काव्य में संवेदनात्मक प्रस्तुति में शब्द गूंगे होते जा रहे हैं, कब कोमा में चले जांय क्या पता? वे हमारी भावनाओं के प्रतीक हैं और होश कि संचारित अवस्था में उनका अर्थ ज़ाहिर होता है. बाक़ी बेबास, अधूरे अलफ़ाज़ हैं जिनका व्यक्त होना न होना एक सम्मान है…
-देवी नागरानी–
पत्थरों को शायद किसी ने रोते हुए नहीं देखा है, पर सच मानो उनमें भी धड़कन होती है, मगर वे खामोशियों से हर सदमे को झेलते हैं.
यूं हसरतों के दाग़ दिल में ही दबाकर दर्द भरा दिल कह उठता है:
“घाव गहरा था बहुत पर दिखता न था
दिल भी बहुत दुखता था
पर कोई समझता न था
बाद में सब कहते तो हैं कि-
‘मुझसे कह सकता था.’
पर जब जब कहना चाहा
कोई सुनाता न था.”
सिर्फ़ धरती के भूकम्प से ज़िलज़िले नहीं होते? कई ज़िलज़िले मानव जीवन में हादसे के रूप में भी आते हैं और आदमी के मन के साथ जुड़ी हर आस्था को उजाड़ देते हैं। एक एक हादसे के बाद जब आदमी अपनी सारी शक्ति को समेट कर अपने मन में फिर से जीने की चाह पैदा करता है तो अचानक एक और हादसा उसके जीवन में भूचाल मचाता हुआ आता है और पूरी तरह से उसे उखाड़ कर तबाह कर देता है। मन में सवाल उठता है क्या ज़िंदगी इन हादसों का नाम है जो हमें बार बार रिश्तों के नाम पर, प्यार के नाम पर छलती है, लूटती है और हमें मरने के पहले कई बार मौत का अहसास कराती है.
गुलज़ार साहब ने कितनी खूबसूरती से अपनी ओर से जिंदगी को बयाँ करते हुए लिखा है:
‘कभी तानों में कटेगी/ कभी तारीफों में;
ये जिंदगी है यारो / पल पल घटेगी…
खटखटाते रहिए दरवाज़ा/ एक दूसरे के मन का;
मुलाकातें ना सही/ आहटें आती रहनी चाहिए…
सच है, आशा का दामन थाम कर इन्सान रेत पर घरौंदा बनाता है, उसे संवारता है, और जब उसे बिखरता हुआ देखता है तो आत्मा के अधर भी थरथरा उठते हैं। रेगिस्तान की गर्म रेत पर बनाया हुआ आशियाँ डहकर इस हक़ीक़त से वाक़िफ़ कराता है कि रेत बंद मुट्ठी में क़ैद नहीं होती। यही बेबसी की चरम सीमा है.
नारी मन में कोमल ता भावनात्मक अनुभूति कुछ अधिक होती है इसका कतई यह मतलब नहीं कि पुरुष में भावनाओं का मरुस्थल बसा हुआ है. उनके भीतर भावनाएं करवट नहीं लेती है, एकाकीपन के वे शिकार नहीं होते हैं, अनेक समस्याएं और भी जिनकी अपनी अपनी मर्यादा होती है.
सुमेर सिंह शैलेश जी की ज़बानी ये भी सुना है–
घर में रहते हैं हम अजनबी की तरह
राम से भी कठिन अपना बनवास है
ऐसे में यह भी एक हक़ीक़त है, कारण चाहे जो भी हो, अपने ही घर में आदमी को झुकना पड़ता है, मौन धारण करना होता है, वर्ना मैं मैं तू तू से तो आए दिन एक नए रामायण व् महाभारत की शुरुवात होने की संभावना बन ही जाती है. कई ऐसे मौकों पर बुद्धिमान व्यक्ति को मौन के साथ समझौता करना पड़ता है. सवालों के जवाब भी पलट कर देने की बजाय ख़ामोशी को अपनाना पड़ता है. कई बार घर में शांति बरक़रार रखने के लिए उन अपनों को जिताने के लिए चुपचाप हारना भी ज़रूरी हो जाता है.
