वर्ष 2025 दुष्यंत कुमार (1933-1975) के माध्यम से हिंदी ग़ज़ल की पहचान और एक विधा के रूप में उसकी स्थापना का स्वर्ण जयंती वर्ष होगा। इन लगभग पाॅंच दशकों में हिंदी ग़ज़ल‌ ने विधा के रूप में अपने आप को हिंदी काव्य ‌के क्षितिज पर स्थापित तो किया ही है, उसने ऐसा बहुत कुछ लिखा और रचा है कि उसकी रचनाशीलता पर गर्व किया जा सकता है। छंद मुक्त हिंदी कविता के बौद्धिक वर्चस्व को तोड़कर ऐसा कर पाना बेहद चुनौतीपूर्ण बेशक रहा हो,लेकिन हिंदी ग़ज़ल ने हर चुनौती को पार करते हुए अपनी राह बनाई है। बावजूद इसके, आंदोलन के स्तर पर पहुॅंच चुकी हिंदी ग़ज़ल आज भी अपनी अंदरूनी चुनौतियों से जूझने के लिए अभिशप्त है तो इसके कारण भी हिंदी ग़ज़ल के भीतर ही मौजूद हैं। जब कई सारे हिंदी ग़ज़ल संग्रहों के रचनाकार और हिंदी ग़ज़ल की आलोचना की कुछेक पुस्तकों के लेखक ज्ञानप्रकाश विवेक एक फेसबुक पोस्ट पर टिप्पणी करते हुए‌‌ एक ग़ज़लकार को यह कहकर तिरस्कृत कर बैठते हों कि क्या हिंदी ग़ज़ल कोई अलग विधा है? तो यह निःसंदेह चिंता पैदा कर देने वाली टिप्पणी बन जाती है और विडंबना यह‌ कि इसके लिए उन्हें कोई पछतावा नहीं होता है।‌ वे यह भी कह चुके हैं देवनागरी लिपि में लिखी ग़ज़ल हिंदी ग़ज़ल है-
     ‘हिन्दी ग़ज़ल का सीधा-सा अर्थ है, देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली ग़ज़लें।‘ (‘आजकल’, अगस्त-2020,पृष्ठ- 21) ऐसा कहते हुए वे भूल गए कि विधाऍं भाषाओं की‌ होती हैं, लिपियों की नहीं। सच बात तो यह है कि वे भूले नहीं थे बल्कि जानबूझकर उन्होंने ऐसा कहा था। क्योंकि उर्दू ग़ज़ल उनकी कमज़ोरी है और वे उर्दू शायर की भी मान्यता चाहते हैं‌ साथ हिंदी ग़ज़लकार की भी । जब तमाम सारी उर्दू ग़ज़लें देवनागरी में लिप्यांतरित होती आ रही हों तो ऐसे में देवनागरी लिपि में ग़ज़ल को हिंदी ग़ज़ल मान लेने से हिंदी ग़ज़ल का आंदोलन ही धराशाई हो सकता है। यदि लिपि ही भाषा की कसौटी बन जाय तो हिंदी साहित्य का पूरा इतिहास ही बदल जाएगा। तब न जायसी और न उनका ‘पद्मावत‘ (रचनाकाल 1493-1538ई.) इतिहास के हिस्से होंगे। इसके अलावा कासिमशाह,नूर मुहम्मद जिनकी चर्चा आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने भक्तिकाल में निर्गुण धारा के प्रेममार्गी सूफी शाखा के कवियों के अंतर्गत की है, की रचनाएँ भी फारसी लिपि में ही लिखी गई थीं। ‘इंद्रावत ‘(रचनाकाल-1744 ई.) तथा ‘अनुराग बाँसुरी ‘ (रचनाकाल-1764 ई.) जैसे हिंदी काव्यों की रचना करने वाले नूर मुहम्मद के संदर्भ से आचार्य शुक्ल लिखते हैं कि-‘ इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है,जिसका नाम है ‘अनुराग बाँसुरी’। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा सूफी रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित है। दूसरी बात यह है कि हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव।‘ (पृष्ठ-61) इसी आधार पर तब अमीर खुसरो (1253-1325ई.) भी हिंदी साहित्य के इतिहास में नहीं होंगे, जिन्हें हम हिंदी ग़ज़ल का आदि पुरुष मानते हैं। वही अमीर खुसरो जिन्हें स्वयं आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ‘हिंदी साहित्य का इतिहास‘ लिखते समय आदिकाल अर्थात वीरगाथा काल (993-1318 ई.) के प्रकरण 4 में फुटकल रचनाओं की चर्चा करते हुए इस काल के आठवें कवि के रूप में यह कहते हुए शामिल और उद्धृत किया है कि ‘ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे।'( पृष्ठ-30) आचार्य शुक्ल ने उनकी चर्चा रसीले गीत और दोहों के कवि के रूप में भी की है। खुसरो की रचनाओं की लिपि फ़ारसी होने की पुष्टि हिंदी-उर्दू के विद्वान डॉ.सादिक भी करते हैं।
          हिंदी ग़ज़ल बीच-बीच में ऐसी ही नई-नई विडंबनाओं से घिरती दिखाई देती है। अभी कुछ दिन पूर्व एक हिंदी ग़ज़ल संकलन के किसी विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में निर्धारित करने की ख़बर आई थी। प्रथम दृष्टया यह ख़बर उत्साह वर्धक लगती है और इसी भाव से उसका स्वागत भी हुआ। लेकिन मात्र एक ग़ज़लकार के आलोचक और अध्ययनकर्ता संपादक ने इस पुस्तक में जब हिंदी ग़ज़ल की विकास-यात्रा लिखी तो उसे प्रायः विकृत ही कर डाला। उसमें बशीर बद्र समेत कुछ उर्दू शायरों को तो अत्याधुनिक हिंदी ग़ज़लकार घोषित किया ही, कितने ऐसे कवियों को इस श्रेणी में शामिल कर डाला जिनकी यदा-कदा ही ग़ज़लें कभी कहीं दिखाई पड़ीं होंगी या जो घोषित और स्वीकृत रूप से ग़ज़लकार हैं ही नहीं !
         उस्तादों के चंगुल में फॅंसे हिंदी के नाम पर उर्दू सेवी रचनाकारों की भरमार हिंदी ग़ज़ल में सोशल मीडिया से लेकर पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों तक में ख़ूब दिखाई देती है। एक आध उदाहरण तो ऐसे भी हैं कि किसी शायर की ज्ञात-अज्ञात वसीयत के आधार पर ही उसे हिंदी ग़ज़ल की परंपरा का आदमी बता दिया गया। बता ही नहीं दिया गया बल्कि मान भी लिया गया। यहाॅं यह कहना आवश्यक है कि उर्दू भाषा क्या किसी भी भाषा का शायर होना कोई कुफ्र तो नहीं है। लेकिन आपकी भाषा के आधार पर और उसी की परंपरा में ही आपका मूल्यांकन होगा। फिर किसी अन्य भाषा से मूल्यांकन का मोह और अपेक्षा क्यों ?
