प्रवासी साहित्य एक नवीन भावधारा और नव-अवधारणा है। वह अपनी विशिष्टता और नवीनता में नया साहित्य बोध है। उसकी संवेदना, जीवन दृष्टि, परिवेश और सरोकार सभी नए हैं।
हिन्दी साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार भारतीय साहित्यकारों की अपेक्षा प्रवासी साहित्यकारों को जाता है। इन साहित्यकारों ने प्रवास में रहते हुए भी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को अपनाया। यही नहीं वे भारतीय संस्कृति के साथ-साथ देश-विदेश की संस्कृति को अपने साहित्य में प्रस्तुत करते हैं। कथाकार राजेंद यादव जी के शब्दों में “प्रवासी साहित्य संस्कृतियों के संगम की खुबसूरत कथाएं हैं।”
प्रवासी साहित्यकार अचानक साहित्यजगत में प्रकट नहीं हुए।इन्हें बहुत सारे कष्टों का सामना करना पड़ा।प्रवास की पीड़ा, स्वदेश प्रेम, अपनी भाषा और संस्कृति के लिए संघर्ष, नयी ज़मीन में संघर्ष आदि।बहुत सारे कष्टों को झेलने के बावजूद भी प्रवासी साहित्यकार अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखा। इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि इन साहित्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी भाषा को चुना।
प्रवासी लेखकों ने प्रवास के दौरान अपनी पीड़ा, द्वंद्व, अस्तित्व बोध को अपनी लेखनी से उजागर किया है। अपने अनुभवों और अपनी समस्याओं को साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है।
प्रवासी साहित्यकारों में कइयों ने अपनी कहानियों में भारतीय संवेदना को आज की पीढ़ी में उजागर करने की कोशिश की है। डाॅ. सुदर्शना प्रियदर्शिनी की कहानी “अखबार वाला”, सुषमा बेदी की कहानी “चिडि़या और चील”, ज़करिया जुबैरी की कहानी “बस एक कदम और” और इला प्रसाद की कहानी “कुंठा” इस दृष्टि से पढ़ी जा सकती है।
एक ओर जब इन लेखकों ने अपनी रचनाओं में भारतीय संस्कृति को प्रस्तुत किया तो इनमें से कुछ लेखकों ने प्रवास में रहते हुए वहाँ की जमीन को भी कहानियों में प्रस्तुत किया। तेजेन्द्र शर्मा की “पापा की सजा”, “इंतज़ाम”, ज़किया ज़ुबैरी की “मारिया”, अचला शर्मा की “चौथी ऋतु”, उषा राजे सक्सेना की “वह रात” एवं सुधा ओम ढींगरा की “सूरज क्यों निकला है” आदि कहानियाँ, विदेशी पृष्ठभूमि में रची गयी है। यह कहानियाँ हिंदी साहित्य संसार को विस्तार देती हैं और एक नया गवाक्ष खोलती हैं।
प्रवासी कथाकारों में स्त्री रचनाकारों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रवासी कथाकारों ने अपने साहित्य के ज़रिये स्त्री के हर रूप को शब्दों में बाँधकर बारीक़ी से दर्शाने की बहुत ईमानदारी से कोशिश की है। इन्होंने नारी मन के अंतर्द्वंद्व को उकेरा है। अपनी पारखी नज़रों से स्त्री के संघर्ष, त्याग, साहस और बुद्धिमत्ता का ऐसा खाका खींचने का प्रयास किया है, जिसमें देशी और विदेशी धरातल पर पाठकों को लाकर एक सवालिया निशान बना, उन्हें समाज में बदलाव लाने का न्योता देने का काम कर रहे हैं। उषा प्रियंवदा, सुषम बेदी (अमरिका), उषा राजे सक्सेना, दिव्या माथुर (इंग्लैंड), सुधा ओम ढींगरा (कैनडा), दीपिका जोशी (कुवैत), पूर्णिमा बर्मन (संयुक्त अरब अमीरात), अर्चना पेन्यूली (डेनमार्क), कविता वाचक्नवी (नार्वे), भावना कुँवर (युगांडा एवं सिडनी) आदि महिला कथाकारों ने अपनी कहानियों तथा उपन्यासों में सशक्त स्त्री पात्रों की सृष्टि की है। इनके लेखन में प्रतिरोध का स्वर सुनायी देता है। इसकी अन्यतम उपलब्धि है कि, इसने एक ओर नारी हृदय को विविध कोनों से परखकर ईमानदार अभिव्यक्ति प्रदान की और दूसरी ओर नारी को परंपरा पोषित मान्यताओं के पाश से मुक्त करके ‘मानवी’ के रूप में प्रतिष्ठित किया। भारतीय आदर्शों में रची-बसी सती नारी के स्थान पर उस नारी का चेहरा सामने आया जिसे अपनी महत्ता और अस्मिता पर गर्व था।
