‘वाङ्मय’ त्रैमासिक हिन्दी पत्रिका का अक्टूबर-दिसंबर 2022 अंक गीतांजलि श्री के राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित प्रख्यात् उपन्यास ‘रेत समाधि’ पर केन्द्रित विशेषांक के रूप में आया है। थर्ड जेंडर विशेषांक, दलित विशेषांक, आदिवासी विशेषांक, मुस्लिम कथाकार विशेषांक की गरिमामयी श्रृंखला में यह विशेषांक भी एक महत्त्वपूर्ण कड़ी के रूप में आकर जुड़ गया है। उल्लेखनीय है कि ‘रेत समाधि’ अपनी कथावस्तु, शिल्प और प्रस्तुतिकरण के संदर्भों में पर्याप्त चर्चित और विवादित कृति रही है। अपने सृजन में तो यह विशिष्ट है ही, अपने पठन-पाठन में भी यह उपन्यास विशिष्ट धैर्य, गहरी समझ और खुले विचारों की मांग करता है। सच तो यह है कि ‘रेत समाधि’ ने हिन्दी के समक्ष सृजन के उन आयामों को सामने लाकर रखा है जिन्हें आधार बनाकर विदेशी भाषाओं में लेखन होता रहा है। अनेक विदेशी लेखकों की ऐसी कहानियाँ और उपन्यास हमें मिलते हैं जिनके स्तर को ‘रेत समाधि’ ने छुआ है।
गीतांजलि श्री हिन्दी साहित्य की विशिष्ट कथाकार हैं। उनके पांच उपन्यास ‘माई’, ‘हमारा शहर उस बरस’, ‘तिरोहित’, ‘खाली जगह’ और ‘रेत समाधि’ प्रकाशित हो चुके हैं। ‘रेत समाधि’ उपन्यास सन् 2018 में प्रकाशित हुआ जिसका फ्रेंच और अंग्रेज़ी भाषा में अनुवाद अनुवाद डेज़ी राकवेल द्वारा ‘टॉम ऑफ सेंड’ नाम से किया गया। गीतांजलि श्री को अनेक सम्मान और पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। दिल्ली की हिन्दी अकादमी के साहित्यकार सम्मान, कहानी संग्रह ‘अनुगूँज’ के लिए यू.के. कथा सम्मान, इंदु शर्मा कथा सम्मान, द्विजदेव सम्मान के अलावा गीतांजलि श्री को जापान फाउंडेशन, चार्ल्स वॉलेस ट्रस्ट, भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय और नॉन्त स्थित उच्च अध्ययन संस्थान की फ़ेलोशिप भी प्राप्त हुईं हैं।वे स्कॉटलैंड, स्विट्ज़रलैंड और फ्रांस में राईटर इन रेज़िडेंसी भी रही हैं। ‘रेत समाधि’ के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टॉम्ब ऑफ सैंड’ ने अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीता और यह सम्मान प्राप्त करने वाली पहली भारतीय पुस्तक बन गई। गीतांजलि श्री और डेज़ी राकवेल को पचास हजार पाउंड का पुरस्कार मिला जिसे उन्होंने समान रूप से विभाजित किया। उल्लेखनीय है कि इस पुरस्कार के लिए 135 कृतियों को चुना (शॉर्ट लिस्ट) गया था जिनमें अंतिम छ: कृतियों के रूप में बोरा चुंग (कोरिया) के ‘कर्स्ड बनी’, जान फोस्से(नॉर्वे) के ‘ए न्यू नेम: सेप्टोलॉजी सिक्स टू सेवेन’, मीयेको कावाकामी (जापान) के  ‘हेवेन’, क्लाडिया पिनेइरो (स्पेन) के ‘एलेना नोज’, ओल्गा तुर्गाचुक (पोलैंड) के ‘द बुक्स ऑफ जै़कब’ के साथ ही भारत की गीतांजलि श्री के हिन्दी उपन्यास ‘रेत समाधि’ के अंग्रेज़ी अनुवाद ‘टॉम्ब ऑफ सैंड’ (अनुवादक डेज़ी राक्वेल) को बुकर पुरस्कार हेतु नामित किया गया जिसमें से ‘रेत समाधि’ ने यह पुरस्कार प्राप्त किया।
