Saturday, July 27, 2024
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डॉ. आशा रानी का लेख – साहित्य में शारीरिक भाषा और समाज भाषाशास्त्र

भाषा का समाजशास्त्र ’ का संबंध समाज एवं उनके संस्थान से है। भाषा केवल विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम ही नही है, बल्कि एक कथ्य भी है, जो सामाजिकता के साथ-साथ अस्मिता और द्वेष का कारण बनता है। भाषा-नियोजन के लिए सभी पक्षों… मानकीकरण, आधुनिकीकरण आदि पर भी विचार करता है, जबकि ’समाजोन्मुख भाषाविज्ञान’ भाषा-भेद का आधार सामाजिक प्रकार को माना जाता है,  भाषा को सामाजिक प्रतीक मानते हुए उसका विश्लेषण किया जाता है और भाषा तथा समाज की संकल्पनाएं एक दूसरे के घात-प्रतिघात के रूप में दिखाई देता है। अतः इसके दृष्टिकोण को घात-प्रतिघातवादी भी कहा जाता है, जबकि ’समाज-भाषाविज्ञान’ भाषा और समाज के संबंधों को भाषाविज्ञान के अपने संदर्भ से पृथक् नहीं मानता। उसकी दृष्टि में भाषा स्वयं में एक सामाजिक वस्तु है, अतः उसकी मूल प्रकृति में ही सामाजिक तत्त्व समाहित हैं। ये तत्त्व ही भाषा को विषमरूपी और विकल्पन युक्त बनाते हैं। पहले दृष्टिकोण को लेकर काम करने वालों में ’फिशमैन’ (1972) दूसरे दृष्टिकोण को मानने वालों में ’गम्पर्ज’ (1973) और ’फग्र्यूसन’ (1959) तथा तीसरे दृष्टिकोण को स्वीकार कर चलने वालों में ’लेबाव’ (1972) प्रमुख हैं।
भाषा, व्यक्ति और समाज अन्योन्याश्रित हैं। भाषा, व्यक्ति को समाज से जोड़ती है तथा व्यक्ति और समाज के मध्य एक कड़ी का काम करती है। भाषा, व्यक्ति को समाज के पूर्व कार्यकारी सदस्य के रूप में कार्य करने की सुविधा प्रदान करती है। दूसरी ओर व्यक्ति, भाषा के द्वारा अपने निजी व्यक्तित्व का विकास एवं उसकी अभिव्यक्ति करता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व का प्रभाव उसके अभिव्यक्तीकरण व्यवहार पर भी पड़ता है।  और यह भी सच है, कि प्रत्येक व्यक्ति के अनुभवों, विचारों, आचरण-पद्धतियों, जीवन-व्यवहारों एवं कार्य-कलापों की निजी विशेषताएँ होती हैं।  तात्पर्य यह कि भाषा में कुछ तत्त्व ऐसे होते हैं, जो व्यक्तियों के आन्तरिक भावों, उनके पारस्परिक संबंधों और सामाजिक-व्यवस्था को प्रकट करते हैं और यही वे तत्त्व हैं, जो भाषा, व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से जोड़ते हैं। उदाहरण के लिए ऐसे तत्त्वों में सर्वनामों का प्रयोग जहाँ सामाजिक संबंधों को समझने में विशेष सहायक होता है, वहीं किसी समाज के मनोविज्ञान को समझने के लिए उसकी संबोधन शब्दावली एक महत्त्वपूर्ण और उपादेय सामग्री सिद्ध हो सकती है।  यूँ तो सर्वनाम-प्रयोग हो या फिर नाम-प्रयोग अथवा भाषेत्तर कतिपय नयी निश्चित मुद्राओं एवं भाव-भंगिमाओं का प्रयोग…चयनात्मक मानदण्ड वक्ता के पूरे व्यक्तित्व को संकेतित कर देता है। इसीलिए ’कालरा’ सर्वनाम-प्रयोग को सामाजिक-संबंधों को समझने में सहायक मानते हुए भी स्वीकारते हैं कि ’सर्वनाम का चयन वक्त के पूरे व्यक्तित्व का द्योतक है और पूरे सामाजिक-संदर्भ में उसकी स्थिति को स्पष्ट कर देता है।’
