Friday, October 4, 2024
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डॉ ऊषा दशोरा की कहानी – चींटी की पीठ पर धरती का दुख

बजाज नगर की शोरगुल मचाती अतिव्यस्त सड़क , चार मोबाइल रिचार्ज की दुकानों , दो जूस कॉर्नर, खुली चाय की एक टपरी और टी टोटलर, इट एंड इंजॉय, हेशटेग कॉफी कप, नाम से चमकते कैफे की पनाहगार थी. ये कैफे अपने चकमक रुपधजइंडी पॉप म्यूजिक के कारण प्रसिद्ध थे तो मोबाइल रिचार्ज की दुकानें प्राणवायु से भी ज़्यादा ज़रूरी. इधर जूस कॉर्नर में बिकती सिगरेट, पहले मुहासे के साथ ही स्कूली और कॉलेजी युवाओं को अपनी ओर दौड़ाती थी.
वहीं सड़क किनारे चार कमज़ोर बल्लियों पर नीले प्लास्टिक और बोरियों से ढकी टपरी जहाँ ऊँचे उठे चपटे पत्थर पर चाय खौलती थी और सामने रखे इंडियन ऑयल के खाली कनस्तरों पर टिके युवाओं के चर्चे, सपने, प्रेम, उदासी,भविष्य, दोस्ती, बहस और बेबात के ठहाके कुल्हड़ में उबाल लेते थे. फिर ये मोटरसाइकिल और स्कूटी के लंबे घेरे सड़क के पैरों के साथ इस टपरी को आधा मीटर भी कहाँ रुकने देते थे.
इस सड़क की सुरतगरी यह कि वो चमकीली थी , बहुरूपिया थी, स्वप्नसंझा का रोमांटिक गीत थी. पर साथ ही कई कोचिंग सेंटर के विज्ञापनों और आकाश की ऊँचाइयों पर अपना ध्वज लहराते ऑल इंडिया रैंकिंग वाले बच्चों के चेहरों की सजावट लिए मेडिकल ,इंजीनियरिंग , एन डी ,आईएएस जैसी भिन्न भिन्न परीक्षा की तैयारी में  चमकते और ऊँची रेडियम पट्टियों और ग्लो साइन बोर्ड को अपनी गोद में बिठाए, इतराते मुखमण्डल की देवी थीतो धक् से प्राण खींच ले ऐसी धारदार करवट की धाक नज़र भी थी ये चमकीली सड़क.
चमकीली?
पर क्या पीड़ाएँ चमकीली नहीं होती?
हर चमकीली चीज़ की पीड़ा भी चमकदार होती है .बस्स वो चमक में दिखती नहीं . फिरसबसे ज्यादा मछलियाँ चमकते सुरक्षित टैंक में ही तो डूबी हैं. इस चमक के नीचे का गटरअंधेरादुर्गंधकई सितारों को अपने रास्ते की धूरी से यों भटकाता था कि वो अपनी चमक खोकर किसी रस्सी के गले को चूमते हुए, जीवन के कसे नीले निशान अपने गले पर छोड़ जाने को मजबूर भी हो जाते थे.
अक्सर गांधी मैदान की तरफ से संझा सैर करते बूढ़े इस सड़क पर इन बातों के साथ गुजरते थे 
धूला हो गई पूरी पीढ़ी बिगड़कर
और क्या ? सारे यहाँ बैठे फालतू अदरक कूट रहे हैं. धज्ज मार रखी है माँ बाप के पैसे की तो.”
बूढ़ों की हथेली की रगड़ से ज़र्दा मसला जाता. होंठ के नीचे दबता.पुड़की जेब के हवाले होती. फिर मुझे सुनाई देतेलिहाज़ नहीं.”…” बेशर्म.”… ” ठाले, निकज्जू“…   “भई हमारे जमाने मेंजैसे उठतेगिरते कई शब्द.
उनकी वार्ता के इशारों का नागरिकशास्त्र वहाँ उड़ते सिगरेट के युवा धुँए और एकदूसरे के कंधे, पीठ पर तडतड़तड़हाथ मारते ,लड़केलड़कियों की घुलीमिली जेंडर रिक्त हँसी की ओर होता था
उस दिन भीड़ भरी सड़क के किनारे टपरी पर कुल्हड़ पकड़े एक युवा कह रहा थाहर पुरानी पीढ़ी का दुख ये है कि वो तालाब ही रहना चाहती हैऔर तब नई नदियों की तेज गति के जूते उन्हें पीड़ित करते है. “भरोसा ही नहीं है इनको ढेलाभर हम पर. “
यार देख , रुका तालाब , बहती नदी और पानी का किस्सा तो हर पीढ़ी का किस्सा हैपुरानी पीढ़ी के लिए जो पानी , नाक बन जाता है तो नई पीढ़ी के लिए वही पानी ,उड़न पंखपीढ़ियाँ बदलती रहती है नाक और पंख वहीं रह जाते हैं…. एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक तोहमतों का किस्सा चलता रहता है .” दूसरा युवा टांग पर टांग धरे बोलता था.
नहीं यारनहीं.”
क्या नहीं भाई?”
मेरे दादावो अलग प्रजाति हैं कोई.”
क्यों तेरी गर्लफ्रेंड, तेरे दादा के सामने सिगरेट पी लेती है? तुझे चूम लेती है.”
चुप बे, ओए साले …”
चुप बे ,ओए सालेफिर उन दोनों लड़कों का सारा किस्सा इसी वाक्य पर बंद हुआ. कुआँ, नदी, नाक, पंखये किस्सा बंद होकर भी किसी ओर सड़क की ज़बान में खुला हुआ थाकुछ बातें बाहर से बंद दिखकर भी भीतर खुलीसी उड़ती हैं बिना खूंटे से बंधेबिना ग्रेवेटी के. जैसे मन. खैर.