आज स्थितियां बदल चुकीं हैं और सामाजिक स्तिथि हर क्षेत्र में बराबरी और वर्चस्व का माहौल बरपा कर चुकी है. घर के भीतर और बाहर परिस्थितियाँ दुरूह होती जा रहीं.हैं. केवल आपसी सामंजस्य और समझबूझ ही नहीं, अगर अत्याचार की बात की जाय तो सिर्फ़ शारीरिक तकलीफ को ही अत्याचार की श्रेणी में रखा जाता है, जबकि मानसिक रूप से दी गई तकलीफ प्रताड़ना होती है. पुरूष पर अत्याचार नगण्य है मगर प्रताड़ना समुचित मात्रा में पाई जा रही है. इसका बोझ परुष के दिल दिमाग पर हावी होता है. क्योंकि पुरुष ही घर का स्वामी है, जिसके कंधों पर परिवार के पालन पोषण की, व् समस्त आर्थिक जिम्मेदारी होती है. यह भी एक प्रताड़ना ही है, जिसे वह पत्नी के सिवा किसी से साँझा नहीं कर सकता. कभी विपरीत हालातों में भगवान् न करे उसकी नौकरी छूट जाती है, तो घर की आधारशिला ही डगमगा जाती है. ऐन वक़्त पुरूष की मानसिक स्थिति पुरूष ही जान सकता है. कुछ ऐसे हालातों में गर बीवी नासमझ है तो घर में अपने भी गैर बन जाते है, खिलाफत दीवारों में, दिलों में दरारें चौड़ी करने में सफल हो जाती है. ऐसे समय में पुरुष अकेला पड़ जाता है, अपने आप से जूझता है, उस कठिन परिस्थिति में मानसिक प्रताड़ना को झेलता है. विडंबना यह भी होती है कि वह अपनी मजबूर हालत का ज़िक्र बिना किसी से कहे अकेले इस स्तिथि को संभालते हुए एक पीड़ादायक दौर से गुज़रता है, उस मानसिक यातना को झेलता है. वह रो नहीं सकता, बस इज़हार का ढंग निराला सा होता है, जैसे अपने मन की पीढ़ा को प्रस्तुत करते हुए दिल्ली के जाने माने हस्ताक्षर लेखक लक्ष्मीशंकर बाजपई अपनी कविता ‘तुम्हारी तस्वीर’ में कह रहे हैं:
कमरे में टंगी
तुम्हारी बड़ी सी तस्वीर से
कहीं ज़्यादा परेशान करती हैं
बाथरूम में चिपकी
तुम्हारी छोटी-छोटी बिंदियाँ !’
रिश्तों से मिले दर्द भी घाव की तरह रिसते रहते हैं, बस उनके ज़ाहिर होने का अंदाज़ अलग होता है. पुरुष के मनोबल की बात करते हुए दो आयुवर्गों के अंतर को नकारा नहीं जा सकता- युवा से प्रौढ़ होते पुरुष और वृद्धावस्था को प्राप्त कर चुके पुरुष, बाल, किशोर और युवा पुरुषों पर तुलनात्मक रुप से प्रताड़ना की प्रतिक्रिया कम होती दिखाई देती है. युवा से प्रौढ़ होते पुरुषों की प्रताड़ना की स्थिति अधिक गंभीर है, एक साथी के चले जाने से वे अकेले पड़ जाते हैं. यह कठिन अवस्था महिला से अधिक पुरुष को झेलनी पड़ती है, जो मानसिक रूप से उस तन्हाई से जूझते हुए उसके साथ साथ जुडी अनेक विषमताओं के शिकार हो जाते हैं, जो उनके मानसिक संतुलन पर अधिक प्रभाव डालती है.
स्त्री के मुकाबले पुरुषों को शारीरिक, मानसिक व सामाजिक बदलावों का सामना करने की क्षमता कम होती है, परिस्थिति के अनुसार स्वयं को ढ़ाल लेना, अपनी भूमिका को लेकर सजग रहना और समग्र विचार करना, समय के साथ व्यहवार को परिस्थियों में जीना औरत के लिए मुश्किल नहीं होता. बुढ़ापे में महिलाएं अक्सर जीवन भर का भोगा यथार्थ सामने रखकर अपनी निष्ठा दिखा पाने में सक्षम होती है. इसी बात को समझ पाने का लचीलापन पुरुष में नही होता. औरत की तुलना में वृद्ध पुरुषों को घर में उपेक्षा, पहले की तरह सम्मान न मिलने, घर के निर्णय व क्रियाकलापों में उन्हे शामिल न करना, बीमारी आदि में उनकी देखभाल को बोझ मानने जैसी स्थितियां सामने आ जाती हैं. इस असहाय स्तिथि को झेलना पुरुष के हिस्से में आता है.
