Monday, May 20, 2024
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संपादकीय – ब्रिटेन के स्कूलों के भवन ख़तरनाक स्थिति में

मैं भारतवंशी हूं और अब लंदन में रहता हूं। दोनों देशों में एक-सी समस्या देख रहा हूं और तुलना करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा। एक तरफ़ सरकार स्वयं आगे बढ़ कर समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है उसके बावजूद आलोचना की शिकार बन रही है। और दूसरी तरफ़ बच्चों और कर्मचारियों के जीवन ख़तरे में हैं मगर किसी के पास न तो इच्छा है न योजना कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए।

ब्रिटेन में अभी स्कूलों में छुट्टियां चल रही हैं। सोमवार से विद्यार्थी अपने-अपने स्कूलों में वापस जाने के लिये तैयारियां कर रहे होंगे। ऐसे में अचानक एक ऐसा समाचार सामने आया जिसने पूरे शिक्षा जगत को चिंता के घेरे में ले लिया।
सरकार को पता चला है कि इंग्लैंण्ड के 156 स्कूलों के भवनों के निर्माण में कुछ ऐसी सामग्री का इस्तेमाल किया गया है जिससे भवनों के गिरने का डर रहता है। इस सामग्री को अंग्रेज़ी में Reinforced Autoclaved Aerated Concrete (RAAC) कहा जाता है। निर्माण इंजीनियरों ने चेतावनी भी दी थी कि इस सामग्री से भवनों में दरारें पैदा हो सकती हैं और विद्यार्थियों का जीवन ख़तरे में पड़ सकता है।

ब्रिटेन के शिक्षा विभाग ने उन स्कूलों को हिदायत दी है, जो कि आर.ए.ए.सी. सामग्री से बने हैं, कि वे अपने-अपने स्कूलों को तब तक बंद रखें जबतक सुरक्षा संबंधी काम पूरे न कर लिये जाएं। विभाग ने कहा है कि हो सकता है कि हमारे आदेश से आपको हैरानी हो और आपके रोज़मर्रा के कामों में अड़चनें पैदा हो सकती हैं, मगर हमारे लिये विद्यार्थियों और कर्मचारियों की सुरक्षा पहली प्राथमिकता है।
एसोसिएशन ऑफ़ स्कूल एंड कॉलेज लीडर्स ने कहा कि भवनों के ढह जाने के डर से जल्दबाज़ी में आकस्मिक योजना बनाने से एक बात साफ़ होती है कि सरकार ने स्कूल संपत्ति की ख़ासी उपेक्षा की है।
ब्रिटेन में अधिकतर दो पार्टियों का राज चलता है यानी कि या तो कंज़रवेटिव पार्टी या फिर लेबर पार्टी। इसलिये हर मंत्री पद के लिये एक ‘शैडो मिनिस्टर’ होता है। सत्तारूढ़ पार्टी का मंत्री असली मंत्री होता है और विपक्षी पार्टी अपना ‘शैडो मिनिस्टर’ घोषित करती है। यानी कि सत्ताधारी दल की ही तरह विपक्ष भी अपनी केबिनेट घोषित करता है।
यहां की शैडो शिक्षा मंत्री ब्रिजेट फ़िलिप्सन ने सत्ताधारी कंज़रवेटिव पार्टी की आलोचना करते हुए कहा कि, “यह टोरी पार्टी की घोर अक्षमता का उदाहरण है।”
उन्होंने अपनी बात को जारी रखते हुए आगे कहा कि, “बच्चे छुट्टियों के बाद स्कूलों में आने वाले हैं और इंग्लैंड के दर्जनों ऐसे स्कूल हैं जो ढहने की कगार पर खड़े हैं। सच तो यह है कि हमारे मंत्री एक लंबे अरसे से इस अराजकता को खींचते चले आ रहे हैं।”
नेशनल एसोसिएशन ऑफ़ ‘हेड टीचर्स’ (प्रिंसपल) के महासचिव पॉल व्हाईटमैन ने कहा कि उनके संघ ने बार-बार इस ख़तरे के बारे में चिन्ता जताई थी। “यह समाचार चौंकाने वाला तो है मगर दुख की बात यह है कि यह बहुत हैरान करने वाला नहीं है। ये सब एक दशक से स्कूल भवनों पर ख़र्च में कटौती का परिणाम है।”
विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों की सुरक्षा को लेकर सरकार की चिन्ता वाजिब है। मगर सरकार द्वारा यह निर्णय बहुत ग़लत समय पर लिया गया है। बच्चे अगले सप्ताह गर्मियों की छुट्टियों से लौटने वाले हैं। इससे स्कूलों के प्रधानाचार्यों पर भारी दबाव पड़ेगा क्योंकि उन्हें वैकल्पिक भवन की व्यवस्था करने के लिये संघर्ष करना होगा।
शिक्षा विभाग ने स्कूलों के नाम ज़ाहिर नहीं किये जिन्हें नये भवन तलाशने के लिये कहा गया है। उन्होंने यही घोषणा की है कि कुछ स्कूलों से कहा गया है कि वे या तो पूरी तरह से या फिर ज़रूरत के हिसाब से आंशिक रूप से विद्यार्थियों के लिये वैकल्पिक भवन का इंतज़ाम करें जब तक कि सुरक्षा नियमों के अनुसार वर्तमान स्कूल भवनों की ठीक से मरम्मत ना कर ली जाए।
वहीं निराश अभिभावकों ने सोशल मीडिया पर अपना ग़ुस्सा व्यक्त किया है। उनका कहना है कि दो दिन में स्कूल खुलने वाले हैं और स्कूल मैनेजमेन्ट को इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सौंप दी गई है।
शिक्षा सचिव (ब्रिटेन में मंत्री को सचिव कहा जाता है) जिलियन कीगन ने कहा, हमारे लिये सबसे अधिक महत्वपूर्ण है स्कूल और कॉलेजों के विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों की सुरक्षा। इसीलिये हमें जैसे ही आर.ए.ए.सी. के बारे में नये सुबूत प्राप्त हुए, हमने स्कूल खुलने से पहले ही ये कदम उठाए हैं।
हमें इस मुद्दे पर सतर्क रवैया अपनाना होगा। यही विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों के हित में होगा। हमने जो योजना बनाई है इससे बच्चों की पढ़ाई पर न्यूनतम असर होगा और स्कूलों को सही तरह से अनुदान भी प्राप्त हो पाएगा ताकि वे आर.ए.ए.सी. से पैदा हुई मुश्किलों का ठीक से सामना कर सकें।
शिक्षा विभाग ने यह भी दावा किया है कि स्कूलों को वैकल्पिक भवन ढूंढने के लिये वित्तीय सहायता भी उपलब्ध करवाई जाएगी। हर स्कूल के लिये एक सहायक नियुक्त किया जाएगा जो कि उनकी समस्या को सही ढंग से निपटाने में मददगार होगा।