         कुछ रचनाकारों में बड़ा होने से ज़्यादा बड़ा दिखने की आकांक्षा ज़िद में तब्दील हो चुकी है। उन्होंने अपने लिए कुछ आलोचक ढूॅंढे हैं, जो केवल उनके लिए काम करते हैं। क्योंकि उन्हें उनसे ही फ़ुर्सत नहीं मिलती तो बाकी रचनाशीलता पर कब और क्यों लिखें? ज़ाहिर है,ऐसे में कुछ एक ग़ज़लकार ही आलोचना की परिधि में आ सकते हैं, शेष उस परिधि से बाहर ही रहेंगे। देखने की बात यह भी है कि ऐसी आलोचना हिंदी ग़ज़ल में एक अलग और नई तरह की बाड़े-बंदी का रूप ले रही है। आलोचक के रचनाकार चुनने की पसंद-नापसंद के अधिकार का सम्मान करते हुए भी यह कहा ही जा सकता है कि छोटे गुब्बारों में जब ज़रूरत से ज़्यादा हवा भरी जाएगी तो गुब्बारों के फूट जाने के ख़तरे भी उतने ज़्यादा होंगे। हिंदी ग़ज़ल की पांच दशकों की रचनाशीलता पर काम कम हो पा रहा है। ज्ञान प्रकाश विवेक ने आलोचना के नाम पर जो भी लिखा है, वह ऊपर दिए गए कारणों से बिल्कुल विश्वसनीय नहीं है। हरेराम समीप को एक अपवाद की तरह देखा जा सकता है जो हिंदी ग़ज़ल और ग़ज़लकारों पर अध्ययन के मोड में बने रहते हैं और लगातार बने रहते हैं। उनका यह अध्ययन हिंदी ग़ज़ल का पथ तो प्रशस्त करता ही है और जहां-तहां आलोचना की परिधि में भी प्रवेश करता दिखाई देता है।
        ग़ज़ल के बाहर के कुछ ‘ सुधीजनों ‘ द्वारा कुछ ग़ज़लकारों के साथ मिलकर विचारधारा के आधार पर भी हिंदी ग़ज़ल में बाड़ेबंदी की कोशिशें जारी हैं। लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि जब तक ग़ज़ल अपने पूरे शैल्पिक सौष्ठव और भाषिक सौन्दर्य-बोध के साथ नहीं रची गई होगी, विचारधारा केवल बैसाखी की तरह ही नज़र आएगी।
         गायकों द्वारा ग़ज़लों का गायन भी धीरे-धीरे रचनाकारों की कमज़ोरी-सा बनता जा रहा है। बीच-बीच में मित्रों की विभिन्न ग़ज़ल-गायकों द्वारा गाई गई ग़ज़लों का वीडियो व्हाट्सएप पर मिलता रहता है। उनमें से हर एक का दावा होता है कि उसे अमुक गायक ने अपनी मखमली आवाज़ में गाया है। सुप्रसिद्ध ग़ज़ल-गायक स्व. जगजीत सिंह ने कुछ अलग तेवर की ग़ज़लें गाकर उनके रचनाकारों को बहुत दूर तक पहुॅंचाने का काम किया, जिनमें कुछ हिंदी ग़ज़लकार भी शामिल हैं। लेकिन जगजीत सिंह जैसी पहचान वाले गायक अब ढूॅंढे से भी नहीं मिलते। यदि मिल भी गए तो पारंपरिक इश्किया शायरी ही गाते मिलेंगे। क्योंकि वहाॅं भी प्रतिस्पर्धा है और बहुत जबर्दस्त है। कुछ ग़ज़लकार अपने ऑडियो या वीडियो एल्बम भी बनवा कर इस दिशा में प्रयास कर चुके हैं। लेकिन बात बहुत दूर तक जाती नहीं दिखती। गायकों द्वारा ग़ज़ल में जान डालने की भी अपनी सीमा है। वे निष्प्राण ग़ज़लों में कैसे भी सुर भर दें, वह प्रभाव पैदा नहीं कर पाते हैं, जिसकी किसी अच्छी ग़ज़ल से उम्मीद की जाती है। बेशक गायन से ग़ज़ल की संप्रेषणीयता और उसके भाव-लोक को एक नया और अलग आयाम मिलता है। लेकिन ऐसा तभी होता है जब ग़ज़ल खुद में ताक़तवर और जानदार हो।
