Saturday, July 27, 2024
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डॉ. रूचिरा ढींगरा का लेख – पितृसत्तात्मक रूपों की शिनाख्त करती होमवती देवी की कहानियाँ

श्रीमती होमवती देवी का जन्म मेरठ के प्रसिद्ध पत्थर वालों के परिवार में श्री रामनाथ जी और माता- कुंदनी देवी के घर 20 नवंबर 1902, में हुआ। इनके पति डा. चिरंजीलाल का निधन 1929 में 48 वर्ष की अल्पायु में हो जाने से इन्हें वैधव्य की पीड़ा भोगनी पड़ी। 
भारतीय नारी के जीवन के करुणामयी यथार्थ को उकेरने के परिणाम स्वरूप होमवती देवी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश की महादेवी वर्मा के रूप में सम्मानित किया जाता है। सन् 1970-75 के मध्य न्यूयार्क की एक अंग्रेजी पुस्तक में विश्व की सर्वश्रेष्ठ महिला कथाकारों की कहानियों का संग्रह प्रकाशित हुआ, जिसमें भारत से होमवती और कमला चौधरी की रचनाओं को ही प्रकाशित किया गया था।
होमवती हिन्दी की लघुकथा लेखिका और कवयित्री थीं। इनकी कविताओं के  संग्रह –उद्धार (1936) , अर्ध्य (1939),  प्रतिच्छाया, अंजलि के फूल  प्रकाशित हुए। इनकी काव्य रचनाओं का मूल स्वर करुणा है। इनके स्वतंत्र चार लघु कहानी संग्रह प्रकाशित हुए –निसर्ग (11 कहानियाँ ) अपना घर (22), स्वप्न भंग(15), धरोहर (16), गोटे की टोपी।  
मनीषा चौधरी ने इनकी कहानियों का अनुवाद (अंग्रेजी भाषा में) किया है। उनकी रचनाओं के महत्वपूर्ण विषयों में; घर में होने वाले लड़ाई-झगड़ों में किस प्रकार महिलाओं को विवश जीवन जीना पड़ता है, यह बार-बार नज़र आता है। कल्पना से मुक्त इनकी रचनाएं यथार्थ की अनुभूतियों को सहजता से अभिव्यक्त करती हैं।  
वैवाहिक जीवन के समय इन्होंने भारतीय परिवारों के अंदर के तनाव, द्वंद, विवशता  को अपनी कहानियों में उभारा; किंतु ये कभी प्रकाशित नहीं हो सकीं।
सन् 1929 से पूर्व इनकी रचनाओं की परिधि केवल घर परिवार और उसकी समस्याओं तक सीमित थी। पति के निधानोंपरांत, लेखक कृष्ण चंद्र शर्मा ने, होमवती देवी को अपनी रचनाएं प्रकाशित करने के लिए प्रेरित किया।
इस घटना के लगभग एक दशक उपरांत, इन्होंने अपनी पहली कहानी नौचंदी मेले में पढ़ी। जिसमें भारतीय मध्यवर्गीय परिवारों के जीवन को यथार्थता से उभारा गया था। इनकी कृति की अन्य लेखकों द्वारा सर्वत्र प्रशंसा हुई। नौचंदी मेले के पश्चात प्रोत्साहन मिलने के कारण इन्होंने साहित्यिक संगठन की बागडोर संभाली और नियमित रूप से कार्यक्रम आयोजित करने प्रारंभ कर दिए। 
सन् 1929 तक उनका वर्ण्य-विषय घर-परिवार था। तदोपरांत  इन्होंने तदयुगीन समाज में व्याप्त,  विभिन्न कर्मकांडों, धार्मिक आडंबरों, जातिगत भेदभाव, कुरीतियों, अंधविश्वासों को अपनी कहानियों का विषय बनाया। 
इन्होंने राजनैतिक उठा-पटक को भी अपनी कहानियों में स्थान दिया है। इन्होंने समाज में घटित होने वाली हर छोटी बड़ी  घटना को लेकर कहानियों की रचना की है। उस समय की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं यथा विश्वामित्र, वीणा, ब्राह्मण आदि में इनकी रचनाएं समय-समय पर प्रकाशित हुई हैं।
इनकी कुछ कहानियाँ केवल तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुईं, जिनमें प्रिय मिलन, गरीब की लड़की, सदा सुहागिन, खतरे की घंटी तथा नोटिस कहानियाँ उल्लेखनीय हैं। इनकी कहानियों के कथानक सामान्य और जाने पहचाने हैं यथा ऐतिहासिक पृष्ठाधार पर आधारित प्रिय मिलन -राजा भोज और मीरा के विषाक्त जीवन की ही पुनर्कथा है। गरीब लड़की तथा सदा सुहागिन सामाजिक कहानियाँ हैं। 
गरीब लड़की कहानी का नायक, ‘गगन’ एक आदर्श युवक है जो निर्धन सोमा से विवाह करता है। सदा सुहागिन कहानी में ‘द्वारका पांडे’ अपनी पत्नी को यथोचित सम्मान देकर आदर्श प्रस्तुत करते हैं। ‘खतरे की घंटी’,  कहानी स्वातंत्र्योत्तर भारत की समस्यायों -राशन, साम्प्रदायिक उपद्रव, सत्तारूढ़ काँग्रेस के प्रति जनमानस के डिगते विश्वास को व्यक्त करती है।
इनकी कहानियों में भारतीय परिवारों में पितृसत्तात्मक समाज में पुरुषों द्वारा बनाए नियमों की जंजीरों में विवश जीवन यापन करती और उनसे मुक्ति के लिए छटपटाती नारी का यथार्थ अंकन हुआ है।
उनका लेखन इतना सहज स्वाभाविक था कि, पाठक उनके पात्रों से सहज सहानुभूति व्यक्त करने लगता है और उन पात्रों का उद्धार कैसे हो यह चिंता उसे सताने लगती है।