गांधी मैदान जो इस सड़क के ठीक पीछे एक गली छोड़कर था. नाम से लगता था कि खूब लंबाचौड़ा खेलताखाता हरियाली की दिपदिप बदन वाला मैदान होगा. पर नहीं …. भ्रम का जीवन संदेश इतना ही कि अंधेरे में रस्सी भी साँप दिखती है
गांधी मैदान था, एक छोटा सा परिसर. जिसे कोई ना पूछनेताछने वाला, ना माथे पर तिलक काढने वाला था उसका कोई . ये भी वैसी ही अकेलेपन की पीड़ा में कैद था जैसे संझा सैर वाले बूढ़े अपनी जमे तालाब की पीड़ा में कैद थे और बजाज नगर की सड़क अपनी चमकीली पीड़ा में कैद थी
पर हर कैद की अपनी ऊपजाऊ राजनीति होती है. बंद दिखते हुए भी भीतर हजारों किलोमीटर हरी बुवाईनव निर्माण की चिनाई फूटती रहती है. कब? कहाँ? कैसेइस फूटने की कोई बढ़ती उम्र , तारीख़ ,समय, नियम नहीं है.
मैं गांधी मैदान के ठीक सामने खड़ा हूँ . मेरी दाईं ओर चमकीली सड़क का गरजता शोर हैजूतों के साथ जल्दबाजी में दौड़ती जवान नदियाँ हैंऊँची इच्छाओं के छोटे छेदों से निकलकर बड़े अंबर तक पहुंचने वाले सपने हैं तो वहीं दूसरी ओर मेरे सामने गांधी मैदान के भीतर सूखी हो गई मन बावड़ियों का मौन धरा है. वहाँ अकेली हथेलियाँ इतनी अकेली हैं कि कोई पूछ ले किमन ठीक है नातो रो पड़े ये हथेलियाँ. इसी शोर और मौन दोनों की पीड़ा को कई सालों से पी रहा हूँ मैं .
और मैं कौन हूँ ?
मैं उन बीती हुई अंगुलियों का भूला हुआ स्पर्श हूँ जो चीनी के डिब्बे परकिराये की साइकिल के हैंडल परघर की किसी पुरानी ईंट परछत पर सूखती हल्दी लगी केरियों पर  ही छूट गया हैमैं भागते समय की लपलप लार से बाहर हुआडिजिटल इंडिया का मुँह ताकता, भारत सरकार की पोस्टल सेवा के ऑफिस, बजाज नगर के डाकघर के बाहर , मुझसे दस मीटर दूर खड़े शीरीष की लंबी झुकी हरी डाल के नीचे खड़ा लाल रंग से पुता लेटरबॉक्स हूँ .
सर्दियों में इसी शीरीष की छाया से आगे धूप पकड़कर सिंघाड़े बेचती बोकली बुढ़िया और बरसात में सिगड़ी के साथ भुट्टे का ठेला जमाए ज़मीला के यहाँ से आवाज़ आतीपे टी एम पर बीस प्राप्त हुएतो मुझे लगता कि मैं डिजिटल इंडिया की चमकती चमड़ी पर बहते मवाद वाली फुंसी हूँइस कोढ़ और कुढ़न से आगे कोई मोटरबाइकवाला मेरे सिर पर कोहनी टिकाए दूसरे हाथ में मोबाइल पर तेजतेज कहता मिलता कियार, इस संड़े तो संभव नहीं है चलनादेख तू अलगे संड़े बना ले नैनीताल का प्रोग्राम. चल रखता हूँ, आधे एक घंटे बाद जूम मिटिंग है.” तब मैं अपनी नंगई को फटी थिगलियों वाले कपड़ों में छिपाने का इतना प्रयास करता हूँ कि सबको ज्यादा नंगा दिखने लगता हूँ.
किसी झमझम तेज बरसते आषाढ़ में कमरे की कुंडी चढ़ापेट के बल लेटेपाँव मोड़ेकुछ ऊपर उठाएहवा में लहरातेआहिस्ताअहिस्ता पेन चबाते हुए ये पत्र लिखना किमेरी नींद कैद है अब तुम्हारी आँखों में .” ये गुजरा हुआ ज़माना हुआ.
पक्की हो गई है नौकरी  माँ, तुम चिंता करना.”  शहर के किसी सस्ते किरायेवाले कमरे के कंधे के सहारे से गाँव को लिखी चिठ्ठीवो कौन बरस आई थी.. याद नहीं.
फिर अब कौन लिखता है पत्र ?
पत्र रहा धैर्य का रास्ता ,फिर इस कृत्रिम बौद्धिक सरोवर में अब धैर्य कहाँ?
आह! पत्र .
जिसमें लिखे अक्षरों से कभी चींटी की पीठ पर धरा धरती का दुख उतर जाता थाहजार किलोमीटर दूर से ही वसंत की पीली गंध पत्र से महसूस होती थी मुझे.
जल्दी घर आना .” 
पत्र की प्रतीक्षा में.” 
तुम्हारी मैं .”
इन पंक्तियों को हथेलियाँ फेरकर बारबार मैं पढ़ता . कभी रोता, कभी इंतजार करता, कभी बेचैन होता, कभी उदासी में भरता, कभी भय से काँपता, कभी हर्षाता, कभी प्रेम में नाभी तक फड़कता.ओह! वे पत्र वाले दिन. पर अफसोस!
एकदो स्कूटी या बाइक यहाँ आती है कभी . बाकी समय तो मैं भी गांधी मैदान का जुड़वा भाई ही हूँ. सरकारी पत्रपत्री का कारोबार तो मेरे भीतर लगातार चलता है परमैं पढ़ पाऊँ ,मन लिखे हज़ारों पत्रऔर घोर आकाल में लाखों पत्रों की  आवकजावक हो मेरे भीतर. हाँ इसी घोर आकाल में मुसलाधारसी कई दिन बरसे ऐसी पत्र बरखा कि डूब जाए मन सड़केपत्तापत्ता लाखों बूदों को पी जाएघरों की छते भीगे, नाचने लगे बच्चे नंगधडंग सेसूखे पहाड़ों से उतरने लगे जलधाराऐंकहीं दूर कंठ में सोए प्रेमियों को यों उठे ज्वर की हर ठंड़ी बूंद प्रेमताप बनती जाए. बस्सबस्स . ये पत्र मेरी ऐसी ही तीव्र तड़प हैं .
खैर ये मेरी पीड़ा है. फिर संसार पीड़ाओं से ही बना है और उसमें ही आनंद पाता है.
