जब से हिंदी में व्यंग्य एक विधा के रूप में स्थापित हुआ है, इस बिंदु पर शायद ही कभी विवाद हुआ है कि व्यंग्य-साहित्य का उद्देश्य किसी काल, समाज या व्यवस्था पर कटाक्ष करते हुए समाज को जीवनानुकूल बनाना तथा सुखमय और सौहार्दपूर्ण वातावरण सृजित करना नहीं है। सभी लेखक, समीक्षक और पाठक इस बात से सहमत होंगे।
व्यंग्य ही क्या, किसी भी साहित्यिक विधा का एक उद्देश्य, जिसे विकल्पतः गौण ही माना जाता है, मनोविनोद और मनोरंजन करना भी है। साहित्य के लिए मानदंड निर्धारित करने वाले विद्वान मनीषियों ने मनोविनोद को साहित्य का एक लक्ष्य इसलिए माना ताकि साहित्य-अनुशीलन एक नीरस गतिविधि न बनकर रह जाए और कम-से-कम लोग मनोविनोद के बहाने ही इसका रसास्वादन करें तथा इसमें दिए गए उपदेश, शिक्षा और आदर्श को परोक्षतः आत्मसात कर सकें!
पाश्चात्य काव्यशास्त्रियों यथा, प्लेटो, अरस्तू, लानजाइनस, जॉन ड्रायडन, टी.एस.इलियट, आई.ए.रिचर्ड्स तक ने साहित्य, जो कला और संस्कृति का उन्नायक है, को मनोरंजन का एक स्रोत माना है। किंतु, साहित्य मनोरंजक या entertaining  तभी होगा जबकि समाज में शांति और सौहार्द का स्थायी वातावरण स्थापित हो चुका हो और जनसमुदाय के पास कला और संस्कृति का विकास करने के लिए पर्याप्त समय हो क्योंकि स्वयं कलात्मक और सांस्कृतिक कार्यकलाप मनोरंजन के अक्षुण्ण स्रोत माने जाते रहे हैं।
युद्ध, विप्लव या अशांति के वातावरण में साहित्य ही क्या किसी भी माध्यम से मनोरंजन करने की बात तो सोची तक नहीं जा सकती। ऐसा करना तो दंडनीय भी रहा है। अस्तु, समाज में शांति और सौहार्द का वातावरण तभी निर्मित होगा जबकि साहित्य अपने प्रथम लक्ष्य में सफल हो। साहित्य का प्रथम और प्रमुख लक्ष्य उपदेश या शिक्षा देना ही है। युद्धकाल और अराजक माहौल में साहित्य के जरिए शिक्षण के माध्यम से शांति स्थापित करने के पश्चात ही राजा, प्रजा को शस्त्रास्त्र त्यागकर मनोविनोदक गतिविधियों में संलिप्त होने का आदेश देता था। यही परंपरा विश्व-भर के प्रायः सभी देशों में व्यवहार्य और मान्य रही है। 
साहित्य के प्रथम लक्ष्य शिक्षण (उपदेश) और द्वितीय लक्ष्य मनोरंजन (मनोविनोद) पर विहंगम विचार करने के बाद, जिनकी उपादेयता समाज के चरित्र-निर्माण में सन्निहित है, एक अति सार्थक और सशक्त विधा के रूप में व्यंग्य (ब्रह्मास्त्र) के उद्देश्य को रेखांकित करना अति आवश्यक होगा। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि व्यंग्य साहित्य की एक विशिष्ट विधा है, जिसके माध्यम से साहित्यकार द्वारा जनसाधारण से सीधे-सीधे संवाद और संपर्क स्थापित किया जाता है और समाज के चरित्र-निर्माण में अगुवाई की जाती है।
यों तो साहित्य की महती सार्थकता विप्लवकालीन और अराजक समाज में अपेक्षाकृत अधिक आँकी जाती है तथापि इस बात पर विशेष ध्यान दिए जाने की ज़रूरत है कि व्यंग्य की सामाजिक सार्थकता सर्वकालिक होती है। भले ही कोई समाज शांतिपूर्ण व्यवस्था के सभी मानदंड पूरे कर रहा हो, उसमें विसंगतियाँ और विकार सदैव सुसुप्तावस्था में विद्यमान रहते हैं जिनसे यदि समय रहते नहीं निपटा गया तो सामाजिक और राजनीतिक अधोपतन से नहीं बचा जा सकता। धीरे-धीरे ये विसंगतियाँ और विकार ही भीमकाय और अनियंत्रणीय हो जाते हैं।
इस प्रकार, व्याप्त विसंगतियों में सामंजस्य स्थापित करने, छोटे-छोटे विकारों और रुग्णताओं का चिकित्सीय निदान करने तथा छोटे-छोटे विप्लवकारी कारकों का शमन करने के लिए व्यंग्यकार का महत्व सामाजिक चिकित्सक एवं सुधारक के रूप में कभी कम नहीं होगा।
