डॉ. कृष्ण कन्हैया की ग़ज़ल – फ़िक़्र है अपनों की दुआ न लगे
फ़िक़्र है अपनों की दुआ ना लगे
या रब! ऐसी तबीयत देना हमें
बंद कमरे में, सहेजता हूँ जज़्बा
बेवफ़ा कहता था, मुझे हर वक्त
मैं एहसास तक घुटनों पर था
मैं टुकड़ों में, जोड़ता रहा ग़म
कुछ नुक़्स, ढ़ूंढ़ने लगा हूँ उनमें
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