पर इधर आनंदपान ये था कि एक अक्टूबर से लेकर इक्कतीस अक्टूबर तक गाँधी मैदान में लगती थी राज्य सरकार की ओर से खादी ग्रामोद्योग की प्रदर्शनी और साथ ही खुली थडियाँ . इतना ही बहुत था गाँधी मैदान और मेरे खुश होने में कि इसी समय हमारी खाली कन्दराओं में भी कई कहानियाँ, बुनावट का धागा तो भरभर हाथ लाती थी एक महीना.
इस महीने इस बुझी सड़क पर बिलकुल बूढ़े…. कम बूढ़ेऔर बूढ़े होने की प्रथम लाइन पर खड़े लोग अधिक दिखते थे. लेकिन गांधी मैदान की संख्या गिनों तो बिलकुल बूढ़े ही ज़्यादा गिनने में आते थे अंगुलियों पर. टाइमपास के लिए या नई हवा पहचाननेपहनने
हाँ कभी कोई कवि ,लेखकसा दिख जाताइस मेले में. शायद किसी गोष्ठी के लिए कुछ कुर्ता खरीदता. कुछ स्टाइल के लिए कॉलेज के छात्रनेता कम बजट के खादी के कुर्ते , बंड़ी की ढूँढ़छाँट करने भी जाते थे. पर नगण्य रहती थी संख्या इनकी.
ये एक महीना हराहरा बीतता कि बाकी के ग्यारह महीने उस पर रश् करते थे. वहाँ आने वाले लोग उस परिसर के बाहर खड़े ठहरतेगरदन उठाते फिर ऊपर टँगा बेनर पढ़तेगांधी जंयती के उपलक्ष्य में सभी खादी आइटमों पर 40% की छूट.” 
चारों कोनों से सूतली से बंधा वो सफेद बेनर यों लगता कि क्रिकेट बॉल से किसी पड़ोसी की खिड़की तोड़ने की सजा में एक शैतान बच्चे के दोनों हाथ दोनों पैर पर रस्सी बाँधकर टाँग दिया गया है.
लोग जब बैनर देखते तब बैनर, बेचारगी की मुद्रा में फरफर.. फरहवा में हिलता. यों कि बच्चा कह रहा होछोड़ दो ,जाने दो अंकल, जाने दो आंटीसॉरी, फिर नहीं तोडूगाँ आपकी खिड़की के शीशे.”
वहीं अन्दर कहीं कुछ थड़ियों पर खादी के कुर्ते, शाल,नेहरू जेकेट या बंडी ध्यड़ से बिकते . तो कहीं कुछ ईसामसीह की तरह कील ठुकी हत्या में अंतिम दिन तक टँगे मिलते .
बूढ़ों की तनहाइयाँ यहाँ दूर होती, दुख के बंद पिटारे खुलते, मन के चीरे और घावों पर ठण्डी हवा की फूँक लगती, सूखी क्यारियों में पानी के छींटे गिरते और भीतर की गरम भाप भरभर बाहर उड़ती आती. कुछ बूढ़े यहाँ सुबह थड़ियाँ खुलने के साथ ही जाते और शाम तक बैठे रहते. बेकाम.
जाना था इस बरस के बोलते अक्टूबर को वो जा चुका. गांधी मैदान को अब चुप होना था सो हो चुका. अब मेरे आगे गरम मई उबल रहा है. सपाट सन्नाट मई. तारीख पन्द्रह है.पर हैरानी लगती है दुनिया के देखे , लिखे, पहुँचे अलगअलग जगहों पर यही मई महीना कहीं खिल रहा होगा, कहीं जम रहा होगा और कहीं अंधेरे में बंद होगा, तो कहीं बुझासा होगा. जैसे एक ही समय में ठीक एक ही सेकेंड में करोड़ों इन्सानी मन अलगअलग तरह से उठ,जल, बिलख,खिल, बुझ, नत, मर, हँस रहे होते हैं. समझ पाया कोई ?
वो दिखने लगे हैं. बस दो या तीन. वे कुछ ज्यादा दिख रहे हैं मुझे पाँच ओह! पीछे बिलकुल साफ दिख रहे हैं आते. कुछ बढ़ती जाती संख्या में. देखो ! ये तो और बढ़ रहे हैं . लौट आए ये? कितने बरस बीते होंगे इनके लौटने को ? कुल तो चार साल ही. इन्हें तो आना था ये तो अपने मिज़ाज की हवा है . बाँध लोगे रस्सी, साँकल से. कौन तो बेरीकेट्स रोके इनको. हे संसार, तुम्हारी सीधी लकीर की बाँह मरोड़ कर अपनी बनाई टेढ़ी लकीर के टेढ़े पंजों पर दौड़ते हुए ये बच्चेसफ़ेद शर्ट और नीली स्कर्ट, नीली पेंट वाले , हु बहू उन जैसे ही तो बच्चे हैं ये भी. ये बच्चे वैसे ही दौड़ रहे हैं , वैसे ही होहल्ले  में हैं , वे भी उसी चमकीली सड़क से केक लाए हैंउड़ती हुई कोल्ड ड्रिंक भी उसी सड़क से आई है  …वैसे ही गानेनाच मौज कर रहे हैं वे . वैसी ही बर्थ डे पार्टी का जश्न मेरे सामने है जैसे उस साल भी था … “हेप्पी बर्थ डे टू यू सांगसड़क पर प्रवाहित हो रहा है उसी दिन जैसे . अब तो मुझे तो खुश होना चाहिएपर मैं  ? मैं खुश क्यों नहीं हो रहा
गांधी मैदान की इस सुनसान सड़क पर  आज मेरे भीतर  पन्द्रह मई की इस हवा का मिज़ाज चमड़ी में गहरा चुभता हुआसा उठ  रहा है. बच्चों के बस्तों परगर्मी की छुट्टियाँनाम की नेमप्लेट टँग गई है. अभी दिन के ढाई बजे हैंकोई पुराना कड़वा स्वाद समय का डस्टर भी कहाँ मिटा पाया?
इस सड़क पर बच्चों का हुज़ूम गायेगा तो क्या वो बूढ़ा सुनने ना आयेगा?
वो बूढ़ा?
कौन बूढ़ा?
वही जो उस अक्टूबर पहली दफ़ा आया था.