एक यू.के. ब्रिटेन है तो दूसरा यू.के. भारत में है उत्तराखंड। वहां से समय समय पर स्कूलों के जर्जर भवनों का समाचार आता रहता है। वहीं से नहीं, भारत के तमाम राज्यों के सरकारी स्कूलों के बारे में समाचार आते रहते हैं कि वहां स्कूलों के भवन ‘अब गिरे कि तब गिरे’ की स्थिति में हैं। मगर कभी ऐसा समाचार पढ़ने को नहीं मिलता कि राज्य सरकारें इन मामलों में कुछ सकारात्मक कदम उठा रही हैं।
पिछले कई वर्षों से सवाई माधोपुर, देहरादून, बस्ती, बिलासपुर, सिवनी, महाराजगंज, सतना जैसे शहरों से स्कूलों में बच्चों की जान भवनों के कारण ख़तरे में बताई जाती रही है। भारत के तमाम समाचारपत्र इन ख़बरों से अटे पड़े हैं। बहुत से स्कूलों में बच्चे बरामदों में पढ़ने को मजबूर हैं तो कहीं पेड़ के साये तले।
देश की राजधानी दिल्ली के दक्षिण-पूर्व दिल्ली के मोलारबंद इलाके में दिल्ली सरकार के 11 स्कूलों के लगभग 40 हजार बच्चे पिछले 4 वर्षों से मजबूरन पोर्टा-केबिन या सीधे शब्दों में कहें तो टीन शेड की बनी क्लासरूम्स में पढ़ने को मजबूर हैं। बताया जा रहा है कि मोलारबंद एरिया में 11 स्कूलों के बच्चे हैं जो बेहद विषम परिस्थितियों में पढ़ रहे हैं।
पिछले 4 वर्षों के लम्बे इंतजार के बावजूद अभी तक इन स्कूलों में चल रहे निर्माण कार्य पूर्ण नहीं हो सके हैं जिसके चलते ग़रीब परिवार के बच्चे आर्थिक तंगी होने के चलते पोर्टा-केबिन के क्लासरूम्स में पढने को मजबूर हैं। उनके पास इतने पैसे नहीं है कि वो किसी प्राइवेट स्कूल में अपनी पढ़ाई जारी कर सकें। इन हालात में गर्मी के मौसम में बच्चे किस कदर कष्ट में पढ़ाई करते होंगे इसका अंदाज़ा लगाना कठिन नहीं है। सोचा जा सकता है कि टीन शेड के नीचे बाहर का तापमान क्या होता होगा। साथ में यह भी बताया जा रहा है कि इन पोर्टा स्कूलों में बुनियादी सुविधाएं भी बच्चों को मुहैया नहीं करायी जा रही हैं – जैसे कि पीने के पानी की भी उचित व्यवस्था नहीं है और न ही अन्य कोई सुविधाएं।
स्कूल प्रशासन का कहना है कि हमने कई बार दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग को पत्र लिख कर अपनी समस्याओं से अवगत कराया परन्तु अभी तक विभाग की ओर से कोई भी संतोषजनक जवाब नहीं मिला है। साथ में यह भी बताया कि जिन नये भवनों का निर्माण किया गया है या किया जा रहा है उनमें भी कई आधारभूत आवश्यकताओं को दरकिनार किया गया है जिसके चलते भी आने वाले समय में परेशानियाँ बढ़ेंगी न कि कम होंगी।
मैं भारतवंशी हूं और अब लंदन में रहता हूं। दोनों देशों में एक-सी समस्या देख रहा हूं और तुलना करने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा। एक तरफ़ सरकार स्वयं आगे बढ़ कर समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है उसके बावजूद आलोचना की शिकार बन रही है। और दूसरी तरफ़ बच्चों और कर्मचारियों के जीवन ख़तरे में हैं मगर किसी के पास न तो इच्छा है न योजना कि कैसे इस समस्या से निपटा जाए।
तेजेन्द्र शर्मा
तेजेन्द्र शर्मा
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.
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37 टिप्पणी