इनकी रेखाचित्रात्मक कहानियाँ दो प्रकार की हैं-  (क) जिनमें उन्होंने मध्यवर्गीय और निम्नवर्गीय  पात्रों के जीवन और चरित्र को अपना विषय बनाया है। इनमें अंकित चित्र इतने संजीव हैं कि वर्ण्य-पात्र सजीव रूप से पाठकों के सम्मुख  उपस्थित हो जाते हैं। ये आत्मकथात्मक शैली में लिखी गई मार्मिक और अनुभूति प्रधान रचनाएं हैं। 
कुछ रेखाचित्रात्मक कहानियाँ व्यंग्य प्रधान हैं जिनमें उच्च वर्गीय धनिकों, पूंजीपतियों, जमीनदारों, मिल-मालिकों पर तीखा व्यंग्य किया गया है। जो निर्धन व्यक्तियों का शोषण करने में संकुचित नहीं होते। 
उन्होंने उन साहित्यकारों का भी विरोध किया है जो अपनी प्रसिद्धि की कामना के लिए दूसरों की रचनाओं को अपनी कहकर प्रकाशित करते हैं। उनकी तद्विषयक उक्ति है- “उन  व्यापारियों और मिल मालिकों की निष्ठुरता और स्वार्थपरायणता को मैं बिल्कुल नहीं  भूला सकती हूं, जो भूखी नंगी जनता के कंकालों को रौंदकर लखपती और करोड़पती बने रहने की साध में गले तक डूबे हुए हैं।”
1. ‘धरोहर’,’भगवती,’ ‘वह कौन थी’ (धरोहर कहानी संग्रह); ‘जीवन क्रम’, ‘नया पेशा’, ‘वारंट’ (स्वप्न भंग  कहानी संग्रह); ‘नंदी’ ,‘लल्लू’, ‘गुब्बारा’, ‘शेष स्मृति’, ‘अंतिम मिलन’ (अपना घर  कहानी संग्रह) इनकी प्रमुख रेखाचित्रात्मक कहानियाँ हैं। ‘टी पार्टी’, ‘मीरा की जात’,  ‘त्यागीजी’, ‘शिलान्यास’, ‘नया अंक’ (स्वप्न भंग कहानी संग्रह), ‘पुरस्कार’, ‘ट्रेनिंग’, ‘जनसेवक’ (अपना घर कहानी संग्रह) , व्यंग्यात्मक कहानियाँ हैं।
होमवती देवी की कहानियों का दूसरा वर्ग सामयिक राजनीतिक स्थिति से प्रभावित कहानियों का है। स्वतंत्रता पूर्व भारत की राजनीति में गांँधी जी का वर्चस्व था। असहयोग आंदोलन, स्वदेशी आंदोलन, सत्याग्रह तथा द्वितीय महायुद्धोंपरान्त भारत की दयनीय आर्थिक स्थिति का अंकन उन्होंने किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हुए मोहभंग, राष्ट्र विभाजन से उत्पन्न शरणार्थी समस्या और हिन्दू-मुस्लिम दंगों का चित्रण इनकी ‘त्यागी जी’, ’स्वाभिमानिनी’ (निसर्ग कहानी संग्रह) ‘स्पेशल परमिट’(धरोहर कहानी संग्रह), ‘स्वप्न भंग’, ‘स्पेशल ट्रेन’ (स्वप्न भंग कहानी संग्रह) ‘चने’, ‘पुरुषार्थ’ (अपना घर कहानी संग्रह) आदि कहानियों में हुआ है।
व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक समस्याओं से संबंद्ध सुख-दुख भरी गाथाएं भी इन्होंने लिखीं हैं। ‘स्मृति चिह्न’, ‘कान का बुंदा’, ‘गोटे की टोपी’, ‘प्रायश्चित’, ‘नारीत्व’, ‘अव्यवस्था’,‘सलूनों का त्योहार’ , ‘मनुष्यता की ओर’, ‘बचपन की याद’ (निसर्ग कहानी संग्रह); ‘राब की मटकी’, ‘पीतल की चूड़ियां’, ‘परिवर्तन’,’मन की साध’, ‘बिसाती’, ‘शशांक’, ‘एप्रिल फूल’, ‘कागज़ की नाव’, ‘क्रिसमस कार्ड’, ’नालिश’, ‘कहानी का अन्त’, ‘अंतिम सहारा’, ‘युगांतर’ (धरोहर कहानी संग्रह); ‘उपहार’, ‘कहानी का विषय’, ‘गृहिणी’, ‘विडम्बना’ (स्वप्न भंग कहानी संग्रह);’ बात का धनी’,‘वे तीनों’, ‘उत्तराधिकारी’, ‘मिट्टी का घरौंदा’, ‘आधार’, ‘चौराहा’, ‘माँ’,’‘प्रतिमा’,’ विसर्जन’,‘अपना घर’ (अपना घर कहानी संग्रह); इत्यादि इसी प्रकार की कहानियाँ हैं।
इनकी सामाजिक कहानियों का फलक व्यापक है। विभिन्न सामाजिक समस्याओं जैसे-  कलहयुक्त विषाक्त दाम्पत्य जीवन, निर्धनता की सीमा रेखा के नीचे, जीते अभावग्रस्त परिवार, जाति, स्तर भेद, असफल प्रेम, विधवा पुनर्विवाह निषेध एवं उनकी दुर्दशा। 
दुराचारी, विश्वासघाती पुरुषों के चित्र अत्यंत मार्मिक हैं। कुछ कहानियों के कथानक शिथिल हैं। जिससे उनमें नीरसता आई है। उनके विषय में अज्ञेय जी ने लिखा है- “श्रीमती होमवती देवी की सब कहानियाँ एक सी नहीं हैं। कुछ कहानियों में साधारण कोटि के चलते हुए उत्तेजक प्लांट ले लिए गए हैं और उन्हें रोचक बनाने के लिए पात्रों की ओर से मिथ्या भाव प्रदर्शन कराया गया है। जिसका परिणाम यह होता है जिसे अंग्रेजी में सेंटीमेंटेंलिटी कहते हैं और हिंदी में रसाभास के वजन पर भावाभास कहा जा सकता है। किंतु ऐसी कहानियों की संख्या अधिक नहीं हैं और ऐसा भी जान पड़ता है कि ऐसी कहानियाँ लेखिका ने किसी बाहरी प्रेरणा से ही लिखी हैं। शेष कहानियों में जिन्हें मैं लेखिका की नैसर्गिक प्रतिभा और तीव्र अनुभूति का फल समझता हूं पात्रों के प्रति ऐसी निष्ठा है,भाव चित्रण में ऐसी सच्चाई जो पहाड़ी झरने की तरह अनायास बहती जान पड़ती है।”