अभिव्यक्ति भाषायी व्यवहार में प्रतिफलित होती है। सर्जक अथवा वक्ता के मन में जो भाव उद्धृत होते हैं उन्हें वह शीघ्रातिशीघ्र व्यक्त कर देना चाहता है। वक्ता अपने वाग्यंत्रों या वाक् अवयवों की सहायता से कुछ विशिष्ट ध्वनियाँ का उच्चारण करता है। इस उच्चारण में अन्तस् के भाव, जिन्हें वह श्रोता तक पहुँचाना चाहता है सन्निहित रहते हैं। भाषा को परिभाषित करते हुए भी कहा गया है कि ’भाषा मुखोच्चरित यादृच्छिक ध्वनि प्रतीकों की वह व्यवस्था है जिसके सहारे एक निश्चित समुदाय के व्यक्ति आपस में विचार-विनिमय अथवा स्वयं विचार करते हैं।’
 इस प्रकार भाषा मूलतः मुखोच्चरित ध्वनियों का सार्थक समूह है, जिन्हें वक्ता अपने भावों या विचारों से दूसरों को अवगत कराने के लिए ध्वनियंत्रों से उत्पन्न करता है। भाषा का मूल रूप मौखिक होता है। मौखिक भाषा को ही लिपि चिह्नों द्वारा दृश्य रूप दिए जाने पर भाषा के लिखित रूप का जन्म होता है।
मनो-भाषाशास्त्र के विकास में ’नोम चाॅम्स्की’ ने एक नए युग का सूत्रपात किया। उसके भाषावैज्ञानिक विचारों से स्पष्ट था कि ’भाषा मानवीय बुद्धि का जैविक गुण है। भाषा का आदर्श रूप बुद्धि में जन्मजात ही होता है और उसको बाह्य रूप में सार्थक बनाने के लिए एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया काम करती रहती है, किन्तु भाषा का सार्थक प्रयोग मनुष्य की बोधात्मक और अनुभूतिपरक क्षमता पर निर्भर करता है।’  अतः भाषा का आदर्श व्याकरणिक रूप एक सार्वभौमिक और अपरिवर्तित प्रक्रिया के रूप में मानव-बुद्धि में रहता है। ’भाषा का यह मानसिक आदर्श रूप व्यवहार में आने पर जैविक, सामाजिक अथवा सम्प्रेषण के आधार पर संयमित होने के कारण स्खलित हो जाता है।’  इस दृष्टिकोण में सामाजिक संदर्भों में प्रयुक्त भाषा का रूप आदर्श भाषा का क्षीण या अवमिश्रित रूप है। किन्तु आगे चलकर यह माना जाने लगा कि भाषा मूलतः सामाजिक यथार्थ है जो सामाजिक उपकरणों व संदर्भों के साथ जुड़कर व्यावहारिक बनती है। इस नए भाषाविज्ञान अर्थात् मनोभाषाविज्ञान में भाषायी तत्त्वों के साथ-साथ भाषेतर प्रतीकों (शारीरिक भाषा) का अध्ययन महत्त्वपूर्ण माना जाने लगा क्योंकि ये प्रतीक सम्प्रेषण या सम्भाषण की पूर्णता में सहायक हैं। ’जब दो व्यक्ति आमने-सामने वार्तालाप या भाषा-व्यवहार करते हैं तब भाषायी तत्त्वों के अतिरिक्त संदर्भ, परिस्थिति तथा वक्ता-श्रोता के हाव-भाव, हाथों आदि क्रियाओं द्वारा सम्प्रेषण विचार या सूचना को समझने में सहायता मिलती है।’
