Saturday, July 27, 2024
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डॉ. प्रवीण कुमार अंशुमान का लेख – रिश्तों की बारीकियां

मनुष्य-जीवन रिश्तों की बुनावट के बीच अधूरी रह जाने वाली एक ऐसी यात्रा का नाम है जिसे कोई बिरला ही उसके असली मुक़ाम तक पहुंचा पाता है। इन रिश्तों की चादर में सिलवटें इतनी ज़्यादा होती हैं कि उनसे आदमी के जीवन में कितनी बेचैनी भरी है, बस उसका ही पता लग पाता है। सुकून और शांति उसके जीवन में स्वाभाविक पलों की तरह कभी आ ही नहीं पाते हैं, और शायद इसीलिए जिस ‘समझ’ को उसे अपने जीवन में उपलब्ध करना होता है, उसे वह कभी भी उपलब्ध नहीं कर पाता है।

लगभग हर व्यक्ति का (समान्य) जीवन एक ऐसा ही अंतर्जाल है जिसे समझ समझ कर भी वह कभी समझ नहीं पाता है और शायद इसीलिए वह अपने जीवन में कभी किसी दूसरे को समझा भी नहीं पाता है।

अक्सर तो ऐसा होता है कि एक व्यक्ति अपने पारिवारिक रिश्तों में सच्चाई, निष्ठा और बेशर्त प्रेम की हर एक सदस्य से उम्मीद लगाए रखता है, मगर जिसके बदले में उसे जीवनभर खट्टे अनुभवों से तिख्त जीवन का ही स्वाद मिलता रहता है। उसकी कोशिश तो अपने जीवन को अमृत-स्वाद से भरने की रहती है, मगर सिर्फ़ कोशिश से अगर सब कुछ उपलब्ध होता, तो फिर क्या ही कहना था। तब तो सबको सब कुछ मन मुताबिक़ मिल ही जाता। मगर कोशिश और ठीक-ठीक समझ दोनों मिलकर ही जीवन में सही फल को ला पाती हैं, वरना ‘समझ’ सपनों में देखें उन दृश्यों की तरह होती है जिसकी कहानी हक़ीक़त के पन्नों पर बस कभी-कभी ही लिखी जा सकी है।

जीवन में परिवार के सदस्य हो जाने से कोई आवश्यक रूप से अच्छा और बाहरी होने के नाते आवश्यक रूप से कोई बुरा नहीं होता है। मगर इतना समझने में एक आदमी का अक्सर पूरा जीवन निकल जाता है। और कई बार तो ऐसा भी होता है कि वह अपने पूरे जीवन काल में इसे नहीं समझ पाता है।

जीवन को अगर कोई बहुत गहराई से देखे, तो पता चलता है कि एक होता है – बुरे आदमी का कभी-कभी अच्छा व्यवहार करना; और दूसरा होता है – अच्छे आदमी का कभी-कभी बुरा व्यवहार करना। इसलिए किसी को भी अपने रिश्तों के संबंध में व्यक्तियों को जज करते समय इन दोनों तथ्यों का बहुत गहराई के साथ ध्यान रखना चाहिए। क्योंकि इसका ध्यान किसी के जीवन में सच्ची समझ का पदार्पण हुआ है कि नहीं, इसका सही निर्णय करने में मदद करता है।

उदाहरण के लिए, जिस बात को लेकर कोई भी एक अमुक व्यक्ति से नाराज़ होता है या शिकायतों से भरता है, उसे इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि अमुक व्यक्ति मौलिक रूप में अच्छा है या बुरा या जिसकी बातों से प्रभावित होकर आनंद के पर लगाकर उड़ने लगता है, वह मौलिक रूप से बुरा है या अच्छा। क्योंकि इन दोनों बातों के बखूबी आकलन के बाद ही यह जाना जा सकता है कि संबंधों को समझने में वह व्यक्ति परिपक्व है कि नहीं। यह इसलिए भी ज़रूरी है क्योंकि किसी भी रिश्ते को चलाने या उसके टूट जाने में व्यक्तियों की मौलिकता बहुत ही ज़्यादा मायने रखती है।

इस संदर्भ में हमेशा यह भी याद रखना चाहिए कि मौलिक रूप से अच्छे व्यक्तियों को उनके कुछ क्रिया-कलापों के कारण बुरा मान लेने की भूल कभी भी नहीं करनी चाहिए, वरना ज़िंदगी से एक अच्छे व्यक्ति के विदा हो जाने की संभावना सदा बनी रहती है। साथ ही, मौलिक रूप से बुरे व्यक्तियों के कुछ एक व्यवहार के कारण उन्हें अच्छा समझ लेने की और उनसे अच्छे व्यक्तियों वाली समझ की आशा करने की भूल भी कभी नहीं करनी चाहिए, वरना धोखा खाने और उससे मिलने वाले दुःख से जीवन कभी भी मुक्त नहीं हो पाता है।

हमारे समाज में जो व्यक्ति स्वयं अच्छा है या जिसे सामान्यतः अच्छा माना जाता है, वह भी इस भेद को स्पष्ट रूप से नहीं देख पाता है कि कब जायज़ रूप में किससे नाराज़ होना है और कब किसको सही अर्थों में तवोज्जो देना है। शायद इसीलिए जीवन में अच्छा होने के बावजूद भी सामान्यतः कोई अच्छा संबंध निर्मित नहीं कर पाता है। अच्छा संबंध निर्मित करना हमेशा ही एक दुरूह और दुर्लभ कार्य बना रहता है जो मुश्किल से ही कभी-कभी किसी को अपने जीवन में उपलब्ध हो पाता है।