(2)लेखिका ने परिवार का चित्रण करते समय अपनी अनुभूतियों को प्राथमिकता दी है। जिससे उनके द्वारा अंकित चित्र, अत्यंत सजीव और सुंदर बन पड़े हैं। जीवन में आने वाली अनुकूलताओं और प्रतिकूलताओं और उनसे उत्पन्न हर्ष-विशाद के भाव इन चित्रों में गूँथकर उन्हें परिपूर्णता  प्रदान करते हैं। क्योंकि यही जीवन का सत्व है। जीवन कभी समतल एक रस नहीं रहता। उन्होंने अपने समीपस्थ‌ लोगों के जीवन और परिवार को एक तटस्थ दर्शन की भांति देखकर उसका यथातथ्य अंकन किया है। 
वे मत  को व्यक्त न कर परिस्थितियों का पर्यवेक्षण करने और स्वयं अपना निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती हैं। उन्होंने मनोविज्ञान के निर्वाह के प्रति भी प्रतिबद्धता प्रदर्शित की है।  डॉ. नगेंद्र ने लिखा है- ” यह पुस्तक ज्ञान से नहीं जीवनानुभूति से प्रेरित हुई थी।”  मनोविज्ञान की सिद्धांत-चर्चा में उन्हें बड़ी रुचि थी। मनोवैज्ञानिक संप्रदायों और उनके सिद्धांत-श्रृंखलाओं से अनभिज्ञ होती हुई भी वह मनोविज्ञान के मूलभूत सिद्धांतों को अच्छी तरह समझती थीं। 
उपर्युक्त गुणों के कारण ही उनकी कुछ कहानियाँ बहुत ही उत्कृष्ट बन पड़ी हैं। जटिलताओं से मुक्त उनका ऋजु, सरल मनोविज्ञान, जो तीव्र अनुभूति से प्रेरित और स्वच्छ विवेक से निबंधित है; किसके मन पर सहज प्रभाव नहीं डालता।” 
(3) उनकी कहानियों में विभिन्न आयु, जाति, शैक्षिक एवं आर्थिक स्तर के पात्र, अपनी सहज मानवीय प्रवृत्तियों एवं विशेषताओं के साथ चित्रित हैं। पुरस्कार, ट्रेनिंग, जन सेवा, टी-पार्टी, मीरा की जात, त्यागी जी आदि कहानियों में उच्च वर्गीय पात्रों का बाहुल्य मिलता है। 
अपनी स्वभाव सिद्ध विशेषताओं के अनुरूप उनमें अहंकार, मिथ्या प्रदर्शन, स्वार्थपरता और शोषण की प्रवृत्ति मिलती है। पुरुष-पात्र अपनी पत्नियों पर अत्याचार कर अपने पुंसत्व का प्रदर्शन करते हैं। मीरा की जात, कहानी में मंत्री सांवल दास, 15 अगस्त पर भाषण देने तो पहुँच जाते हैं;  किंतु लिखित प्रति घर पर भूल जाने के कारण क्षमा याचना कर बैरंग वापस लौट जाते हैं।  ‘राब की मटकी’, ‘वह कौन थी’, ‘दो आंखें’, ‘वे तीनों’, ‘नंदी’, ‘पेशा’, ‘वारंट’ तथा ‘जीवन क्रम’ रचनाओं में अभावग्रस्त जीवन जीते, निम्नवर्गीय पात्रों का बाहुल्य है। अपने स्तरानुरूप वे चोरी, झूठ-कपट आदि दुर्गुणों को प्रारंभ में विवश होकर अपनाते हैं और बाद में उनके इतने अभ्यस्त हो जाते हैं कि, वही उनके जीविकोपार्जन  का साधन बन जाता है। 
लेखिका उनके दोषों को पारिस्थितिजन्य मानकर उनसे घृणा या विरक्ति दिखाने की तुलना में उनके प्रति करुणा और संवेदना प्रदर्शित करना ही उचित समझती हैं। होमवती देवी की सामाजिक कहानियों में ऐसे पात्र प्रतीक रूप में अवतरित हुए हैं।
इनके पात्रों में परस्पर विरोधी प्रवृत्तियां सक्रिय मिलती हैं। वे अपनी समस्याओं से गहरे जुड़े तो रहते ही है; इसके अतिरिक्त कहीं समाज द्वारा दिखाई गई घृणा,उपेक्षा, निंदा और भर्त्सना को स्वीकार भी कर लेते हैं; पर उनकी यह स्थिति हमेशा नहीं रहती, अन्यत्र वे  समाज का प्रबल विरोध भी करते हैं ।
लेखिका ने अपने पात्रों के मानसिकता को अभिव्यक्त करने के साथ ही उनकी आकृति श, चाल-ढाल, वेश-भूषा द्वारा भी उनके व्यक्तित्व को रुपायित किया है। उदाहरणार्थ-  नंदी कहानी में नंदी का रेखाचित्र दृष्टव्य है- “अब उसे नंदी कहते हैं। उसका पूरा नाम क्या है, इसका तो पता नहीं। उम्र होगी पचास के लगभग। किंतु अपने समय में वह सुंदरी रही होगी- इसका प्रमाण आज भी उसकी प्रकृति से स्पष्ट है। नाक-नक्श के साथ-साथ रंग भी बुरा नहीं है। यद्यपि  उसकी वेशभूषा बड़ी ही असाधारण और अस्त-व्यस्त रहती है।  उसकी धोती की किनारी अक्सर दो प्रकार की होती है, जिसे वह इधर-उधर से माँग कर फटे पुराने.. मारकीन  या गाढ़े के टुकड़े पर मोटे-मोटे टांके  लगाकर सी लेती है और कई प्रकार के पैबंद भी लगाए रहती है। ऐसा ही मैला-कुचैला सलूका, जिसमें सदा रंग- बिरंगी थेगलियां लगी रहती हैं। मोज़े वह बारहोमास पहनती हैं, किंतु हमेशा दोनों पैरों में दो रंग के और कभी-कभी एक सूती या एक रेशमी तथा गरम।”
(4) उनके नारी-चित्रण स्टीरियोटाइप हैं। कुछ तो असहनीय अत्याचार और निराधार लांछन को चुपचाप सहती हैं और कुछ भुक्त-भोगी होने पर भी सास-जेठानी बनते ही अपनी बहूओं पर अत्याचार करने से नहीं चूकतीं।’ पीतल की चूड़ियां’ की दादी और ताई, ‘अपना घर’ की सास और देवरानी, अत्यंत निष्ठुर, कर्कश और कलह प्रिया हैं। इसके विपरीत ‘स्वाभिमानी’ कहानी में चपला की सास, ‘नारीत्व’ कहानी में त्रिभुवन की भाभी, ‘बिसाती’ कहानी  में यमुना आदि करुणा दया और वात्सल्य की मूर्तियां हैं। वे आधुनिकता के रंग से अछूती कर्तव्यशीला, नियतिवादी और एक सीमा तक रुढ़ीवादी भी हैं।
