“अरे ! ये क्या? कहीं भी हरियाली नहीं ।” मन एक बार उजड़े पहाड़ों को देखकर विचलित हो गया।
“कहाँ गई वो रौनक , श्रद्धा से भरी भीड़ भाड़ और रोशनी से जगमगाता छोटा सा बाजार।” मन स्वीकार ही नहीं कर पा रहा था।
भयावह माहौल में एक गूँजती आवाज आई – “हमारी बरबादी का तमाशा देखने आए हो, उठाओ कैमरा और खीचो तस्वीरें फिर वायरल कर दो।”
“,मैंने ऐसा कुछ भी नहीं सोचा है कि किसको दिखायेंगे?” उत्तर में मन बोला।
“उनको जिनके सद्प्रयासों से हम उजाड़े तो आदमी के द्वारा गये। यहाँ कमाई के साधन तलाशे जाने लगे , पहाड़ काट डाले, होटल बना दिए, सड़कें बनाई और ये धार्मिक स्थल नहीं पर्यटन स्थल ज्यादा बन गये। छुट्टियाँ बिताने के साधन खोजे जाने लगे और फिर इतना बोझ हम न सभाँल पाये और भरभरा गये। वे लम्बे-लम्बे दरख़्त धरासाई हो गये और फिर ऐसा सैलाब आया कि सब खत्म। एक कहानी बन कर रह गया।”
“न तो मेरे पास प्रश्न थे और न उनके उत्तर । मैं निःशब्द और खामोश कैमरा एक दूसरे से मुँह चुरा रहे थे।”
किंकर्तव्यविमूढ़ सा पत्थर पर बैठा आज में बीता हुआ कल खोज रहा था।
अधिक विकास करने के चक्कर मे प्रकृति का विनाश कर दिया मानव ने और खुद को सभ्य व प्रगतिशील बताता है।
धन्यवाद संगीता जी