कोरोना वायरस के संकट के बीच दुनिया में युद्ध और उन्माद का माहौल बन रहा है, ऐसे में पिकासो की पेंटिंग गुएर्निका हमें इंसानी भविष्य की सच्चाई के पास ले जाती है
दुनिया तीसरे विश्वयुद्ध की तरफ बढ़ रही है, और हम यहां एक पेटिंग पर चर्चा करें। कमाल है।  गुस्ताखी भी, उन ट्रेंड्स के खिलाफ जिनका कोलाहल हमारे चारों तरफ मौजूद है – कोरोना, अमेरिका, चीन, ट्रंप, इकोनॉमी, मजदूर, मौलाना…आदि- इत्यादि। इतने जरुरी मसलों के बीच कला चर्चा! बेतुका राग और अप्रासंगिक लेखकीय जुर्रत नहीं तो और क्या कहा जाये इसे। जनाब, अगर रीडर टीआरपी जैसी कोई चीज वजूद में होती तब जीरो ही मिलता लिखने वाले को। यह सब पढ़ते वक्त कुछ ऐसे ही विचार आपके मन में आयेंगे। आप गलत नहीं हैं, माहौल का तकाजा है, लेकिन हम भी मानने वाले नहीं। नाना प्रकार की मीडियाओं, सूचनाओं, चर्चाओं के इस बड़े भारी नक्कारखाने में हम अपनी इन बेतुकी बातों की तूती और नपीरी को जरुर बजायेंगे। आपको जबरन पिकासो और गुएर्निका की कथा सुनायेंगे। इस उम्मीद के साथ कि शायद यह आपके काम आ सके और दुनिया के भी। 

