ऊषा जी!आपकी कहानी तो पहले ही पढ़ ली थी लेकिन उस समय मन इतना भीगा हुआ था कि लिखने का कुछ मन ही नहीं हुआ।
सबसे पहले तो हम बहुत कोशिश करके भी आपके शीर्षक का उचित आशय कहानी पढ़कर भी नहीं समझ पाए। दो-तीन ख्याल मन में आए भी पर हम संतुष्ट नहीं हो पाए और इसका आशय हम आपसे जानना चाहेंगे।
कहानी में बजाज नगर का और गाँधी चौक का इतना जीवन्त वर्णन आपने किया है कि उसे पढ़कर ऐसा लगा कि अगर आप रेखाचित्र लिखें तो महादेवी जैसा कुछ श्रेष्ठ सृजन कर सकती हैं। आपको महादेवी जी के रेखाचित्र पढ़ना चाहिए शायद आपने पढ़े भी होंगे।
*”पर क्या पीड़ाएँ चमकीली नहीं होती?”*
यह कथन अपने आप में महत्वपूर्ण है।सोचा जा सकता है- पीड़ाएँ और चमकीली?
*”हर चमकीली चीज़ की पीड़ा भी चमकदार होती है .बस्स वो चमक में दिखती नहीं . फिर… भी सबसे ज्यादा चमकते सुरक्षित टैंक में ही तो डूबी हैं।”*
महत्वपूर्ण है यह!
पोस्ट बॉक्स का आत्मकथात्मक वर्णन आपने बखूबी किया है। पूरी कहानी पोस्ट बॉक्स से ही कहलवा दी।
बिल्कुल सच भी तो है !कितनी यादें इस पोस्ट बॉक्स के साथ जुड़ी हैं। सारे सुख- दुख, आशा- निराशा, सपने ,प्रेम, इंतजार! सब कुछ पहले इस पोस्ट बॉक्स से ही तो जुड़ा हुआ था। संदेश भेजने और पाने का एकमात्र साधन! आपने उसकी पीड़ा का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।
कहने को तो इस कहानी के लिए बहुत कुछ है। पर अब हम इस कथानक के मुख्य पात्र ‘बूढ़े’ पर आते हैं जो इस कहानी के अंत तक बूढ़े के संबोधन से ही जाना गया। और यह कहानी पोस्ट बॉक्स के माध्यम से कही गई क्योंकि सारा वर्णन उसके लिए ही आँखों देखे हाल की तरह है। वही बता सकेगा, क्योंकि उस बूढ़े की चिट्ठियों को भी उसी ने पाया था।
क्या पीड़ा रही होगी उसकी? किन स्थितियों में वह रहा होगा? यह प्रश्न तो समझ ही नहीं पाए लेकिन अंत में उसने ईश्वर को जो चिट्ठियां लिखी वह हमारे लिए बहुत मार्मिक और महत्वपूर्ण पल रहे।
पोस्ट बॉक्स के पास रिक्शे में ही बैठकर बच्चों को जन्मदिन मनाते हुए देखने के पीछे की कहानी क्या रही होगी? शायद वह उसका अपना बचपन ही था जिसे वह याद कर रहा था।
रोज रिक्शे में आकर बच्चों को छिप-छिप कर देखने का क्या कारण रहा होगा? शायद वृद्धावस्था अपने बालपन को याद कर रही थी!
और फिर ईश्वर के नाम लिखी चिट्ठियाँ!!!!!
अपने मन के दुख को बाँटने के लिए वास्तव में ईश्वर से बड़ा सुनवइया और कोई नहीं।
रहीम दास जी कहते हैं-
रहिमन निज मन की व्यथा ,
मन ही राखो गोय।
सुनी हँसि लैंहैं लोग सब,
बाँटि न लैंहें कोय।।
और भगवान को कहकर मन हल्का भी हो जाता है कोई हंँसता भी नहीं।
बर्थडे मनाने की याद!!!! बर्थडे में केक काटने की इच्छा ,जो कभी पूरी नहीं हो पाई। उम्र के व्यतीत होने तक!
