(जब लेखक की भावना पर चोट पड़ती है तभी वह कलम तब उठाता है…)
बयालीस साल आठ महीने सात दिन की जिन्दगी… 230 कहानियाँ, 67 रेडियो नाटक, 22 शब्द-चित्र और 70 लेख। कई फिल्मों की पटकथाएं और ढेरों फिल्म समीक्षाएँ। मंटो की छोटी-सी जिन्दगी और उनके साहित्यिक कर्तृत्व का यह लेखा-जोखा चौंकाता है। जिस उम्र में अच्छे-अच्छे लेखकों की बमुश्किल एक-दो किताबें ही छप पाती हैं, उस उम्र तक मंटो का लिखा इतना कुछ छप चुका था कि बाद की पीढि़याँ बस उस पर आश्चर्य ही कर सकती हैं।
मंटो का जन्म 11 मई 1912 को एक कश्मीरी मुस्लिम परिवार में हुआ। बैरिस्टरी एक तरह से उनका खानदानी पेशा था। उनकी शुरुआती पढ़ाई-लिखाई अमृतसर के मुस्लिम हाई स्कूल में हुई, हालांकि पढ़ने में उनका मन कुछ खास नहीं लगता था। नतीजतन मैट्रिक  में दो बार फेल हुए। मन लगता था तो अंग्रेजी उपन्यास पढ़ने में, जिसके चलते एक बार अमृतसर रेलवे स्टेशन से एक बार किताब भी चुराई। 1931 में स्कूली शिक्षा पूरी करके हिन्दू सभा कॉलेज, अमृतसर में दाखिला लिया। इस कॉलेज के ज़र्रे-ज़र्रे में आजादी की लड़ाई की तपिश भरी हुई थी। यहीं मंटो ने अपनी पहली कहानी तमाशा लिखी, जो जलियाँवाला बाग नरसंहार की विभीषिका पर आधारित थी। 
1932 में मंटो के सिर से पिता का साया उठ गया। ऐसे समय में उन्होंने अपनी माँ को बड़ी दिलेरी से संभाला। 1933 में 21 वर्ष की उम्र में मंटो की मुलाकात अब्दुल बारी आलिग से हुई, जो अपने समय के आला विद्वान और लेखक थे। बारी साहब ने मंटो की प्रतिभा को पहचाना और उसमें और अधिक निखार लाने के लिए रूसी व फ्रेंच लेखकों की रचनाएं पढ़ने की सलाह दी। 
मंटो को पढ़ने का चस्का था। कुछ ही महीनों में उन्होंने विक्टर ह्यूगो की दि लास्ट डेज ऑफ ए कंडेम्न्ड मैन का सरगुजश्त-ए-असीर शीर्षक से उर्दू तर्जुमा किया, जिसे उर्दू बुक स्टॉल, लाहौर ने प्रकाशित किया। कुछ ही समय बाद मंटो लुधियाना से छपने वाले दैनिक मसावत के संपादन-विभाग में नियुक्त हो गए।  1934 में उन्होंने ऑस्कर वाइल्ड के ‘वेरा’ का अनुवाद किया जिससे तत्कालीन साहित्यिक हलकों में उनकी पहचान और पुख्ता हो गई। अब्दुल बारी साहब से निरन्तर प्रोत्साहन के फलस्वरूप उन्होंने कुछ रूसी कहानियों का अनुवाद किया जिनका संकलन रूसी अफसाने शीर्षक पुस्तक में छपा।
अपने जोशो-खरोश के चलते मंटो 1934 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी आ पहुँचे, स्नातक की पढ़ाई करने। उसके कुछ ही दिनों बाद भारत में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई। मंटो उसके सक्रिय सदस्य बन गए। यहीं उनकी मुलाकात अली सरदार जाफरी से हुई, जिनकी संगत में मंटो की प्रतिभा को पंख लग गए। मार्च 1935 में अलीगढ़ मैगजीन में उनकी दूसरी कहानी इन्क़लाब पसंद छपी। 1936 में कुल 24 की उम्र में मंटो की मौलिक कहानियों का पहला संकलन ‘आतिश पारे’ छपा। बमुश्किल एक साल अलीगढ़ में रहने के बाद मंटो लाहौर लौट गए और वहाँ से बंबई का रुख किया। 
सन् 1936 के बाद के कुछ बरस मंटो ने बंबई में फिल्मी मासिक मुसव्विर का संपादन करते हुए गुजारे। साथ ही, हिंदी फिल्मों की पटकथाएं और संवाद लिखने का काम भी करते रहे। इस हैसियत से उन्होंने हिंदी जगत को किशन कन्हैया (1936), अपनी नगरिया (1939) जैसी फिल्मों की सौगात दी। 26 अप्रैल 1939 को मंटो ने साफिया से शादी की। शुरुआत में काफी पैसा कमाने के बावज़ूद ये दिन मंटो की माली तंगहाली के दिन थे। बंबई में कुछ दिन और काम करने के बाद मंटो ने जनवरी 1941 में दिल्ली का रुख किया, जहाँ वे ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू सेवा के लिए नियमित रूप से लिखने का काम करने लगे।