नारी पात्रों के चित्रण में होमवती जी की सफलता का उल्लेख करते हुए अज्ञेय जी ने लिखा है- “नारी के कठोर अभिमान और सहज स्नेह, उसकी गहरी ममता और निर्मल अपेक्षा, उसकी लालिमा और उसका आत्मदमन,  सब होमवती जी की कहानियों में ज्यों के त्यों हैं। मीठी करुणा की सेंटीमेंटल  पॉलिश उन पर नहीं है। बल्कि कहीं-कहीं तो एक अनगढ़ भोलापन है; जिसकी कद्र होनी चाहिए। इस अनगढ़ भोलेपन की वजह से कुछ कहानियाँ बहुत प्रभावशाली हो गई हैं। उनकी साधारण सच्चाई असाधारण हो गई है।”
(5)लेखिका ने गुणों के साथ ही पात्रों के दोषों- आभूषण प्रियता, कलह, फूहड़पन को भी अनावृत्त किया है। ‘शशांक’, ‘ गृहिणी’, ‘विडंबना’, कहानियों में नायिकाओं का फूहड़पन ही उनकी दुर्दशा का कारण बनता है।
होमवती देवी ने विधवाओं की समस्याओं, जाति-वर्ग और धर्मों की विभिन्न समस्याओं को, अपनी कहानियों में लिपिबद्ध किया है। जिससे ऐसी घटनाओं से पाठक अवगत हों और स्थिति में सुधार लाने के लिए प्रेरित हों। 
उनकी कहानियाँ अपने समय विशेष की क्रूर-स्थितियों का प्रतिबिंब हैं। इतने दशक व्यतीत हो जाने पर भी पुरुष-सत्तात्मक सोच में बदलाव नहीं आया है। अतः होमवती देवी की कहानियाँ आज भी प्रासंगिक हैं। ‘अपना घर’ कहानी की नायिका उमा,पति की मृत्यु के उपरांत
अपने परिवार के साथ आश्रय चाहती है। किंतु हर जगह से लांछित की जाती है। अपने टाइफाइड से पीड़ित बच्चे को दूध पिलाने के लिए भी पूरे घर में उसके लिए कोई स्थान नहीं होता। विडम्बना यह है कि उसके पति के रिश्तेदार उसके पति की संपत्ति पर उसके अधिकार का विरोध करते हैं और उसे तंग करने के लिए एक लंबी न्यायिक प्रक्रिया का सहारा लेते हैं। 
लेखिका ने इतनी भावात्मक शैली में इस कहानी का सृजन किया है कि पाठक, उमा के ‘क्लौस्ट्रफ़ोबिया और असहायता’ को सहजता से अनुभव कर सकता है। 
होमवती देवी ने विधवाओं की स्थिति सुधारने का एकमात्र विकल्प उनका पुनर्विवाह माना है। किंतु एक विधवा और एक विधुर के विवाह से बाद में होने वाली कठिनाइयों का भी उल्लेख किया है। पुरुषों के चरित्रों का भी उन्होंने यथातथ्य वर्णन किया है तथा उनमें मानवोचित गरिमा और दुर्बलता दोनों का समावेश दिखाया है। उनके पात्रों की चारित्रिक प्रवृत्तियां पूर्व-निश्चित होती हैं जो कथा के विकास के साथ-साथ प्रकाशित होती जाती हैं। 
उपदेशात्मक या वर्णनात्मक शैली में चरित्रोद्घाटन ना करके वे पात्रों के विभिन्न रूपों को दिखाने के पश्चात, पाठक को निर्णय लेने, उनके विषय में अपनी धारणा बनाने के लिए स्वतंत्र छोड़ देती हैं। परिस्थितियों के घात- शप्रतिघात तथा पात्रों की उनके प्रति, प्रतिक्रियाओं और संवादों से भी पात्रों की चारित्रिक-प्रवृत्ति उद्घाटित होती है।
लेखिका की संवाद योजना संक्षिप्त, सोद्देश्य और पात्रों के शैक्षिक स्तर और संस्कार के अनुरूप है।  टी-पार्टी, त्यागी जी, पुरस्कार आदि कहानियों में संवादों द्वारा चरित्रोद्घाटन हुआ है। नंदी कहानी में लेखिका और नंदी की बातचीत में नंदी के चरित्र के अनेक पक्ष, प्रकाशित होते जाते हैं। उनके पूछने पर कि, उनके पति का निधन कब हुआ? नंदी कहती है- “क्या खबर.. मेरी भरी जवानी थी …टोकरी भर गहना सोने का चढ़ा था… और इतना ही चांदी का… आढ़त की दुकान थी… भतेरा माल था। सब ले लिया उसके घरकों ने… जो बचा था उसे बेच-खोंचकर बेटी का ब्याह कर दिया… बाकी का रुपया करज लिया था… जमाई की तो तू जाने है…भतेरा अमीर है…। वह एक सांस में कह गई और जूते पहनने लगी।” 
(6) नंदी की उक्ति उसके जीवन की घटनाओं को उजागर करती है तथा उसकी निर्धनता के कारणों को स्पष्ट करती है। भतेरा, घरकों,  बेच-खोंचकर, जाने है, आदि ग्रामीण शब्दों का प्रयोग उसकी भाषा को उसके स्तर के अनुरूप बनाती है। ‘राब की मटकी’, ‘ट्रेनिंग’, ‘वे तीनों’, ‘माँ’ आदि कहानियों में बाल-पात्रों के संवादों में, उनकी जिद्द , जिज्ञासा और भोलापन अच्छा लगता है। संवाद, कथानक के विकास, चरित्रोद्घाटन एवं देशकाल की अभिव्यक्ति में सहायक हैं। ‘त्याग’ कहानी की नायिका अपने पति से कहती है- ” रोटियां श? किसकी रोटियां खाते हैं हम? अपने ही देश की ना?  क्या यह धन, विदेश से आता है? देश की रोटियां खाकर देश पर ही बिजली गिराना बड़ी बहादुरी का काम है? आज देश भर में कैसा भीषण हाहाकार मचा हुआ है, पर हम उसी तरह कानों पर हाथ रखे बैठे हैं, जैसे माँ का रोना सुनकर पुत्र मुंँह फेर लेता है; और कुछ नहीं तो इस पाप से तो बच ही सकते हैं कि, सत्य पर डटे रहने वाले गरीब भाइयों पर अत्याचार ना करें।”