जब दर्द का सागर तड़प उठता है, लहरों का सालना, आँखों का साहिल पार नहीं करा पाता. होंठ किसी वीरान जज़ीरे की मानिंद अजनबी बन जाते हैं और मन का कहा तहरीर या नज़्म के रूप में लिखना कहाँ हर किसी के बस में होता है, शायद नज़्म उन जज्बों को लिख पाती है, ज़बान दे पाती है, जो जीवन के बीते हुए पलों को शब्दों में ढालकर मन की बात सामने रखते हैं. सम्माननीय श्री अटल बिहारी बाजपयी के काव्य का एक अंश जो इस संवेदना को दर्शाते हुए कह रहा है, उस बानगी में झांकिए:
बिखरे नीड़, विहँसे चीड़,
आँसू हैं न मुस्कानें,
हिमानी झील के तट पर
अकेला गुनगुनाता हूँ
न मैं चुप हूँ न गाता हूँ…
फिर भी हमारे चारों ओर इतना शोर है, बावजूद इसके हम तन्हाई में अपनी आवाज़ भी सुन सकते हैं. शब्द शब्द मौन रहता है फिर भी अर्थ में एक चिंगारी समाई रहती है जो अपनी ही गुमनामियों से लड़ते हुए अपने अस्तित्व को दर्ज करने से पीछे नहीं हटती. किसी ने सच लिखा है—
शब्द हवा हैं जो यहां की खुशबू पहुंचा देते हैं वहां..
ख़्वाहिशों की चिंगारी
सपनों की हवा से भड़क कर
पहाड़ जितनी हो गई है
वक़्त से बड़ा सरकश कौन है?
तारीख हज़ार साल में बस इतनी सी बदली है
तब दौर पत्थर का था,
अब लोग पत्थर के हैं…
सहित्य वही सार्थक है जो सच कहे, सच दरशाए। बच्चन जी जागरण के कवि रहे. ‘पल भर जीवन परिचय मेरा’ में काव्य के आधार से शब्दों में जीवन के सत्य को परिभाषित करते रहे. यह उनके काव्य में सामाजिक चेतना का प्रमाण है, जिसे उन्होंने सिर्फ़ लिखा ही नहीं, बल्कि जिया . उन्होंने आत्मकथा में भी अपनी जीवनी ही नहीं समाज व प्राचीन काल के इंतेहाई इतिहास को रेखांकित किया है। क्योंकि लेखक का व्यक्तित्व ही विचारों का उद्भावक होता है, इसलिये व्यक्तित्व के निर्माण से ही विचारों का निर्माण होता है!
इशारे कहीं से चले आ रहे हैं
सदन छोड़ना है, समय आ रहा है.
कविता सिर्फ़ वही नहीं होती जो कवि लिख देते हैं, कविता आत्मा की फुसफुसाहटों से बनी वह महानदी भी है, जो मनुष्यता के भीतर बहती है. शायद मनुष्य के भीतर संवेदना का झरना बहता है, दुःख सुख उसे छू जाता है. अपने जीवन साथी को खोने का गम सभी को होता है. पति पत्नी एक साथ कभी नही महाप्रयाण करते, किसी न किसी को पहले जाना ही पड़ता है. पुरुष पहले चला जाय तो अच्छा है, बीवी के बाद उसकी बहुत दुर्गति होती है. यह एक अलग विषय है.
मुझे याद आ रहा है. जब मेरे चाचा का निधन अनचाही परिस्थितियों में हुआ, तो मैं मुंबई से हैदराबाद जा पहुंची. तन वहां था पर मन शोक संवेदना की पड़ताल करता रहा. धरातल वही होती है, पात्र और स्थान बदल जाते हैं. और जब मैंने शोक को सहलाया तो चाची ने एक अनोखी बात कही, जो मुझे उस बात पर अपनी निष्ठा बनाये रखने पर आमादा करती है. “पति-पत्नी साथ रहते ज़रूर हैं, साथ साथ सुख दुःख के सहभागी होते हैं, पर उनकी मंजिल अपनी अपनी होती है. वे अपनी अपनी यात्रा पूर्ण करते हुए मंजिल की ओर बढ़ते हैं. जैसे चोली और घाघरा साथ साथ ओढ़े जाते है, पर दोनों साथ साथ नहीं उधड़ते. कभी चोली पहले उधडती है, कभी घाघरा” बात तो सच है, पर सच्चाई को भी स्वीकारना कहाँ इतना आसान है? श्यामा की मृत्यू के मंजर को सामने रखते हुए बच्चन जी की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति है-
‘‘केवल मैं पथराई आंखों से श्यामा के शव को देखता बैठा रहा,
न मेरे मुंह से आह निकली, न मेरी आँखों से आंसू गिरे –
मुझे अक्षर-अक्षर रोना जो था।“
एक कलमकार खामोशियों को लिखता है जैसे हरिवंशराय बच्चन जी ने लिखा-“मुझे अक्षर अक्षर रोना जो था.” यह आंसुओं की भाषा भी अजीब है, जो कहती कुछ और है, पढ़ने वाले अपने अपने नज़रिए से पढ़ते कुछ और है. कुछ ऐसे ही खामोशियाँ भी बतियाती है. ऐसी अवस्था में वह शख्स अपने आप से जुड़ा हुआ होता है, बाहर भीतर की भावनाओं को, अपनी महसूस की हुई अनुभूति को कलात्मक आभा के साथ शब्दों में उकेर कर विकास के शिखर पर ले आता है. उनकी कलम से निकली हर बात बतियाती है, चीखती है, चिल्लाती है, कभी मुस्कराकर खिलखिलाती भी है.