भाषा अपनी प्रकृति में सामाजिक होती है। व्यक्ति भाषा को समाज में रहकर ही सीखता है। जिन व्यक्तियों के बीच किसी बच्चे का पालन-पोषण होता है उनकी भाषा के आधार पर उसकी व्यक्तिभाषा का निर्माण होता है। उसके द्वारा ही व्यक्ति अपने निजी व्यक्तित्व का विकास एवं उसकी अभिव्यक्ति करता है। प्रत्येक व्यक्ति के निजी व्यक्तित्व का प्रभाव उसके अभिव्यक्तिकरण अथवा व्यवहार पर भी पड़ता है। ’प्रत्येक व्यक्ति के अनुभवों विचारों, आचरण पद्धतियों, जीवन व्यवहारों एवं कार्यकलापों की निजी विशेषताएँ होती है।’  जाहिर है भाषा में कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं , जो मनुष्य के आंतरिक भावों को, उनके पारस्परिक संबंधों और सामाजिक व्यवस्था को प्रकट करते हैं। यही वे तत्त्व हैं जो भाषा, व्यक्ति और समाज को एक-दूसरे से जोड़ते हैं। ’किसी समाज के मनोविज्ञान को समझने के लिए उसकी संबोधन शब्दावली एक महत्त्वपूर्ण और उपादेय सामग्री सिद्ध हो सकती है।’  वहीं सर्वनाम का चयनपूर्वक प्रयोग वक्ता के पूरे व्यक्तित्व का द्योतक है और पूरे सामाजिक संदर्भ में उसकी स्थिति को स्पष्ट कर देता है। भाषायी व्यवहार में भाषा और अंगीयभाषा दोनों अन्योन्याश्रित हैं। सम्प्रेषण को प्रभावशाली बनाकर समग्रता के साथ प्रकट करने में दोनों उपादान महत्त्वपूर्ण हैं।
भाषायी व्यवहार में जब वक्ता, श्रोता अथवा वार्ता विषय के प्रति अन्तस् की भावनाओं को व्यक्त करने के लिए अपनी भाषा-प्रयुक्ति में तदनुकूल शब्द, वाक्य, वाक्यांश, क्रिया, क्रिया विशेषण, पदबंध शब्दावृत्ति आदि को अपनाता है तब वक्ता का अन्तःकरण उन भाषायी तत्त्वों में जीवन्तता के साथ उभरता है। मानव-मन भाषा में व्यक्त होता है अतः भाषा की प्रत्येक इकाई व्यक्ति-मन को सजीवता से उभारने में सहायक होती है। ’किसी साहित्यकृति में रचनाकार द्वारा किसी पात्र विशेष के लिए अथवा उसकी रचना के पात्रों द्वारा परस्पर संबोधन के लिए या फिर किसी वक्ता द्वारा श्रोता अथवा संवादी को संबोधित करने के लिए जब संबोधन शब्दावली की श्रृंखला में से चयनपूर्वक किसी नाम विशेष का प्रयोग किया जाता है तब न केवल उस प्रयुक्त नाम विशेष का सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भ होता है अपितु स्पष्ट रूप से उसका मनोवैज्ञानिक संदर्भ भी होता है। संबोध्य के प्रति वक्ता के अन्तःकरण की भावना उस प्रयुक्त नाम विशेष में निहित रहती है, जो संबोध्य की प्रतिष्ठा और उसके साथ व्यक्तिगत संबंध के आधार पर विकसित हुई होती है।  ’रामचरितमानस’ के ’मंगलाचरण’ में ’गोस्वामी तुलसीदास’ ने ’महर्षि वाल्मीकि’ और ’हनुमान’ की वंदना की है और दोनों के लिए व्यक्तिवाचक नाम का प्रयोग न करते हुए संबोधन के रूप में जातिवाचक सामासिक पदों से निर्मित नाम का प्रयोग किया है –
