Wednesday, September 18, 2024
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डॉ आरती ‘लोकेश’ की कहानी – घर ले चलना मुझे…!

नीले चोगे वाला वृद्ध व्यक्ति, जिसके शरीर और चोगे का आकार लगातार बढ़ता जा रहा था, विशाल बाजुओं और लम्बी-लम्बी उँगलियों को फैलाकर बोला- “चल बेटी, उठ! तुझे गोद में लेने को कब से व्याकुल हूँ। कहीं तेरे सिर पर धूप न पड़ जाए। आ, छाया कर दूँ। तुझे अपनी चौड़ी हथेलियों के साये तले कर दूँ।”  
मैं उस के साये से बचकर पलटकर भागी तो सामने एक बुजुर्ग स्त्री थी। हरे रंग की साड़ी मैं लिपटी स्त्री का ख़ाकी रंग का ब्लाऊज़ उसके चेहरे-मोहरे से मेल खाता था। धानी रंग के बालों को लहलहाते बोली- “मेरे पास आ बेटी! तुझे अपने आँचल में समेट कर दुनिया की बुरी नज़र से छुपा लूँ।”     
मैं घबरा गई, चार कदम पीछे हट गई। पसीने में तर-बतर अपने पल्लू से माथे की बूँदें पोंछने वाले ही थी कि तभी एक अदृश्य भारी आवाज़ कभी बाएँ कान में फुसफुसाती तो कभी दाएँ कान में गुनगुनाती निकल गई- “चल बहन! चल, तुझे अपने साथ दुनिया की सैर को ले चलूँ। तुझे अच्छा लगेगा मुक्त घूमते हुए।”   
मेरा सिर चकराने लगा। सामने कुछ युवक पीताम्बर ओढ़े घूम रहे थे। सिर थाम कर वहीं बैठ गई तो पीले रंग के कुर्ते पर लालवर्णीय चटक दुशाला ओढ़े पुरुष के नेत्र अंगारों से लाल दहकते थे। वह मेरी ओर आगे बढ़ता हुआ बोला-  “चलो प्रिय! मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अब देर न करो। मेरे आलिंगन में आओ। मैं तुममें समा जाऊँ। तुम मुझमें समा जाओ।”   
मेरा कलेजा काँप गया। शरीर में सिहरन दौड़ गई। तभी किसी ने कंधे पर हाथ रख दिया। गहरी नीली निकर, हल्की नीली टी-शर्ट पहने वह निरीह बालक हाथों में बहुत से कंकड़-पत्थर उठाए आशा से मुझे निहार रहा था। वह भी इन सब का सताया हुआ ही लग रहा था। कंकरियों को उछालते हुए बोला- “माँ! मेरे पास आओ। मैं तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ। संग-संग दौड़ लगाना चाहता हूँ। एक बार तुम्हें अपने घर ले जाना चाहता हूँ।”    
‘नहीं SSSS …! छोड़ो मुझे। मुझे नहीं जाना किसी के साथ। मुझे अपने घर जाना है।’  मैं चिल्ला उठी। मेरे विद्रोही स्वर से सब अचानक लुप्त हो गए।  
उफ़्फ़! कितना अजीब सपना था। …भयानक! एक अनजाना-सा डर भर गया मन में। ये कौन लोग थे जिन्होंने मुझे चारों तरफ़ से घेर रखा था। हर कोई अपनी ओर को खींचे ले रहा था। कोई हाथ पकड़ रहा था कोई पैर और कोई पल्लू। जाने कौन थे, कहाँ से आए थे; मुझे अपनी बहन, बेटी और माँ बता रहे थे। मैं तो जानती तक नहीं। कभी देखा भी नहीं। और वह… वह मुझे प्रेम निमंत्रण दे रहा था! बड़ा ही विचित्र प्राणी था। न अपनी उम्र देख रहा न मेरी। उसकी सूरत तो प्राणेश से बिल्कुल नहीं मिलती। प्राणेश को तो दुनिया से विदा हुए भी इतने बरस गुज़र गए कि गिनती याद नहीं। … और वह मासूम बालक… न वह ही तनय जैसा दिख रहा था। कौन थे ये लोग? लिबास और चेहरे भोले-भाले और हरकतें आतंकियों की। 