एक अस्सी वर्षीय वृद्धा कैसे जीवन-रस को पाकर फिर से जीवंत हो उठती है, कैसे पुरुषसत्तात्मक समाज में अपना होना व अपना अस्तित्व पहचानती है और कैसे जीवन की रेत की समाधि से बाहर आकर एक नया जीवन जीने लगती है;यह उपन्यास का मूलतत्त्व है। वृद्धा भले ही दीवार की ओर मुँह कर लेती है और अपने घर-परिवार की तरफ पीठ लेकिन इस दीवार को भी वह वृद्धा पार कर जाना चाहती है और जीने की राह-चाह ढूँढती है। परिवार से तटस्थता को बरकरार रखते हुए वृद्धा अपनी बेटी के घर आ जाती है। बस यहीं से धीरे-धीरे वृद्धा के शारीरिक और मानसिक व्यवहार में परिवर्तन होने लगते हैं। वृद्धा अपने आप में खुलती-सी जाती है। उसके व्यक्तित्व के वलय अपने सारे चक्रों को मानो सिद्ध कर लेते हैं और दुनियादारी के चक्कर में फ़िर से आकर शामिल हो जाते हैं और जैसे वह फ़िर से जवान होने लगती है। सारी दीवारों को मानो वह गिरा देती है। अपनी शारीरिक अवस्था की दीवारों से बाहर निकलकर वह युवाओं की भांति चलने-फिरने-बोलने लगती है। मानसिक दीवारों की सीमा लांघकर वह आज की दुनिया की बातें सोचने-समझने-जानने लगती है। सामाजिक दीवारों को गिराकर यह कहानी भारत-पाकिस्तान की हदों-सरहदों को भी पार कर जाती है। यह उपन्यास सरहदों की बात करता है, उन सरहदों को पार कर जाने की बात करता है, उन सरहदों की सीमाओं का अतिक्रमण कर ‘लोकल से ग्लोबल’ हो जाने पर ज़ोर देता है। यही कारण है कि ‘रेत समाधि’ अपने शिल्प, कहन और प्रस्तुति में भी आज ग्लोबल स्तर का उपन्यास बनकर हमारे सामने आता है। एक वृद्धा का जीवन कैसे कथा का आधार बनता है, कैसे कथा बुनता है, कैसे इस आधार को अपेक्षित विस्तार देता है, कैसे इस विस्तार को भी संकुचित-सा करता हुआ अपनी ही सीमाओं का अतिक्रमण कर पार निकल जाता है और कैसे सभी तरह की सीमाओं को पार करके जीवन में समाधि की तरह शांत, स्थिर और अविचल रूप में हमारे सामने आता है, रेत समाधि का मूल प्रतिपाद्य है। यहाँ रोजी नामक थर्ड जेंडर किरदार का भी अपना महत्त्वपूर्ण योगदान है। रोजी वृद्धा को जीवन जीने की अनेक प्रकार के परामर्श देती है। रोज़मर्रा की छोटी-छोटी बातों की तरफ़ रोजी का अच्छा-खासा ध्यान है। रोजी की बातों से वृद्धा अपने पुराने दिनों को याद करने लगती है, न केवल याद करने लगती है बल्कि उसके यह पुराने दिन धीरे-धीरे वृद्धा पर अपना असर ही दिखाने लगते हैं। उपन्यास की उत्तरकथा में वृद्धा विभाजन के दिनों में पहुँच जाती है। उपन्यास के तीन भाग हैं–पीठ, धूप और हद-सरहद। ‘पीठ’ में वृद्धा परिवार वालों की ओर से पीठ फेरे रहती है। ‘धूप’ में वृद्धा अपनी वृद्धावस्था की स्याह बदलियों को छाँटकर धूप की तरह चमकती-चहकती दिखाई देती है। ‘हद-सरहद’ में विभाजन की कथा हमारे सामने आती है।