जिस प्रकार निमोनिया उचित उपचार के अभाव में कुछ सालों बाद ही शरीर के अंदर रक्त-प्रवाह, धमनी-तंत्र, नाड़ी-तंत्र आदि को प्रत्यक्षतः प्रभावित करते हुए समूचे फुफ्फुसीय तंत्र को ध्वस्त कर देता है और जीवन के लिए घातक साबित होता है, उसी प्रकार शांत-से दिखाई देने वाले समाज में भी छोटे दिखाई देने वाले विकार बाह्य और अंदरूनी असामाजिक तत्वों की शह पर अपराजेय और विकराल रूप धारण कर लेते हैं। उन्हें उनके छोटे रूप में ही कुचलना ज़रूरी होता है। इस महत्वपूर्ण कार्य को व्यंग्यकार के सिवाय कोई दूसरा नहीं कर सकता। 
अर्थात बड़ा ही गंभीर दायित्व व्यंग्यकार के कंधों पर है। इस गंभीर दायित्व की कसौटी पर व्यंग्यकार को खरा उतरना होता है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि उसे गंभीर व्यंग्य करना होता है और स्वयं को आवश्यक ‘सीमाओं’ में रखते हुए सामाजिक विकारों के लिए नैदानिक उपचार करना होता है।
छोटे-बड़े सभी सामाजिक विकारों को दूर करने के लिए ‘कटाक्ष’ की औषधि ही सामाजिक चिकित्सक अर्थात व्यंग्यकार के हाथों ऐसे ऐन्टीबॉयोटिक्स हैं जिनका प्रयोग विकार के स्वरूप के अनुसार किया जाना चाहिए। अर्थात छोटे विकारों के लिए कटाक्ष के हल्के डोज़ और बड़े विकारों के लिए भारी डोज़ दिए जाने चाहिए।
यदि छोटी बीमारी के लिए ऐन्टीबॉयोटिक का ओवडोज़ दिया गया तो रोग के बजाय रोगी की ही जान को ख़तरा पैदा हो जाता है। इसलिए अगर व्यंग्यकार क्षुद्र निहित स्वार्थों और व्यक्तिगत उद्देश्यों के लिए कटाक्ष का प्रयोग करता है तो बुराइयों के समाप्त होने के बजाय समाज के सामासिक स्वरूप के ही छिन्न-भिन्न होने का ख़तरा पैदा हो जाता है।
यह कुछ-कुछ वैसा ही है जैसाकि मलेरिया के इलाज के लिए ‘कुनैन’ के स्थान पर किसी ‘प्रोफ़्लाक्स’, ‘सीफ़्लॉक्स’ या ‘मॉक्स’ जैसा ऐन्टीबॉयोटिक दिया जाय जिससे रोग के बजाय रोगी का ही सफाया हो जाता है। यदि ऐसा ही प्रयास किसी दौर के अधिकतर व्यंग्यकारों द्वारा सामूहिक रूप से किया जाता है तो सामाजिक स्थितियों के बेहतर होने के बजाय उनके बदतर होने का ख़तरा समाज पर मंडराने लगता है। 
हाँ तो सीमाओं का ध्यान रखना विशेषतया व्यंग्यकार के लिए, जिसे बार-बार सामाजिक बीमारियों का चिकित्सक कहा गया है, अत्यंत आवश्यक है। व्यंग्यकार को अपने लिए सीमाओं का निर्धारण करने की ख़ुद छूट होती है क्योंकि व्यंग्य में हास्य के आकार-प्रकार का निर्धारण वह स्वयं करता है।
चूंकि कटाक्ष की कमान से निशान पर छोड़े गए तीर से जो प्रभाव या परिणाम उत्पन्न होता है, वह हास्य होता है, इसलिए उस परिणाम की प्रभावकारिता के स्वरूप का ज्ञान व्यंग्यकार को अवश्य होना चाहिए। उसे पहले से मालूम होना चाहिए जिस कटाक्ष से जनमानस में हास्य का प्रस्फुटन हो रहा है, उससे सिर्फ़ पाठक का मनोविनोद ही हो रहा है या पाठक उससे सामाजिक विकृतियों को दूर करने की दिशा में अभिप्रेरित या अनुप्राणित भी हो रहा है।
यह बात हास्य के स्वरूप पर निर्भर करता है। व्यंग्य में हास्य का उद्देश्य सामाजिक विसंगतियों और विकृतियों का समापन करते हुए भविष्य में इनके पुनः पनपने की संभावना को भी धूमिल करना होना चाहिए। इस तरह व्यंग्यकार को सामाजिक विकृति-विसंगति उन्मूलन अभियान के तहत स्वयं को संसाधित करना चाहिए और जिस प्रकार देश में प्लेग, हैज़ा, मलेरिया और पोलियो के उन्मूलन के लिए राष्ट्रव्यापी अभियान चलाए गए और इनमें से ज़्यादातर का सफल उन्मूलन भी किया गया, उसी प्रकार हिंदी व्यंग्यकारों को एक सामाजिक अभियान का सूत्रपात करना होगा एवं स्वयं को कानून और व्यवस्था की भाँति सामाजिक बुराइयों को दूर करने वाले एक सशक्त कारक के रूप में सक्रिय करना होगा। 
डॉ मनोज मोक्षेन्द्र मूलतः वाराणसी से हैं. वर्तमान में, भारतीय संसद में संयुक्त निदेशक के पद पर कार्यरत हैं. कविता, कहानी, व्यंग्य, नाटक, उपन्यास आदि विधाओं में इनकी अबतक कई पुस्तकें प्रकाशित. कई पत्रिकाओं एवं वेबसाइटों पर भी रचनाएँ प्रकाशित हैं. एकाधिक पुस्तकों का संपादन. संपर्क - 9910360249; ई-मेल: drmanojs5@gmail.com

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