मंटो में गजब की प्रतिभा थी। दिल्ली प्रवास के लगभग 18 महीनों में उन्होंने रेडियो रूपको के चार संकलन (आओ, मंटो को ड्रामे, जनाज़े और तीन औरतें) प्रकाशित कराए। रेडियो रूपकों के साथ-साथ उन्होंने कहानियों का लिखना भी जारी रखा और लगभग इसी दौर में धुआँ व मंटो के अफ़साने शीर्षक से दो संकलन छपवाए। अपने निबंधों को उन्होंने मंटो के मुजामिन शीर्षक से छपवाया। 
1943 में मंटो की कहानियों और नाटकों का संकलन अफसाने और ड्रामे शीर्षक से छपा। यही वह समय है जब हिंदी के मशहूर नाटककार उपेंद्रनाथ अश्क भी मंटो के साथ ऑल इंडिया रेडियो में काम करते थे। अश्कजी ने मंटो से अपनी प्रतिस्पर्धा और पारस्परिक खींच-तान भरे संबंधों का बड़ा ही मार्मिक वर्णन मंटो मेरा दुश्मन शीर्षक अपनी पुस्तक में किया है। 
बकौल अश्क मंटो को हर रोज रेडियो के लिए एक नाटक लिखना होता था. जो शाम को लाइव प्रसारित होता था। मंटो दिन में नाटक लिखते और शाम को वह लाइव प्रकाशित हो जाता। लगभग हर रोज का यही क्रम था। मंटो को यह कतई पसंद नहीं था कि कोई उनके लिखे में बेजा तरमीम करे। साफ-गो तो वे थे ही। अपने आप पर भरोसा गुरूर की हद तक। बस इन्हीं वजूहात के चलते मंटो की न अश्क से पटी न ऑल इंडिया रेडियो के डायरेक्टर एन.एम. राशिद से। नौकरी को लात मारकर मंटो एक बार फिर बंबई जा पहुँचे। इस बार अपने चिर-प्रतिद्वन्द्वी और अजीज उपेन्द्रनाथ अश्क के आमंत्रण पर। फिर एक बार वे फिल्मों की पटकथाएं लिखने लगे। इस दौर में उन्होंने आठ दिन, चल चल रे नौजवान और मिर्जा ग़ालिब जैसी यादगार फिल्में लिखीं। इनमें मिर्ज़ा ग़ालिब 1954 में प्रदर्शित हुई। इसी दौर में मंटो की कुछ बेहद उम्दा कहानियाँ छपीं जैसे- काली शलवार, धुआँ और बू। 1945 में चुगद शीर्षक से उनकी कहानियों का संकलन छपा।
1947 में देश आजाद हुआ। साथ आई बँटवारे की त्रासदी। तब तक मंटो ने पटकथा और संवाद लेखक के रूप में बंबई में खुद को स्थापित कर लिया था। माली हालात खूब अच्छे हो चले थे। उनके मुरीदों की फेहरिश्त बहुत लंबी थी, जिनमें ढेरों हिन्दू भी थे। दिक्कत बस इतनी थी कि भारत में मुसलमान और पाकिस्तान में हिन्दू खुद को बहुत असुरक्षित अनुभव कर रहे थे। इसी असुरक्षा-बोध के चलते मंटो ने पहले अपने परिवार को लाहौर भेज दिया और फिर जनवरी 1948 में खुद भी लाहौर चले गए। मंटो के अजीज उन्हें रोकते ही रह गए।
नव-निर्मित पाकिस्तान के लाहौर में मंटो ने एक ऐसे फ्लैट को अपना आशियाना बनाया, जिसके बगल वाले फ्लैट में उनके भतीजे हामिद जलाल रहते थे। यह जगह शहर के लगभग बीचोबीच स्थित थी और जिन्दगी की हर जरूरियात को पूरा करने के लिहाज से बड़ी ही सुविधाजनक थी। उनके भतीजे और पड़ोसी हामिद जलाल बाद के दिनों में पाकिस्तानी मीडिया की बड़ी नामचीन हस्ती हो गए। 
मंटो के फ्लैट के दूसरी ओर प्रोफेसर जी एम असार रहते थे जो गवर्मेंट कॉलेज, लाहौर में उर्दू पढ़ाते थे। असार साहब मद्रास से आकर यहाँ बसे थे और इस नाते अंग्रेजी पर भी उनकी पकड़ बहुत अच्छी थी। मंटो के एक और पड़ोसी थे मलिक मेराज जो पाकिस्तानी राजनीति में ऊँचे मुकाम पर पहुँचे। पड़ोसियों में एक मुंसतन्सर हुसैन तरार भी थे, जो उन दिनों अभी किशोर ही थे और बाद में उर्दू के अच्छे लेखक हुए। 