(7) उपर्युक्त संवाद की भाषा में व्यंग्य का तीखापन है। मुहावरे के यथास्थान प्रयोग ने भाषा को प्रभावी बनाया है।
लेखिका, पारिवारिक जीवन के चित्रण में सफल रही हैं। उनकी पारिवारिक कहानियों में स्त्री-पुरुषों के गुणों-अवगुणों की, अन्य सदस्यों के व्यवहार और समस्याओं का बहुत ही सजीव अंकन  हुआ है। गोटे की टोपी, प्रायश्चित,  नारीत्व, सलूनों का त्योहार, कहानी का अंत, अंतिम सहारा, गृहिणी,  विडंबना, उत्तराधिकारी, शेष स्मृति,  चौराहे पर, अपना घर इत्यादि; इस दृष्टि से उल्लेखनीय कहानियाँ हैं । 
एक अकर्मण्य और फूहड़ स्त्री के कारण घर में फैली अव्यवस्था  का अंकन देखने योग्य है। “घर में सब वस्तुएं इधर-उधर फैली पड़ी थीं। खाट पर कपड़ों का ढेर और आंगन में जूतों की नुमाइश सी लग रही थी।  सामने ही नहाने की संगमरमर की चौकी पर साबुनदानी में पियर्स सोप की टिकिया पानी में डूबी पड़ी थी। पास ही तेल की शीशी लुढ़क रही थी। कपड़े कुछ निचोड़े हुए पड़े थे, कुछ गीले। नौकर दोनों, रसोई घर में बैठे गपशप उड़ा रहे थे। काले से दो कुत्ते इधर-उधर बिखरी जूठन चाट रहे थे। मुझे ऐसा लग रहा था कि मानो वह भूषण भैय्या का घर न होकर कोई सराय  है।”
(8) नारी की आभूषण प्रियता भी सत्यानाशी का कारण बनती है। ‘क्रिसमस कार्ड या नालिश’ कहानी में भारतीय गृहिणी की सहनशीलता और पतिभक्ति के गौरवशाली चित्र अंकित हैं।
लेखिका ने विधवा और विधुर के पुनर्विवाह के दुष्परिणामों को भी गोटे की टोपी, कहानी का अंत, माँ तथा उत्तराधिकारी कहानियों में दिखाया है।  सामाजिक, आर्थिक वैषम्य से पीड़ित, श्रमिक, मेहतर, भंगी के मार्मिक चित्र ‘स्मृति चिन्ह’, ‘राब की मटकी’, ‘वह कौन थी’, ‘वे तीनों’ तथा ‘नंदी’ कहानियों में उपलब्ध हैं ।
राजनीतिक समस्याओं का अंकन ‘निसर्ग ‘ और ‘धरोहर’ कहानी-संग्रहों की कहानियों में मिलता है। सत्याग्रह , अहिंसा, असहयोग आंदोलन, कांग्रेस के प्रति अविश्वास एवं असंतोष का चित्रण, स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत, राजनेताओं के व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन के अंतर को ‘स्वप्न भंग’, ‘टी-पार्टी’,’ त्यागी जी ‘, ‘शिलान्यास’ आदि कहानियों में स्पष्ट किया गया है। 
होमवती देवी अपनी परवर्ती कहानियों में भी इन समस्याओं के प्रति अधिक सजग रही हैं। श्री उपेंद्रनाथ अश्क के अनुसार- “वे  छोटी-छोटी, सीधी-सादी  घरेलू कहानी लिखने में दक्ष थीं। उनकी इधर की कहानियों की पार्श्व भूमि भी चाहे घरेलू थी, पर उनमें काफी तीव्रता आ गई थी। सांप्रदायिक दंगों, देश के विभाजन और उनसे पैदा होने वाली समस्याओं, कांग्रेसी सरकार बनने के बाद कांग्रेसी नेताओं के जीवन के झूठ,  रिश्वत, ढोल के पोल का सजीव, सुंदर चित्रण उन्होंने कुछ कहानियों में किया था।”
(9)अपने अनुभवों को शब्दबद्ध  करना ही उनका ध्येय भी था। उनकी तद्विषयक उद्घोषणा है कि- ” मैंने कभी कहानी लिखने के लिए ही कहानी लिखी हो यह बात ध्यान में नहीं आती। हां,जब जैसा- भला या बुरा अनुभव हुआ, तभी जैसे कुछ लिखने के लिए बाध्य हो गई।”
(10) उनकी दृष्टि सुधारवादी थी। वे अपने चारों ओर के जीवन को खुली आंखों से देखती थीं तथा उनका यथातथ्य चित्रण करती थीं। उनके शब्दों में- “आज का मानव किसी दूर देश की कहानी पढ़ने का आदी नहीं रहा। वह अपने और अपने आसपास के वातावरण में खोया हुआ है और निरंतर परिस्थितियों से पिटकर जैसे पेट के बल, पृथ्वी पर रेंगने को बाध्य  है, तो दूसरी ओर जागरूक है, सचेत हैं अपनी परिस्थितियों के प्रति।  ऐसे ही कुछ चित्रों को मैं अपनी कहानियों में अंकित करने की चेष्टा करती रही हूं ।” 
(11) सुधार कार्य सहज नहीं होता।  बहुधा ऐसे व्यक्ति, अपनी समस्त सद्भावनाओं के रहते अकेले ही नहीं पड़ जाते अपितु वृहत्तर समाज के उपहास का पात्र भी बनते हैं।  होमवती देवी जी उक्त तथ्य से भली भांति अवगत थीं। अतः उन्होंने अपने लिए भिन्न अस्त्र चुनें।  पुरस्कार, ट्रेनिंग, जनसेवक, टी-पार्टी, त्यागी जी आदि कहानियों में उन्होंने जनसेवा की आड़ में अपनी स्वार्थ सिद्धि करने वाले राजनेताओं-पूंजीपतियों पर तीव्र व्यंग्य किया है। उनका व्यंग्य इतना तीखा और तिलमिला देने वाला है कि, पाठक सोचने-विचारने के लिए बाध्य हो जाता है। यही नहीं बहुधा उसे अपने विचारों को बदलना भी पड़ता है। वास्तविकता से परिचित कराने के पश्चात उन्होंने शोषितों-पीड़ितों और निर्धनों के, अत्यंत मार्मिक किंतु यथातथ्य चित्र अंकित किए हैं। उनकी ‘दो आंखें,’ ‘वे तीनों’, ‘जीवन क्रम’, ‘गुब्बारा’,  ‘नया पैसा’,  ‘वारंट’ आदि कहानियाँ इसी प्रकार की हैं।
