकर इस गंभीर विषय पर विचार करना और स्थायी निदान ढूँढना अत्यंत आवश्यक है।
महत्वपूर्ण जानकारियों और एक महत्वपूर्ण समस्या की ओर सबका ध्यान आकर्षित करने के लिए आपका बहुत-बहुत शुक्रिया तेजेंन्द्र जी!
पुनश्च –
एक महत्वपूर्ण बात छूट गई। संपादकीय की विशेषताएं तीन नहीं कर हैं सबसे पहला तो आपके संपादकीय का शीर्षक है जो सबसे अधिक प्रभावशाली होता है और पढ़ने के लिए उत्सुकता जागृत करता है। जैसा कि इस बार का शीर्षक है ,”दिल्ली में अपनी जिम्मेदारी पर सांँस लें।” एक झटके में ख्याल आता है कि ऐसा क्या हुआ?
आदरणीय नीलिमा जी, इस विस्तृत एवं सटीक टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।