महिला लेखन पुरुष की बँधी-बँधाई पूर्वाग्रह से संचित दृष्टि को त्यागकर नारी को व्यक्ति रूप में देखने का पक्षधर है। जहाँ पुरुष सापेक्ष भूमिकाओं की सीमित परिधि से मुक्त होकर एक विशुद्ध नारी के रूप में उसकी पहचान संभव हो। वह नारी, जिसके मन में अपनी शारीरिक, मानसिक, सामजिक और आर्थिक दुर्बलताओं के प्रति दया का भाव नहीं उपजता; देह, संस्कार, संवेदना और विवेक किसी भी स्तर पर वह अपना मूल्यांकन परंपरागत पुरुष-निर्मित प्रतिमानों के आधार पर नहीं करती।
प्रवासी हिंदी साहित्य के अंतर्गत कविताएं, उपन्यास, कहानियाँ, नाटक, महाकाव्य, खंडकाव्य आदि का सृजन हुआ है। प्रवासी साहित्यकारों की संख्या भी श्लाघनीय है। इन साहित्यकारों ने अपनी रचनाओं द्वारा भारतीयता को सुरक्षित रखा।
प्रवासी साहित्य की बात करते समय, स्वर्गीय हरिशंकर आदेश जी को याद करना ज़रूरी है। उनकी लगभग तीन सौ से अधिक रचनायें प्रकाशित हुई हैं। जिसमें सम्मिलित महाकाव्य, कहानी, अनुवाद, निबंध, समीक्षा आदि ने प्रवासी साहित्य को समृद्ध किया।
प्रवासी साहित्यकारों की रचनाओं का अनुवाद एक ज़रूरी मुद्दा है; जिस पर काम होना जरूरी है। यह इसलिए जरूरी है कि इनकी रचनाओं की दुनिया सर्वथा अलग है, एक नयी ज़मीन को वे पेश करते हैं। तेजेंद्र शर्मा, अर्चना पैनूली, शरद चंद्र आलोक आदि को छोड़ दें तो, अन्य लेखकों की रचनाओं का अनुवाद भारतीय भाषाओं में न के बराबर ही हुआ है।
प्रवास में रहते हुए भी इन साहित्यकारों ने भारतीय संस्कृति का लोप होने नहीं दिया। यहीं नहीं इन्होंने भारतीय संस्कृति को बचाने के साथ- साथ हिंदी भाषा को अंतर्राष्ट्रीय पहचान भी दी।
प्रवासी साहित्य ने हिंदी में मनोवैज्ञानिक एवं और सांस्कृतिक द्वंद का विशद अनुभव दिया है- एक ही समय, घर से दूर होने का दर्द और घर से दूर होने की ज़रूरत का- यह हमारी भाषा की एक बड़ी रचनात्मक पूँजी हैं।
आज प्रवासी साहित्य गिरमिटिया साहित्य नहीं रहा। वह बहुत आगे जा चुका है। यह आलोचना के नए मानदंड की अपेक्षा करता है।
डॉ संतोष अलेक्स जी का लेख प्रवासी साहित्य : कहानियों के संदर्भ में पढ़ा। और बाकायदा मुस्कुराते हुए पढ़ा। बहुत अच्छा लगा। जितने कहानीकारों के व उनकी कहानियों के नाम इसमें दिए गए हैं, तेजेन्द्र जी और ज़किया ज़ुबेरी दीदी के अलावा याद ही नहीं आ रहा कि किसी को हमने पढ़ा हो।
साहित्य ऐसा विषय है जिसके बारे में यह नहीं कहा जा सकता कि हंडी के एक चाँवल को देखकर पूरे चाँवल के पकने का अंदाज़ हो जाता है। सबकी अपनी- अपनी शैली होती है।
*साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति का प्रचार-प्रसार भारतीय साहित्यकारों की अपेक्षा प्रवासी साहित्यकारों को जाता है।*
यहाँ अपन ऐसा कह सकते हैं कि अधिक जाता है।
*इन साहित्यकारों ने प्रवास में रहते हुए भी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता को अपनाया।*
यहाँ ‘अपनाया’ की जगह
‘संरक्षित किया ,उसे जीवित रखा।’ऐसा कहना ज्यादा उचित होगा। क्योंकि जो अपना नहीं होता, अपनाया उसे जाता है। लेकिन जो अपना ही है उसका हम संरक्षण करते हैं या उस परंपरा या संस्कृति को हम जीवित रखते हैं। दरअसल संस्कृति ही हमारी पहचान होती है। बिना बताए भी हमारी संस्कृति से यह पता चल जाता है कि हम कौन हैं? कहाँ से हैं? तो अपनाया नहीं संरक्षित किया या जीवित रखा; यह ज्यादा बेहतर होगा ,ऐसा हम सोचते हैं।