सीतारामगुणग्राम पुण्यारण्यविहारिणौ।
वन्दे विशुद्धविज्ञानी कवीश्चरकपीश्चरौ।।
’महर्षि वाल्मीकि’ के लिए ’कवीश्चर’ और ’हनुमान’ के लिए ’कपीश्चर’ नाम का प्रयोग संबोध्य की ख्याति और महत्त्व के संकेतक हैं मानो ’कवीश्वर’ केवल ’वाल्मीकि’ और ’कवीश्चर’ केवल ’हनुमान’ ही हैं, पर यह नाम-प्रयोग स्वयं रचनाकार के मन की उस श्रद्धा संचालित आदर भावना का प्रकाशन भी है , जो कवि (तुलसी) में ’वाल्मीकि’ और ’हनुमान’ में ईश्चरत्व दर्शन से विकसित हुई हे। दोनों नामों का उच्चारपद ’ईश्वर ’ है , जो न केवल संबोध्य की वर्गगत श्रेष्ठता को सूचित करता है अपितु अपरिमित ऐश्वर्य एवं अनुकम्पा को भी द्योतित करता है। उसी ऐश्वर्य और अनुकम्पा की चाह रचनाकार को है जो संबोध्य के व्यक्तित्व में निहित है। ’कवीश्चर’ और ’कपीश्चर’ दोनों ’सीतारामगुणग्राम पुण्यारण्य विहारिणौ’ विशेषण से विशिष्ट हैं। मानो ’कवीश्चर’ और ’कपीश्चर’ की पदवी इसी विशिष्टता के आधार पर मिली हो और मानों तुलसी के मन की दुर्दमनीय अभिलाषा भी इसी ’विहरणशीलता’ से विशिष्ट हो जाना चाहती हो।
’नाम के चयनपूर्वक प्रयोग में यह तथ्य महत्त्वपूर्ण है कि व्यक्ति के मन पर संबोध्य के व्यक्तित्व के किस वैशिष्ट्य का प्रभाव पड़ा है और उस प्रभाव की तीव्रता कितनी है। संबोध्य की सामाजिक स्थिति अथवा भूमिका या प्रतिष्ठा के जिस रूप से संबोधक प्रभावित होता है तदनुरूप वह नाम का चयन करता है। इस चयन में संबोध्य के साथ व्यक्तिगत संबंध का प्रभाव भी अनिवार्यतः पड़ता है।’  नाम-चयन की अनेक स्थितियाँ संभव हैं। उनमें ’केवल संकेत द्वारा’ संबोधन भी एक अति महत्त्वपूर्ण स्थिति है , जो शारीरिक भाषा के महत्त्व को प्रकाशित करती है। यह स्थिति रूढ़िवादी स्त्री द्वारा अपने पति को संबोधित करने के समय आती है। रूढ़िवादी स्त्री आज भी अपने पति का नाम लेने में लज्जा और संकोच का अनुभव करती है। वस्तुतः पति के साथ घनिष्ठतम आत्मीय संबंध होने पर भी पति (परमेश्वर) की सापेक्षिक प्रतिष्ठा इतनी अधिक है कि उसके लिए सभी आदरसूचक विकल्प अपर्याप्त रहते हैं, उदाहरण के लिए ’रामचरितमानस’ का निम्नोक्त प्रसंग द्रष्टव्य है –
‘‘तिन्हहि बिलोकि बिलोकति धरनी। दुहुँ सकोच सकुचति बर बरनी।।
बहुरि बदनु बिधु अंचल ढाँकी। पिय तन चितइ भौंह करि बाँकी।।
खंजन मंजु तिरीछे नयननि।
निज पति कहेउ तिन्हहिं सिय सयननि।’’