इस प्रकार, बम्बई से लाहौर जाने पर मंटो को अपने रोज ब रोज के परिवेश में ही बौद्धिक लोगों का बड़ा समृद्ध वातावरण मिला। यहाँ मंटो की बौद्धिक भूख मिटाने के असबाब खूब थे, लेकिन परिवार का पेट पालने की कोई जुगत नहीं थी। उन दिनों के लाहौर में मंटो के लिए ऐसा कोई ज़रिया न था कि वे इज्जत से चार पैसे कमा सकें।
धीरे-धीरे लाहौर में जिन्दगी पटरी पर लौटी। पढ़ने-लिखने वालों के लिए मुफीद माहौल बनने लगा। धीरे-धीरे वहाँ से कुछ अखबार और पत्रिकाएँ छपने लगीं। शुरू-शुरू में मंटो ने कुछ पत्रिकाओं के लिए लेखन किया। इस्लाम-आधारित पाकिस्तान में कट्टरपंथियों का एक धड़ा था, जिसे मंटो के लेखन पर ऐतराज था। लाहौर की पत्रिकाओं में छपे मंटो के अफसानों खोल दो और ठंडा गोश्त को पाकिस्तान के कुछ कट्टरपंथी लोगों ने आपत्तिजनक पाया। 
चौधरी मुहम्मद हुसैन सरीखे हुक्मरानों ने इन कहानियों पर न केवल रोक लगाई, बल्कि उनके प्रकाशकों और लेखक पर मुकद्दमा भी चलाया। अहमद नदीम कासमी, हजीरा मसरूर और आरिफ अब्दुल मतीन जैसे नामी संपादकों को मंटो की विवादास्पद कहानियाँ छापने के लिए अदालत में हाजिर होकर सफाई देनी पड़ी। अपने व्यावसायिक हितों पर आँच आती देख इन पत्रिकाओं के प्रकाशक मंटो से कन्नी काटने लगे। तब मंटो ने कुछ अखबारों के फीचर सेक्शन में अपनी रचनाएं भेजनी शुरू कीं। यहाँ भी दुश्वारियों ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। डेली एहसान के साहित्यिक संपादक मसूद अशर ने मंटो की कुछ कहानियाँ छापीं। लेकिन थोड़े ही समय बाद पत्र के दकियानूस मालिक ने उनको मंटो से परहेज करने के निर्देश दे दिए।
आजीविक चलाने के लिए मंटो ने अखबारों के कॉलम लिखने की कोशिश भी की। बम्बई के दिनों के अपने दोस्तों एहसान बीए और मुर्तज़ा जीलानी के इसरार पर उन्होंने मगरिबी पाकिस्तान में चश्म-ए-रोज़ां शीर्षक स्तंभ भी लिखना शुरू किया। कुछ दिन सिलसिलेवार छपने के बाद एक दिन उनका कॉलम खाली छूट गया, इस सूचना के साथ कि मंटो अपनी मसरूफियत के कारण लिख नहीं पाए। जबकि सच्चाई यह थी कि अखबार के मालिक को मंटो के लिए कुछ वाक्य पसंद नहीं आए थे।
डेली आफाब एक ऐसा अखबार था, जिसने मंटो के लेख कुछ समय तक नियमित छापे। इसमें मंटो के कुछ नायाब रेखा-चित्र छपे, जो बाद में गंजे फरिश्ते शीर्षक से संकलित हुए। इन रेखाचित्रों में हिंदी सिने-जगत की कुछ बड़ी मशहूर हस्तियों का वर्णन है, जैसे अशोक कुमार, श्याम, नरगिस, नूर जहाँ और सायरा बानो की माँ नसीम। उन्होंने मीराजी, हशर कश्मीरी और इस्मत चुगताई जैसी साहित्यिक हस्तियों पर भी लिखा। कायदे आजम मुहम्मद अली जिन्ना पर उनका लिखा रेखा-चित्र मेरा साहिब शीर्षक से पहले पहल आफाब में ही छपा। यह जिन्ना के ड्राइवर हनीफ आज़ाद के इंटरव्यू पर आधारित था। 
मंटो अपनी साफगोई के लिए कुख्यात थे। अपने रेखा-चित्रों में उन्होंने अपनी इस खासियत को कायम रखा। एक बार लाहौर के वाइएमसीए हॉल में प्रसिद्ध साहित्यकारों और विद्वानों के बीच वे मौलाना चिराग हसन हसरत पर लिखा रेखा-चित्र प्रस्तुत कर रहे थे। शीर्षक था- बैल और कुत्ता। चुटीली शैली में लिखे रेखा-चित्र में मौलाना के जीवन के कुछ गोपन पक्ष उजागर किए गए थे। मंचासीन महानुभावों ने मंटो को रुकने का इशारा किया, किन्तु अपने सुरूर में डूबे मंटो नहीं माने और वहीँ पलत्थी मारकर बैठ गए। बड़ी मुश्किल से उनकी पत्नी साफिया उन्हें वहाँ से धकेल कर ले गईँ।