कोई चार साल पहले वाला अक्टूबर था  . ऑटो गांधी मैदान के सामने रुका. वो उतरा. “हमरी अटरिया पर आओ सजनवा ” .. बेगम अख्तर को गुनगुनाता हुआ मेरी तरफ घसरतासा आया और मेरे सिर पर हाथ धर खड़ा रहा मिनिट भरमुझे लगा उसकी गुनगुनाहट में एक कैद थी जो आज़ादी मांग रही थीउसका हाथ जो मेरे सिर पर धरा था उसमें पीड़ा का क्विंटल भार जमा था . मैं  दब रहा था
भूरे रंग की, आगे से आकाश छूती नुकीली मोजडियाँ जिसकी सिलाई पीछे से अंतिम साँस ले रही थी. सफ़ेद पेंट के ऊपर, कहने को ही सफेद पर कुछ ज्यादा पीला पड़ा चाइनीज कॉलर के शर्ट में वो बूढ़ा मुझे देखता रहा. अब उसके हाथ पीछे बंधे थे. उसका चेहरा कुछकुछ बच्चों की नर्सरी वाली भोली कविता की तरह दिखता था . पर उस भोली कविता के पर्दे के पीछे वाले रंगमंच पर फैला  दुख छिपकर मुझे देख रहा था. लंबे स्केल से खींच दिए हों ऐसे कंधे थे उसकेपर झुके हुए.मोती रंग के सफेद बालों को कान तक धीरेधीरे खींचता ,ऑटो वाले को कुछ निर्देश देकर, कुछ देर वहीं खड़े होकर वो गांधी मैदान के अन्दर जाता दिखा.
अंकल जी ये जेकेट फबेगा आप पर , कंधे खूबलंबेचौड़े हैं नी आपके.”
दुकानवाले के इस बाज़ार वाक्य पर वो बूढ़ा गुब्बारा हुआ , कंधे पर हाथ फेरते ,जवानी के दिन याद हो आये थे उसे शायद और वो बच्चों जैसे शरमा गया फिर जाने क्यों उदासी ओढ़ ली उसने ?
वहाँ अखबारों के बंडल बनते …. गुलाबी रसीदें फटती. चाय उड़तीघुटने के दर्दडॉक्टर का पर्चाताकत की दवाईचुनाव राजनीतिबजट पेंशनमहंगाई पर ढेर बातें खुलती बंद होती. कुल इतना कि हर चीज़ के चुस्त लेनदेन का ज़बानी बाजार बन जाता इस महीने गाँधी मैदान
महिला मण्डल कुटिर उद्योग वालों को भी मिली थी वहाँ जगह . उनका केर , गोंदे, लहसून, मेथी का अचार , बड़ी और तिलकुटा पारदर्शी बरनियों वाले लाल ढक्कन में कैद दिखताआज़ादी की इच्छा में पीड़ितसा. बरनियों के पेट पर लिखा रहताहाथ से बना घर का अचार.” 
सिरका ज्यादा तो नी है ना?”
पूछते से उस बूढ़े की आँख बरनी पर लिपटे निर्देश पर थी 
अंकल जी चख के देखो तो.”
चटकारे कीचट्टकी आवाज़ के साथ बूढ़े का दुख भी बाहर आया था.
हाँ पेले तो आठआठ बरनियाँ डालती थी अचार, मेरी पत्नी अकेली. अब तो बच्चे क्या खाएँ अचार है ना?”
प्लास्टिक की थैलियों में अचार भर सफेद धागे से उनका मुँह बांधती दुकानदारनियाँ कहती
दौड़े हैं सब सोस, हमस , अंगरेजी चरखती बोतलों वाली चटनी पे तो ये छोरेछोरियाँ अंकल जी . कौन खाए अब अचार.” ऐसी वार्ता में पुरानी पीड़ा का जागरण, आदानप्रदान भी खूब पसरता वहाँ.
तीन दिन बीते थे कि वो बूढ़ा फिर आया . आया तो पर शाम सात बजे . मेला खत्म था बजे तो. फिर क्यों आया? इस वक्त उसका ऑटो गांधी मैदान की साइड़ नहीं मेरी साइड़ खड़ा था . उतरा नहीं. बूढ़ा लगातार मुझे देखता था शायद घंटों तक.
अब पुरानी याद भरपूर लौट रही है मुझ तकउस अक्टूबर पेड़ नंगे हो रहे थेज़मीन ने सूखे पत्तों के कपड़े पहन लिए थेपीछे वाले गोपालपुरा अंडरपास के नीचे बाँस के रावण बनने लगे थेशहर से दूर बहती नदी और तालाब का पानी चुप हो गया थाजानवरों के बदन पर गर्म फर उग रहे थेपक्षियों के परिवार झुंड़ों में गर्म स्थानों की चाहना लिए हजारों लाखों किलोमीटर उड़न यात्राओं पर थेचट्टानों में, पेड़ों में , मिट्टी के अंदर कीड़ों के नएनए घर बसने लगे थेयुवा प्रेमियों द्वारा प्रेमपत्र की अदलाबदली के नए रास्ते तैयार हो रहे थेनवरात्रि की गंध फैलने लगी थीदुर्गा की मूर्ति सड़क किनारे बिकने को तैयार थीउस महीने चाँद ज़्यादा ही चमककर महबूब हो गया थारात नएनए तारे प्रेमिकाओं की गोद में गिरने लगे थेसर्दी पैरों में आलता लगाए धीमेधीमे हल्का शॉल ओढ़े शहर की ओर रही थी. ये चार साल पुराना अक्टूबर था.
उस पूरे अक्टूबर में वो बूढ़ा और उसका ऑटो सातआठ बार गाँधी मैदान आया जबकि उसके हाथ में कोई बंडल, कोई थैला तो गांधी मैदान के अंदर जाते दिखता था बाहर आते दिखता थाफिर वो वहाँ आता क्यों था? मैं इस जानकारी की टोह में ही थाकि केन्द्रीय विद्यालय की वो घटना घटी.
गांधी मैदान की दीवार से सटी हुई थी ,केन्द्रीय विद्यालय , बजाज नगर , क्रमांक 4 के वाहन स्टेंड की दीवार . जहाँ ये दोनों दीवारें हाथ मिलाती थीं वो स्कूल के पीठ का हिस्सा थास्कूल के पीछे वाली गली. जहाँ होता था स्कूल खत्मगांधी मैदान का सूना आंगन शुरु.