वनमार्ग में ग्राम ललनाओं द्वारा राम का परिचय जानने के उद्देश्य से सीता से किए गए प्रश्न के उत्तर में सीता ने नितान्त अबोली भाषा में केवल संकेतों के माध्यम से ’ये मेरे पति हैं’, बता दिया है। जो संकेत प्रयुक्त हुए हैं उनमें- ग्राम-ललनाओं की ओर देखकर पृथ्वी की ओर देखना, फिर चन्द्रमुख को आँचल से ढँककर पति की ओर देखना, पुनः बक्र भृकुटि कर तिर्यक नेत्रों का संकेत प्रमुख हैं। इससे पति राम के प्रति सीता के हृदय का समस्त आदरभाव, आत्मीयता, शील, संकोच और सौन्दर्य जीवन्त हो उठा है। उक्त विवेचन से यह तथ्य स्पष्ट होता है कि अन्तस् की भावनाओं की समग्र सम्प्रेषणीयता के भाषिक और आंगिक दोनों उपादानों का महत्त्व भाषायी व्यवहार में अत्यधिक है।
सार्थक सम्प्रेषण की सफलता भावानुकूल शब्दावली के प्रयोग के साथ-साथ शारीरिक भाषा के उचित एवं सार्थक प्रयोग की शक्ति पर निर्भर करती है क्योंकि मानव जीवन में भावरूप पदार्थों का जितना महत्त्व है उतना ही भाषा के अभाव अर्थात् अशब्दता, निशब्दता (मौन) और शारीरिक हाव-भाव या भाषा के विविध उपादानों का भी है। मनुष्य प्रायः अतिशयानन्द, गहन दुःख, भय, विस्मय, कृतज्ञता, संकोच, लज्जा आदि उत्कृष्ट भावों को मौन या निःशब्द रहकर केवल अंगीय उपादानों के द्वारा ही प्रकट करता है। ऐसी मनोदशा में व्यक्ति अपने हाथ, पाँव, अधर, नेत्र आदि अवयवों के सूक्ष्म एवं भावदर्शक व्यापार करता है या आँखों से अश्रुपात करता है। ऐसी अभिव्यक्ति की परम्परा साहित्य में प्राचीनकाल से ही रही है। ’उद्धवशतक’ में एक स्थल पर गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि कृष्ण के विरह में हमारी जो मनोदशा है उसे उनसे ’कहना’ मत जैसी देखी है वैसी ’दिखाना’ –
‘‘औसर मिले और सरताज कछु पूछहिं तौ।
कहियौ कछू न दसा देखी सो दिखाइयौ।।’’
’कहना’ शब्दों से होता है और ’शब्द अधूरे हैं- क्योंकि उच्चारण माँगते हैं’  इसलिए वे गहनतर अन्तर्वेदना को समग्रता से नहीं कह सकते। किन्तु ’दिखाना’ अभिनेय है। गोपियों ने उद्धव से कहा कि आप अभिनय के द्वारा हमारी दशा को प्रत्यक्षीकृत करना तो सारा वृतान्त कृष्ण की आँखों के सामने साकार हो जाएगा। संभव है कि उसे देखकर उन्हें हमारी दशा का कुछ अनुमान हो सके और वे करुणा तथा मया से कुछ द्रवित हो जाएँ। इसलिए ’कहना’ मत ’दिखाना’, कैसे दिखाओगे? गोपियाँ बताती हैं कि ’आह भरकर कराहना, आँखों में आँसू ले आना, कुछ कहने को चाहना (पर कहना नहीं) और हिचकी लेकर (मौन) रह जाना’ –
आह कै, कराहि, नैन नीर अवगाहि, कछु,
कहिबै को चाहि, हिचकी लै रहि जाइयाँ।