मंटो की गर्दिशें उनका पीछा नहीं छोड़ रही थीं। परिवार की बुनियादी जरूरतें पूरी करने भर को पैसे नहीं जुटते थे। तिसपर हर शाम पीने की लत। लिखना ही एकमात्र ज़रिया था। पहले ऐडवान्स ले लेते फिर लिखते। इन्हीं दिनों वे डायरेक्टर जैसी पत्रिकाओं के लिए लिख रहे थे। पत्रिका के दफ्तर जाते, कागज कलम माँगते, लिखते और अपना मेहनताना लेकर लौट आते। आर्थिक तंगी ने मंटो की ऐसी हालत कर दी थी।
चुनांचे 1950 में गवरमेंट कॉलेज, लाहौर में मैं कहानी कैसे लिखता हूँ विषय पर बोलने के लिए आए जिस सुर्ख और भरे-भरे गालों तथा घने, काले और लंबे बालों वाले मंटो को लोगों ने देखा था, वह मंटो बहुत जल्द ही, बल्कि यों कहें की समय की गति से बहुत आगे निकलता हुआ झुर्रीदार और मलिन चेहरे तथा सफेद बालों वाले किसी बीमार अधेड़ शख्स के रूप में दुनिया के सामने नुमाया हुआ। वाइएमसीए हॉल में हल्क़-ए-अरबाब-ए-ज़ौक की सालाना बैठक में उसने अपनी नाटकीय शैली में टोबा टेक सिंह का वाचन किया। वक्त की मार खाए मंटो की दशा और कहानी के अंत ने श्रोताओं को स्तब्ध कर दिया। अधिकतर की आँखें नम हो आईं।
वक्त की मार खाते-खाते मंटो की स्वाभाविक चुहुलबाजी और चुटीली बातें कहने की आदत छूट गई। अब वह बात-बात पर चिढ़ जाते और अपनी आलोचना तो कतई बर्दाश्त नहीं करते थे। कोई जरा-सा बोल देता तो मंटो उसपर चिल्ला पड़ते। एक समय जिन महफिलों में मंटो के लिए लोग पलकें बिछाए रहते थे, उन्हीं महफिलों और उन्हीं अजीजों ने धीरे-धीरे मंटो से किनारा कर लिया। बात-बात पर झल्लाने और मौका देखते ही उधार माँगने के लिए हाथ फैलाने वाले इस मंटो का अब कोई दोस्त नहीं रहा।
एक ओर ऐसी खराब माली हालत और दूसरी ओर नंगे सच का बयान करनेवाली और विवादास्पद मसाइल को उठानेवाली रचनाओं ने मंटो को कहीं का नहीं छोड़ा। जिन रचनाओं को बुद्धिजीवी वर्ग उनका मास्टर पीस कहते नहीं अघाता, प्रायः उन्हीं रचनाओं के कारण मंटो को पाकिस्तान की विभिन्न अदालतों में मुकद्दमे झेलने पड़े, सफाई देनी पड़ी, जिल्लत के लंबे दौर से गुजरना पड़ा।
उर्दू इल्म का इतिहास गवाह है कि इसके कई अति भावुक और बेहद टैलेंटेड रचनाकार गरीबी और शराबखोरी की भेंट चढ़ गए। मंटो का भी वही हश्र हुआ। सस्ती शराब के सेवन से वे लिवर साइरोसिस नाम की बीमारी से ग्रस्त हो गए। आखिरी दम तक वे आस लगाए रहे कि अपने लेखन और प्रतिभा के बल पर वे गुजिश्ता बहारों को अपनी जिन्दगी में लौटा लाएँगे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। 
18 जनवरी 1955 को उर्दू के इस होनहार लेखक ने बयालीस की उम्र में अपने पीछे जवान बेवा और तीन बेटियों को लावारिस छोड़कर आलिमों और शायरों के लिए हमेशा से बेरहम रही इस दुनिया से सदा के लिए रुखसत ले ली। हर संजीदा लेखक की तरह मंटो दर्द सहने के लिए शापित थे। बल्कि यों कहें कि उनकी रचनाएं पीड़ा की ही उपज हैं। इसीलिए उन्होंने पाकिस्तान की एक अदालत में यह बयान दिया था- “जब लेखक की भावना पर चोट पड़ती है तभी वह कलम तब उठाता है।”

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