पुस्तक  : रज्जो मिस्त्री (कहानी संग्रह)
लेखिका  : प्रज्ञा
प्रकाशक : शिवना प्रकाशन, पी.सी. लैब, सम्राट कॉम्प्लेक्स बेसमेंट, बस स्टैंड, सीहोर – 466001 (.प्र.)
आईएसबीएन नंबर : 978-93-90593-66-8
मूल्य   : 170 रूपए
हिंदी की सुपरिचित कथाकार और प्रसिद्ध उपन्यास धर्मपुर लॉज की लेखिका प्रज्ञा की स्त्री जीवन की विविध छवियों पर लिखी कहानियों का संग्रह रज्जो मिस्त्री इन दिनों काफी चर्चा में है। इसके पूर्व प्रज्ञा की प्रमुख पुस्तकें तक़्सीम, मन्नत टेलर्स (कहानी संग्रह), गूदड़ बस्ती, धर्मपुर लॉज (उपन्यास), नुक्कड़ नाटक : रचना और प्रस्तुति, जनता के बीच जनता की बात, नाटक से संवाद, नाटक : पाठ और मंचन, कथा एक अंक की (नाट्यालोचना से संबंधित किताबें), तारा की अलवर यात्रा (बाल साहित्य), आईने के सामने (सामाजिक सरोकारों पर आधारित) प्रकाशित हो चुकी हैं। लेखन में इतनी विविधता एक साथ कम देखने को मिलती है। प्रज्ञा के कथा साहित्य में भारतीय संस्कृति की सौंधी महक है तथा लेखनी में ताज़गी और नवीनता है। इनके कथा साहित्य में स्त्री के कई रूप दिखाई देते हैं। कथाकार प्रज्ञा के कथा साहित्य में रोचकता तथा सकारात्मकता पाठकों को आकर्षित करती हैं। लेखिका अपने आसपास के परिवेश से चरित्र खोजती है। कहानियों के प्रत्येक पात्र की अपनी चारित्रिक विशेषता है, अपना परिवेश है जिसे लेखिका ने सफलतापूर्वक निरूपित किया है। लेखिका के पास गहरी मनोवैज्ञानिक पकड़ है। इनकी कहानियों की कथा-वस्तु कल्पित नहीं है, संग्रह की कहानियाँ सचेत और जीवंत कथाकार की बानगी है और साथ ही मानवीय संवेदना से लबरेज हैं। इस कहानी संग्रह में छोटी-बड़ी 10 कहानियाँ हैं।
संग्रह की पहली कहानी मौसमों की करवटको लेखिका ने काफी संवेदनात्मक सघनता के साथ प्रस्तुत किया है। पति द्वारा अपनी पत्नी के शोषण का चित्रण इस कहानी में हुआ है। कथाकार ने कहानी का सृजन बेहतरीन तरीके से किया है। इस कहानी में पंजाबी भाषा की सौंधी महक भी है। कहानीकार ने एक नारी की दयनीय गाथा को कहानी की मुख्य किरदार संजू के माध्यम से मार्मिक ढंग से कलमबद्ध किया है। संजू के जीवन की कहानी मन को भिगोती है। संजू की व्यथा और उसके नारकीय जीवन का जीवंत दृश्य गहरे तक हिलाकर रख देता है। कथाकार ने संजू के बहाने स्त्री-जीवन के कटु-कठोर यथार्थ का मार्मिक चित्रण किया है। जीवन यथार्थ के कटु सत्य से जूझती संजू जैसी नारी हमारी चेतना को झिंझोड़ती है। यह रचना संजू जैसी नारी की अभिशप्त जिंदगी का जीवंत दस्तावेज़ प्रतीत हुई है। इस कहानी में एक तरफ अदम्य साहस, त्याग और जिजीविषा है तो दूसरी ओर नियति एवं पुरुष सत्तात्मक मानसिकता है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री की देह प्रमुख है। स्त्री का मन और व्यक्तित्व गौण है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था में जीवनयापन करनेवाली स्त्री पारिवारिक, सामाजिक