पत्रिका में रेत समाधि पर केंद्रित अनेक उपयोगी आलेख हैं। अपने आलेख ‘एक भिन्न आस्वाद का उपन्यास रेत समाधि’ में प्रो. रामकली सराफ लिखती हैं,“गहन संवेदनीयता व शिल्प का अद्भुत रसायन है यह उपन्यास। कथालोक का फैलाव अत्यंत विस्तृत भारत से लेकर पाकिस्तान तक है,जिसकी सम्बद्धता एक ओर वर्तमान से तो दूसरी और अतीत से है। बहुस्तरीयता व बहुस्वरता, संरचनागत वैविध्य लिए उपन्यास का फलक अनेक आयामी है। दरअसल गीतांजलि श्री अपने समय व समाज की नई आहटों को सुनने और भाँपने,नये अछूते किरदारों को सिरजने वाली अनोखी कथाकार हैं। शैल्पिक वैविध्य का एक अलग अंदाज़ लिए उसे रचती-गढ़ती नयी लीक पर चलने का जोखिम उठातीं, साधारण को असाधारण बना प्रस्तुत करने की अद्भुत कला से सम्बद्ध हैं।” ‘रेत समाधि: पीठ, धूप और हद-सरहद के पार गूँजती आवाज़’ आलेख में डॉ. रमेश कुमार का विचार है,“यह उपन्यास गद्यकाव्य में प्रस्तुत होता है। उपन्यासकार ने अपनी किस्सागो दृष्टि को अपनाते हुए इस महागाथा को व्यक्त किया है। उपन्यास के प्रत्येक बदलते पृष्ठों में देश-विदेश के मुद्दों, समसामयिक परिदृश्यों, प्राकृतिक सौन्दर्य, पशु-पक्षियों के जीवंत चित्र, मानवीय सम्बंधों के अंतर्द्वंद्व, देश-विदेश के महानगर-नगर, हद-सरहदों के किस्से, संयुक्त परिवार के बदलते सम्बंध तथा भारत उपमहाद्वीप का बँटवारा और मानवीय रिश्तों का विघटन आदि प्रमुखता से वर्णित हुआ है। उपन्यास की कथा के पात्र, चरित्र और किस्से प्रायः साधारण होते हुए भी असाधारण लगते हैं। निर्जीव वस्तु और सजीव पेड़-पौधे भी बहुत जीवंत लगते हैं। उपन्यास पात्रों के साथ साँस लेता है तथा उनकी गति के साथ संचरित होता है। उपन्यास की कथा प्रत्येक किस्से में साँस भरती है।” डॉ. जितेश कुमार ‘रेत समाधि’ को कथा परम्परा से इतर एक नई परम्परा की शुरुआत के रूप में देखते हुए कहते हैं,“कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि यह उपन्यास हिंदी कथा को एक नये परिवेश में ले जाने को तैयार है। इसकी विविधता ने प्रत्येक पाठक को तरोताज़ा किया है। उपन्यासकार का यह दावा कि ‘एक कहानी अपने आपको कहेगी’, पूर्णतः सत्य है। वास्तविकता भी यही है कि पूरी कहानी अपने आपको कहने के लिए ही आतुर दिखाई देती है। कथा अपने हिसाब से चलने के कारण ही अपनी लंबाई को प्राप्त हुई है। यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता है।” सुधा जुगरान ‘रेत समाधि’ को अ-कहानी के रूप में देखती हैं। वे ‘रेत समाधि’ के शिल्प पर बहुत गहराई से बात रखती हैं, विशेष रूप से इसके असामान्य वाक्य विन्यास और व्याकरण पर। उनका विचार है,“रेत समाधि अमूर्तन के ढाँचे पर मन और दुनिया का विशाल संसार रचती है। इसकी कहानी साधारण रोज़मर्रा की घटनाओं में असाधारण तत्त्वों से बनी एक ऐसी बुनावट है जिसकी कारीगरी की खूबसूरती बहुत पास से नहीं देखी जा सकती है। जब तक यह दूरी नहीं आती, अम्मा अपने साधारणपन में, अपनी दिमाग़ी उलझनों में एक अलग किस्म के भोलेपन से भीगी हुई दिखती हैं। उपन्यास पढ़ते हुए लगता है जैसे कहानी जितना अपने से बाहर विस्तार पाती है उतना ही अंदर की यात्रा भी करती है। कहीं-कहीं कहानी के सिरे पकड़ते-पकड़ते भी छूट से जाते हैं और पाठक एक बार को भटक जाता है लेकिन फिर आगे जल्दी ही रास्ता पकड़ कहानी का सिरा हाथ में आ जाता है।”
‘रेत समाधि’ स्ट्रीम आफ कॉन्शसनेस को आधार बनाकर लिखा गया उपन्यास है। ‘स्ट्रीम आफ कॉन्शसनेस’ अर्थात् चेतना की धारा। यह एक ऐसी शैली है जिसमें चरित्र की विस्तारित विचार प्रक्रिया के प्राकृतिक प्रवाह को पकड़ने का प्रयास किया जाता है। कई प्रकार के चरित्र, अधूरे विचार असम्बद्ध दृश्य, असमान वाक्य रचना, विचित्र सा व्याकरण; यह सब मिलकर कथावस्तु को एक नवीन भंगिमा प्रदान करते हैं।परंपरागत उपन्यास की आलोचना की आधारभूमि को छोड़कर ‘रेत समाधि’ बहुत ऊपर उठ गई है।पुरातन काल से चली आ रही सौन्दर्यशास्त्रीय मीमांसा की सीमाओं को पारकर इसने अपने सृजन की नयी सरहदों की सम्भावनाओं को सुस्थापित किया है। इन्हीं संभावनाओं की खोज ‘रेत समाधि’ में पाठक को ऐसे अनेक साहित्यिक अलंकार प्रदान करती है जो इस उपन्यास के विशिष्ट आभूषण बनकर इस की चमक को बढ़ाते रहे हैं। ‘रेत समाधि’ में फॉर्म से डिफॉर्म और पुनः डिफॉर्म से फॉर्म में आने की चंचलता और चपलता है। ‘रेत समाधि’ की रचना प्रक्रिया पर गीतांजलि श्री ‘नया ज्ञानोदय’ पत्रिका (जुलाई-सितंबर 2022) में खुलकर बात करती हैं,“वह जोड़ जमा, जिसने मुझे लिखना सिखाया और मैं कहूँगी पढ़ना भी। कोई जल्दी नहीं, विषय क्या है, सबसे बड़ी बात नहीं और अकेली बात नहीं। चाहे लिख रही हूँ या पढ़ रही हूँ, एक नये संसार में उतरने की उत्सुकता लेकर शुरू होना चाहती हूँ। कृति अपनी शर्तें बनाती है, बताती है और मैं उन्हें मानते-पहचानते बढ़ना चाहती हूँ और तब जाकर कृति अपना हुनर दिखलाएगी, सार्थक होगी या नहीं दिखलाएगी, असफल रहेगी। रेत समाधि रचने के लिए मेरी मानसिक जमीन इसी तरह से तैयार हुई।”
डॉ. शत्रुघ्न सिंह ‘रेत समाधि’ को देह और देश की सरहदों को नकारती एक काव्यात्मक कथा कहते हैं। डॉ. शगुफ़्ता नियाज़ अपने आलेख में ‘रेत समाधि’ में जादुई यथार्थवाद को निरूपित करती हैं। यथार्थवाद का अर्थ है यथा+अर्थ यानी जैसा है वैसा अर्थ। उल्लेखनीय है कि जादुई यथार्थवाद शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम् फ्रांज़ रोह द्वारा जर्मन चित्रकारी के सम्बंध में किया गया था। डॉ. शगुफ़्ता नियाज़ उपन्यास में कौतूहल, समाज और जीवन की वास्तविकताओं में यथार्थ के जादू के शिल्प को बिम्ब, फेंटेंसी, प्रतीक, कल्पना के परिप्रेक्ष्य में