बहुत घुटन है यहाँ। आखिर मैं हूँ कहाँ? इतना अँधेरा क्यों है? मैं हिल क्यों नहीं पा रही हूँ। गर्दन भी नहीं हिला पा रही हूँ। पैर बँधे-से लग रहे हैं। हाथ भी बँधे से लग रहे हैं। उँगली तक न हिला पा रही हूँ। पूरा शरीर अकड़ गया लगता है। उफ़! यह चादर भी नहीं हटा पा रही हूँ। कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा। लगता है बहुत सोई हूँ। तनय भी अपने कमरे में सो रहा होगा क्या? बेचारा बहुत परेशान था मुझे बीमार देखकर। उसका उतरा हुआ मुँह देखकर तो मेरा दिल बैठा जाता था। 
सुबह से ही मुझे लिए-लिए घूम रहा था। कभी इस अस्पताल, कभी उस अस्पताल, मारा-मारा फिर रहा था। खूब कोशिश की बेचारे ने कि किसी प्राइवेट अस्पताल में भरती करा दे मुझे; पर सरकारी में ही हुई। चलो…! जहाँ भी हो, इलाज से मतलब। अब तो कुछ ठीक-सा लग रहा है। शायद मुझे आराम की भी ज़रूरत थी। आराम करके हलका-सा लग रहा है। अब तो मैं ठीक हो गई हूँ पूरी तरह। बस उठ ही नहीं पा रही हूँ। घर की याद सता रही है। अब घर चलना चाहिए। बाकी आराम घर में कर लूँगी। तनय दिखे तो कह देती हूँ कि हो गया इलाज बस! घर ले चलना अब मुझे। 
दो दिन से छाती में बलगम की शिकायत थी जब घर से निकली। थोड़ी साँस उखड़-सी रही थी। अब तो साँस लेने में कोई दिक्कत नहीं महसूस हो रही है। ऑक्सीज़न लगने से पसलियाँ भी ठीक चल रही हैं। कलेजा भी एकदम चकाचक मालूम हो रहा है। बीमारी-हारी में भी कभी खाली तो बैठी ही नहीं मैं। अब यहाँ कितनी देर हो गई है खाली पड़े-पड़े। हज़ारों काम अधूरे छुड़वाकर अस्पताल ले आया था तनय। मैं कहती रह गई कि थोड़े काम समेट दूँ पर माना ही नहीं। 
छत पर मंगोड़ी फरहरी होने डाल दी थी पता नहीं किसी ने उतारी भी है कि नहीं। बारिश हो गई तो सारी बरबाद हो जाएगी। जवे तोड़ने के लिए मैदा माँड के वहीं परात में छोड़ दी थी, दिन भर में सूख गई होगी यों ही पड़ी-पड़ी। इतने बढ़िया कचिया आम बिक रहे थे उस दिन ठेली पर। जी नहीं माना, सुवधू ने लाख मना किया फिर भी ले लिए कि अपने हाथों का अचार खिलाऊँ बाल-गोपालों को। सेवक से कहकर कच्ची घानी सरसों का तेल, असली हल्दी, तीखी लाल मिर्च, पहाड़ी नमक, सौंधी कलौंजी, दरदरी सौंफ; सारे मसाले मँगा लिए थे। इमामदस्ते में डालकर महाराज से कुटवा भी लिए। सामान सँभल गया पर तबीयत तनिक बिगड़ गई। जाने अम्बियाँ फ़्रिज में रख दीं थीं कि बाहर चौके की पटिया पर ही छोड़ दी थीं; याद ही नहीं आ रहा। उम्र के साथ याददाश्त भी अब उतनी दुरुस्त नहीं रही। 
छज्जे पर कपड़े सूखते छोड़ आई थी। चिमटी भी नहीं लगाई थी कि ले अभी उतार लूँगी। मौसम का कुछ पता थोड़े ही है! हवा चली तो उड़ जाएँगे या भीग जाएँगे बारिश में।  नाँद में चादर-तौलिए भिगो रखे थे, थापी से कूटकर ही चमकते हैं; धुल-धुलकर खिलते हैं। चाकू-छुरियों पर धार लगवानी थी। कबाड़ी को भी आने को बोल दिया था। काँच की बोतलें, प्लास्टिक के डिब्बे, खाट के पाए, टूटी चौखटें दुर्छत्ती में जगह घेरे पड़ी हैं तो लोहे की छ्ड़ें जंग खा रही हैं। ढेरों अखबार की रद्दी अलग इकट्ठी हुई पड़ी है जिसे रद्दीवाले के लिए बैठक में ही रख छोड़ा था। पुराने कपड़ों की पोटली भी खूँटी पर टाँग दी थी कि बदलकर स्टील की नाँद ले लूँ। हफ़्ते में एक बार ही आता है वह बर्तनवाला, जिसके बर्तन चाँदी-से चमकते हैं। बाकियों की तो कलई उतर जाती है पानी लगते ही। बिजली चली गई थी रात को तो तेल की कुप्पी भी अलगनी पर रख दी थी। तेल न रिस जाए उसमें से। कुछ भी तो नहीं कर पाई हूँ। …जाकर यह सब समेटकर एक तरफ़ कर दूँगी अबकी बार। सफ़ाई हो जाएगी। 