समस्या के हर पक्ष को, उसके यथार्थ रूप में, पाठक के सम्मुख प्रस्तुत करने के पश्चात, वे स्वयं मौन साथ लेती हैं। अपना निष्कर्ष नहीं देतीं यथा- गोटे की टोपी तथा आधार कहानियों में विधवाओं का पुनर्विवाह करा कर समस्या का अंत कर देती हैं; पर साथ ही यह भी स्पष्ट कर देती हैं कि, कथा-नायिकाये़ मंजरी और प्रतिभा ने अपने अबोध पुत्रों के पिता के अभाव को पूरा करने के लिए विवाह किया है। ‘कहानी का अंत’ कहानी की कथा-नायिका इससे भिन्न है। वह समुचित अवसर और योग्य वर उपलब्ध होने पर भी विवाह के बंधन में दोबारा बँधने के लिए तैयार नहीं होती और आत्मघात कर लेती है। ‘अंतिम सहारा’ कहानी  शमें वैधव्य झेलती कथा-नायिका घुट-घुटकर मरती है, पर विवाह नहीं करती। ‘मनुष्यता की ओर’ कहानी की नायिका, जीवन की इस विडंबना को भी, पूर्ण दृढ़ता के साथ सहती है। उक्त सभी स्थितियों के अंकन के पश्चात लेखिका ने पाठकों पर स्वयं निर्णय लेने का दायित्व छोड़ दिया है।  अपना निष्कर्ष उन पर बरबस थोपा  नहीं है। लेखिका द्वारा उरेहे गए  व्यक्तिगत-चित्र भी उनकी व्यापक चित्रण शैली के कारण समाज और राष्ट्र की समस्याओं को भी समेटते चलते हैं। ‘कान का बुंदा’ कहानी की मृणालिनी अपने निजी कारणों से एक मुसलमान से निकाह करती है। किंतु इसी कहानी के नायक गिरीश के अनुसार यह समस्या संपूर्ण जाति और समाज की है, अकेले मृणालिनी की नहीं है। वह कहता है- ” मेरी जाति का इतना पतन हो गया है कि वह अपने रमणी-रत्नों की भी रक्षा नहीं कर सकी।”
(12) लेखिका ने यथार्थ का चित्रण इस प्रकार किया है कि आदर्श स्वत: उसमें समन्वित हो गया है।
होमवती देवी जी ने अपने द्वारा चित्रित देशकाल और पात्रों के अनुरूप व्यावहारिक भाषा का प्रयोग किया है। उनकी पारिवारिक कहानियों के पात्र अधिकांशतः अशिक्षित और निम्नस्तर के हैं तथा उनके द्वारा प्रयुक्त भाषा में थेगलियां, उल्टा-पुल्टा, निभाने गई थी, अपसगुन, लौंडिया, ठाली जैसे देशज शब्दों का बाहुल्य मिलता है। मुसलमान-पात्र उर्दू शब्दों का अधिक प्रयोग करते हैं। मुहावरों पल्ला झाड़ना, आकाश से गिरना, तीर छूटना आदि तथा लोकोक्तियों के प्रयोग से उनकी भाषा समृद्ध है।
होमवती जी ने आवश्यकतानुसार विभिन्न शैलियों का प्रयोग किया है। उनकी रेखाचित्रमयी कहानियों में  रेखाचित्र शैली का प्रयोग मिलता है।  राजनीतिक समस्याओं का अंकन करते समय उनकी शैली में व्यंग्यात्मकता का प्राधान्य हो गया है। सामान्यतः उनकी शैली वर्णनात्मक है।  रोचकता, भावातिशयता और सजीवता उनकी शैली के वैशिष्ट्य  हैं।
एक ही कहानी में भावानुरूप  एकाधिक शैलियों का प्रयोग किया गया है। ‘टी-पार्टी’ कहानी में राजनेताओं की टी-पार्टी का वर्णन अत्यंत संजीव है यथा- “टी पार्टी क्या थी मानो पृथ्वी पर स्वर्ग की रचना की गई थी। आख़िर बड़े-बड़े अफसरों और पदाधिकारियों की दावत ठहरी।  कब-कब ऐसा दिन आता है। नगर के सेठ साहूकार ने भविष्य की किसी आशा को हृदय में बाँधकर ,जी खोलकर रुपया पानी की तरह बहाया था। पैसा, इसीदिन केलिए तो झूठ-सच बोलकर और जनता का तन-पेट काटकर,चोर बाज़ारी का कलंक माथे पर लगाकर कमाया जाता है।”
(13)गंभीर विषयों के विवेचन में शैली सूक्तिमयी है यथा- “आशा का तंतु क्षीण होते हुए भी कितना सुदृढ़ होता है ।”
(14)  “प्रेम के प्रतिकार में की गई अवज्ञा मृत्यु से भी अधिक भयानक और पाहन से भी अधिक कठोर होती है।”
(15) मध्य और निम्न वर्गों से संबद्ध रेखाचित्रों में आत्मकथात्मक शैली का प्रयोग हुआ है।  लेखिका कहानी कहने की तुलना में अपनी बात कहने के लिए अधिक आतुर दिखाई देती हैं।
1937 में इनकी पहली कहानी ‘गोटे की टोपी’, ‘चांद’ पत्रिका में प्रकाशित हुई। यह कहानी विधवा के जीवन पर आधारित है। तत्कालीन समाज में नारी की दोयम स्थिति थी। पर्दाप्रथा, नारी-अशिक्षा, विधवा पुनर्विवाह निषेध, के परिणाम स्वरूप नारी अपने अधिकारों से अनभिज्ञ थी। अपने साथ होने वाले दुर्व्यहवारों को नारी ने अपना भाग्य मानकर स्वीकार कर लिया था। ‘सदा सुहागन’ कहानी में होमवती ने बताया है कि, दाम्पत्य जीवन में  पति-पत्नी को एक-दूसरे की आवश्यकताओं  को समझना चाहिए और अपने वैवाहिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। 