गोपियों ने जिस अभिनेय भाषा की बात कही है, वह जिह्वा की भाषा नहीं है शरीर की भाषा है – उसके अंग-अंग की भाषा है वह आंगिक भाषा है। यह भाषा सदा सर्वदा अभिनेय है और दर्शक के मन पर सीधा प्रभाव छोड़ने वाली है। इस बात को गोपियाँ भलीभाँति जानती हैं। ’उद्धवशतक’ की गापियाँ भाषायी-व्यवहार में वाणी की भाषा से अधिक शरीर की भाषा को महत्त्व देती हैं क्योंकि वे उसकी प्रभावशीलता से परिचित हैं। वे यह भी जानती हैं कि ब्रज के दुःखों का उद्धव ने अभिनय पूर्वक प्रदर्शन किया तो इसका प्रभाव कृष्ण पर गहरा होगा। वे जानती हैं कि संदेश निवेदन में यदि अभिनेयता का गुण हो तो उससे शारीरिक और मानसिक दोनों अवस्थाओं की सही सूचना श्रोता तक सम्प्रेषित की जा सकती है। साहित्यकार मोहन राकेश का मत है कि ’आदमी जो जबाव दे वह उसके चेहरे से झलकना चाहिए।’  स्पष्टतः वे भाषायी व्यवहार में शारीरिक भाषा की सार्थकता को स्वीकारते हैं, तभी उसकी अनिवार्यता को प्रतिपादित करते हैं – ’कई बार इंसान चुप रहकर ज्यादा बात कह सकता है। जुबान से कही बात में वह रस नहीं होता, जो आँख की चमक, होठों के कंपन से या माथे की एक लकीर से कही बात में है।’  कथाकार जैनेन्द्र का भी ऐसा ही मत है। वे लिखते हैं ’भाषा कहकर इतना नहीं कहती, जितना अनकहा कहकर छोड़कर कहती है।’  वस्तुतः ’अच्छा साहित्यकार शब्दों के प्रयोग के द्वारा जिस प्रभावशाली साहित्य का निर्माण शब्द प्रयोग को टालकर करता है। अच्छे साहित्यकार को शब्दों की महिमा जितनी विदित रहती है, उतनी ही मौन की।’
अतः हम कह सकते हैं कि मानव की शरीर-रचना ही कुछ ऐसी है, जिसके द्वारा वह उद्दीपन (उत्तेजना) का अनुभव करता है और प्रत्येक उद्दीपन अनुक्रियात्मक होता है, अर्थात् उत्तेजना की अनुक्रिया अवश्य होती है। मनुष्य के शरीरके विभिन्न अवयवों में आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा में उद्दीपन अनुभव करने की सर्वाधिक क्षमता होती है। इन अवयवों के विषय क्रमशः दृश्य, श्रव्य, घ्रातव्य, आस्वाद्य और स्पर्शेय होती हैं। ’दृश्य ’ सुन्दर भी हो सकता है और असुन्दर भी; ’श्रवणीय’ विषय प्रिय भी हो सकता है और अप्रिय या कटु भी; ’घ्रातव्य’ विषय आह्लादकारक भी होता है और विषाद का हेतु भी; ’आस्वाद्य’ मधुर, कटु, तिक्त, क्षारीय और लवणीय हो सकता है और ’स्पर्षेय’ विषय सुखद-दुःखद, कोमल-कठोर हो सकते हैं। इस अनुभव को नेत्रादि द्वारा मानव-मस्तिष्क ग्रहण करता है और तदनुरूप अनुक्रिया के लिए उत्प्रेरित करता है। मनुष्य की मांसपेशियां भी उद्दीपन अनुभव करने की क्षमता से युक्त होती हैं। अतः वे भी नेत्रादि अवयवों की तरह अत्यन्त संवेदनशील हैं। मनुष्य का व्यवहार या अनुक्रिया पर मांसपेशियां की संवेदनशीलता का स्पष्ट प्रभाव अनुभव किया जा सकता है। इस प्रकार उद्दीपन या उत्तेजना का अहसास शरीर के विभिन्न अवयवों के द्वारा होता है। मानव-शरीर के विविध अंग अन्तःकरण की अभिव्यक्ति के सशक्त, सजीव और जीवन्त माध्यम हैं। मनुष्य जब ’बोलता’ है, तब उसकी मुखमुद्रा, हस्त-संचरण, नेत्रों की भंगिमा और शरीर की हरकत उसके विचारों को सम्प्रेषणीय बनाने में सहायक बनती है। मनुष्य जो ’बोले’ वह उसके चेहरे से भी प्रकट होना चाहिए। ’कथ्य’ तभी समग्रतः सम्प्रेषणीय माना जा सकता है, जब श्रोता उसी भावदशा में आ जाए, जिसमें वक्ता है। वस्तुतः वक्ता का वक्तव्य या रचनाकार की रचना या कलाकार की कृति उसके अपने अन्तःकरण में दबी हुई भावनाओं की प्रतीक होती है।