यह तस्वीर जो आप देख रहे हैं इसका शीर्षक है – गुएर्निका। यह मकबूल चित्रकार पाब्लो पिकासो साहब की एक मशहूर पेंटिग है, करीब साढ़े 25 वाई 11 फिट साइज में इसकी प्रतिकृति संयुक्त राष्ट्र संघ (यूएनओ) के दफ्तर में एक दीवार पर सज्य है। यूएनओ वही संस्था है जो दूसरे विश्व युद्ध के बाद बनी और लिखा पढ़त में यह धरती पर शांति, गौरव, बराबरी और स्वास्थ को समर्पित एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है।
ठीक कुछ – कुछ उसी तरह जैसे बचपन में हमारी क्लास का मानीटर होता था। जब दो लड़ें तब मामला निपटाये और हां, क्लास टीचर की पसंद – नापसंद का भी ख्याल रखे। इसका यानी यूएनओ का हेडक्वार्टर न्यूयार्क में है और न्यूयार्क अमेरिका में, यह तो आप जानते ही हैं। उसी अमेरिका में जहां के राष्ट्रपति ट्रंप के कंधे पर उनके 75 हजार नागरिकों की लाशों का बोझ है।
वह अमेरिका को अंडर अटैक बता रहे हैं। कोरोना का चाइनीज वाइरस। कह रहे हैं कि कोरोना का हमला अमेरिका पर पर्ल हार्बर और 9/ 11 के हमले से भी बड़ा हमला है। अगर यह बाकई चीन का हमला है तब उनकी बात सही है और अगर यह दुर्घटना है तब भी एक अदृश्य शत्रु के खिलाफ उनकी बात सही है। बताते चलें कि पर्ल हार्बर पर हुए हमले का जवाब जापान पर परमाणु बमों का धमाका था और 9 / 11 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए हमलों का जवाब अफगानिस्तान की बर्बादी और ओसामा बिन लादेन की मौत।
हो सकता है अब बारी चीन की हो, लेकिन चीन भी ना तो 1945 का जापान है और ना ही हाल वक्त का अफगानिस्तान और पाकिस्तान। मसला साफ है कि कोरोना अभी मौत का तूफान है, अगर तीसरा विश्व युद्ध हुआ तब वह इंसानी सभ्यता के विनाश की सुनामी होगा। 
भविष्य की इस भयावह तस्वीर के बीच हम अपनी बात को वापस फिर पेंटिंग गुएर्निका पर ले आते हैं। ब्लैक, व्हाइट और ग्रे शेड की यह आयल पेंटिंग दुनिया में युद्ध के खिलाफ कला की सबसे सशक्त आवाज है। ऐसा इसलिए नहीं कि इसकी कापी यूएनओ में प्रदर्शित है वल्कि इसलिए क्योंकि इसकी आड़ी तिरछी लकीरों में छिपे युद्ध और हिंसा विरोध के सशक्त संदेश की बजह से ही यूएनओ ने इसे अपनी दीवार पर सजाया है। इसमें छिपे संदेश को समझना उनके लिए भी जरुरी है जिन्हें युद्ध चाहिए और उनके लिए भी जिन्हें अनंत काल तक इंसानी सभ्यता के कायम रहने और इसके फलने फूलने पर पूरा भरोसा है।
गुएर्निका राजनीति को आइना दिखाती बेजोड़ कला का नमूना है। इसकी पटकथा पहले और दूसरे विश्वयुद्ध के बीच सन् 1937 की है। इसमें स्पेन है, युद्ध है, लाशें हैं, तबाही है,विभीषिका है, साथ में इंसानी वजूद को कायम रखने का कला संकेत भी है। स्पेन के बास्क क्षेत्र का एक शहर है गुएर्निका।  तीन घंटे में हिटलर की खूनी जर्मन सेना की बमबारी से जमींदोज हो गया। चारों तरफ आग, टूटी इमारते और लाशें ही लाशें, खून से लथपथ आदमी, औरते बच्चे। खौफनाक मंजर।
गृह युद्ध से जूझ रहे स्पेन के राष्ट्रवादियों ने फ्रांस में होने वाले वर्ल्ड आर्ट फेयर को एक मौके की निगाह से देखा। अपने चहेते चित्रकार पिकासो से कहा कि वह स्पेनिश पवेलियन के लिए कुछ ऐसा बनायें कि स्पेनिश लोगों का दर्द दुनिया से साझा हो सके। करीब तीन हफ्ते में पिकासो ने पेंटिंग को तैयार किया, नाम यानी टाइटिल दिया – गुएर्निका। एक ऐसे शहर की दास्तान जिसने युद्ध के दर्द को भोगा है। 
फ्रांस के फेयर में रिपब्लिकन पवेलियन के प्रवेश द्वार पर पहली बार गुएर्निका दुनिया के सामने आयी। सिर्फ दिमाग से किसी कलाकृति को पढ़ा या समझा नहीं जा सकता। पिकासो की यह एक जटिल रचना थी, इसको पढ़ना आसान नहीं था, जब तक आप उसे दिल से महसूस ना करें। पेंटिंग के केंद्र पर एक भयावह घोड़े का कब्जा, जो नीचे गिरे सवार को ठोकर मार रहा है, ऊपर एक लाइट बल्ब और उसकी नुकीली रोशनी, प्रतीक महसूस होता है खूनी फासीवाद के विस्तार का।