हिंदी फिल्म निर्देशक किशोर साहू ने इसपर ‘सिंदूर’ शीर्षक से  अनधिकृत फिल्म बनाने की चेष्टा की; किन्तु होमवती देवी जी ने उन्हें ऐसा करने की अनुमति नहीं दी तथा कॉपीराइट के उल्लंघन के लिए उन्हें नोटिस दे दिया। इस घटना के उपरांत होमवती देवी ने 1939 में मेरठ के नौचंदी मेले में सर्वप्रथम सार्वजनिक रूप से इस कहानी का पाठ  किया।
‘उत्तराधिकारी’ कहानी,  इस कहानी में अल्पायु की कन्या और अधिक उम्र के पुरुष के अनमेल विवाह और उससे उत्पन्न समस्या व उनके आपसी संबंधों को लेखिका ने बहुत ही सुलझे रूप में अंकित किया है। यह समस्या आज भी हमें, अपने आसपास दिखाई दे जाती है। होमवती देवी का रचनाकाल प्रेमचंद और उनके कुछ समय बाद का है जब एक लेखिका का कहानीकार रूप में लोकप्रिय होना असम्भव था। यहाँ तक कि सुभद्रा कुमारी चैहान को भी मुख्य कथाकारों के मध्य स्थान नहीं मिला था। ऐसे में अनमेल विवाह पर ‘उत्तराधिकारी’ कहानी लिखना साहस का काम है। मोक्ष प्राप्त करने के लिए पुत्र की चाहत, वंशवृद्धि हेतु पुत्र की कामना, पत्नी की मृत्यु पर तुरंत दूसरे विवाह की चिंता, आर्थिक विवशता के कारण अनमेल विवाह, अवैध संबंध, ये सभी स्थितियां कहानी में विद्यमान हैं- 
लालाजी की तीसरी पत्नी की  तेरहवीं के कर्मकांड के दिन बनिया उनके लिए एक सुयोग्य कन्या का रिश्ता ले आया। लाला जी के घर शोक केवल इसलिए था क्योंकि अब  ‘‘न कोई घर देखने वाला, न तीज त्यौहार मनाने वाला।’
लालाजी की कई विवाह योग्य बेटिया हैं। किन्तु वंश बढ़ाने के लिए पुत्र-रत्न से वंचित थे। ‘‘लड़कियों से कब किसी का वंश चला है? और फिर यह अतुल धनराशि- इसका उत्तराधिकारी तो होना ही चाहिए।’’
पुत्रविहीन स्थिति उन्हें अंदर ही अंदर खाए जा रही थी। किसी और के पुत्र को गोद लेना उन्हें उचित नहीं लग रहा था। अपनी संपत्ति का उत्तराधिकारी तो उन्हें चाहिए ही था। अतः उन्हें फिर से विवाह करना ही सहज विकल्प लगा। वे अपनी माँ को समझाते हैं –‘इस समय तो सामने एक नई उलझन खड़ी हो गई माँ! सब अपनी-अपनी कहते हैं। मैं सोचता हूँ कि किसी को गोद ले कर रखने से क्या फायदा? अगर वंश चलना होगा तो तभी ……. जब इस घर की देहली पर होगा।’’ लाला जी की नातिन सरोज का विवाह शीघ्र होने वाला था किन्तु उन्हें अपने विवाह की चिंता थी। पत्नी की मृत्यु के एक महीना बीतने पर लाला जी की नववधू ने गृह-प्रवेश किया। होमवती देवी ने अपना आक्रोश व्यक्त करते हुए व्यंग्य किया है—- “हँसना और रोना, शादी तथा गमी, सब एक ही स्थान पर और एक ही व्यक्ति द्वारा संपादित होने में कोई आश्चर्य नहीं।’’ आगे वे लिखती हैं- “यही संसार का क्रम है और यही शायद व्यक्ति का धर्म। इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं किया जा सकता।’’
‘विवेच्य’ कहानी में, नारी की मूल्यहीनता को उभारा गया है। नारी अपने परिवार के लिए अपने सुख-दुख भूल जाती है; किंतु उसी परिवार के पुरुषों के लिए उसके जीवन का कोई मूल्य नहीं होता। लेखिका दुःखिनीबाला ने 1915 में अपनी आत्मकथा ‘सरला : एक विधवा की आत्म जीवनी’ में और प. रमाबाई ने समाज द्वारा नारी-जीवन को पुरुष की तुलना में कमतर समझने के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी-
लाला जी की नवविवाहिता मूर्ख नहीं है। वह परिस्थितियों को समझकर, बिना विरोध किए अपने लिए जगह बना लेती है। यहाँ तक कि लालाजी के युवा, पढ़े-लिखे भतीजे, मोहन से मित्रता भी कर लेती है। उसके इस दृढ़ व्यवहार के पीछे उसकी सास की मौन स्वीकृति और सहयोग था। कथांत में पुत्र-रत्न की प्राप्ति पर सारा घर खुशियों से झूमने लगता है। मोहन और बहू के संबंध में लेखिका मौन रहती है, केवल सांकेतिक रूप में दादी से कहलवा देती है कि- “यह तो ठीक मोहन जैसा ही होगा, वैसी ही नाक, आंख और वैसा ही ऊंचा माथा……, जैसे दूसरा मोहन ही हो।’’ कहना अनुचित ना होगा कि यह कहानी अपने समय से बहुत आगे की कहानी है।
समग्रत: होमवती देवी जी एक उच्च कोटि की कहानी लेखिका थीं। उन्होंने परंपरागत आदर्शवादी दृष्टिकोण का अंधानुकरण ना करके श अपनी दृष्टि से समस्याओं का विवेचन किया है। श्री देवेंद्र सत्यार्थी के शब्दों में कहा जा सकता है कि- “होमवती जी कवयित्री से कहीं अधिक एक कहानी लेखिका के रूप में सफल हुई। भाषा का प्रवाह और जीवन का मोह, यह दो विशेषताएं उनकी कहानियों में प्राण-प्रतिष्ठा करती हैं। उनकी लेखनी सामाजिक अन्याय के प्रति चुप नहीं रह सकती थी।”