  1. शिक्षा को लेकर भारत में सरकारों का एकही कंसर्न रहा है कि कोर्स में क्या पढ़ाया जाये । अन्य मूलभूत सुविधाएं मुहैया कराना कभी कोई विचारणीय विषय रहा ही नहीं है । स्कूलों की क्या स्थिति है, शिक्षक हैं या नहीं, पढ़ाते हैं या नहीं _इन सब पर ध्यान देना ज़रूरी नही समझा गया । लेकिन अब कुछ स्थानों में परिवर्तन होने लगे हैं । हम भविष्य के प्रति आशावान हैं।
    यू के के स्कूलों की दयनीय स्थिति ने अचंभित कर दिया । समय रहते सही कदम नहीं उठाए ,लेकिन देर से ही सही, सरकार चेती तो । बड़ी दुर्घटना की संभावना को अब दूर किया जायेगा। देर आए- दुरुस्त आये ।
    अच्छा आलेख पढ़ने को मिला, इसके लिए धन्यवाद!

    • रचना, यूके और भारत की स्थिति में एक मूलभूत अंतर यह है कि ब्रिटेन में सरकार ने समय रहते कदम उठाए हैं और विद्यार्थियों एवं कर्मचारियों की सुरक्षा सर्वोपरी है।

  2. आदरनीय सर हमने हमेशा कहा है आपके सम्पादकीय नीर क्षीर विवेक की कसौटी पर कसकर लिखे जाते है। शायद इसीलिए विषय की गंभीरता को, उसके प्रति आपकी चिंता को आसानी से समझा जा सकता है। ब्रिटेन जैसे सुविधा संम्पन्न देश मे स्कूलों के निर्माण में इतनी बड़ी चूक स्वीकार्य नही है। किंतु ये भी सच है ब्रिटेन हो या जर्मनी अपने नागरिकों के जीवन के प्रति संवेदन शील है, उन्हें खतरे में नही डालते, सरकार समस्या की जानकारी होते ही सक्रिय हो जाती है, किन्तु एक सच ये भी है जो आपने कहा भारत के UK या अन्य राज्यों के भी प्राथमिक, राजकीय विद्यालय राम भरोसे है। न जान की चिंता न बच्चो के भविष्य की। चिंता है तो बस माल की। सरकार जाग्रत हो भी जाये तो तंत्र कुम्भकरण है यदि छठे छमाही गलती से जग भी जाए तो भ्रष्टाचार की जड़ें इतनी पुख्ता है कि स्कूलों की बुनियादी सुविधाओ तक पहुँचना भी नामुमकिन है। आपके संम्पादकीय को दोनों देशों के सरकारी तंत्र एवं स्कूलों के प्रबंधन को अवश्य पढ़ना चाहिए और parents को भी। साधुवाद आपको।