एक उछलता सा बेलगाम सांड एक गोद में बच्चे को लिए सुस्ताती मां को घेर रहा है। भूतिया आकृतियां, खंडहर, गैसलाइट थामे निराशा में डूबी महिला, रक्तरंजना और विभीषिका। यही कुछ पात्र हैं गुएर्निका की कलागाथा में, और हां, सबसे अहम टूटी तलवार और इन सबके बीच खिला एक छोटा सा फूल भी। कला में मेरी जानकारी न्यूनतम से भी कम है, पर महसूस कर सकता हूं कि यह एक अभूतपूर्व दृष्टिकोण है।
इतना कन्ट्रास, निराशा के चरम के बीच उम्मीद का फूल। ऐसी उम्मीद, जो हमें बताती है कि फूल का रंग रक्तरंजना के लाल रंग पर हमेशा भारी रहेगा। चुनना हमे होगा कि हमें कौन सा रंग चहिए। पिकासो ने कभी इस पेंटिंग के अर्थ के बारे में ज्यादा कुछ नहीं कहा। व्याख्या देखने वालों, आलोचकों और कला इतिहासकारों के लिए छोड़ दी। 
युद्ध और हिंसा के खिलाफ तूलिका उठाने वाले इस अद्भभुत कलाकार ने जनरल फ्रांसिस फ्रेंकों के शासनकाल में गुएर्निका को कभी स्पेन नहीं जाने दिया। कहा – जिस दिन स्पेन में गणराज्य बहाल होगा, निर्वासित तस्वीर भी अपने घर लौट जायेगी। फ्रांस के नाजी कब्जे के डर के बीच पिकासो ने गुएर्निका को न्यूयार्क के म्यूजियम आफ मार्डन आर्ट को बीस साल के लिए सौंप दिया। जहां इस कलायात्रा ने प्रतीकवाद की बहस को एक नए आयाम तक पहुंचाया। 1975 में फ्रेंको की मौत के बाद गुएर्निका को आखिरकार उसका घर मिला। मेड्रिड का म्यूजियम जहां 1981 में गुएर्निका को सम्मानजनक स्थान मिल सका। 
कहते हैं कि पहला विश्वयुद्ध जो टैंकों से शुरु होकर हवाई जहाजों पर खत्म हुआ था, उसने करीब डेढ़ करोड़ इंसानों का खून बहाया था। दूसरे विश्वयुद्ध की शुरुआत हवाई हमलों से हुई और खात्मा परमाणु बमों के धमाकों पर हुआ। हिरोशिमा और नागासाकी तबाह हो गए। सात से आठ करोड़ लोगों की लाशें गिरी। खून की नदियां वहीं। ऐसी विभीषिका कि जो शब्दों में भी ना समा सके। 
करीब करीब 75 साल बीत चुके। इस बीच दुनिया पूरी तरह से कभी आपस में नहीं उलझी। लगता है अब उलझने वाली है। कोरोना वायरस देशों को तीसरे विश्व युद्ध के दरवाजे पर लाकर खड़ा कर चुका है। अगर युद्ध हुआ तब शायद शुरुआत ही परमाणु बमों से होगी और खात्मा पूरी सभ्यता के खात्मे के साथ। जो बचेंगे वह खुद को प्रागेतिहासिक काल में पायेंगे और उन पर लड़ते रहने के लिए लाठी डंडों के सिवाय शायद कुछ नहीं बचेगा। कोरोना की तबाही आ चुकी, मौत की सुनामी आना बाकी है। ट्रेड वार पहले से था। ट्रेड को वायरस खा गया। वार बाकी है। प्रोपोगंडा के घोड़ों पर सवार ताकतें तबाही की भाषा बोल रही हैं। लगता है तटस्थता किसी का विकल्प नहीं होगी। 
तय हम इंसानों को करना है कि हम क्या चाहते हैं। हम किसके साथ हैं – तबाह मानवता, खून में नहाये स्त्री – पुरुषों और बिलखकर दम तोड़ते बच्चों की तस्वीरों के साथ या फिर जुल्म करते करते टूट चुकी तलवार के सामने खिले इंसानियत के एक फूल के साथ। गुएर्निका हमें यही समझाती है। काश, हम समय से समझ पायें और हम दुनिया के चाहें जिस भी कोने में रहते हों अपने अपने हुक्मरानों को भी समझा भी सकें। युद्ध और उन्माद के खिलाफ एक साथ एक आवाज बनकर। 
लेखक अनुभवी पत्रकार व पत्रकारिता एवं जनसंचार में पीएचडी हैं। leaderposts.com नामक वेबसाइट के संस्थापक संपादक हैं। उद्यम एवं व्यावसाय से भी जुड़े हैं। इनसे pwn1313@rediffmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

3 टिप्पणी

  1. शानदार आलेख।कला और युद्ध के बीच अपने समय को पहचान करने की कोशिश।आने वाले समय की आहट को एक ऐसे नज़रिए से देखना जो मानवता से भरा हुआ है।

  2. युद्ध की विभीषिका की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति के लिए साधुवाद आदरणीय भाईसाहब।

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