मगर मुख्य प्रश्न यह उठता है कि गोआ का फ़िल्म फ़ेस्टीवल तो सरकारी होता है। उसमें ज्यूरी के सदस्य एवं अध्यक्ष चुनने का काम भी सरकारी तंत्र ही करता है। फिर यह निर्णय किस ने लिया कि नदाव लैपिड को ज़्यूरी के अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किया जाए। क्या सरकारी अधिकारियों ने नदाव लैपिड की विचारधारा की जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी? यह व्यक्ति इज़राइल से भी ख़ुश नहीं है। इज़राइल छोड़ कर फ़्रांस में बसने वाला इन्सान स्वयं होलोकॉस्ट में भी विश्वास नहीं रखता। उसकी बनाई हुई फ़िल्में उसके व्यक्तित्व के बारे में इशारा करती हैं। तो उसे गोआ फ़्लिम फ़ेस्टीवल की ज्यूरी का अध्यक्ष बनाने की मजबूरी क्या थी? जवाबदेही सरकारी तंत्र की बनती है।

वैसे इस सप्ताह हमें लिखना तो सऊदी अरब के फ़िल्म फ़ेस्टिवल पर चाहिये था; क्योंकि उस धरती पर फ़िल्म फ़ेस्टिवल का आयोजन किसी अजूबे से कम नहीं है। इस्लामी देशों में एक तरफ़ तो फ़ुटबॉल के विश्व कप के मैच चल रहे थे तो दूसरी तरफ़ वैश्विक सिनेमा का फ़ेस्टिवल आयोजित हो रहा था। मगर इस विषय पर हम किसी विशेषज्ञ का लेख आपके सामने प्रस्तुत करना चाहेंगे। फ़िलहाल हम अपना फ़ोकस रखेंगे हाल ही में संपन्न हुए गोवा फ़िल्म फ़ेस्टिवल पर।
सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था कि अचानक एक दिन इस्राईली फ़िल्म निर्माता ने एक बम धमाका कर डाला। भारत की इस वर्ष की सबसे सफल फ़िल्मों में से एक ‘दि कश्मीर फ़ाइल्स’ को उन्होंने अश्लील करार दे दिया।
लैपिड ने अपने भाषण में कहा, “आमतौर पर, मैं कागज से नहीं पढ़ता। इस बार, मैं सटीक होना चाहता हूँ। मैं महोत्सव की सिनेमाई समृद्धि, विविधता और जटिलता के लिए निर्देशक और प्रोग्रामिंग के प्रमुख को धन्यवाद देना चाहता हूं… अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में 15 फिल्में थीं – उत्सव की फ्रंट विंडो। उनमें से चौदह में सिनेमाई गुण थे… और उन्होंने विशद चर्चाएं कीं। 15वीं फिल्म ‘दि कश्मीर फाइल्स’ से हम सभी परेशान और हैरान थे। यह हमें एक प्रचार, अश्लील फिल्म की तरह लगा, जो इस तरह के प्रतिष्ठित फिल्म समारोह के कलात्मक प्रतिस्पर्धी वर्ग के लिए अनुपयुक्त है।” 
ज़ाहिर है कि भारत में लेपिद के इस अहमकाना बयान के विरुद्ध ख़ासा आक्रोश उभरा। मगर भारत की विपक्षी पार्टियों ने लेपिद के बयान के साथ भी राजनीति खेलनी शुरू कर दी। कांग्रेस प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने कहा, ‘‘प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, उनकी सरकार, भाजपा ने ‘द कश्मीर फाइल्स’ का जमकर प्रचार किया। भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव ने इस फिल्म को खारिज कर दिया। जूरी प्रमुख नदव लापिद ने इसे ‘दुष्प्रचार करने वाली, भद्दी फिल्म – फिल्म महोत्सव के लिए अनुचित बताया।’’
शिवसेना सांसद प्रियंका चतुर्वेदी ने इजराइली फिल्म निर्माता के भाषण का वीडियो लिंक साझा किया। उन्होंने कहा, ‘‘कश्मीरी पंडितों के लिए न्याय के एक संवेदनशील मुद्दे को दुष्प्रचार की वेदी पर बलिदान कर दिया गया।’’