सामने लाती हैं। डॉ. भावना मासीवाल, डॉ रेशमी पांडा मुखर्जी, डॉ. उमा मेहता, डॉ. मीना राठौर, डॉ. प्रीति सिंह के आलेख भी उपयोगी हैं। डॉ. अनिस बेग रज्ज़ाक बेग मिर्झा ‘सरहदों में फँसी नारी गाथा’ आलेख में उपन्यास की रंगमंचीय विशेषताओं को सामने लाते हैं,“बँटवारे को केंद्र में रखकर हिंदी साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है, अभी और बहुत लिखा जाना है। यह बँटवारे की मार झेलने वाली तीसरी पीढ़ी की आँख कहा जाए तो गलत नहीं होगा, जिसकी कथा रंगमंचीय भाषा में आगे बढ़ती है। इसे गीतांजलिश्री का विशेष शिल्प भी कहा जा सकता है जिसमें केवल पात्र ही नहीं बोलते, वहाँ मौजूद प्रत्येक प्रॉपर्टी, ध्वनि, प्रकाश और अँधेरा भी बोलता है। खूबसूरती यह है कि जब नहीं बोल रहा होता, तब चुप्पियों के लिए भी लेखिका विशेष अर्थ में संवाद करती हैं।”
डॉ. विमलेश शर्मा की दृष्टि में रेत समाधि मूर्त-अमूर्त, हाल-माज़ी के तटबंधों के बीच लहलहाता किस्सों का रेत समुद्र है। उपन्यास की शिल्पकला और पाठकीयता पर उनके शब्द हैं,“रेत समाधि उपन्यास का शिल्प, कथानक, पात्र, संवाद और उनकी विविध भंगिमाएँ जो जाने कितनी संस्कृतियों से बँधी हैं; जाने कितनी धारणाओं और औपनिवेशिक मानसिकता में कसमसाती तो कहीं जागृत चेतना में रची-बसी हैं। कई-कई साँचों-खाँचों को यह किताब एक ज़िल्द में तोड़ती-बुहारती नज़र आती है। सघन गद्य और संवेदनात्मक स्तरों की अनेक तहों के बीच इस उपन्यास के किरदार अपने होने और न होने को तय करते हैं।यह उपन्यास भाषा के बियाबान में अपनी मनमर्जी से नई पगडंडियाँ बनाता है, चौड़े सपाट रास्तों पर कल-कल बहना इस उपन्यास की भाषा को मंजूर नहीं, ऐसा संक्षेप में कहा जा सकता है।” डॉ. शिवचंद प्रसाद ‘रेत समाधि’ को अकथ कहानी प्रेम की कहकर पुकारते हैं। ‘रेत समाधि’ पर उन्होंने अपनी विशिष्ट शैली में लिखा है जो वक्रोक्ति के गुणों से भरपूर है। वे लिखते हैं,“क्या उपन्यास को आधुनिक युग का महाकाव्य नहीं कहा गया है? या इससे असहमत हो कि गद्य कविता-सा सुंदर होना चाहिए? जब वीर में करुण घुस सकता है तो उपन्यास में कविता क्यों नहीं? यहाँ भी मर्दवादी दृष्टिकोण उपन्यास में कविता नहीं घुस सकती। ‘सकता है’ पर ‘सकती नहीं’। काव्य आनंद लेने की चीज़ और तुम हो कि बिलबिला रहे हो। जब जिसका मन करता है बिना दरवाज़ा खटखटाए घुस आता है–कभी प्रेमचंद तो कभी आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी अपने चेले काशीनाथ सिंह के साथ गपियाते चले आते हैं तो कभी टॉल्स्टॉय और दोस्तोवस्की आ पहुँचते  हैं। कभी कृष्णा सोबती, निर्मल वर्मा, इंतज़ार हुसैन, मंटो, विनोद कुमार शुक्ल धमक पड़ते हैं तो कभी प्रसिद्ध कलाकार जगदीश स्वामीनाथन और सलीम अली ‘अपनी-अपनी चिड़िया’ और ‘पक्षी कोश’ लिए चले आते हैं। विनोद कुमार शुक्ल तो ‘दरवाज़ा