उत्पीड़न के दंश को हमेशा सहन करती आई है। प्रतिकूल परिस्थिति में जीवट होने का भाव संजू के इस कथन से स्पष्ट है – बरसों आपकी इज्ज़त मैं ही ढाँपती रही हूँ पापाजी। शादी के सात साल के भीतर कम ज़ुल्म नहीं ढाए आपके बेटे ने। कितनी दफा रोका ख़ुद को मैंने इतना क़ानून तो हर औरत जानती है अपने बचाव का। और आप सब समझती हूँ क्यों नहीं दोगे मुझे मेरे बच्चे। मेरी इतनी सेवाओं का भी कभी कोई ईनाम नहीं दिया आपने। एक बहू की सेवा के बदले सिफर, एक पत्नी की सेवा के बदले सिफर, एक मज़दूर की सेवा के बदले सिफर। कितनी चाकरी कराई है आपने। वो भी एकदम मुफ्त, जानते हैं आप ? इसके बदले में मुझे मिला क्या? अपने बच्चों के पिता को मारने का इल्ज़ाम। जेल की ज़िल्लत। और तो और मेरे बच्चे भी छीन लिए मुझसे। इतनी नफ़रत ? (पृष्ठ 21)
उलझी यादों के रेशम आत्मीय संवेदनाओं को चित्रित करती एक मर्मस्पर्शी, भावुक कहानी है। कहानी में एक बेटी अपने वृद्ध पिता को, उनके अकेलेपन को और पिता के घर की यादों को जिस संवेदनशीलता के साथ याद करती है, वह पाठक को भाव विभोर कर देता है। कथाकार ने इस कहानी में पारिवारिक संबंधों की धड़कन को बखूबी उभारा है। एक बेटी की संवेदनाओं को लेखिका ने जिस तरह से इस कहानी में संप्रेषित किया है वह काबिलेतारीफ़ है। लेखिका ने परिवेश के अनुरूप भाषा और दृश्यों के साथ कथा को कुछ इस तरह बुना है कि कथा खुद आँखों के आगे साकार होते चली जाती है।
परवाज़ में लेखिका ने ख़ुशबू के मानसिक धरातल को समझकर उसके मन की तह तक पहुँचकर कहानी का सृजन किया है। कहानी रोचक है। इस कहानी में एक नवयुवती ख़ुशबू को महाविद्यालय में अपनी पढ़ाई जारी रखने के लिए किन किन पारिवारिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है उसका व्यक्त रूप दिया गया है। इस कहानी में कुछ नया और उद्वेलित करता हुआ सच उद्घाटित हुआ है। पूरी कहानी में लेखिका सौतेले बाप को कटघरे में खड़ा करती है लेकिन कहानी के अंत में मालूम होता है कि खुशबू सौतेले बाप को अपने सगे बाप से भी अधिक प्यार करती है और सौतेला बाप भी चाहता है की खुशबू बिटिया पढ़ाई करके बहुत आगे तक जाए। प्रस्तुत कहानी में ख़ुशबू की माँ सगी है और बाप सौतेला है, लेकिन ख़ुशबू की माँ ही अपनी बेटी पर बंदिशे लगाती है। इस कथा में आशुतोष और उपासना का किरदार भी प्रभावशाली है। ख़ुशबू के सपनों को, उसके हौसलों को उड़ान मिलती है आशुतोष और उपासना के सहयोग से।
फ्रेम कहानी एक बिलकुल अलग कथ्य और मिजाज की कहानी है जो पाठकों को काफी प्रभावित करती है। एक स्त्री पात्र रावी को केंद्र में रखकर लिखी गई यह कहानी कमजोर स्त्रियों की विवशताओं को दर्शाती है। रावी और जतिन एक ही स्कूल में काम करते हैं। दोनों में प्यार हो जाता है। जब रावी के पिताजी को यह बात मालूम होती है तो वे रावी की नौकरी छुड़वाकर उसे घर बैठा देते हैं और जतिन को उससे मिलने भी नहीं देते हैं। रावी