किसी वक्तव्य, रचना या कृति में प्रस्तुत सर्जक की अनुभूतियाँ जब श्रोता, पाठक या सहृदय के मन में (वक्तव्य को सुनने के समय या कृति के अनुशीलन पर) मूर्त रूप ग्रहण कर लेती है और श्रोता या सहृदय वैसी ही भावदशा को उपलब्ध होती है, जिसको वक्ता या रचनाकार हुआ था, तब वह अनुभूति ’प्रेषणीय’ बन जाती है। वक्तव्य, भाषण, कला अथवा साहित्य में वक्ता व सर्जक आंतरिक भावनाओं को जीवन्तता से उभारने के लिए जिस भाषा का प्रयोग करता है, वह मनोवैज्ञानिक संदर्भों के साथ ही सामाजिक और सांस्कृतिक यथार्थ से युक्त होती है। मनोवैज्ञानिक संदर्भों से जुड़ना उसकी ’विवशता ’ है, जबकि सामाजिक और सांस्कृतिक संदर्भों से सम्पृह्य रहना उसकी ’नियति’। भाषा-प्रयोक्ता को शब्दों का प्रयोग करते समय विशेष रूप से सचेत रहने की आवश्यकता होती है ताकि अपने मन की बात कहते समय वह अपने प्रति ईमानदार रहते हुए भी सामाजिक सच और सांस्कृतिक मूल्यों की उपेक्षा न कर जाए। उसका कथन सामाजिक-मर्यादा और सांस्कृतिक-मूल्यों से निरपेक्ष नहीं होना चाहिए।
कहने को तो ’मन’ बहुत कुछ कहना चाहता है, पर उच्चारणगत मर्यादा के कारण सब-कुछ को शब्दों में कह नहीं पाता, तब कथ्य के पूर्ण सम्प्रेषण के लिए उसे षारीरिक हाव-भाव वाली भाषा का सहारा लेना पड़ता है या कहना चाहिए कि उत्तेजना के क्षणों में जब मुखोच्चारित भाषा अपनी उच्चारण मर्यादा के कारण मन की बात को कह पाने में असमर्थ हो जाती है, तब उसकी अनुक्रिया शरीर की भाषा में होती है। जो हमारी सामाजिक मर्यादा को भी महत्त्व देने में मदद करती हैं और अपने विचार को व्यक्त करने में भी। यही शारीरिक भाषा से व्यक्ति भाषा और व्यक्ति भाषा से समाज भाषा की कड़ी तैयार करता है।
संदर्भ ग्रंथ
1- भाषा के विविध रूप एवं प्रकार : डॉ महावीर शरण जैन
2- हिंदी की संबोधन शब्दावली : ललित मोहन बहुगुणा
3- हिंदी में सर्वनाम-प्रयोग का सामाजिक संदर्भ: अशोक कालरा
4- हिंदी व्याकरण और रचना : डाॅ भोलाशंकर  व्यास
5- मनोभाषाविज्ञान एक परिचय : पुष्पा श्रीवास्तव
6- रामचरितमानस: संत तुलसीदास
7- साहित्य और मनोभाषाशास्त्र : डाॅ श्याम सनेही शर्मा
8- उद्धव शतक छंद
9 – नदी के द्वीप : अज्ञेय
लेखिका परिचय
डाॅ. आशा रानी
हिंदी एवं भाषाविज्ञान विभाग,
रानी दुर्गावती विश्वविद्यालय, जबलपुर
मोबाइल – 9907883223
ईमेल – [email protected]
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