सफेद शर्टनीली स्कर्ट और  नीली ही पेंट वाले करीब नौ से बारह तक के बस्ते दो बजे इसी सुनसान सड़क पर रोज मुक्त होकर ख़्वाबों के जुलाहे से दिखते थे मुझे. जिनके आसमानी किलोंमहलों की बुनाई और बढ़त किताबी पन्नों से बाहर, ऊँची और ऊँची होती यहाँ. ये नए बस्ते किसी भी बनीबनाई लकीर पर चलने वाली भेड़े नहीं थे. उनकी खीसों में भरी दुगनी आज़ादी और गले में बंधी नालायक और डफर की तख़्ती यहीं आकर टूटती. इसी सड़क पर .
तो इस तरह मेरे सामने चलती थी  सन्नाट दिन के समय छुट्टी के बाद, स्कूल के बच्चों की कई लाइव रील्सप्रेम, झगड़ा और मौजे
इसी सड़क पर कोई लड़का रोता था कहते कहतेतुम अब प्यार नहीं करती मुझसे. “
नहीं है जा.”  लड़की भाव नहीं देती, वो खड़ी सेल्फी खींचने का आधुनिक धर्म निभाती रहती
इन बच्चों ने स्वप्नसंझा के रोमांटिक गीतों के बोल बदल गए थे.
आपको भी मेरी तरह लगा , क्या लगा? कि लड़की रोएगी और लड़का मनाएगा वाला प्यारनए जूते पहन लेने चाहिए अब हम दर्शकगण और पाठकगण को पुराने वाले कब तक चलेंगेऔर कब तक मोची सिलता रहेगा ?
फिर कभी स्कूली बच्चों के झुंड़ों की सुट्टा  लाइव रिल्स बनती, बीड़ी , ज़र्दा, सिगरेट को पीछे डूबोकरये वेब और सिगरेट वाले नई खेप थी जो  खटखट सेल्फियाँ लेती ,धड़धड़सोशल मिडिया पर पोस्टिंग होती और तुरतफुरत लाइक, कमेंट , सीन, अनसीन पर गॉशिपिंगके पेड़ उगने लगते थे यहाँ.  “कर्म किए जा फल की चिंता मत कर.”  ये इस पीढ़ी का ब्रह्म वाक्य था. जरूरी नहीँ की हर ज्ञान पढ़ाया और सिखाया जाए कुछ ज्ञान बच्चा गाँठ की अक्ल से भी भाँपता है.
ये शनिवार का दिन था. सप्ताह का सबसे हल्का दिन. रुई जैसा दिनतन और मन का बोझ उतारतासा . तो उस शनिवार के दिन जब दो बजे , केन्द्रीय विद्यालय में छुट्टी का घंटा बजा टनटनटन. तो कुछ बस्ते दौड़ भागे बजाज नगर की ओर. उसके कुछ देर बाद वहाँ की चकमक दुकानों से हिलतीडुलती आईं कोल्ड ड्रिंक की हरी, भूरी, नारंगी, सफ़ेद ढेर बोतलें . साथ मुसकराते खुशबू उड़ाते पेटीज और पेस्ट्रीज के ऊँचे डिब्बे भी आए. और आया एक बड़ा गोल केक.
उस अक्टूबर ये एक बर्थडे पार्टी की जश्न कथा थी जो मेरे सामने ही नाचतीगाती चल रही थी . इस मुख्य कथा में खूब सारी उपकथाऐं संगत देती दिखती थीं और कुछ उपकथाऐं दिखती नहीं थी पर छिपकर बन रही थी.
नर्सरी राइम से भोले चेहरे वाले बूढ़े का ऑटो गांधी मैदान के गेट के पास खड़ा था उस दिन बूढ़ा उतरा नहीं , भीतर से ही बच्चों को देखता था. नाखून से नाखून घिसताबालों को कानों तक लाकर चपटा करता…” सारा झगड़ा ख़तम होई जाए..”  बेगम अख़्तर को गुनगुनाता. आँखें बर्थ डे पार्टी पर धरे, कुछ मुस्कराता भी था.
वो बूढ़ा बीचबीच में हाथ में रखा अख़बार पढ़ने की एक्टिंग भी दोहराता कि चोरी पकड़ी ना जाए. खुद से कहता भी जाता …” मैं तो यहाँ मित्र की प्रतीक्षा में हूँ.”  ये डर से बचाव की पूर्व तैयारी थी उसकी
इधर सड़क पर एक लड़के की स्कूटी टेबल बनी उस पर लाल चेरी की नाकसा दिखता सफेद केक धरा गया. चार हाथों की ओट से चक्रव्यूह बनाहवा से बचकर मोमबत्तियाँ जगमग हुई.
हेप्पी बर्थ डे टू यू
मेय गॉड ब्लेस यू…” का संगीत सड़क पर शोर के साथ चलने लगा.
स्कूली बच्चों का ये झुंड़, केक मुंह में कम खिलाता, तिकोनी ऊँची केप पहने बर्डे वाली लड़की के चेहरे पर ज्यादा लथेड़ता था. उस लड़की के चेहरे पर लगी क्रीम और मीठे सफ़ेद टुकड़े यों उगते दिखते कि कहीं से बर्फ़ के छोटे पहाड़ गए हों. गाने हुए, नाच हुआ , कोल्ड ड्रिंक के झाग ने उछलउछलकर आसमान को छूने की कोशिश की . अब मीठी रंग वाली बारिश खत्म हुई और एक घंटे बाद सड़क पर 
बाय चलकोचिंग है“, 
मम्मी का फोन रहा है, कल मिलते हैं
के, मैं जाता हूँ अब
दादू की दवाई ले जानी है
की फैलती जिम्मेदार आवाज़ के साथ बर्थडे पार्टी खत्म हुई .
बूढ़े का जो ऑटो बहुत देर से गांधी मैदान के बाहर खड़ा था. अब उसने भी से रफ़्तार ली और वहाँ से चला गया.