        पत्रिकाओं में ग़ज़लों की स्थिति में काफी कुछ सुधार हुआ है। सरकारी से गैर सरकारी पत्रिकाओं तक के ग़ज़ल विशेषांक लगातार निकाले जा रहे हैं। तमाम लघु पत्रिकाओं में ग़ज़ल को सम्मानजनक और भरपूर स्थान दिया जा रहा है। लेकिन कुछ बड़ी और प्रतिष्ठान आधारित लघु पत्रिकाऍं आज भी नई कविता के ज़माने में ही जी रही हैं। हिंदी ग़ज़लों को स्थान देने के लिए वे मानसिक रूप से तैयार नहीं हैं। ऐसा इसलिए भी है कि उनके संपादक नई कविता के जमाने के ही पले और बढ़े हैं और उनकी मानसिकता‌ अभी भी अड़ियल बनी हुई है। एक समय था जब प्रगतिशील पत्रिका ‘पहल ‘ एक टैग लगाती थी कि ‘लघु कथाएं और हिंदी ग़ज़लें न भेजें‘। पत्रिका की इस तथाकथित प्रगतिशीलता पर सवाल उठाए जाने पर संपादक ज्ञान रंजन जी ने टैग तो हटाया ही, थोड़ा-बहुत स्पेस‌ यदा- कदा हिंदी ग़ज़ल को भी देना शुरू कर दिया। कुछ ऐसी ही स्थिति दूसरी प्रगतिशील पत्रिका ‘हंस‘ की भी रही है। शुरू में ‘हंस’ में हिंदी ग़ज़लें नहीं छपती थी। इस पर राजेंद्र यादव जी से मेरा पत्राचार भी हुआ था और तब उन्होंने कहा था कि यदि उन्हें ग़ज़लें छापनी होंगी तो वे उर्दू के उस्ताद शायरों की ग़ज़लें छापना पसंद करेंगे। इस पर मैंने उनसे कहा था कि आप एक बार शुरू तो करिए ग़ज़ल, फिर आप धीरे-धीरे हिंदी ग़ज़ल भी प्रकाशित करने लग जाऍंगे। मेरा उनसे यह सवाल था कि क्या हिंदी ग़ज़ल हिंदी से बाहर की किसी अन्य भाषा की पत्रिका में स्थान पाएगी ? जो भी हो, अंततः ‘हंस’ में हिंदी ग़ज़लें छपनी शुरू तो हो गईं,लेकिन पत्रिका द्वारा हिंदी ग़ज़लों को सम्मानजनक स्थान कभी नहीं दिया गया। उन्हें फिलर की तरह प्रयोग किया जाने लगा। जो पत्रिका अपने संस्थापक प्रेमचंद की न हुई ,वह हिंदी ग़ज़ल की कैसे हो सकती है? आज भी ‘हंस’ का उपेक्षा भाव उसी तरह चल रहा है। कोढ़ में खाज का काम किया है ग़ज़लों के विषय में संपादकीय विवेकहीनता और गैर समझदारी ने। परिणाम यह हुआ है कि सबसे स्तरहीन और कमज़ोर ग़ज़लें और कभी-कभी शिल्प से भी बुरी तरह भटकी हुई ग़ज़लें पढ़ने को मिलती हैं ‘हंस’ में !
         उर्दू मानसिकता के हिंदी ग़ज़लकार हिंदी ग़ज़ल को उर्दू ग़ज़ल से निम्नतर सिद्ध करने में प्रसन्नता का अनुभव करते हैं। इस पद्धति से चलेंगे तो उर्दू ग़ज़ल फ़ारसी ग़ज़ल से निम्नतर हो जाएगी और फ़ारसी ग़ज़ल अरबी ग़ज़ल से। ज़ाहिर है वास्तविकता यह नहीं है और न इस तरह की तुलनाओं का कोई औचित्य ही होता है। हर भाषा का अपना एक संस्कार, उसका अपना सौष्ठव और सौंदर्य-बोध होता है। ग़ज़ल उसके ही खाद-पानी से हर भाषा में अलग-अलग ढंग से अवतार लेती है। हिंदी ग़ज़ल हिंदी ‌में ग़ज़ल का नया अवतार ही है। इसलिए हिंदी ग़ज़ल में उर्दू ग़ज़ल की हर ख़ूबी ढूॅंढने का कोई औचित्य नहीं है।