(16) होमवती देवी ने अपनी कहानियों में सामाजिक रूढ़ियों के विरुद्ध विरोध करने के साथ आजादी की लड़ाई के लिए भी जनसामान्य में चेतना जागृत की थी। होमवती देवी उस समय लिख रही थीं, जब स्त्रियों को शिक्षा लेने के अवसर प्राप्त नहीं थे। ऐसे वातावरण में अपनी रचनाओं के माध्यम से, पितृसत्तात्मक समाज पर प्रहार करना निश्चित रूप से साहस का काम था। 1951 में उनके निधन के बाद अज्ञेय ने उनकी स्मृति में एक ग्रंथ का प्रकाशन किया था। इतिहास, कहानीकार के रूप में  होमवती देवी को हमेशा अग्रणी पंक्ति में चिन्हित  करेगा।
  1. स्वप्न भंग, पृष्ठ 59
  2. निसर्ग, भूमिका , पृष्ठ 8 
  3. होमवती स्मारक संकलन पृष्ठ 166
  4. अपना घर , पृष्ठ 126
  5. तरुण ,इलाहाबाद, जनवरी 1940, पृष्ठ 41 
  6. अपना घर, पृष्ठ 30
  7. निसर्ग , पृष्ठ 160 
  8. स्वप्न भंग , पृष्ठ  97 
  9. रेखाएं और चित्र, पृष्ठ 178 
  10. स्वप्न भंग ,मेरी बात 
  11. स्वप्न भंग अपनी बात पृष्ठ 7
  12. निसर्ग, पृष्ठ 65
  13. स्वप्न भंग, पृष्ठ   26 
  14. धरोहर , पृष्ठ 40
  15. स्वप्न भंग, पृष्ठ 36
  16. कला के हस्ताक्षर ,पृष्ठ 77
डॉ. रुचिरा ढींगरा
डॉ. रुचिरा ढींगरा
प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, शिवाजी कालेज, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली। दूरभाष.9911146968 ई.मेल-- [email protected]
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1 टिप्पणी

  1. रुचिरा जी !आपके इस लेख के माध्यम से ही हम होमवती देवी जी से परिचित हो पाए 1970-75 में न्यूयॉर्क की पत्रिका में जिनका नाम आया- होमवती देवी व कमला चौधरी, वे दोनों ही नाम हमारे परिचय में नहीं आए थे हो सकता है कि आए भी हों पर इस वक्त तो याद नहीं।
    उनके समय में तो पितृसत्तात्मकता चरम पर रही होगी उनके वर्ण्य विषय में आपने जिनका जिक्र किया -कर्मकांड, धार्मिक आडंबर, जातिवाद, भेदभाव, कुरीतियाँ व अंधविश्वास; वह सब उस समय सत्य की भ्रांति तले था। हम भी उससे रूबरू हुए हैं अपने समय में। उस समय तो बहुत ज्यादा ही रहा होगा क्योंकि तत्कालीन उपन्यासों की विषय वस्तु में भी यही सब पढ़ने में आया। वह समय एक क्रांतिकारी समय था। फिर आजादी की लड़ाई के मध्य विश्व युद्ध, गुलामी से मुक्त होने की ललक के अतिरिक्त एक आंतरिक गृह युद्ध जैसी स्थिति, सांप्रदायिक दंगे, इन सब में स्त्री कहाँ-कहाँ कितनी-कितनी और किस-किस तरह लड़ी होगी यह वही समझ सकती है जिसने भोगा हो या जिसने देखा हो।

    साहित्य अपने हर रूप में वर्तमान को तीक्ष्ण दृष्टि से देखता भी है और महसूस भी करता है।वही अनुभूतियाँ लिपिबद्ध होती हैं।
    किसी भी बात को सत्य समझ कर उसकी लीक पर निरंतर चलते जाना ही परंपरा और फिर रूढ़ि बन जाता है ।कोई यह सोच ही नहीं पाता कि जो व्यवहार हमारे साथ किया गया है वह हम दूसरों के साथ ना करें। जिस तकलीफ को हमने भोगा है उसे हम आने वाली पीढ़ियों को न भोगने दें।
    पौधों को सरलता व सहजता से उखाड़ा जा सकता है किंतु वृक्ष हो जाने पर उसे उखाड़ना बहुत मुश्किल रहता है, फिर तो काटना ही पड़ता है और काटना सरल तो नहीं होता। फिर चाहे वह परंपरा और रूढ़ियाँ ही क्यों ना हो वृक्ष रूप में।
    आपके इस लेख को हमने शिद्दत से महसूस किया है, क्योंकि बहुत भले ही नहीं परंतु थोड़ा बहुत तो हमने भी इसे जिया है और दृढ़ संकल्प से परिवर्तित भी किया। हमें भी बहुत तकलीफ होती थी जब घर में बच्चा भूख से रो रहा हो, फिर वह हमारा हो या किसी का भी और माँ इंतजार करे कि कोई बड़ा कहे तभी वह काम छोड़कर उठ पाए बच्चे को दूध पिलाने के लिये। विधवाओं की दुर्गति को अंधविश्वास की आग में जलते हैं हमने भी देखा है। हालांकि सब जगह नहीं और पूरी तरह से भी नहीं, फिर भी धीरे-धीरे परिवर्तन तो हो रहा है। इसे पढ़ते हुए हम उस अतीत में खो गए जब साढ़े 18 वर्ष की उम्र में शादी होकर हम ससुराल आए थे और हमारा परिवार भी इन्हीं सब कुरीतियों के आश्रय में जी रहा था।
    ईश्वर सभी को सद्बुद्धि दे ऐसी ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं।
    एक बहुत लंबे लेकिन बेहतरीन लेखन परिचय के लिये रुचिरा जी! आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ।

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