  3. हमने बचपन और युवावस्था में बहुधा सुना करते थे कि राष्ट्र का वास्तविक धन बैंकों में नहीं वरन विद्यालयों में सुरक्षित है। और यह और यह है भी औचित्य पूर्ण तथा वर्तमान परिपेक्ष में प्रासंगिक भी है ।
    पुरवाई के विद्वान संपादक आदरणीय श्री तेजेंद्र शर्मा ने भारत और ब्रिटेन के शिक्षा के मूल ढांचे यथा विद्यालयों की या सही अर्थों में स्कूली इमारतों की गहन रूप से पड़ताल की है। जो निश्चित रूप से सत्यता का पुट लिए हुए शिक्षा में व्याप्त वर्तमान स्थिति को रेखांकित करती है।
    यूं भी ग्लोकल होती दुनिया अब अधिक ध्रुवी और बनावटी होती जा रही है। रूस और यूक्रेन युद्ध में उसे मध्यस्थता कर निपटने की बजाय हथियारों और धन के पैकेज या सहायता पैकेज बड़े-बड़े देशों द्वारा रोज समाचार पत्रों की सुर्खियों में आते रहते ।क्या ही अच्छा होता के ब्रिटेन जैसी महाशक्ति अपने स्कूलों की ओर समुचित ध्यान देती ?
    आदरणीय शर्मा जी ने सर्वसाधारण को ब्रिटेन की पार्लियामेंट्री या राजशाही में लोकतांत्रिक व्यवस्था का भी हवाला दिया है जिसमें सत्ताधारी पार्टी और उसके मंत्रियों का विपक्ष और नियुक्त शैडो मिनिस्टर के द्वारा जनहित कार्यों की जांच पड़ताल!? यह एक व्यवस्था को बेहतर करने का कारगर तरीका है काश ऐसा ही तरीका या व्यवस्था,,,,काश हमारे भारतीय लोकतंत्र में भी होती। भारत के इतिहास को अगर देखें तो पक्ष और विपक्ष में सदैव ही ठनी रहती है कभी बड़े मुद्दे कभी छोटे मुद्दे और उनकी परिणीति छोटे-छोटे चुनाव या राजनैतिक छूटभईये दलों ,समूहों में होती है जिससे देश का पैसा ऐसी आलतू फालतू राजनीतिक गतिविधियों में जाता है और उसमें शिक्षा या इस तरह के महत्वपूर्ण मुद्दे सही अर्थों में Below Poverty लाइन यानी गरीबों की रेखा के नीचे कहीं रसातल में समा जाते हैं ।
    अस्तु शिक्षा व्यवस्था की नीव यानी स्कूली इमारत पर यह एक अच्छा और
    तथ्यात्मक संपादकीय है !!!
    जिसकी चर्चा सोशल मीडिया से इधर अन्य मंचों पर भी होनी चाहिए।

    • भाई सूर्यकांत जी आपकी टिप्पणी संपादकीय की तमाम दृष्टिकोणों से पड़ताल करती है। हार्दिक आभार।

  4. हम भारतीय ईश्वर पर विश्वास करने वाले आस्तिक जन, जीवन मृत्यु के लिए चिन्तित नहीं होते । जिसकी मौत जैसे लिखी होगी, जब लिखी होगी उसी प्रकार से होगी। बच्चे बचपन से कठिनाइयों को झेल कर विकसित होते हैं। सबसे बड़ी शिक्षा यही है। ऐसे में स्कूल की इमारतों जैसी छोटी मोटी बातों को मुद्दा नहीं बनाया जाता।
    यहांँ पर्याप्त जनसंख्या है। इसलिये कुछ जानें अगर चली भी जाती हैं तो फ़र्क नहीं पड़ता। जिन देशों में जनसंख्या कम होती है, वहांँ जान माल की चिन्ता करना वाज़िब है।
    बस दिल्ली की बात सुन कर हैरानी हुई। क्योंकि केजरीवाल अपने इसी हुनर पर जीतते आए हैं हैं कि उन्होंने स्कूलों में क्रांतिकारी सुधार किये हैं।
    हर बार की तरह एक और महत्वपूर्ण मुद्दे पर जानकारी देते हुए सम्पादकीय के लिए हार्दिक आभार।