के पिताजी रावी की छोटी बहन की शादी कर देते हैं लेकिन वे रावी की शादी नहीं करते हैं। इस कहानी का एक अंश – जतिन ने सुना, स्कूल में कोई कह रहा था किरावी अपने भाई के बेटे को ऐसे संभाल रही है कि सगी माँ भी क्या सँभालेगी। बड़ी ही आज्ञाकारी और अच्छी लड़की है…”  एक बँधक आकाश के नीचे दूसरों की दी हुई बैसाखियों पर चलते अपने टूटे बिखरे सपनों को खुद से भी छिपाते, हरपल तस्वीर की रावी की रक्षा करती वह आज्ञाकारी और अच्छी लड़की नहीं तो और क्या है? (पृष्ठ 65) कहानी पढ़कर लगा कि रावी का अपना अलग व्यक्तित्व नहीं है। कहानी में पितृसत्ता की क्रूरताओं को लक्षित किया गया है। कहानी में लेखिका ने संवेदना के मर्मस्पर्शी चित्र उकेरे हैं। कहानीकार ने जतिन के मन के द्वंद्व का बहुत सुंदर चित्रण किया है।
तस्वीर का सच कहानी हमें ऐसे अँधेरे कोनों से रूरू करवाती है कि हम हैरान रह जाते हैं। यह मर्दवादी सोच के तले पिसती स्त्री की मर्मस्पर्शी कहानी है जिसमें पति की संवेदनहीनता को रेखांकित किया गया है। तस्वीर का सच कहानी पुरूष प्रधान समाज में जी रही बेबस, बंधनों में जकड़ी स्त्री रानी दीदी के शोषण की व्यथा कथा है। रानी दीदी जीवन भर अपने पति रामप्रकाश के अत्याचार सहन करती है। नारी उत्पीड़न का घोर पाश्र्विक रूप और पुरुष की मानसिकता का विकृत रूप देखना हो तो आपको इस कहानी को पढ़ना होगा। कथाकार ने इस कहानी में एक मध्यवर्गीय महिला बरखा की संवेदना को रुपायित किया है। कथाकार प्रज्ञा ने इस कहानी में रानी दीदी के जीवन के बेहिचक सत्य को उद्घाटित किया है। तस्वीर का सच एक सशक्त कहानी है जिसमें स्त्री जीवन की त्रासदियों को लेखिका ने जीवंतता के साथ उद्घाटित किया है। कहानीकार ने कहानी की मुख्य पात्र रानी दीदी का कई स्तरों पर शोषण दिखाया है। समाज में महिलाओं को एक स्त्री की त्रासदी नहीं दिखती है क्योंकि स्त्रियां चुपचाप अत्याचार सहन करती है। कई साल की लंबी बीमारी के बाद आख़िर रानी दीदी गुज़र गई और मरकर उन अनेक अनाम औरतों की पाँत में जा खड़ी हुई जिन्होंने ज़िन्दगी के कई हसीन सपने देखे थे जो बुरी तरह कुचले गए। ऐसी भाग्यहीनाओं के लिए रानी दीदी के घर जुटी कई महिलाएँ कह रही थीं – “बड़ी भागवान थी। सुहागन जाएगी।त्रासदी में विसंगति का रंग गाढ़ा हो चला था। (पृष्ठ 79)
पाप, तर्क और प्रायश्चित बिलकुल अलग तरह के विषय पर लिखी गई कहानी है। इस कहानी में धर्म के नाम पर समाज का एक अलग चेहरा सामने आता है। यह कहानी एक युवती के सपनों की हत्या के सवाल की बखूबी पड़ताल करती है। कथाकार ने उन परिस्थितियों को सूक्ष्मता से चित्रित किया हैं जिनके कारण एक नवयुवती जो अपनी पढ़ाई जारी रखना चाहती है लेकिन साध्वी बनने पर विवश हो जाती है। धर्म, कर्मकांड, परंपरा और भारतीय संस्कृति वह हथियार है जो सक्षम स्त्री को बांधने का कार्य करता है। कथाकार ने एक युवती मीनू के जीवन का कटु यथार्थ इस कहानी में रेखांकित किया है। मीनू धर्म के ठेकेदारों के हाथ का खिलौना बनकर रह जाती है। किसी को प्रेम करने को पाप समझकर पाप के प्रायश्चित के लिए अपनी बेटी को साध्वी बनने को मज़बूर करना धार्मिक कट्टरता को दर्शाता है और समाज के समक्ष एक प्रश्न चिन्ह खड़ा करता है। मीनू का इमरान के साथ प्रेम प्रसंग मीनू को धर्म के नाम पर अंधरे कोनों में जीवन भोगने के लिए धकेल देता है। यह कहानी विद्रूप सामाजिक सच्चाई को प्रस्तुत करती है। एक पढ़ीलिखी युवती की निरीहिता और बेचारगी को शोधात्मक ढंग से कथाकार ने जीवंत रूप में बदला है। इस कहानी को पढ़ते हुए कहानी के पात्रों के अंदर की छटपटाहट, उनके अन्तर्मन की अकुलाहट को पाठक स्वयं अपने अंदर महसूस करने लगता है। यह कहानी पाठकों की चेतना को झकझोरती है। यह कहानी एक व्यापक बहस को आमंत्रित करती है। जीवन से भरी, उमंगों में झूमती, सपनों के गीत गुनगुनाती, फिरकी की तरह नाचती, प्रेम के पंख लगाकर उड़ने वाली मीनू और दीक्षा धारण करने वाली साध्वी मीनाक्षीदोनों में कौनसा सच था, पहचान जटिल थी। क्या यही था मीनू का फेयरवेल? (पृष्ठ 93)
संग्रह की शीर्षक कहानी रज्जो मिस्त्री एक अलग तेवर के साथ लिखी गई है। कथाकार ने इस कहानी को इतने बेहतरीन तरीके से लिखा है कि दिल्ली के शाहबाद इलाक़े की कच्ची बस्ती, राजमिस्त्री और बेलदारों द्वारा बनते मक़ान और कोरोना महामारी के कारण लगने वाले लॉकडाउन में दिल्ली से अपने गाँव लौटते गरीब मज़दूरों का जीवन्त चल चित्र पाठक के सामने चलता है। यह एक मजबूत स्त्री की सशक्त कथा है। इस कहानी में उपन्यास के तत्व मौजूद हैं। लेखिका ने रज्जो के मन की भावनाओं को बखूबी व्यक्त किया हैं। कहानी की नायिका रज्जो मिस्त्री शादी के पूर्व अपने पिताजी से राजमिस्त्री का सारा काम सीख लेती है और राजमिस्त्री बनने के सपने बुना करती है और शादी के बाद अपने पति के पास दिल्ली जाकर अपने सपने के कैनवास को और विस्तार देती है। इस कहानी की मुख्य किरदार रज्जो को जिस प्रकार कथाकार ने गढ़ा है, उससे ऐसा लगता है कि रज्जो सजीव होकर हमारे सामने आ गई है कहानी की नायिका रज्जो एक अमिट छाप छोड़ती है। कथाकार ने इस कहानी का अंत बहुत खुबसूरती और कलात्मकता के साथ किया है। रज्जो हौले से उठी अपने बापू की तरह ही करनी की पहली चोट पुरानी दीवार में दे मारी फिर एक हाथ से करनी में मसाला भरकर दूसरे हाथ से पहली ईंट फ़र्श पर रखी। एक के बाद एक ईंट धरती गई। मसाले से उन्हें जोड़ती गई। साहुल से सीध नापती गई। लाल और धूसर रंग की दीवार ज्यों ज्यों उठ रही थी उसका एक एक ज़ख्म भरता जा रहा था। नौ इंच मोटी दीवार उसके लिए अनगिनत सपनों के दरवाज़े खोले दे रही थी। दीवार उठ रही थी और दुखों के पहाड़ ढह रहे थे। करनी की आवाज़ और साहुल की संगत रज्जो में जोश भर रही थी। पसीने में नहाई रज्जो आज रुकी नहीं। वो दीवार उठाती जा रही थी। उसे बस एक ही धुन सवार थी शाम को दिहाड़ी के बाद मुरारी से उसे यह जरूर कहना है – “जल्दी से ठीक हो जा, फिर अपने घर की दीवार दोनों साथ मिलकर उठायेंगे।  (पृष्ठ 116)