         दुष्यंत कुमार की 64 ग़ज़लों के इकलौते संग्रह ‘साये में धूप ‘ की पहली ग़ज़ल का पहला ही शेर है- ‘कहाॅं तो तय था चिरागाॅं हरेक घर के लिए/ कहाॅं चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए ‘। इस शेर में उन्होंने उर्दू के ‘शह्र‘ शब्द के लिए जानबूझकर हिंदी के ‘ शहर ‘ शब्द का प्रयोग करते हुए भाषा के स्तर पर एक नई मुहिम शुरू की थी कि उर्दू शब्द हिंदी जिस रूप में समाहित हो गए हैं, ठीक उसी तरह उनका इस्तेमाल किया जाए। अपने संग्रह की भूमिका ‘ मैं स्वीकार करता हूॅं…‘ में उन्होंने पूरी साफ़गोई से लिखा है-
      ‘- कि..कुछ उर्दू-दाँ दोस्तों ने कुछ उर्दू शब्दों के प्रयोग पर एतराज़ किया है। उनका कहना है कि शब्द ‘शहर’ नहीं ‘शह्र’ होता है, ‘वज़न’ नहीं ‘वज़्न’ होता है।
     – कि मैं उर्दू नहीं जानता, लेकिन इन शब्दों का प्रयोग यहाँ अज्ञानतावश नहीं, जानबूझ कर किया गया है। यह कोई मुश्किल काम नहीं था कि ‘शहर’ की जगह ‘नगर’ लिखकर इस दोष से मुक्ति पा लूँ, किंतु मैंने उर्दू शब्दों को उस रूप में इस्तेमाल किया है, जिस रूप में वे हिंदी में घुल-मिल गये हैं। उर्दू का ‘शह्र ‘ हिंदी में ‘शहर’ लिखा और बोला जाता है; ठीक उसी तरह जैसे हिंदी का ‘ब्राह्मण’ उर्दू में ‘बिरहमन’ हो गया है और ‘ऋतु’ ‘रुत’ हो गई है।‘(साये में धूप, पृष्ठ-13)
       ताज भोपाली (1926-1978) जैसे समकालीन और हमउम्र शायर के सम्पर्क में भी थे तब दुष्यंत कुमार। इसके बावजूद यदि भाषा को लेकर उनका ऐसा दृढ़ और स्पष्ट दृष्टिकोण था तो इसकी गंभीरता को समझा जाना चाहिए था। लेकिन बाद के तमाम रचनाकारों ने दुष्यंत कुमार की इस भाषाई मुहिम को एक हद तक किनारे ही कर दिया। वे शहर को तो शह्र के वज़न पर लिखते ही रहे, ज़हर के स्थान पर भी ज़ह्र पीने लगे। इसी कोटि के और भी बहुत सारे शब्द मिल जाएंगे। इस तरह से देखा जाए तो यह दुष्यंत कुमार की मुहिम की उपेक्षा ही नहीं उसका अनादर भी था और अपनी ही भाषा के साथ खिलवाड़ भी! मैंने अपनी पूरी ग़ज़ल-धर्मिता में शहर को शहर ही लिखा।अपवाद स्वरूप मुझे शहर को एक जगह शह्र के वज़न में लिखने की ज़रूरत आ पड़ी तो मैंने वहाॅं शहर के बजाय शह्र ही लिखा। अभी एक हिंदी पत्रिका का ताज़ा अंक मिला है। पत्रिका में ‘ग़ज़लें‘ नहीं ‘ग़ज़लयात‘ प्रकाशित की गई हैं। अब हिंदी संपादक के ऐसे भाषिक विवेक पर तरस ही खाया जा सकता है !