संजय राउत ने भी  दि कश्मीर फाइल्स को एक प्रोपेगंडा फिल्म बता दिया है। उन्होंने मीडिया से संवाद साधते हुए कहा कि यह फिल्म एक पार्टी के पक्ष का प्रचार और दूसरी पार्टी के विरोध में प्रचार करने वाली फिल्म है। इस फिल्म के रिलीज होने के बाद कश्मीरी पंडितों पर हमले कम नहीं हुए, बल्कि घाटी में हमले बढ़ गए हैं। संजय राउत ने आगे कहा कि अगर कश्मीरी पंडितों को लेकर इतनी संवेदना है तो फिल्म ने जो करोड़ों रुपए की कमाई की है उनका एक हिस्सा कश्मीरी पंडितों के उत्थान के लिए दिया जाना चाहिए था… लेकिन ऐसा नहीं किया गया।
बेबाकी से अपनी राय रखने के लिए पहचाने जाने वाली अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने फिल्म महोत्सव के समापन समारोह में लापिद की टिप्पणियों को लेकर एक खबर का लिंक साझा किया। उन्होंने कहा, ज़ाहिर तौर पर यह दुनिया के लिए साफ और स्पष्ट है…।
इस्राईली फ़िल्म निर्माता और गोवा में हुए इंटरनेशनल फ़िल्म फ़ेस्टिवल के चीफ़ ज्यूरी नदाव लेपिद द्वारा हिंदी फ़िल्म कश्मीर फ़ाइल्स को लेकर की गई सख़्त टिप्पणी के बाद इस्राईल के वरिष्ठ राजनायिकों ने लेपिद की ख़ासी आलोचना की है। 
भारत में इस्राईल के राजदूत नाओर गिलोन ने नदाव लैपिड को एक खुला पत्र लिख कर उनके बयान का विरोध किया है… और कहा है कि उन्हें ‘अपने इस बयान पर शर्म आनी चाहिए। गिलोन ने नदाव के पत्र के शुरू में लिखा है कि “यह ख़त हिब्रू में नहीं लिख रहा हूं क्योंकि मैं चाहता हूं कि मेरे भारतीय भाई और बहन मेरी बात समझें। यह ख़त थोड़ा लंबा है इसलिए पहले मैं मुद्दे की बात कह देता हूं- ‘आपको (नदाव लपिड) शर्म आनी चाहिए।
गिलोन ने भारत और इस्राईल के रिश्तों का हवाला देते हुए नदाव लेपिड को लताड़ा और स्पष्ट किया कि इस्राईल उनके बयान के साथ नहीं खड़ा है। 
फ़िल्म निर्माता अशोक पंडित ने नदाव लेपिड के बयान को कश्मीरी पंडितों का अपमान बताया है। उन्होंने लेपिड जैसे शख़्स को जूरी का मुखिया बनाए जाने पर सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय की इस बात पर आलोचना की है। 
अभिनेता अनुपम खेर ने भी ट्वीट करके लेपिड के बयान की आलोचना की है। अनुपम खेर ने लिखा है, “झूठ का क़द कितना भी ऊंचा क्यों न हो… सत्य के मुक़ाबले में हमेशा छोटा ही होता है।” 
अजित राय शायद हिन्दी के एकमात्र ऐसे पत्रकार हैं जो विश्व भर के फ़िल्म फ़ेस्टिवलों में भाग लेते रहे हैं। जब मैंने उनसे पूछा कि क्या उन्हें याद पड़ता है कि कभी किसी अन्य फ़िल्म फ़ेस्टिवल में ज्यूरी के अध्यक्ष ने कभी किसी फ़िल्म के बारे में इस तरह से सार्वजनिक बयान फ़ेस्टिवल के मँच से दिया हो। अपने दिमाग़ पर बहुत ज़ोर देने के बाद भी वे ऐसा कोई उदाहरण याद नहीं कर पाए। वे गोआ में उस समय मौजूद थे जब नदाव लेपिड ने दि कश्मीर फ़ाइल्स को ‘एक प्रोपेगैण्डा और वल्गर’ कहा। 