तुलसा जी को जल देने को लोटा भी भरकर चौरे पर ही पर रखा था सुबह। इतनी गर्मी में झुलस जाती हैं माता, थोड़े दिनों के लिए अंदर सरका लूँगी गर्मी-गर्मी। मंजरी बोने के लिए नया कलश भी लाया रखा है। मेरे लड्डू-गोपाल भी पंचमेवा भोग का इंतज़ार करते होंगे। मंदिर में देवी-देवताओं को पोशाक चढ़ानी थी। चाँदनी चौक से खुद जाकर बढ़िया कामदार कपड़ा और गोटा-पट्टी लाकर दे आई थी दर्जानी को। सिल के तैयार कर दी होगी उसने। दो दिन से मंदिर भी नहीं जा पाई। पुजारी जी भी सोचते होंगे कि मंदिर को रोज बुहारने की हामी भरकर कहाँ गायब हो गई हूँ। चितकबरी गाय भी अपनी पालक की गड्डी की राह देख रही होगी। सुबह चक्कर से आए तो दुर्गा सप्तशती का पाठ भी अधूरा ही रह गया। पुस्तक यों ही औंधी कर पूजा के आले में रख दी थी। कहीं धरती पर या चौकी पर ही न गिरा दी हो मैंने आँखें मिचमिचाने के कारण।  
पड़ोस से आया शादी की मिठाई का डिब्बा यूँ का यूँ ही भरा रखा होगा। आजकल के बच्चे तो जवान बाद में होते हैं, बूढ़ों वाली बीमारियाँ पहले लगा लेते हैं। मुझे ही खानी पड़ती है मिठाई। मैं भी एक-एक टुकड़ा ही तो खा सकती हूँ। नकली दाँतों से कितना चबाऊँगी। जब तक मुलायम रहता है, मीठे का एकाध टुकड़ा जबान पर धरा जा सकता है। बाकी तो सूखने से पहले ही महरी-कहारिन को देना था। किसने याद रखा होगा भला; सूख ही गई होगी सारी डलियाँ। अरे! ये मिठाई से याद आया कि मोहल्ले में जसूटन भी तो था। बहुत प्यार-मनुहार से बुलावा दे गई थी। कोई गया भी होगा गीत गाने? बेचारी मेरे आसरे ही ढोलक ले आई थी। मेरे हाथों की थाप सुनकर ही मुहल्ले की औरतें संगत को निकलती हैं। स्नेहिल के बालक का भी तो अन्न-पुरोजन होना था। सब शुभ काम मेरे बिना ही करने पड़े होंगे मजबूरी में प्रिया को। 
अरे! ये इतनी ठंड कहाँ से आ रही है! अभी तो गर्मियों का मौसम है। आँख खुली तब तो पसीना आ रहा था। अब अचानक कुल्फ़ी जमने लगी शरीर की। ये बीमारी फिर से तो ज़ोर नहीं मार रही। लगता है बी.पी. फिर बिगड़ रहा है। इस बी.पी. का भी कुछ नहीं पता लगता। जब मर्जी गिर पड़ता है मुआ, जब मर्जी ऊपर को चढ़ लेता है। शरीर में झुरझुरी सी दौड़ रही है। अरे! मेरे हाथ के कंगन कहाँ गए? चेन, बुंदे कुछ नहीं है! पूछूँ किससे, कोई पास भी तो नहीं है। तनय! … तनय! … अरे कोई सुन क्यों नहीं रहा है। कहाँ चले गए सब के सब! कुछ आवाज़ें आ तो रही हैं। लग रहा है कोई नर्स या डॉक्टर आ रहा है फेरे पर। शायद आकर बत्ती भी जला दें यहाँ की। इतना घना अँधेरा कि हाथ को हाथ नहीं सुझाई दे रहा है। क्या पता तनय यहीं सो रहा हो। आँख लग गई होगी बेचारे की। लगता है अभी दूर हैं वे लोग। पास आने दो, फिर आवाज़ लगाऊँगी। शायद सुन लें ये लोग और तनय को जगा दें। या फिर बुला लाएँ तनय को, जहाँ भी वह है। लग रहा है कि पास आ गए हैं। सुनूँ तो सही… कौन हैं ये और क्या बात कर रहे हैं। 
आवाज़ 1 : रिपोर्ट आ गई क्या? 