       इधर कुछ लोगों में उर्दू प्रभाव ही नहीं बल्कि उसके लिए अंधभक्ति अलग तरह से भी देखी जा रही है। ऐसे लोग शेर को शे’र, मसला को मस्अला, मानी को मआनी लिखते नज़र आते हैं। दरअसल ऐसे प्रयोग अपनी ही भाषा के साथ दूरियाॅं बनाते और बढ़ाते हैं। हिंदी तो वह भाषा है जिसमें यमक और श्लेश जैसे अलंकार हैं। ऐसे में कई बार नुक्ता लगाया जाना भी अनावश्यक लगता है। लेकिन अब वह चल पड़ा है तो चल पड़ा है। लेकिन इसके पीछे हाथ धोकर पड़ जाने से भी बहुत फ़ायदा नहीं होने वाला है। ठीक वैसे ही जैसे ग़ज़ल के शेर से जंगल वाले शेर का बोध नहीं होता है। हिंदी ग़ज़ल में उर्दू वाली शुद्धता की अपनी सीमाऍं हैं। हमारे लिए उर्दू भाषा के जो शब्द हिंदी में रच-बस कर हमारी ही शब्दावली और शब्द- कोश के बन गए हैं,वही वरेण्य हैं। ऐसे शब्दों से बचने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन यदि कोई उर्दू शायर ग़ज़लकारों से इस बात पर बहस करने लगे कि तमस के साथ बहस का क़ाफ़िया इसलिए ग़लत है कि उर्दू में सही शब्द बह्स है तो उसे कठोर भाषा में ही समझाना ज़रूरी हो जाएगा कि उर्दू में बह्स होने से हिंदी का बहस बह्स नहीं हो जाएगा।
       भाषा अंततः संवाद और संप्रेषण का माध्यम है। यदि अपनी भाषा में दूसरी भाषा के शब्दों के प्रयोग से संवाद और संप्रेषण सहज,सुगम और बेहतर होता है तो दूसरी भाषा के ऐसे शब्दों के प्रयोग की प्रासंगिकता विचारणीय हो सकती है।लेकिन इधर कुछ ऐसे भी संग्रह सामने आए हैं, जिनमें फुटनोट के रूप में कई-कई उर्दू शब्दों के अर्थ रचनाकार को देने पड़े हैं। ये वे शब्द हैं जो डिक्शनरी से खोज-खोज कर निकाले गए हैं अथवा जिनका हिंदी भाषा में कोई समावेश न तो बोलचाल में हुआ है और न ही शब्दकोश या साहित्य में। ऐसी कृत्रिम भाषा सहज संप्रेषण में बाधक ही होती है। जब हिंदी ग़ज़ल में शुद्ध तत्सम वाली शब्दावली पूरी तरह नहीं खप पाई तो फुटनोट वाली भाषा का भी कोई भविष्य नहीं दिखाई देता है। यूॅं भी भाषा विद्वता जताने का साधन तो बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। अंग्रेजी के पूर्व प्रोफेसर और विश्व के कई बड़े विश्वविद्यालयों में अंग्रेजी का प्राध्यापन कर चुके, ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित मराठी साहित्यकार भालचंद्र नेमाड़े का तो कहना है कि मातृभाषा में ही शत प्रतिशत अभिव्यक्ति संभव है, किसी अन्य भाषा में नहीं।
        ग़ज़ल में केवल भाषा को ही नहीं आना होता है, उसका सौन्दर्य- बोध भी बहुत महत्वपूर्ण होता है। अन्यथा उसकी भाषा केवल पढ़ने भर की चीज़ बनकर रह जाती है, उससे अपेक्षित आनंद की सृष्टि नहीं हो पाती है। ऐसे में भाषा को बहुत सावधानी और सतर्कता के साथ प्रयोग किया जाना इस विधा की अपनी ख़ास ज़रूरत है। इसे जो जितना जल्दी समझ लेगा, विधा पर उसकी पकड़ उतनी ही मज़बूत बनती चली जाएगी। यूॅं ग़ज़ल को रदीफ़ और क़ाफ़ियों का गणित भर मान लेने वाले रचनाकारों की कोई कमी नहीं है। ठीक है रदीफ़-क़ाफ़िया ग़ज़ल के अत्यंत महत्वपूर्ण अंग हैं, लेकिन ये ग़ज़ल की पाठशाला की केवल प्राइमरी कक्षा की बातें हैं। ग़ज़ल की असली यात्रा तो उसके बाद प्रारंभ होती है और यह एक ऐसी अंतहीन यात्रा होती है, जिसमें आप जितना आगे बढ़ते जाते हैं आपको लगता है कि अभी तो आगे आपको बहुत लंबा सफ़र तय करना