एक सवाल उठता है कि क्या शिंडलर्स लिस्ट, दि पिऐनिस्ट, दि डायरी ऑफ़ ऐन फ़्रैंक जैसी कम से कम पिचहत्तर से अधिक फ़िल्में जो कि जर्मनी में यहूदियों के नरसंहार पर आधारित थीं… एक प्रोपेगैण्डा थीं और वल्गर थीं? क्या उन फ़िल्मों में नाज़ियों या हिटलर का पक्ष दिखाया गया था? क्या रावण, कंस या फिर यीशू के हत्यारों का भी पक्ष दिखाना फ़िल्म में आवश्यक है। क्या नया दौर जैसी फ़िल्म में ज़मींदार के बेटे का पक्ष दिखाना चाहिये था? दो बीघा ज़मीन के ज़मींदार का भी तो कोई पक्ष होगा या फिर मदर इंडिया के सुक्खी लाला की भी तो कोई सोच रही होगी। 
वैसे यह सच है कि बॉलीवुड में गंगा जमुना, मुझे जीने दो, दीवार, बाज़ीगर जैसी कुछ फ़िल्में हैं जो कि नकारात्मक किरदारों को हीरो बना कर पेश करती हैं। मगर अमिताभ बच्चन के एंग्री यंग मैन के रूप में अवतार लेने के बाद अंडरवर्ल्ड के गुण्डे सिल्वर स्क्रीन के नायक बन कर उभरने लगे थे। फ़िल्मों में हिंसा बढ़ने लगी थी।  
सच तो यह है कि दि कश्मीर फ़ाइल्स के निर्माता निर्देशक ने दावा किया है कि उन्होंने सैंकड़ों लोगों का इंटरव्यू करने के बाद ही फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया। और यह भी को जो-जो घटनाएं फ़िल्म में दिखाई गयीं वे कश्मीर में घटित हुई थीं। उन घटनाओं में से एक भी घटना काल्पनिक नहीं है। तो क्या सच को पर्दे पर दिखाना वल्गर प्रोपेगैण्डा है?
बहुत से लोगों ने नदाव लैपिड पर कश्मीरी पंडितों की पीड़ा के प्रति असंवेदनशील होने का आरोप लगाया है. इस ताजा विवाद के बीच, आईएफएफआई जूरी बोर्ड ने एक बयान जारी कर कहा कि जूरी प्रमुख और इजराइली फिल्म निर्माता नदाव लैपिड ने फिल्म के बारे में जो कुछ भी कहा है, वह उनकी “व्यक्तिगत राय” है.
बोर्ड ने कहा, “जूरी बोर्ड की आधिकारिक प्रस्तुति में महोत्सव निदेशक और आधिकारिक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, जहां हम 4 जूरी मौजूद थे और प्रेस के साथ बातचीत की, हमने कभी भी अपनी पसंद या नापसंद के बारे में कुछ भी उल्लेख नहीं किया. दोनों ही हमारी आधिकारिक सामूहिक राय थी.” 
“जूरी के रूप में, हमें फिल्म की तकनीकी, सौंदर्य गुणवत्ता और सामाजिक-सांस्कृतिक प्रासंगिकता का न्याय करने के लिए नियुक्त किया गया है. हम किसी भी फिल्म पर किसी भी प्रकार की राजनीतिक टिप्पणी में शामिल नहीं होते हैं और यदि यह किया जाता है, तो यह पूरी तरह से व्यक्तिगत है.” 
मगर मुख्य प्रश्न यह उठता है कि गोआ का फ़िल्म फ़ेस्टीवल तो सरकारी होता है। उसमें ज्यूरी के सदस्य एवं अध्यक्ष चुनने का काम भी सरकारी तंत्र ही करता है। फिर यह निर्णय किस ने लिया कि नदाव लैपिड को ज़्यूरी के अध्यक्ष के रूप में आमंत्रित किया जाए। क्या सरकारी अधिकारियों ने नदाव लैपिड की विचारधारा की जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की थी? यह व्यक्ति इज़राइल से भी ख़ुश नहीं है। इज़राइल छोड़ कर फ़्रांस में बसने वाला इन्सान स्वयं होलोकॉस्ट में भी विश्वास नहीं रखता। उसकी बनाई हुई फ़िल्में उसके व्यक्तित्व के बारे में इशारा करती हैं। तो उसे गोआ फ़्लिम फ़ेस्टीवल की ज्यूरी का अध्यक्ष बनाने की मजबूरी क्या थी? जवाबदेही सरकारी तंत्र की बनती है। 
लेखक वरिष्ठ साहित्यकार, कथा यूके के महासचिव और पुरवाई के संपादक हैं. लंदन में रहते हैं.