  5. आपने अपने संपादकीय में बहुत ही ज्वलंत और सार्थक मुद्दा उठाया.है.आज.सचमुच शिक्षा सवालों के घेरे में आ गई है..भारत में भी हजारों स्कूल सिर्फ कागजों पर चलते हैं..और जो सुदूर इलाकों में.हैं उनके पास भवन नहीं .हैं भी तो.जर्जर हालत में .अत:पेडों के नीचे बैठकर पढाई होती है.वर्षा हुई तो उस दिन पढाई बंद..शिक्षक भी योग्य और संवेदनशील नहीं हैं.निजी.स्कूलो में ये सर्वहारा बच्चे नहीं पढ सकते .सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने की दिशा में कोई ठोस ओर सार्थक पहल नहीं करती .परंतु लंदन जैसे साधन संपन्न देश में भी शिक्षा उपेक्षित हो .स्कूल भवन न हों तो बात सचमुच चिंतनीय हो जाती है ..आज हम.चांद सूरज को छू रहे हैं परंतु उन भविष्य के वैज्ञानिक गढने वाले मन्दिरों की ओर ध्यान नहीं देते .आखिर बच्चे कहां जायें ???क्या शिक्षा और विद्यालय उनके नैतिक अधिकार नहीं.हैं.?.कम से कम लंदन के विषय में मै ऐसा नहीं सोचती थी..आज आपके संपादकीय ने सचमुच आंखें खोल दी हैं..हमारी.सरकारों को जरूर कोशिश करनी चाहिए..आपके प्रशंसनीय सारगर्भित संपादकीय का.हर.सवाल एक चुनौती है समाज. सरकार और जिम्मेदार लोगो के सम्मुख…इसे स्वीकार करें ..धन्यवाद भाई सुप्रभात. प्रणाम

    • पद्मा आपने दोनों देशों के स्कूलों की स्थितियों की तुलना करते हुए सार्थक टिप्पणी लिखी है। हार्दिक आभार।

  6. पढ़ा नॉर्मल बातें हैं ये सर हर कहीं अब तो कोई भावनाएं भी नहीं उठती इसे लेकर। आम खबर जैसा बन गया है।

    कभी कभी मुझे राजनीतिक तौर से सोचने पर लगता है ये सब सही है। बल्कि मोदी सरकार फिर से आए और इतनी ज्यादा महंगाई हो इतनी ज्यादा बेरोजगारी हो की लोग बच्चे पैदा करने से तो डरे शादी के नाम पर भी भय खाने लगें। बल्कि ये पूरी दुनिया में होना चाहिए। और जिस तरह से मैं आध्यात्मिक स्तर पर सोचता हूं तो ये राजनीतिक बातें सही लगी हैं। कलियुग की अभी शुरुआत भी नहीं हुई। जैसा हमारे शास्त्र या संत लोग कहते हैं कि कलियुग घोर कलियुग में जब बदलेगा तो हालात कैसे होंगे। मैं चाहता हूं वो घोर कलियुग जल्दी आए। कल्कि अवतार हो और दुनिया खत्म हो जाए।

    हो सकता है ये बातें आप सभी को नकारात्मक लग सकती है लेकिन लॉक डाउन में जब सरकार ने देश बंद किया मैं बहुत नाराज था अंदर से। की नही करना चाहिए था। मरने दो इटली etc देशों की तरह लोगों को। क्योंकि मैं धरती पर बढ़ रहे अति बोझ से व्यथित होता हूं मुझे दुख होता है मेरी धरती मां के लिए।

    ये टिप्पणी शायद मेरी किसी और दिशा में चली गई लगे आपको लेकिन सच यही है और यही होगा मैं 100 नही। 1000% आश्वस्त हूं की सतयुग आएगा। लेकिन कलयुग को खत्म होने पर। और कलियुग के अभी शास्त्रों में निर्धारित किए गए समय का 1% भी नहीं गुजरा है। अभी तो मान के चलो त्रेता और द्वापर का मिला जुला ही चल रहा है।

    • तेजस आज यदि कोई मुझे से पूछे कि आज की युवा की सोच किस तरह कन्फ़्यूज़्ड है… तो आपकी यह टिप्पणी उसका बेहतरीन उदाहरण है। आपको अपना गोलपोस्ट नहीं भूलना है… जब एक विषय पर बात हो रही है तो अपना फ़ोकस टिप्पणी लिखते समय भी बनाए रखें। स्नेहाशीष।

      • बहुत सही जवाब तेजेंद्र जी , आज का युवा जागृति के ढोंग के जंगल में दिशाभ्रष्ट हो रहा है । इन्हे बरगलाने वाले कन्हैया और केजरी जैसे तमाम लोग मौजूद है जिन्होंने सत्ता विरोध की ऐसी अफीम चटाई है जिस कारण ये लोग आंखे खोलकर सच्चाई देखने की जहमत नहीं कर सकते। जिन बातों के लिए वास्तव में विरोध होना चाहिए , उनकी ओर से आंखे बंद करके कुछ अपने ही गढ़े हुए मानकों पर विरोध करते हैं

  7. In your Editorial of today you have spoken about the importance of safe school buildings and expressed your concern over the security of the school- going children when the school building s fall short of providing their students with requisite security n facilities.
    You have also touched upon the plight of our Indian school buildings.
    An issue which is as important as the curriculum of the schools and which should be given due attention.
    A timely message indeed.
    Warm regards
    Deepak Sharma

    • Deepak ji, the Purvai editorial clarifies the difference in attitude. The British Government has been pro-active in the matter of safety of Students and Employees. But the administration of dilapidated buildings of Indian Schools gets no response from the State Governments of India. In India the subject of Education is a State Subject.