इस जानकारी से दूर थे बच्चे कि उनकी आज़ादी में दुनियादारी के जूते प्रवेश कर चुके हैं. आसपास के घरों से स्कूल में शिकायत पहुँचीस्कूल से पुल पार कर वो शिकायत मातापिता तक गर्ई और सारी चिड़ियाँ हुई बंधकपिंजड़े में बंदबड़ेबड़े नयन कुंड़ी पर पहरेदार नियुक्त हुएअनुशासन का पर्चा पढ़ा गया… “शर्म है कि नहींके मिसरे गाए गएआज़ाद हवा के पैर पर भारीभारी पत्थर बांधे गए कि वो अधिक जगह पर ना फैलेस्कूल , घर, और दुनियादारी से इस सड़क का बहिष्कार हुआ. नीली और सफ़ेद आज़ादी कैद हुई.
उस कैद से वे आज लौटे थे. लौटना ही था उन्हें. चाहे चार साल बाद या सात साल बाद. बच्चे लौटे तो वो बूढ़ा भी लौटा.
पर वो कैद वाले दिन? वो तो रसोई में बिखरे निर्जीव ,बेकाम प्याज के छिलकों की तरह वाले मरे दिन थे मेरेऔर पक्का उन कैद बच्चों के भी. मेरे गले में  खुशी की कोई तरावट नहीं थी . इधर सड़क बिचारी बच्चों की शक्ल पर रोती जाती थी. शतुरमुर्ग की लंबीलंबी टांगों वाले दिन खत्म देर से होते थे. मैं सड़क को, सड़क मुझे  पूछता कब लौटेंगे वे ?
उन दिनों मैं दार्शनिक  चोले में गया था. मेरे सोच की ध्वनि अनंत दिशाओं में विचरती थी.
ओह! एक घंटे की बर्थडे पार्टी की ये सजा? नहीं ये न्याय और इंसाफ़ के मसीहाओं ने गलत फैसला लिया.”
रात को जब माँ चने भिगोती और सुबह बच्चा ढेर पानी पी जाने वाले चने का मुंह ढूँढता तो ऐसी जिज्ञासाओं परमूर्ख हो तुम तो ” ….” फालूत बोलते हो ” “जाओं पढ़ाई करोकी आवाज़ें ही अदैहिक हत्याओं में शामिल होती रही हैं. बच्चों की अदैहिक हत्या का पाप धरती के वजन से दुगना भारी पाप है .
हर पुरानी पीढ़ी आने वाले नई पीढी को निर्लज, गलीच और निकम्मे का तगमा देती है …. आज जो पीढ़ी सड़क पर सुट्टे का धुँआ उड़ाती दिखती है कल वही नखरा मारती अपनी नई नवेली पीढ़ी को अनुशासनहीनता का मेडल देती खड़ी मिलेगी .
तो क्या आश्चर्य और हँसी कि जिस पुरानी पीढ़ी ने अपने दादाओं और पिताओं के हुक्के चोरी से गुड़के होंगे और जर्दाचूना छुपकर होठ के नीचे दबाया होगाचुराए होंगे घर से पैसेपी होंगी दीवार के पीछे सिगरेटपढ़ी होंगी छुपकर अश्लील किताबेंमोहल्ले की किसी लड़की को रोककर पुरानी पीढ़ी की जिह्वा से कभी फूटा होगा ये वाक्यप्यार करता हूँ तुमसे.”  वो ही पीढ़ी कहीं बजाजनगर के युवाओं और गांधी मैदान की सूनी सड़क के केक को तो नहीं कोस रही थी
हमारा जमाना तो कुछ ओर था.”  वाला ये झूठा अय्यारी डायलॉग कभी पुराना नहीं होगाकभी नहींपर हर ज़माने में सब जल्दी जानने की जिज्ञासा के जवान चेहरेमचलती युवा इच्छाऐंऊँची दीवारों के पीछे झाँकने वाली आँखों का उछालअनुशासन की लकीरों से बाहर जाने वाले फेंफड़ेएक जैसे ही होते हैं. एक सूत, एक इंच कोई फ़र्क ना मिटा सके.
फिर सारी ज्ञानी किताबी बातें दोगली हैंबाकी तो हिपोक्रेसी ज़िंदाबाद.
बर्थ डे वाली घटना के चार दिन बाद वही बूढ़ा यहाँ आया था . आहिस्ताअहिस्ता पीले पत्तों पर जमने वाली मृत्यु की तरह दिखता था. वो खड़ा होकर गांधी मैदान की सूनी सड़क को देख रहा था फिर इधरउधर सावधानी से कहीं आँख चुराता था फिर बेचैनी से मेरे पास आया और झट से मेरे मुँह में एक पत्र डालकर ऑटो में बैठकर चला गया
वो बूढ़ा फिर आया था चौथे महीने. उस दिन उसकी आँखों में पेड़ों की हरी करुणा भरी थी. मैंने देखा सूखा जल हिलता था उन आँखों में. कुछ महीनों बाद वो वापस आया. खूब पीड़ित चाल से चलताजैसे टहनी से टूटने ही वाला हो पीला पत्ता .सावधानी बरतते चलता था …. किससे आँख बचाते  मेरे मुँह में एक पत्र डालकर झटके से ऑटो में बैठ गया कि कौन ना जाने पकड़ ले उसे. कौन ना जाने देख ले उसे.
सब कुछ तहसनहस के बाद भी एक फूल खिलने का इंतजार ही हमें जीने की साँस देता है. वो बूढ़ा अगले सात महीने मेरे पास ऐसे ही किसी उम्मीद से आता रहा. उसके बाद मैंने उसे यहाँ फिर कभी नहीं देखा. फिर एक दिन उसी बूढ़े का ऑटोवाला आया और चिट्ठी डालकर चला गया .
मैं अब तक लाखों पत्रों को गले लगाकर भूल चुका हूँ . भूला तो आज तक उस बूढ़े द्वारा पोस्ट हुए पत्रों को.