उदारीकरण, वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण और बाजारीकरण के दौर में सबसे अधिक प्रभावित हुआ है वह है मानवीय रिश्ते व संवेदना। इसी पृष्ठभूमि पर कथाकार प्रज्ञा ने इमेज कहानी का ताना-बाना बुना हैं। इमेजकहानी की नायिका रूपल दी कहानी का हर किरदार रूपल दी, नीता, शालिनी, अनुराग, आशा अपनी विशेषता लिए हुए हैं और अपनी उसी खासियत के साथ सामने आते हैं। लेखिका ने पात्रों के मनोविज्ञान को अच्छी तरह से निरूपित किया है और उनके स्वभाव को भी रूपायित किया है। कहानी में बाज़ार का यथार्थ अभिव्यक्त हुआ है। पार्लर चल नहीं रहा था शायद उतनी अच्छी तरह। अकेली रूपल दी और समस्याओं का बढ़ता हुआ जंगल, दुनिया भर के दंदफंद। ऐसे में भी दी किसी भी तरह अपनी इमेज को ख़त्म नहीं करना चाहती थीं। शुरू से ही देखा है नीता ने हरदम पार्लर की बेहतरी के लिए उन्हें नया सोचते करते हुए और अब ये नयी संस्था सच में बेसहारे का सहारा ही बनाने जा रही थी। दरअसल रूपल ब्यूटी पार्लर के कमज़ोर क़दमों को ही शक्ति चाहिए थी। बाज़ार के दबाव के चलते उससे बचाव के लिए पैदा किया एक और बाज़ार थी यह संस्थाशक्ति। दो हज़ार रुपये का नियमित भुगतान शक्ति के लिए नहीं पार्लर की संजीवनी थी। अब समझ आने लगी आशा की बातहमें तो बस ऐसी महिलाओं की चेन क्रिएट करनी है। (पृष्ठ 125)
बतकुच्चन कहानी संवादात्मक कहानी है। स्त्री का दु:ख संवादों से खुलता है। कहानी की कथावस्तु भावप्रधान है। प्रज्ञा ने इस कहानी में स्त्री संवेगों और मानवीय संवेदनाओं का अत्यंत बारीकी से और बहुत सुंदर चित्रण किया है। लेखिका ने परिवार के सदस्यों के बीच के संबंधों, उन संबंधों की गर्माहट, जिंदादिली इत्यादि को बखूबी रेखांकित किया है। कहानीकार ने रिश्तों को प्रतीकात्मकता के साथ रेखांकित किया है – हाँ छोटी ! सगी मौसी हैं हमारी। फिर हम तो उन शादी ब्याह में भी हो आते हैं जिनसे कोई नाता रिश्ता कभी नहीं रहना। ये तो सेज रिश्ते हैं। छोटी ! रिश्तों का बीज तो ऐसा है की ज़मीन में पड़ा तो अंकुर भी फूटेगा छतनार  पेड़ भी उठ खड़ा होगा। पतझड़ भी आएगा और बसंत भी। एक ही जीवन में झलझलाती नदी और तूफानी बाढ़ सब साथ देखने पड़ते हैं। जैसे जीवन चलता है वैसे ही रिश्ते। दोनों कभी ख़त्म कहाँ होते हैं री !  (पृष्ठ 144)
धर्राख अपनी धरमसाला कहानी अपने कथ्य और कथानक से काफी रोचक बन पड़ी है। यह कहानी कथाकार की पैनी लेखकीय दृष्टि तथा सामाजिक सरोकारों से जुड़ाव का जीवंत सबूत है। कथाकार ने इस कहानी का गठन बहुत ही बेजोड़ ढंग से प्रस्तुत किया है। इस कहानी का शीर्षक प्रतीकात्मक है जिसमें इस कहानी की मुख्य किरदार अमृता को अपनी चेतना से जूझते हुए दिखाया गया है। स्त्री एवं उसकी कठिनाईयों का