आवाज़ 2 : रिपोर्ट आई है पर कोविड की नहीं। 
आवाज़ 1 : क्या मतलब? फिर क्या रिपोर्ट आई है? 
आवाज़ 2 : रिपोर्ट में नेगेटिव पोज़ीटिव कुछ नहीं लिखा है। सैंपल दोबारा लेने को लिखा है। 
आवाज़ 1 : क्यों भई! सैंपल लिया तो था। मैं खुद अपने हाथ से लैब में जमा कराकर आया था।  
आवाज़ 2 : जी, वह सैंपल ठीक नहीं था जो पहले लिया था। 
आवाज़ 1 : भई पहेलियाँ न बताओ। सैंपल दोबारा क्यों पूछ रहे हैं वह बतलाओ।  
आवाज़ 2 : उस सैंपल से कुछ नतीजा नहीं निकला है। नतीजे की रिपोर्ट के बाद ही कुछ किया जा सकता है। 
आवाज़ 1 : अरे मेरे दोस्त! कमाल करते हो। अब कैसे सैंपल लोगे? सारा शरीर तो जम गया है न! 
आवाज़ 2 : जी… अब तो पोस्टमार्टम के लिए भेजना पड़ेगा। वे ही सैंपल लेंगे। 
आवाज़ 1 : क्या??? … न! न! हम ऐसी दुर्दशा नहीं होने देंगे अपनी माँ की। आप उन्हें हमें सौंप दीजिए बस! 
आवाज़ 2 : रिपोर्ट के बिना कुछ संभव नहीं है। समझो मेरे भाई। 
आवाज़ 1 : मैं कुछ नहीं जानता। मेरी माँ को हमारे हवाले कर दो बस!  
आवाज़ 2 : हवाले तो करेंगे ही। हमें यहाँ मुर्दे रखने का शौक थोड़े ही है। बता रहा हूँ साफ़-साफ़… सुन लीजिए। आप जैसा चाह रहे हैं पारंपरिक तरीके से उनका अंत्यकर्म; वह नहीं हो सकता नेगेटिव रिपोर्ट के बिना। आपको कायदे से ही चलना पड़ेगा। अस्पताल की वैन में ही ले जाना पड़ेगा। 
आवाज़ 1 : क्यों जी क्यों? हम कागज़ बनवाकर लाएँगे।  
आवाज़ 2 : सरकार का कानून है दोस्त मेरे। वह किसी के लिए भी तोड़ा नहीं जा सकता। आजकल हालात ही ऐसे हैं। आप सिफ़ारिश भी लगवा लो तो भी कुछ नहीं हो सकता। 
आवाज़ 1 : एक बार दिखाओ कि सब सुरक्षित तरीके से है न! 