अंत में चिट्ठियों का आना बंद हो गया।
*”किसी कहानी में उतरते हुए दूसरे के दुख में दाखिला लेना हमेशा ज़रूरी नहीं. दाख़िला तो ये भी अ–ज़रूरी है कि तुम सहलाओ उस पीड़ा की कलाई को जिसने मदद के लिए तुम्हें कभी पुकारा भी नहीं.”*
यह महत्वपूर्ण पंक्तियाँ हैं।
हम कितना समझ पाते हैं उसका भी दुख, जो अपने दुख को कह डालता है; फिर जिसने कहा ही नहीं है उसकी पीड़ा को पहचानना क्या इतना सहज है? दिव्य दृष्टि चाहिए होती है इसके लिये।
कहानी ने काफी प्रभावित किया।
लेकिन हर चीज के बारीक विवरण ने कहानी की लंबाई खींच दी।
बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ उषा जी ।
ऊषा जी!आपकी कहानी तो पहले ही पढ़ ली थी लेकिन उस समय मन इतना भीगा हुआ था कि लिखने का कुछ मन ही नहीं हुआ।
सबसे पहले तो हम बहुत कोशिश करके भी आपके शीर्षक का उचित आशय कहानी पढ़कर भी नहीं समझ पाए। दो-तीन ख्याल मन में आए भी पर हम संतुष्ट नहीं हो पाए और इसका आशय हम आपसे जानना चाहेंगे।
कहानी में बजाज नगर का और गाँधी चौक का इतना जीवन्त वर्णन आपने किया है कि उसे पढ़कर ऐसा लगा कि अगर आप रेखाचित्र लिखें तो महादेवी जैसा कुछ श्रेष्ठ सृजन कर सकती हैं। आपको महादेवी जी के रेखाचित्र पढ़ना चाहिए शायद आपने पढ़े भी होंगे।
*”पर क्या पीड़ाएँ चमकीली नहीं होती?”*
यह कथन अपने आप में महत्वपूर्ण है।सोचा जा सकता है- पीड़ाएँ और चमकीली?
*”हर चमकीली चीज़ की पीड़ा भी चमकदार होती है .बस्स वो चमक में दिखती नहीं . फिर… भी सबसे ज्यादा चमकते सुरक्षित टैंक में ही तो डूबी हैं।”*
महत्वपूर्ण है यह!
पोस्ट बॉक्स का आत्मकथात्मक वर्णन आपने बखूबी किया है। पूरी कहानी पोस्ट बॉक्स से ही कहलवा दी।
बिल्कुल सच भी तो है !कितनी यादें इस पोस्ट बॉक्स के साथ जुड़ी हैं। सारे सुख- दुख, आशा- निराशा, सपने ,प्रेम, इंतजार! सब कुछ पहले इस पोस्ट बॉक्स से ही तो जुड़ा हुआ था। संदेश भेजने और पाने का एकमात्र साधन! आपने उसकी पीड़ा का बहुत ही मार्मिक वर्णन किया है।
कहने को तो इस कहानी के लिए बहुत कुछ है। पर अब हम इस कथानक के मुख्य पात्र ‘बूढ़े’ पर आते हैं जो इस कहानी के अंत तक बूढ़े के संबोधन से ही जाना गया। और यह कहानी पोस्ट बॉक्स के माध्यम से कही गई क्योंकि सारा वर्णन उसके लिए ही आँखों देखे हाल की तरह है। वही बता सकेगा, क्योंकि उस बूढ़े की चिट्ठियों को भी उसी ने पाया था।
क्या पीड़ा रही होगी उसकी? किन स्थितियों में वह रहा होगा? यह प्रश्न तो समझ ही नहीं पाए लेकिन अंत में उसने ईश्वर को जो चिट्ठियां लिखी वह हमारे लिए बहुत मार्मिक और महत्वपूर्ण पल रहे।
पोस्ट बॉक्स के पास रिक्शे में ही बैठकर बच्चों को जन्मदिन मनाते हुए देखने के पीछे की कहानी क्या रही होगी? शायद वह उसका अपना बचपन ही था जिसे वह याद कर रहा था।
रोज रिक्शे में आकर बच्चों को छिप-छिप कर देखने का क्या कारण रहा होगा? शायद वृद्धावस्था अपने बालपन को याद कर रही थी!
और फिर ईश्वर के नाम लिखी चिट्ठियाँ!!!!!
अपने मन के दुख को बाँटने के लिए वास्तव में ईश्वर से बड़ा सुनवइया और कोई नहीं।
रहीम दास जी कहते हैं-
रहिमन निज मन की व्यथा ,
मन ही राखो गोय।
सुनी हँसि लैंहैं लोग सब,
बाँटि न लैंहें कोय।।
और भगवान को कहकर मन हल्का भी हो जाता है कोई हंँसता भी नहीं।
बर्थडे मनाने की याद!!!! बर्थडे में केक काटने की इच्छा ,जो कभी पूरी नहीं हो पाई। उम्र के व्यतीत होने तक!
अंत में चिट्ठियों का आना बंद हो गया।
*”किसी कहानी में उतरते हुए दूसरे के दुख में दाखिला लेना हमेशा ज़रूरी नहीं. दाख़िला तो ये भी अ–ज़रूरी है कि तुम सहलाओ उस पीड़ा की कलाई को जिसने मदद के लिए तुम्हें कभी पुकारा भी नहीं.”*
यह महत्वपूर्ण पंक्तियाँ हैं।
हम कितना समझ पाते हैं उसका भी दुख, जो अपने दुख को कह डालता है; फिर जिसने कहा ही नहीं है उसकी पीड़ा को पहचानना क्या इतना सहज है? दिव्य दृष्टि चाहिए होती है इसके लिये।
कहानी ने काफी प्रभावित किया।
लेकिन हर चीज के बारीक विवरण ने कहानी की लंबाई खींच दी।
बेहतरीन कहानी के लिए आपको बहुत-बहुत बधाइयाँ उषा जी ।