बूढ़े के लिखे उन तमाम पत्रों का रुदन शामिल है मेरे रुदन में . उन पत्रों पर तारीख और दिन की स्याही सही थी . बाहर लिखा पता? क्या वो सही था. क्या वो पता धरती पर था कहीं ? वो मिला पता था.जो कहीं उपस्थित नहीं था. उपस्थित थे तो उस बूढ़े के वो पत्र जो मेरे पास किसी केक की गंध में तरबतर होकर  हेप्पी बर्थ डे टू यूकी धुन में नहाये हुए से हमेशा मेरे मन कानन पर छपे रहेंगे
26 अक्टूबर, 2019 
शनिवार
प्रिय मित्र ईश्वर ,
आज जन्मदिन है मेरा .सत्तर साल का हो गया हूँ. माँ बहुत याद रही है. बचपन में जन्मदिन होता था तो वो सरसो का तेल चुपड़कर बाल काढ़ती, धुला बुशर्ट पहनाती और माथे पे गाढ़ा लाल तिलक बिठाकर गुड़ का ढेला मुंह में धर देतीं. माँ इस दिन बजनिया हो जाती थी . खाट के नीचे रखी पुरानी पेटी बजाती हुई उसमें से सीप की माला निकालकर मुझे पहनाती कहतीम्हारो महाराजो दिखरियो.”  फिर रसोई में कढ़ाई , फुँकनी बजाती ढेरीभर धनिये की पंजीरी बनाती और उड़ उड़कर गाँव में बाँटती. लौटती तो लोटाबाल्टी बजाती गाती आंगन धोती. शाम  गेरू से माँडणें करती फिर दिया बालती सिर पे हाथ फेर फेर आसीस देती जाती.मैं इस दिन छौना महाराज होता, मुठ्ठी भर भर धनिया की पंजीरी फाँकता सुबह से रात तक. पूरे दिन कंचे खेलता सड़क बीच.
फिर एक दिन जब माँ पूरी हो गई तो ऐसा जन्मदिन फिर कभी ना आया. अब जैसे जैसे उम्र बढ़ती है बचपन पकड़ रहा है मुझे. उसकी पुकार पर  लगता है बच्चा हुआ जाता हूँ हर जन्मदिन पर .
पता है तुम्हें एक जन्मदिन पर जब बाज़ार वाले मीठे शरबत पीने  की जिद उठाई थी मैंने, तो कितना मारा था माँ ने .फिर वो ढेर रोना आँख पर चढ़ाकर भूखी  रही पूरा दिन. खूब हल्दी लगाती जाती थी मेरी जाँघ पर पीठ पर…” ऐसा थोड़ी होता है माँ क्यों रोना . मचाती है?… चोट  तो मुझ पर पड़़ी है .” बड़ा हुआ तब  समझ आया था बिचारे माँ बाप की असर्मथता, गरीबी , मरा हुआ मन कई बार डाँट और मार हो बच्चों के बदन में कैद होती जाती है.
पर आज सत्तरवां जन्मदिन  ऐसे ही बीताबाहर अग्रवाल स्वीट शॉप से मोतीचूर के लड्डू  और समोसे मंगवाए थे घरवालों ने. खुश कहाँ हूँ मैं.
अब उसकी प्रतीक्षा है मृत्यु की. वो तो इशारा करेगी साथ चलने का और जाना तो होगा. रुका भी कौन? इच्छा है कि  मरने से पहले मेरा जन्मदिन धूमधाम से मनाया जाए. केकवाला जन्मदिन. जिस पर खूब सारी मोमबत्तियां जल रही होमीठा लाल फूल बैठा हो उस पे. फिर हेप्पी बर्थ डे टू यू वाला गाना भी बजे. पर कैसे? क्या इस इच्छा पर सब हँसेंगे? मजाक होगी मेरी ? माँ होती तो उससे कहता नावो मारतीपर हल्दी भी मलतीनहीं है वो. मैं बच्चा हुआ जाता हूँ. क्या करूँ?
तुम सुझाव देना. इंतजार रहेगा.
तुम्हारे बचपन का मित्र
कृपाल( कीनू)
*****
20 फरवरी,2020 
गुरुवार
प्रिय मित्र ईश्वर,
तुम्हारा पत्र नहीं मिला . सुझाव की प्रतीक्षा है. तीन दिन पहले पड़ोस वाले  बलवंत जी का छियतरवां बर्थ डे था. उनके बच्चों ने सत्यनारायण की कथा रखवाई थी. वे ज्यादा प्रसन्न नहीं थे . उनको केकवाला बर्थ डे मनाना था. दो दिन पहले धीरे से मॉर्निंग वॉक के समय कहा था उनने कान में मेरे कि गुब्बारे लगी दीवार होहेप्पी बर्थ डे बलवंत लिखा हो रंगीन फरियों से .और वो त्रिभुज वाली ऊँची टोपी भी पहनना चाहते थे जिसकी बाँधनी ठोड़ी से नीचे बंधती हैं. पर कहाँ हो पाया ऐसा?
इधर हमारी कॉलोनी में जो पार्क है वहाँ विपश्यना ध्यान केन्द्र की ओर से पिछले महीने जिनका जन्मदिन था, उन सभी बूढ़ों को फूल माला पहनाई गई औरआपका जन्मदिन शुभ होलिखा स्वास्तिक मेमोंटो भेंट किया गया . किसी भी मित्र को ज्यादा खुशी नहीं हुई. हमारे यंग सीनियर सीटीजन कल्ब के सदस्य तो जीवन में एक बार केक वाला बर्थ ड़े मनाना चाहते हैं. वे नाचगाना, मौजमस्ती चाहते हैं. हंगामा हो हल्ला रहेठहाके भरे जाएँ ऐसा जन्मदिन. क्या बूढ़ी इच्छाऐं हँसी का पात्र बन जाती हैं.
हेड कलर्क से रिटायर हुए मेरे मित्र अपना अड़सठवें जन्मदिन पर केक काटना चाहते थेअब मन का क्या?उनके बच्चों ने कहा क्या बचपना है? बच्चे थोड़ी हो आप. फिर सब घरवाले मुँह पर हाथ रखकर हँसने लगे. वे दुखी थे. मैं  दुखी हूँ उनके लिए. क्या किया जाए. तुम सुझाव देना. पत्र का इंतजार रहेगा.
तुम्हारे बचपन  मित्र.
कृपाल( कीनू)
6जुलाई,2020
सोमवार
प्रिय मित्र ईश्वर,
छूट रहा है सब धीरेधीरे . चार दिन पहले ही अस्पताल से घर आया हूँ. शायद ज्यादा दिन नहीं रहे हैं अब. केकवाला बर्थ डे रह गया.अब तो अगले जन्म में ही. और हाँ बलवंत जी नहीं रहे. काश अपने नए जन्म में उनकी  केकवाले बर्थ डे की इच्छा पूरी हो पाए
तुम्हारे बचपन का मित्र
कृपाल ( कीनू)
****
किसी कहानी में उतरते हुए दूसरे के दुख में दाखिला लेना हमेशा ज़रूरी नहीं. दाख़िला तो ये भी ज़रूरी है कि तुम सहलाओ उस पीड़ा की कलाई को जिसने मदद के लिए तुम्हें कभी पुकारा भी नहीं.