आवाज़ 2 : हाँ जी! वही तो हमारी ड्यूटी है। लीजिए, तसल्ली कर लीजिए।  
ओह! ये कैसा भूचाल आया है। सिर घूम गया। लगता है मेरे पलंग को किसी ने ज़ोर का झटका दिया है, हिलाया डुलाया है। हाय राम! ये कितनी तेज़ रोशनी। अंधा ही कर दिया इसने मुझे। इस रोशनी के कारण कुछ दीख नहीं रहा। इससे तो अँधेरा ही भला था। छि:! ये भयंकर दुर्गंध! … लगता है दिमाग की नसें फट जाएँगी। ये कहाँ हूँ मैं…? इतनी सड़ांध के बीच! अस्पताल है कि बूचड़खाना! ये चारों तरफ़ कैसी आवाज़ें आ रही हैं। किर्र-किर्र …किरिच-किरिच … जैसे कोई लोहे की भारी दराज़ बाहर खींचता है। कान फटे जा रहे हैं। लगता है जैसे लोहे की दराज़ें वापस अंदर धकेली गई हैं। कुछ शांति पड़ी। भला हो जो ये ज़लज़ला भी थम गया। पर रोशनी फिर गुल! घुप्प अँधेरा! देख ही नहीं पाई कि कौन-कौन बात कर रहा है। 
आवाज़ 1 : भईया! यह बिजली की मशीन वाला हिसाब बहुत खराब है। हमें नहीं करवाना वह। हमारे एक रिश्तेदार की बड़ी बदनसीबी रही जो वहाँ ले जाना पड़ा। 2 घंटे लगेंगे ऐसा बताया था पर एक घंटे बाद मशीन खराब हो गई। चौबीस घंटे लगे मशीन ठीक होने में। तब तक घरवालों पर क्या न गुजरी होगी। 
आवाज़ 2 : बाबू जी! हो जाता है कभी-कभी। मशीन ही है आखिर! कब तक चलेगी। रोज दो-चार घंटे चलने वाली मशीन पर चौबीसों घंटे का ज़ोर है। यहाँ चलते-फिरते आदमी का नहीं पता। मशीन की गारंटी कौन ले। कुछ भी हो, करना तो आप को वही पड़ेगा जैसा सरकारी निर्देश है। 
आवाज़ 1 : सात दिन से माँ यहाँ पड़ी हुई हैं। हम घरवालों का बुरा हाल है। आपकी सेहतों पर असर ही नहीं पड़ता। अब हमसे उनकी यह दुर्गति और बर्दाश्त नहीं होती। आप उन्हें रिलीव करने की तैयारी कीजिए। मैं कल सुबह तक आता हूँ। 
आवाज़ 2 : आपकी कार सरकारी एम्बुलैंस के पीछे-पीछे ही चल सकेगी। आप उन्हें न छू सकते हैं न देख सकते हैं। ध्यान रखिएगा इन सब बातों का। 
आवाज़ 1 : हाँ भैया जी, इस में ही सबर कर लेंगे अब। और कुछ तो कर न सके, कम से कम उनकी काया को तो सद्गति मिल जाए अब। 
आवाज़ तो कुछ तनय से मिलती-जुलती है। नहीं! … तनय नहीं होगा। तनय होता क्या बोलता न मुझसे? मैं दिखाई न देती उसे…। कोई और होगा। जाने किसकी बात कर रहे थे। कुछ समझ ही नहीं आ रहा था। लगता है रात हो रही है। सुबह होते ही ज़रूर कोई आएगा मेरी सुध लेने। सो जाती हूँ थोड़ी देर। दवाई का नशा-सा हो रहा लगता है।  
लगता है सुबह हो गई। यहाँ तो एक पल चैन नहीं। अरे! यह फिर लोहे की भारी-भारी अलमारी, मेज़ सरकाने की आवाज़ें! ओह! फिर रोशनी से अंधी हुई जा रही हूँ। अब तो ये रोशनी बंद ही नहीं हो रही है। भारी दराज़ें बंद करने की आवाज़ भी खत्म हो गई। मेरे मुँह पर से ये कपड़ा क्यों नहीं हट रहा है? ये मुझे कहाँ ले जा रहे हैं? कुछ समझ क्यों नहीं आ रहा है? ये मेरा पूरा शरीर डोल क्यों रहा है जैसे मैं किसी बैलगाड़ी में हूँ। फिर से दम घुट रहा है। मुझे घर ले जा रहे हैं क्या? पर कोई मुझसे बोलता तो सही। मुझे कुछ बताते तो सही। 
शुक्र है ये झटके लगने तो बंद हुए। लगता है घर पहुँच गई हूँ। अब तो किसी ने मेरा मुँह भी उघाड़ दिया है। शुक्र है यह तनय ही है। तनय…! तनय…! यह मेरी आवाज़ क्यों नहीं सुन रहा? तनय SSSS …! तनय रो क्यों रहा है? तनय! तनय! मैं यहाँ हूँ तनय! अब तो तू घर ले आया न मुझे। क्या घर नहीं है ये? तो घर ले चल मुझे। 
यह क्या! तनय मेरी परिक्रमा कर रहा है, वह भी मटकी हाथ में लेकर। मटकी में से पानी गिर रहा है। मेरे ऊपर छींटे भी पड़ रहे हैं। उफ़्फ़! एक चादर से ही परेशान थी। ये कितनी और चादरें मेरे ऊपर डाल दीं हैं अब। यह आवाज़ कैसी? जैसे बम फूट पड़ा हो। यह कितना पानी मेरे शरीर से छू रहा है। कहाँ ले आया है तनय मुझे? घर ले चल न मुझे! 