  8. यू के में शिक्षण सस्थानों की जर्जर व्यवस्था पर जानकारी दी. साथ ही भारत इन्हीं अराजकताओं से जूझ रहा है . विडंबना ही है कि स्कूल का बोर्ड बनाने लगाने में 25-30 लाख साल दर साल खर्च हो सकते हैं क्योंकि सिफारिश पार्षद /विधायक कोई भी करा देता है . पर मूलभूत आवशकाएँ मुँह बाय विकराल रूप लेती जा रही है समाधान की किसी से गुंजाइश नहीं .

    • दीपक जी आपको कोई ग़लतफ़हमी सी हो गई… यूके में शिक्षण संस्थानों की जर्जर व्यवस्था नहीं है। यहां की सरकार ने भवनों का निरीक्षण किया और पाया कि उनमें कमियां हैं। उन्होंने स्कूल बंद करने का आदेश दे दिया। भारत में स्कूल एडमिनिस्ट्रेशन सरकार से गुहार लगाती है मगर कोई जवाब नहीं आता।

  9. प्रिय तेजेंद्र जी
    आलेख बहुत अच्छा बन पड़ा है , आपके द्वारा अपनाए हुए देश में सरकार की आलोचना देश द्रोह नहीं है , लोग अपने हाल हालूँ के लिए ख़ुद भी जागरूक हैं इसलिए कमियों को दूर करना आसान है . यह जो शैडो मिनिस्टर की अवधारणा है वह विपक्ष को अधिक ज़िम्मेवार बनाती है , उसके साथ ही साथ मीडिया भी जागरूक है जो विपक्ष द्वारा उठाये गए मुद्दे को पर्याप्त स्पेस देता है
    मुझे बहुत अच्छा लगता है आप ऐसे गंभीर मुद्दों को अपने पाठकों तक पहुँचते हैं और शांत झील में पत्थर फेंक कर हलचल पैदा कर देते हैं
    Keep it up Boss

    • प्रदीप भाई आपकी टिप्पणी महत्वपूर्ण है। शैडो मिनिस्टर वाला सिस्टम भारत में संभव नहीं है।

  10. स्कूलों की तुलना करने वाला आपका संपादकीय आंखें खोलने वाला है। भारतवर्ष में स्कूलों की स्थिति दो प्रकार की है,,निजी स्कूलों में सुविधा विश्व स्तरीय हैं और सरकारी स्कूल अति दयनीय दशा में है, कारण अब तक की भ्रष्ट सरकारें ही होनी चाहिए।
    शायद सरकार स्कूलों के प्रति अति प्राचीन भारतीय सूक्ति को ही आधार मानती हो जिसमें कहा गया है”” सुखार्थीनो कुतो विद्या? ,विद्यार्थिनों सुख:कुतम्?, (सुख की इच्छा वाले को विद्या नहीं मिलती और विद्या प्राप्त के लिए सुख का त्याग करना पड़ता है)
    बच्चों के लिए एक और भी उक्ति है- ,लाड़येतु पंच वर्षाणि,दश वर्षाणि तु ताड़येत्,,5 वर्ष की आयु में जब बच्चे की औपचारिक शिक्षा आरंभ होती है ,तब वह अगले 10 वर्षों तक केवल ताड़ना का अधिकारी रह जाता है,
    संभवत: इन उक्तियों को चरितार्थ करने के लिए ही अब तक की सरकारों ने भारत के स्कूली भवनों के रखरखाव और सुख सुविधाओं पर कोई ध्यान नहीं दिया!!!!