लेकिन?
मैं चाहता हूँ ये पत्र पहुँचे उन नाम यात्राओं में जिनके नाम भी  मालूम हो किसी दुख को … 
ये पत्र पहुँचे उन बेपता इच्छाओं की तरफ़ जो शब्द, स्पर्श , रूप, रस ,गंध की उम्र का ज़िक्र कोई जिक्र ना छेड़े
ये पत्र पहुंचे मन रेगिस्तान की उन नाम ढाणी में जहाँ रेत को छूकर सारे पत्र इच्छाफूल बनने का रसायन चढ़ा ले अपने सर.
बूढ़ी उम्र में कैद होने का ज़ायका ये भी है कि सूखी मिट्टी का स्वाद हमेशा गीला ही रहा .खोदो , खोदो और गढ्ढा खोदो, तो मीठे पानी का सोता कभी ऐसे ही फूटेगा.
—–
ऊषा दशोरा
जयपुर
9166646917


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1 टिप्पणी

  1. ऊषा जी!आपकी कहानी तो पहले ही पढ़ ली थी लेकिन उस समय मन इतना भीगा हुआ था कि लिखने का कुछ मन ही नहीं हुआ।
    सबसे पहले तो हम बहुत कोशिश करके भी आपके शीर्षक का उचित आशय कहानी पढ़कर भी नहीं समझ पाए। दो-तीन ख्याल मन में आए भी पर हम संतुष्ट नहीं हो पाए और इसका आशय हम आपसे जानना चाहेंगे।

    कहानी में बजाज नगर का और गाँधी चौक का इतना जीवन्त वर्णन आपने किया है कि उसे पढ़कर ऐसा लगा कि अगर आप रेखाचित्र लिखें तो महादेवी जैसा कुछ श्रेष्ठ सृजन कर सकती हैं। आपको महादेवी जी के रेखाचित्र पढ़ना चाहिए शायद आपने पढ़े भी होंगे।

    *”पर क्या पीड़ाएँ चमकीली नहीं होती?”*
    यह कथन अपने आप में महत्वपूर्ण है।सोचा जा सकता है- पीड़ाएँ और चमकीली?
    *”हर चमकीली चीज़ की पीड़ा भी चमकदार होती है .बस्स वो चमक में दिखती नहीं . फिर… भी सबसे ज्यादा चमकते सुरक्षित टैंक में ही तो डूबी हैं।”*
    महत्वपूर्ण है यह!
    पोस्ट बॉक्स का आत्मकथात्मक वर्णन आपने बखूबी किया है। पूरी कहानी पोस्ट बॉक्स से ही कहलवा दी।
    बिल्कुल सच भी तो है !कितनी यादें इस पोस्ट बॉक्स के साथ जुड़ी हैं। सारे सुख- दुख, आशा- निराशा, सपने ,प्रेम, इंतजार! सब कुछ पहले इस पोस्ट बॉक्स से ही तो जुड़ा हुआ था। संदेश भेजने और पाने का एकमात्र साधन! आपने उसकी पीड़ा का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।
    कहने को तो इस कहानी के लिए बहुत कुछ है। पर अब हम इस कथानक के मुख्य पात्र ‘बूढ़े’ पर आते हैं जो इस कहानी के अंत तक बूढ़े के संबोधन से ही जाना गया। और यह कहानी पोस्ट बॉक्स के माध्यम से कही गई क्योंकि सारा वर्णन उसके लिए ही आँखों देखे हाल की तरह है। वही बता सकेगा, क्योंकि उस बूढ़े की चिट्ठियों को भी उसी ने पाया था।
    क्या पीड़ा रही होगी उसकी? किन स्थितियों में वह रहा होगा? यह प्रश्न तो समझ ही नहीं पाए लेकिन अंत में उसने ईश्वर को जो चिट्ठियां लिखी वह हमारे लिए बहुत मार्मिक और महत्वपूर्ण पल रहे।
    पोस्ट बॉक्स के पास रिक्शे में ही बैठकर बच्चों को जन्मदिन मनाते हुए देखने के पीछे की कहानी क्या रही होगी? शायद वह उसका अपना बचपन ही था जिसे वह याद कर रहा था।
    रोज रिक्शे में आकर बच्चों को छिप-छिप कर देखने का क्या कारण रहा होगा? शायद वृद्धावस्था अपने बालपन को याद कर रही थी!
    और फिर ईश्वर के नाम लिखी चिट्ठियाँ!!!!!
    अपने मन के दुख को बाँटने के लिए वास्तव में ईश्वर से बड़ा सुनवइया और कोई नहीं।
    रहीम दास जी कहते हैं-

    रहिमन निज मन की व्यथा ,
    मन ही राखो गोय।
    सुनी हँसि लैंहैं लोग सब,
    बाँटि‌ न लैंहें कोय।।
    और भगवान को कहकर मन हल्का भी हो जाता है कोई हंँसता भी नहीं।
    बर्थडे मनाने की याद!!!! बर्थडे में केक काटने की इच्छा ,जो कभी पूरी नहीं हो पाई। उम्र के व्यतीत होने तक!
    अंत में चिट्ठियों का आना बंद हो गया।
    *”किसी कहानी में उतरते हुए दूसरे के दुख में दाखिला लेना हमेशा ज़रूरी नहीं. दाख़िला तो ये भी अ–ज़रूरी है कि तुम सहलाओ उस पीड़ा की कलाई को जिसने मदद के लिए तुम्हें कभी पुकारा भी नहीं.”*
    यह महत्वपूर्ण पंक्तियाँ हैं।
    हम कितना समझ पाते हैं उसका भी दुख, जो अपने दुख को कह डालता है; फिर जिसने कहा ही नहीं है उसकी पीड़ा को पहचानना क्या इतना सहज है? दिव्य दृष्टि चाहिए होती है इसके लिये।
    कहानी ने काफी प्रभावित किया।
    लेकिन हर चीज के बारीक विवरण ने कहानी की लंबाई खींच दी।
    बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ उषा जी ।

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