ये चार संबंधी! अचानक कैसे? अरे! अरे! ये मुझे अपने काँधों पर उठा रहे हैं? चार कंधों पर घर जाऊँगी क्या मैं? क्या मैं इतनी भारी बोझ हो गई हूँ? ये किस मशीन में रख रहे हैं मुझे? जाँच की मशीन है क्या इत्ती बड़ी? कोई और जाँच होगी अभी? अभी इलाज बाकी है क्या? क्या यह कोई और बड़ा अस्पताल है? 
हाय! इतनी तपिश! जल रही हूँ बुरी तरह। कोई तो तपते बदन पर छाया कर हल्की सी ठंडक दो। जाने किसकी नज़र लग गई जो इतना कष्ट हो रहा है मुझे। कोई मेरे झुलसते शरीर पर गीली मिट्टी का लेप लगा दो। कोई मुझे इस मशीन से बाहर निकालो, मुक्त कर दो मुझे। कोई तो मुझे गले लगाकर मुझे तसल्ली दे दो। कोई तो दौड़ कर आओ और मुझे घर ले चलो। 
गगन : चल बेटी, उठ! तुझे गोद में लेने को कब से व्याकुल हूँ। कहीं तेरे सिर पर धूप न पड़ जाए। आ, छाया कर दूँ। तुझे अपनी चौड़ी हथेलियों के साये तले कर दूँ। 
अवनि : मेरे पास आ बेटी! तुझे अपने आँचल में समेट कर दुनिया की बुरी नज़र से छुपा लूँ।    
पवन :  चल बहन! चल, तुझे अपने साथ दुनिया की सैर को ले चलूँ। तुझे अच्छा लगेगा मुक्त घूमते हुए।  
अनल : चलो प्रिय! मैं कब से तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। अब देर न करो। मेरे आलिंगन में आओ। मैं तुममें समा जाऊँ। तुम मुझमें समा जाओ।  
अम्बु : माँ! मेरे पास आओ। मैं तुम्हारे साथ खेलना चाहता हूँ। संग-संग दौड़ लगाना चाहता हूँ। एक बार तुम्हें अपने घर ले जाना चाहता हूँ।
डॉ आरती लोकेश
डॉ आरती लोकेश
डॉ. आरती ‘लोकेश' दो दशकों से दुबई में निवास करती हैं। तीन दशकों से शिक्षण कार्य करते हुए यू.ए.ई. विद्यालय में वरिष्ठ प्रशासनिक अध्यक्ष हैं। अंग्रेज़ी-हिन्दी दोनों विषयों में स्नातकोत्तर होने के साथ ही हिन्दी में गोल्ड मैडलिस्ट हैं। रघुवीर सहाय के साहित्य पर शोध किया है। इनके 4 उपन्यास, 3 कविता-संग्रह, 2 कहानी-संग्रह, 1 यात्रा-संस्मरण, 1 शोध ग्रंथ, 1 कथेतर गद्य, 3 संपादित पुस्तकें मिलाकर 15 पुस्तकें प्रकाशित हैं। इनके साहित्य पर पंजाब, हरियाणा के अतिरिक्त विदेश के विश्वविद्यालय में विद्यार्थी शोध कर रहे हैं। इन्हें ‘महाकवि प्रो॰ हरिशंकर आदेश साहित्य सम्मान’, ‘रंग राची सम्मान’, 'शब्द शिल्पी भूषण सम्मान', 'प्रज्ञा सम्मान', ‘निर्मला स्मृति हिन्दी साहित्य रत्न सम्मान’ तथा ‘प्रवासी भारतीय समरस श्री साहित्य सम्मान’ से नवाज़ा गया है। संपर्क - Mobile: +971504270752 Email: [email protected]
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