    • सरोजिनी जी संपादकीय में दोनों देशों के सरकारी स्कूलों की तुलना ही की गई है। सार्थक और सारगर्भित टिप्पणी के लिये हार्दिक आभार।

  11. अद्भुत बात है पर ब्रिटेन में संरचना ध्वस्त होने के पहले संवर जाएगी ये तय है ।
    साधुवाद
    Dr Prabha mishra

  12. तेजेंद्र सर नमस्कार
    दोनों देशों का तुलनात्मक अध्ययन बहुत बढ़िया ढंग से किया गया है। यूके के देशों की जर्जर व्यवस्था की जानकारी दी।
    भारत में भी सरकारी स्कूलों की स्थिति जो है वह बहुत ही दयनीय है।

    • डॉ. मुक्ति जी यूके के स्कूलों की जर्जर व्यवस्था की बात संपादकीय में कहीं नहीं है। पूरे ब्रिटेन में 104 स्कूलों की इमारत में इस्तेमाल की गई सामग्री की जांच सरकार ने स्वयं करवाई है और स्कूलों को निर्देश दिया है कि जब तक सुरक्षा कदम न उठाए जाएं तब तक वर्तमान भवनों में क्लासें न लगाई जाएं। भारत में सरकार का रवैया ढुलमुल है।

  13. आपका आज का संपादकीय ‘ब्रिटेन के स्कूल ख़तरनाक स्थिति में ‘ में आपने भारत के विशेषतया बहुप्रचारित दिल्ली के स्कूलों तथा ब्रिटेन के स्कूलों का तुलनात्मक अध्ययन किया है।
    निश्चय ही ब्रिटेन भारत से विकसित देश है। उसके स्कूलों का रखरखाव भी अच्छा है तभी स्कूल की इमारत के बारे में पता लगने पर तुरंत एक्शन लिया गया जबकि भारत में ऐसा संभव नहीं है। ब्रिटेन में मिडिल स्कूल तक राजकीय अनुदान प्राप्त स्कूल ही हैं तथा सभी बच्चे उन्हीं में पढ़ते हैं।

    एक समय था ज़ब भारत में भी राजकीय एवं केंद्रीय विद्यालय थे, उनकी पढ़ाई भी अच्छी थी क्योंकि ज्यादातर सरकारी तथा प्रतिष्ठित व्यक्तियों के बच्चे पढ़ते थे किन्तु जब से प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ आई तबसे इन स्कूलों में शिक्षा का स्तर गिरता गया।

    आपने शेडो कैबिनेट की बात की है इस बारे में मैंने राजनीति शास्त्र से एम. ए. करते हुए पढ़ा था किन्तु भारत में इतनी पार्टियों के झुंड में ऐसा संभव ही नहीं है। बिडंबना यह है कि यहाँ सकारात्मक विरोध नहीं होता। विरोध करने के लिए विपक्षी किसी हद्द तक जा सकते हैं।
    एक अच्छे संपादकीय के लिए बधाई आपको।

  14. सुधा जी हमेशा की तरह आपकी टिप्पणी संपादकीय को डिटेल्स में समझने के बाद लिखी गई है। आपने महत्वपूर्ण बिन्दुओं को उठाया है। हार्दिक आभार।

  15. नमस्कार तेजेन्द्र जी
    सदा की भाँति ज्वलंत समस्या को लेकर आपने दो बिलकुल विपरीत वातावरण के देशों की बात की है।
    इसमें कोई संशय ही नहीं है कि आप एक सचेत, सजग पत्रकार हैं। जिसके लिए आपको प्रत्येक नए संपादकीय के लिए साधुवाद है।
    बरसों से ‘ग्लोबल’ की बातें सुनी जा रही हैँ।
    अच्छी बात है ‘थिंक ग्लोबली’! मैं इतनी बौद्धिक नहीं हूँ किंतु आपके संपादकीय कुछ सोचने पर मजबूर तो करते हैं।
    आपका यह आलेख देश की सरकार तक पहुंचना चाहिए। शायद कुछ बेहतरी के लिए आँखों में शर्म उतरे और जो केंद्र की बेहतर व्यवस्था के बाजे बज रहे हैं, उनके स्वर धीमे पड़कर वास्तविक स्थिति को समझा जा सके।
    वैसे ब्रिटेन जैसे देश के बारे में जानकर आश्चर्य हुआ, वहाँ तो सुधार हो ही जाएगा किंतु – – – – -??
    धन्यवाद इस समसामयिक विषय पर इतनी सटीक बात रखने के लिए।
    साधुवाद आपको

  16. शिक्षा जो कि सबसे महत्त्वपूर्ण और किसी भी समाज की प्राथमिक आवश्यकता है ,उस शिक्षा के मन्दिरों की बदहाल स्थिति पर बहुत कष्ट होता है,।ब्रिटेन जैसे देश का यह हाल है यह अत्यंत ही शोचनीय है ,लेकिन वहाँ की सरकार इसे लेकर सचेत हो गई है पर अपने देश के ये विद्या मन्दिर और इसमें पढ़ने वाले नौनिहालों की स्थिति में कब परिवर्तन आएगा …? आपका संपादकीय ऐसी ज्वलंत समस्याओं को उठाता है ,इसे पढ़कर सम्भवतः हमारे नेता इस विषय में कोई ठोस कदम उठा सके !