*यही नहीं वे भारतीय संस्कृति के साथ-साथ देश-विदेश की संस्कृति को अपने साहित्य में प्रस्तुत करते हैं। कथाकार राजेंद यादव जी के शब्दों में “प्रवासी साहित्य संस्कृतियों के संगम की खुबसूरत कथाएं हैं।”*
यहां हम आपसे पूरी तरह सहमत हैं।
*प्रवासी साहित्यकार अचानक साहित्यजगत में प्रकट नहीं हुए।इन्हें बहुत सारे कष्टों का सामना करना पड़ा।प्रवास की पीड़ा, स्वदेश प्रेम, अपनी भाषा और संस्कृति के लिए संघर्ष, नयी ज़मीन में संघर्ष आदि।बहुत सारे कष्टों को झेलने के बावजूद भी प्रवासी साहित्यकार ने अपनी संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रखा। इस संदर्भ में यह भी महत्वपूर्ण है कि इन साहित्यकारों ने अपनी अभिव्यक्ति के लिए हिंदी भाषा को चुना।*
अपना घर अपना ही घर हो होता है फिर वह चाहे जैसा भी है। विदेश जाकर बसने के सभी के अपने-अपने भिन्न-भिन्न कारण हो सकते हैं। वहाँ रहने वाले समस्त प्रवासियों के समस्त उल्लेखित कष्ट एक से ही होते हैं इसमें कोई दो मत नहीं। यहाँ तो देश में ही रहते हुए अगर एक संतान कहीं बाहर काम करती है तो उसके घर आने पर दुगनी खुशी होती है। और बाहर वह वैसा ही दुख महसूस करता है जैसे प्रवासी लोग करते होंगे बस थोड़ा ही अंतर रह जाता है कि उनके अपने उनके बहुत पास होते हैं उनसे मिलना विदेश में रहने वाले साथियों के समान दुश्वार नहीं।
सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने अपनी संस्कृति और अपनी भाषा को अक्षुण्य रखा और रचनात्मकता की दृष्टि से उन्होंने हिंदी भाषा को अपनाया।
यहाँ यह कहना जरूरी लग रहा है कि अगर ऐसा ना होता तो पुरवाई ना होती और हम सब भी यहाँ न होते। इसके लिए हम सबको कथा यूके के समस्त सदस्यों, जिन्हें हम जानते हैं अथवा नहीं जानते हैं,एवं पुरवाई के संपादक मंडल का आभार मानना चाहिये जिन्होंने हम सबको जोड़ के रखा और इनके माध्यम से ही हम लोग साथ हैं।प्रवासी साहित्य को भी पढ़ पा रहे हैं,समझ पा रहे हैं। हालांकि हमारी सोच थोड़ी अलग है ।हमें प्रवासी कहने में बड़ी तकलीफ होती है। अपने देश का बेटा परदेस में जाकर भी अपने देश का ही होता है। वह दूसरा नहीं हो जाता, तब तक जब तक उसका दिल परिवर्तित न हो जाए।
प्रवासी सिर्फ एक पहचान की दृष्टि से प्रयुक्त होने वाला शब्द है कि आप भारतीय तो हैं पर आप भारत में नहीं लंदन(या किसी भी अन्य देश में ) रहते हैं और इससे आपका भारतीय कहलाने का अधिकार छिन नहीं जाता।
आपने लिखा है कि प्रवासी साहित्य की बात करते समय, स्वर्गीय हरिशंकर आदेश जी को याद करना ज़रूरी है क्योंकि उनकी लगभग तीन सौ से अधिक रचनायें प्रकाशित हुई है जिससे प्रवासी साहित्य समृद्ध हुआ है। उन्हें शत्-शत् नमन।
जहाँ तक अनुवाद की बात है तो हमें तो हिंदी ही आती है। अंग्रेजी भी थोड़ी बहुत तो समझते हैं। अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद करने की इच्छा है अगर कोई करवाना चाहे तो। प्रयास करने में क्या बुरा है।अगर आपको अंग्रेजी आती है और आप अनुवाद करते हैं तो कोई बड़ी बात नहीं। मगर हमको अगर अंग्रेजी ज्यादा नहीं आती फिर भी हम श्रम करके, समझ कर, पढ़कर, जानकर, अनुवाद करने की इच्छा रखते हैं तो यह ज्यादा बड़ी बात है। आप सबको हमारे हौसले की दाद देनी चाहिए और हम विश्वास दिलाते हैं कि हम अपना बेहतर करने का प्रयास करेंगे। इसमें अनुवाद की बात लिखी थी इसलिए हमने अपनी बात रखी। अब जिसको जो भी समझना हो। वह समझने के लिए स्वतंत्र है। सादर☺️
संतोष जी! आपका यह लेख अच्छा लगा बहुत सारे प्रवासी साहित्यकारों के नामों से परिचित हुए ।वह बात अलग है कि नाम हमें आजकल सहजता से याद नहीं रहते।
आप सबकी परेशानियाँ समझ में आईं।
आपकी उपलब्धियों से परिचित हुए।
इन सभी जानकारियों को उपलब्ध करवाने के लिए आपका शुक्रिया।