19 टिप्पणी

  1. कुछ लोगों की उदारता(?) समझ में नहीं आती। सम्भवतः सभी सुकरात बनने की कोशिश करते हैं जो अपने हत्यारे से भी पूछ लेंगे कि, “हमारी गर्दन कटते हुए आपके हाथों में दर्द तो नहीं हुआ?”
    कोई भी कौवा-खदम्बर, यदि भारत की वर्तमान नीतियों के विरुद्ध कुछ भी प्रलाप कर दे तो भारत में उसके समर्थक मिल ही जायेंगे, ऐसे ही घर के भेदी न होते तो भारत की ग़ुलामी का इतिहास इतना लम्बा नहीं होता। एक बेबाक लेख के लिए धन्यवाद और शुभकामनाएं।

  2. खरी खरी बात लिखी आपने , तेजेंद्र जी !
    जहर उगलने वाला ज्यूरी का अध्यक्ष बन जाए तो उसका जहर अधिक हानिकारक होजता है।
    जानना चाहूंगा इस विवाद के बाद फिल्म दिखाई गई या जबानी सहानुभूति दिखा कर काम चलाया गया।

  3. समाज में हिंसाए होती रही हैं। प्रतिक्रियाएँ उस के प्रस्तुतीकरण पर आधारित रहती हैं। दर्शक ने घटनाओं को जिस प्रकार प्रस्तुत किया वह दिल दहलाने वाली हैं। मुझे सारे कश्मीरी मुसल्मानो से घृणा होने लगी।जब मेरा ही ये हाल था तो मेरे हिंदू भाइयों पर क्या गुज़री होगी ? उनका विशेष समुदाय के प्रति द्वेष भावना का उभरना स्वभाविक है जिस का फ़ाल हम पद्मावत जैसी और अब ख़ान फ़िल्म के प्रति देख ही रहे हैं।सींचने वाली बात यह है कि आज के विकासशील भारत तथा प्रगतिशील दुनिया के लिए ऐसे विषय आवश्यक हैं ?

    • डॉ. अन्सारी आपने महत्वपूर्ण सवाल पूछा है।… दरअसल संपादकीय का मुख्य मुद्दा ज्यूरी के अध्यक्ष के व्यवहार पर है।

  4. Questioning the government body for selecting Nadav Lepid as chairman of the International Film Festival of India held at Goa this year is an important question.
    It is unfortunate indeed that while Lepid made unpleasant remarks against the film Kashmir Files we have among our own Indians who supported Lepid.
    Kudos to you,Tejendra ji,for pointing it all out most sincerely and earnestly.
    Regards
    Deepak Sharma

  5. नदाव लैपिड को ज़्यूरी चीफ किसने बनाया, संपादकीय न सिर्फ प्रश्न खड़ा करता है वरन कश्मीर फाइल्स जैसी फ़िल्म संवेदनशील फ़िल्म पर नादाव लेपिड के साथ राजनैतिक रोटियां सेकने वाले राजनीतिज्ञओं की संवेदनहीन मनोवृति को भी दर्शाता है।
    इसी मनोवृति ने हमारे देश का बहुत नुकसान किया है। इस मुद्दे का सटीक विश्लेषण करने के लिए आपको बधाई।

      • खरी खरी लिखते हैं तेजेन्द्र जी जिनसे खरे प्रश्न उभरते हैं। जिनका उठना वाजिब है। किंतु क्या खरे उत्तर प्राप्त होते हैं? सब वृत्त में घूमते हुए शून्य पर अटक जाते हैं। इसके लिए बहुत लोगों की ज़िम्मेदारी बनती है किंतु कटघरे में खड़ा करने पर भी चुप्पी की पट्टी लग जाती है और… बस… ।
        संवेदनशील संपादकीय के लिए आप धन्यवाद के अधिकारी हैं।