  17. सार्थक व सटीक संपादकीय। साधुवाद।
    भारत में ऐसी छोटी-छोटी बातों पर ध्यान देने के लिए समय ही नहीं है। लैंपपोस्टों केनीचे बैठकर शिक्षा ग्रहण करने की आदत है यहाँ के बच्चों को।
    नेताओं के लिए महत्त्वपूर्ण है भ्रष्टाचार।

  18. आदरणीय तेजेंद्र जी
    आपके संपादकीय का शीर्षक ही हमारे लिए हमेशा की तरह चौंका देने वाला रहा। भारत में तो अक्सर यह दिखाई भी देता है और सुनाई भी, पर ब्रिटेन के बारे में पड़कर आश्चर्य हुआ।आश्वस्त करने वाली बात यह है कि वहाँ सरकार स्वयं निपटने का प्रयास कर रही है पर भविष्य के खतरों के प्रति, वह भी स्कूल के भवन संबंधी; सावधानी पूर्व में ही अपेक्षित थी, जब स्कूल बंद हुए थे। विचारणीय तो यह भी था कि निर्माण के समय इंजीनियरों की चेतावनी के बाद भी आरएएसी का उपयोग किया ही क्यों गया?
    यह उचित है कि कर्मचारियों और विद्यार्थियों की सुरक्षा की दृष्टि से वहाँ कदम उठाए जा रहे हैं कुछ करने की कोशिश तो कर रही है! पर भारत का तो हाल ही बेहाल है।
    विपक्षी पार्टी द्वारा “शैडो मिनिस्टर” वाली बात प्रशंसनीय लगी ।काश यहाँ भी ऐसा हो पाता।
    भारत में पाए जाने वाले जितनी जगहों के नाम आपने दिये ,स्थिति उससे भी ज्यादा बदतर है। गांँवों के सरकारी स्कूलों की तो यहाँ गिनती ही नहीं है।
    वहांँ सरकार समस्या से निपटने का प्रयास कर रही है यह संतोषजनक बात है और सराहनीय भी है पर अगर आलोचना हो रही है तो शायद वह इसलिए कि ‘वक्त पर ही क्यों!’जब स्कूल की छुट्टियांँ हुई थीं तभी बारिश में होने वाली संभावित परेशानियों के बारे में विचारकर निराकरण क्यों नहीं किया गया? स्कूल खुलने के वक्त ही यह सब ध्यान क्यों आया?
    भारत की तो बात ही अलग है। यहांँ तो हादसों के बाद भी कोई कार्यवाही हो इसकी गैरंटी नहीं है। सरकार दुर्घटनाओं के पश्चात अपने लाभ को ध्यान में रखकर पैसे देने की उदारता दिखाने में ज्यादा तत्पर रहती है। किसी की जान की कीमत उसके सामने नगण्य है।
    बच्चे देश का भविष्य होते हैं अतःशिक्षा पर ध्यान देना सबसे अधिक जरूरी होता है पर जब खेवनहार ही नाव को डुबोने की ठानकर बैठा हो तो रक्षा के लिये नजर किसे तलाशे?
    मांझी जो नाव डुबाए उसे कौन बचाए?
    यह प्रश्न सदैव प्रश्न ही रहेगा।
    सरकारी स्कूलों की दशा दयनीय है और प्राइवेट स्कूल इतने अधिक प्रोफेशनल है कि उनका एक ही उद्देश्य रहता है कि पालकों को किस तरह लूटा जाए? गुणवत्ता से उनका दूर-दूर तक कोई लेना देना नहीं होता।
    बहुत कम प्राइवेट स्कूल ऐसे हैं जो पढ़ाई पर ध्यान देते हैं।
    आपने एक महत्वपूर्ण विषय उठाकर सबका ध्यान इस और आकर्षित किया है। संभवतः किसी को होश आए!
    आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।

    • नीलिमा जी, आपने तो नया संपादकीय ही लिख डाला। इतनी विस्तृत टिप्पणी के लिए हार्दिक आभार।

  19. शिक्षा किसी भी राष्ट्र की रीढ़ होती है और इसके साथ लापरवाही, भविष्य को छिन्न-भिन्न करने जैसा है , शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थी जीवन, राष्ट्र की धुरी है ।
    आपने तुलनात्मक तथ्य प्रस्तुत किया है, हैरानी की बात यह है कि वह भी इंग्लैंड जैसा विश्वव्यापी राष्ट्र

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