यह संवेदना नहीं तो क्या है? जो ह्रदय में उमड़-घुमड़ मचा दे, और पिघलने पर अश्रु धारा बन कर बहने लगे. संवेदनात्मक ह्रदय चाहे नारी का हो या पुरुष का, आँख चाहे किसी की भी हो. दर्द की बाढ़ को बांध पाना मुश्किल होता है. जीवन में वज्रपात कितना भी कठोर क्यों न हो, ज़ख्म भरने में वक़्त तो लगता है. पत्थरों में पौधे उगने और उगाने की संभावना कम होती है, पर प्रयास सफल हो इसी आस में इंसान पत्थरों पर चलकर अपने ही पावों में छाले मंज़ूर कर लेता है. यह जीवन भी ऐसा ही एक अग्निपथ है.
“जीवन पतझर आने से/ जीवन का अंत नहीं होता”
किसी ने कितना सच कहा है, यह सब जानते हैं, मानते भी हैं, पर सुख में सुखी एवं दुःख में दुखी हो जाते है.
Life is like a coin. Pleasure and pain are the two sides. Only one side is visible at a time. But remember other side is waiting for its turn. ~ Anonymous
रोना ही नियति का वरदान था। मौत जीवन को समाप्त कर सकता है, रिश्तों को नहीं. श्यामा का चले जाना, नियति की सत्ता को स्वीकरना था और उसी दर्द की आस से उपजी ये कालजयी कवितायेँ आज भी अपनी अमिट छाप छोड़ रही…
जिन्दगी भर मैं क़लम घिसता रहा नाड़ मेरी थी कटी तलवार से
अँग्रेजी के मशहूर नक़ाद हडसन का मानना है कि- Poetry is criticism of Life. It is interpretation of life through imagination and Emotion.
अहसासों को कहाँ जरुरत होती है भाषा की
खुशबू कितनी ख़ामोशी से बातें करती है!
यही कविता है, यही संवेदना की उपज है. मानव मन इसका ठिकाना है, जहाँ भावनाएं पनपती है, सांस लेती हैं, खिलती हैं और मुरझा भी जातीं हैं. जीवन भी तो सांस से शुरू होता है और आखिरी सांस से समाप्त हो जाता है.
15
काव्यधारा-. वसीयत
वसीयत उसके सामने थी
उस पर सिर्फ़ और सिर्फ़
हस्ताक्षर करने थे!
वह जानती थी, सब कुछ जानती थी
क्या हो रहा है?
क्यों हो रहा है?
उसके मरने का इंतज़ार
हाँ, उसी का इंतज़ार था
पर,
उसके पहले ज़रूरी था
इन कोरे कागजों पर
लिखे काले अक्षरों के तले
हस्ताक्षर करना!
उसके सामने रखी वसीयत में
सभी ने अपनी चाहतों को
अपनी-अपनी जरूरतों को दर्ज किया
बस भूल गए वो मेरी चाहत
ज़रूरत तो बहुत दूर की बात थी…!
मैंने भी, लिखकर दो शब्द
हस्ताक्षर कर दिये
यही लिखा था.
‘‘आज तुम हाक़िम हो
कल तुम्हारे वंशज हुक़ूमत करेंगे,
यहाँ, इसी जगह
बिना तुम्हारी ज़रूरत जाने,
वे तुम्हारे हस्ताक्षर खुद ही कर लेंगे,
तुम्हारी उनको ज़रूरत नहीं रहेगी।
यहीं से नया इतिहास शुरू होगा।
देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत) 16 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 10 कहानी संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 16 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट- साहित्य अकादमी प्रकाशन, अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक, धारवाड़रायपुर, जोधपुर, केरल, सागर व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, एवं मीर अली मीर पुरूस्कार. 2007-राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत। 14 सितम्बर, 2019, महाराष्ट्र राज्य सिन्धी साहित्य अकादमी से ‘माँ कहिंजो ब न आहियाँ’ संग्रह के लिए पुरुस्कृत. ‘गुफ़्तगू संस्था’ की ओर से अप्रैल माह २०२१ ‘साहिर लुधियानवी जन्म शताब्दी समारोह’ के अवसर पर ‘साहिर लुधियानवी सम्मान’ हासिल.सिन्धी अनुदित कथाओं को अब सिन्धी कथा सागर के इस लिंक पर सुनिए.
https://nangranidevi.blogspot.com/ Contact: dnangrani@gmail.com

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.