सही रूप में अच्छा व्यक्ति तो असल में बस वही होता है जो मौलिक रूप से अच्छे व्यक्तियों को भलीभांति पहचानता है और यदाकदा उनसे हो जाने वाली या उनके बारे में उसके द्वारा समझ ली जाने वाली गलतियों को नज़रअंदाज़ करता है, उनसे स्वयं को अप्रभावित रखता है; और इस प्रकार अपने संबंधों को अच्छा और जीवंत रखने में सदा सफलता अर्जित करता है।

मगर यह अच्छा आदमी ठीक से अच्छा आदमी तभी जाकर बन पाता है जब वह मौलिक रूप से बुरे आदमियों द्वारा की गई या उसके द्वारा समझ ली गई तथाकथित अच्छाइयों से भी स्वयं को अलिप्त और अप्रभावित रखता है, और किसी भी उन्माद/भावावेश/बहकावे में आकर न ही भटकता है और न ही उन्हें अच्छा समझ लेने की कभी गलती करता है।

इस प्रकार अच्छे व्यक्तियों द्वारा किए या समझ लिए जाने वाले (बुरे) कृत्यों के कारण उन्हें बुरा समझ लेने की या बुरे व्यक्तियों द्वारा किए या समझ लिए जाने वाले (अच्छे) कृत्यों के कारण उन्हें अच्छा समझ लेने की भूल कभी भूल से भी नहीं करनी चाहिए।

यह कठिन तो है, लेकिन कठिन नहीं होता तो हर व्यक्ति ठीक से समझदार हो जाता। कठिन है, इसीलिए कभी-कभी ही जाकर कोई ठीक अर्थों में समझदारी को उपलब्ध हो पाता है।

ज़्यादातर लोगों को तो अपने समझदार होने का जीवनभर बस भ्रम ही बना रहता है। रहते तो वे तथाकथित समझदार ही हैं, मगर पूरे जीवन इतना भी नहीं समझ पाते कि कौन अच्छा है और कौन बुरा। इस उपक्रम में वे ऐसे लोगों को खो देते हैं जो मौलिक रूप से अच्छे होते हैं जिन्हें वे किन्हीं क्षणों में बुरा मान लेते हैं; और उन लोगों से जीवन भर दुःख पाते रहते हैं जो होते तो मौलिक रूप से बुरे हैं, मगर जिन्हें किन्हीं क्षणों में वे अच्छा समझ लेने की भूल कर बैठते हैं।

इसलिए मौलिक रूप से बुरे व्यक्तियों की तथाकथित अच्छाइयों और अच्छे व्यक्तियों की तथाकथित बुराइयों से अप्रभावित रहकर संबंधों को जीना और उसके अनुरूप व्यवहार करना किसी व्यक्ति को ठीक अर्थों में अच्छा और समझदार बनाता है। मगर समझदार से समझदार व्यक्ति भी इसे समझने में अक्सर नासमझी कर जाता है। इसलिए जीवन में होने वाली जो इस नासमझी को समझ लेता है, वह ठीक अर्थों में संबंधों की ‘समझ’ को उपलब्ध हो जाता है।
डॉ प्रवीण कुमार अंशुमान
डॉ प्रवीण कुमार अंशुमान
डॉ० प्रवीण कुमार अंशुमान असोसिएट प्रोफ़ेसर अंग्रेज़ी विभाग किरोड़ीमल महाविद्यालय दिल्ली विश्वविद्यालय। ईमेल: [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. आपका लेख पढ़ा। वाकई रिश्तों को जोड़ने वाले तार बड़े बारीक होते हैं।
    वर्तमान में तो सिर्फ पैसा, स्वार्थ और अहम्, ये तीन चीजें ऐसी हैं जो रिश्तों के बीच में दीवार बनकर खड़ी हुई हैं।
    जन्म से कोई भी इंसान बुरा नहीं होता। हमारी परिस्थितियाँ और संगति हमें अच्छा या बुरा बनाती हैं।
    दरअसल हर व्यक्ति दूसरे को सुधारने में लगा रहता है, दूसरों के दोषों को देखने व गिनने में लगा रहता है, इसलिए स्वयं को अच्छी तरह नहीं देख पाता कि दोष हममें भी हो सकता है।

    फिर यह भी है कि हर शख्स अपने आप को ही होशियार समझता है दूसरे की अच्छी बात भी सुनना ही नहीं चाहता भले ही उसमें उसी का हित हो तब भी।

    अधिक से अधिक सीखने और जानने की प्रबल इच्छा जब तक इंसान में नहीं होगी, रिश्तो को बचाना मुश्किल होगा।

    जब तक वह यह नहीं समझेगा कि सबकी सोच और विचार एक जैसे नहीं होते। यहाँ पर समझौते या सामंजस्य की आवश्यकता है,

    जब तक हममें विनम्रता नहीं है,

    जब तक हममें क्षमा करने की प्रवृत्ति नहीं है,

    जब तक लड़े से टले भले की सोच व्यापक नहीं होती।
    तब तक हम रिश्तों की बारीकियों में मजबूती नहीं ढूँढ सकते।
    हमें व्यक्ति से नहीं उसकी बुराइयों से नफरत करनी चाहिये।
    आज के समय में रिश्तों को संभालना बहुत मुश्किल है।
    अच्छा लेकर आपका।
    प्रस्तुति के लिए तेजेंद्र जी का शुक्रिया और पुरवाई का आभार।

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