  6. आदरणीय संपादक महोदय
    इतना सार्थक और प्रासंगिक प्रश्न उठाने के लिए बधाइयां और धन्यवाद!
    इन दिनों की जो सबसे बड़ी विडंबना मुझको दिखाई पड़ती है वह यह है कि तथाकथित ‘सेलिब्रिटी’ बनते ही लोग अपने को सर्वज्ञ मानने लगते हैं ! श्री नवाद लेपिड की जानकारी अथवा उनकी संवेदनशीलता फिल्मों के कथानक और पटकथा के शिल्प और प्रस्तुतिकरण के बारे में सकती है ,परंतु उनकी प्रासंगिकता अथवा वास्तविकता की उनको कितनी जानकारी होगी यह विचारणीय है । इस तरह का वक्तव्य और टिप्पणी देना उनकी अनाधिकार चेष्टा ही कही जाएगी।
    वही हाल हमारे देश में फिल्म अभिनेताओं ,अभिनेत्रियों का है ,जो केवल अपने अभिनय और रूप के कारण समाज में एक स्थान बना लेते हैं, वे स्वयं को लोगों की धार्मिक भावनाओं ,सामाजिक ,राजनैतिक स्थितियों का भी ज्ञाता समझने लगते हैं और मांगे बिन मांगे अपनी सलाह देने लगते हैं ।कुछ समय पहले की बात है मैंने एक लोकप्रियअभिनेत्री का साक्षात्कार पढ़ा, जिसको यह अनुमान नहीं था कि अर्धनग्न चित्रों वाले विज्ञापनों का उद्देश्य दर्शक/पाठक की उत्तेजना उभारना होता है। इस प्रकार के ‘निरीह’ और मूर्खतापूर्ण वक्तव्य देने वाली अभिनेत्रियों अभिनेताओं के’ प्रलाप ‘ यदि बौद्धिक, सामाजिक और राजनैतिक रूप से अप्रासंगिक और अमान्य हो तो आश्चर्य कैसा?
    जहां तक यह प्रश्न है कि किसने बनाया ?तो अंधेरे कोनों में अभी कई सांप छिपे बैठे हैं, जो समय पाते ही अपने फन उठाकर ढकने की कोशिश करना नहीं छोड़ते?

    • सरोजिनी जी इतनी विस्तृत एवं सार्थक टिप्पणी हमारे लिये लाभदायक है। हम हर टिप्पणी से कुछ न कुछ अवश्य सीखते हैं।

  7. इसका मतलब है की भाजपा सरकार में भी लोग हैं जो इस फिल्म को गलत मानते हैं और सोचते हैं की वो नफरत की खाई को और फैलाने चिंगारी को हवा देने और वोट बैंक मजबूत करने वाली फिल्म हे जिस के प्रचार और प्रसार में बी जे पी के दीगज नेता भी शामिल थे यहां तक कि मोदी जी भी ! अब सवाल यह की सरकार में शामिल वो लोग जो इस फिल्म को गलत मानते हैं अगर वो आवाज़ उठाते हैं तौ…..या तो वो नोकरी से हाथ धो बैठेंगे, अपना पॉलिटिकल करियर गवां बैठेंगे या जेल में होंगै या बिल्डोजर बाबा का कहर उन पर टूटेगा इसी लिए वो खामोश रहे मगर जब un को मौका मिला तो वो फिल्म है इंडस्ट्री के उस दबंग को सामने ले आए जो वो बात कह सके जो खुद उन के दिल में हे मगर मजबूरी के तहत वो कहे नहीं सकते

    • परवेज़ भाई, आपने विषय को एक नये दृष्टिकोण से न केवल देखा है बल्कि हम सब के साथ साझा भी किया है। पुरवाई के पाठक अवश्य आपकी टिप्पणी के मद्देनज़र, संपादकीय को एक बार फिर पढ़ने का प्रयास कर सकते हैं।

  8. संपादकीय के साथ साथ टिप्पणियां भी पढ़ी हमनें, फ़िल्म का मसौदा मतलब घटनाएं सत्य हैं , यह फिल्म निर्माता का दावा है । जो कश्मीरी पंडितों के जीवन के खौफ और उनको दी गई यातनापूर्ण हत्याओं की वास्तविकता को दर्शाती है । नवाद लेपिड किस विचार धारा का व्यक्ति है, यह बुलाने वालों को अवश्य ज्ञात होगा यदि नहीं भी था …. तब भी उसकी बात का विरोध न किया जाना … एक अंधेरे कोने में छिपे बैठे उन जहरीले सांपों का एक ठिकाना दिखा गया जो वक्त पड़ते ही आगे भी डसने से बाज नही आयेंगे। भारतीयों को इन गतिविधियों से और भी सावधान रहने की जरुरत होगी। आपकी संपादकीय में प्रश्न बहुत खरे और तीखे तेवरों वाले होते हैं। उसके लिए आपकी सोच और कलम को बधाई तो बनती है। और जनता के साथ साथ सरकारी तन्त्र को भी जिम्मेदारी और समझ की हदें व्यापक करनी होगी जिससे सभ्यताएं नष्ट होने से बची रहें।

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