खिड़की’ उठाए चले जाते हैं। क्यों भाई अपने यहाँ अपनों के घर में भी रोक-टोक? डॉ. शिवचंद प्रसाद उपन्यास के विभाजन, सरहद, बिम्ब-प्रतीक, यथार्थवाद, मिथक, कल्पना, अतिरंजना के शैल्पिक तत्त्वों के साथ-साथ इसके पात्रों पर भी बखूबी कलम चलाते हैं। इस आलेख में जैसे वे अपनी विशिष्ट समीक्षा-शैली से ‘रेत समाधि’ का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन ही प्रस्तुत कर देते हैं।
‘रेत समाधि’ बेहतरीन अनुवाद की महत्ता को भी प्रतिष्ठा प्रदान करता है। सर्वविदित है कि जिन कृतियों के बेहतरीन अनुवाद आज उपलब्ध हैं, किस तरह वे ग्लोबल लिटरेचर क्लब में शामिल हो जाती हैं। यह उपन्यास भी इस बात का उपयुक्त उदाहरण बनकर हमारे सामने आता है। हिन्दी में यह उपन्यास 376 पृष्ठों का है जबकि अंग्रेज़ी में कुल 696 पृष्ठों का। ‘वाङ्मय’ पत्रिका का प्रस्तुत विशेषांक ‘रेत समाधि’ को जानने-समझने के लिए उपयोगी है। संपादक डॉ. फ़ीरोज़ खान का परिश्रम इसमें स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। एक ऐसा उपन्यास जिसके पक्ष और विपक्ष में पाठकों और समीक्षकों द्वारा बहुत कुछ कहा गया, उस पर केन्द्रित विभिन्न प्रकार के आलेखों का यह संग्रह  ‘वाङ्मय’ पत्रिका को प्रतिष्ठा प्रदान करता है।
डॉ. नितिन सेठी
सी 231,शाहदाना कॉलोनी
बरेली (243005)
मो. 9027422306

10 टिप्पणी

  1. बहुत ही सशक्त समीक्षात्मक लेख। डाॅ फ़िरोज अहमद जी तो हमेशा के तरह अपने प्रयास में सफल रहते हैं। सभी रचनाकारों को, डाॅ नितिन सेठी जी को, डाॅ फिरोज अहमद जी को हार्दिक बधाई व शुभकामनाएं।

  2. एक बेहतर उपन्यास का सार्थक तरीके से प्रस्तुतीकरण और और उसको पूरी ईमानदारी के साथ और उसको पूरे परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने मेंशामिल कर्मठता को नमस्कार और इस महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए फिरोज सर और अन्य लोगों को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं!!!

  3. एक बेहतर उपन्यास का सार्थक तरीके से प्रस्तुतीकरण और और उसको पूरी ईमानदारी के साथ और उसको पूरे परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने मेंशामिल कर्मठता को नमस्कार और इस महत्वपूर्ण कार्य करने के लिए फिरोज सर और अन्य लोगों को ढेर सारी बधाई और शुभकामनाएं!

  4. अत्यंत सारगर्भित और महत्वपूर्ण लेख।
    हार्दिक शुभकामनाएं

  5. सर्वप्रथम फ़ीरोज़ भाई को हार्दिक बधाई, जिन्होंने रेत समाधि जैसे अतुल्य उपन्यास पर विशेषांक प्रकाशित करने का बीड़ा उठाया। डॉ. नितिन सेठी की समीक्षा ने तो उपन्यास के सारे खिड़की-दरवाज़े खोल दिये। जो कुछ दिख रहा है, उसके परे का भी परिदृश्य दिखा दिया। यह साहित्यिक सैर कराने के लिए हृदय से साधुवाद स्वीकारें।

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