है। अभी तक पीछे जो सफ़र आपने तय किया है वह बहुत अपर्याप्त था ! ग़ज़ल के स्वभाव को ठीक से समझे बिना ग़ज़ल में ज़्यादा दूरी तक यात्रा कर पाना संभव नहीं रह जाता है। यह यात्रा ग़ज़ल संग्रहों की संख्या से तय नहीं होती है, न ही इस बात से तय होती है कि आपने कितनी प्रशंसा सोशल मीडिया पर बटोरी है। या कि अपनी रचना पर आपने किस-किस की राय लिखवाई है। यह जिस चीज से तय होती है, उसे ही साहित्य में साधना कहते हैं। ग़ज़ल के लिए यह साधना उसके शिल्प के कारण अन्य विधाओं की तुलना में थोड़ी और कठिन हो जाती है। लेकिन समर्थ लोग इस कठिन रास्ते को आसान बना लेते हैं। फिर ऐसे ग़ज़लकार के लिए कामयाबी मुश्किल नहीं रह जाती है।
         जहाॅं एक तरफ इस तरह की चुनौतियाॅं हैं तो दूसरी तरफ हिंदी ग़ज़ल का सृजन-अभियान और भी बहुआयामी और बहुरंगी होने की ओर अग्रसर है। न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन, नई दिल्ली ने देवेंद्र आर्य के ग़ज़ल संग्रह ‘मन कबीर ‘ को अंग्रेजी व दस अन्य भारतीय भाषाओं में लिप्यांतरित करके प्रकाशित करने की दिशा में क़दम बढ़ा दिए हैं। उक्त में से चार भाषाओं- हिंदी, अंग्रेज़ी, पंजाबी व बांग्ला में तो वह संग्रह प्रकाशित भी हो चुका है। इसी तरह 2022 की दुष्यंत जयंती पर विमोचित होने वाली ग़ज़लकार मधुवेश की ग़ज़ल- कृति ‘ बहुत पहले ‘ एक ऐसी पुस्तक है जो 230 शेरों की एकमात्र ग़ज़ल से बनी हुई है। जाने-माने कवि एवं ग़ज़लकार सूर्यभानु गुप्त की पानी रदीफ़ की लंबी ग़ज़ल कोई 100 शेरों तक पहुंच चुकी है और आगे भी लिखे जाने की प्रक्रिया में है। यही क्यों, देवास, मध्य प्रदेश के राजकुमार चंदन तो 10700 शेरों की भी एक ग़ज़ल लिख चुके हैं। इसके वैश्विक स्तर पर सबसे लंबी ग़ज़ल होने का भी दावा किया गया है। इस ग़ज़ल को संपूर्ण रूप से पुस्तकाकार प्रकाशित करने के लिए किसी बड़े प्रकाशक या सरकारी तंत्र की अपेक्षा है। इन प्रयासों से हिंदी ग़ज़लकारों की सामर्थ्य और क्षमता का खुलासा तो होता ही है, हिंदी ग़ज़ल की विराट संभावनाओं का भी पता चलता है।
        कहने का आशय यह कि तमाम सारी चुनौतियों के बावजूद हिंदी ग़ज़ल का बहुआयामी सफ़र लगातार जारी है। उसके क़दम मज़बूती से आगे बढ़ रहे हैं। उसकी ऑंखों में हिंदी कविता का पूरा यथार्थ‌ मौजूद दिखाई देता है। मौजूदा हिंदी ग़ज़ल के सरोकार क्षेत्रीय अथवा राष्ट्रीय स्तर तक ही सीमित नहीं है, बल्कि वैश्विक परिधियों को भी स्पर्श करते नज़र आते हैं। सरहदों के टकराव, वैश्विक आतंकवाद, पर्यावरण असंतुलन, युद्धों की विभीषिकाऍं तथा अंतरराष्ट्रीय प्रतीक हिंदी ग़ज़लों में उपस्थित मिलते हैं। ऐसे में हिंदी ग़ज़ल का यह वैश्विक विस्तार भी उसकी अपनी विशेषता बनती जा रही हो तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए। हिंदी ग़ज़ल इतनी सक्षम और संभावनापूर्ण है कि अपने रास्ते में आने वाली किसी भी चुनौती से निपटने में पूरी तरह सक्षम है। उसके रास्ते की हर चुनौती उसमें नया जोश और दम भरने का काम करती है। हम कह सकते हैं कि ग़ज़ल हिंदी कविता का वर्तमान भी है और उसका भविष्य भी।
 ‘गोविन्दम’
1512, कारनेशन-2,
गौड़ सौन्दर्यम् अपार्टमेंट,
ग्रेटर नोएडा वेस्ट,
गौतम बुद्ध नगर -201318
उत्तर प्रदेश
मो.9968296694

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.