बिंब-प्रतिबिंब इस कहानी में है। लेखिका कामवाली बाइयों की जिंदगी के हर पार्श्वो को देखने, छूने तथा उकेरने की निरंतर कोशिश करती हैं। कहानी के संवाद अत्यंत सशक्त हैं। भाषा की रवानगी और किस्सागोई की कला इस कहानी को और अधिक सशक्त बनाती है। कहानी का छोटा सा अंश प्रस्तुत है – धर्म की भारी क्षति पर निरंजन के शब्द आग की तरह भभक रहे थे। उसका पूरा घर इस आग पर पवित्र जल के छिड़काव को लालायित था। पर इस आग के नीचे एक और आग दबी थी, जिसकी भनक उसने किसी को नहीं लगने दी। निरंजन के छिपाने के बावजूद  घर की दीवारें उस सच को जानती थीं। झूठे आरोप में बेइज्ज़त करके निकाले जाने से पहले अमृता की आग भरा ज्वालामुखी इस घर से मिले एकमात्र सस्ते सूट का थैला उछालते हुए निरंजन के आगे फट पड़ा था – “धर्राख अपनी धरमसाला।(पृष्ठ 152)
संग्रह की कहानियों के सभी पात्र संजू, रश्मि, रेनू, आशा, सीमा (मौसमों की करवट), माया, अखिल, छाया, वरुण (उलझी यादों के रेशम), ख़ुशबू, आशुतोषउपासना (परवाज़), रावी, जतिन (फ्रेम), रानी दीदी, बरखा (तस्वीर का सच), मीनू, (पाप, तर्क और प्रायश्चित) अद्भुत और अविस्मरणीय हैं। इनकी कहानियों में जबर्दस्त किस्सागोई है। कहानियों में आम जनजीवन से जुड़े सर्वहारा पात्रों की उपस्थिति हैं। मनोवैज्ञानिक आधार पर प्रज्ञा की  कहानियाँ खरी उतरती है। कहानियों में हर उम्र, हर वर्ग की स्त्री की विवशता को कथाकार ने बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है। संग्रह की कहानियों के पात्रों की स्वाभाविकता, सहजता, सामाजिक, आर्थिक स्थिति आदि इस कृति को बेहद उम्दा बनाती है। इस संग्रह की कहानियाँ अपनी सार्थकता सिद्ध करती हैं। स्त्री के मन को छूती हुई ये कहानियाँ पाठक के मन में समा जाती हैं। इस संकलन की कहानियों में लेखिका की परिपक्वता, उनकी सकारात्मकता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। प्रज्ञा की कहानियाँ बदलते समय की आहट हैं। लेखिका जीवन की विसंगतियों और जीवन के कच्चे चिठ्ठों को उद्घाटित करने में सफल हुई है। कहानियों में पात्रों के मन की गाँठे बहुत ही सहज और स्वाभाविक रूप से खुलती हैं। इस संग्रह की कहानियाँ जीवन और यथार्थ के हर पक्ष को उद्घाटित करने का प्रयास करती है। कहानियों का कथानक निरंतर गतिशील बना रहता है, पात्रों के आचरण में असहजता नहीं लगती, संवाद में स्वाभाविकता बाधित नहीं हुई है। कथाकार ने जीवन के यथार्थ का सहज और सजीव चित्रण अपने कथा साहित्य में किया है। इस संग्रह की कहानियाँ पाठकों को मानवीय संवेदनाओं के विविध रंगों से रूबरू करवाती हैं। रिश्तों और मानवीय संबंधों की बारीक पड़ताल की गई है। संग्रह की सभी कहानियाँ मानवीय चरित्र का सहज विश्लेषण करती हैं। कथाकार ने नारी जीवन के विविध पक्षों को अपने ही नज़रिए से देखा और उन्हें अपनी कहानियों में अभिव्यक्त भी किया हैं।
इन कहानियों में जीवन की छोटी-छोटी अनुभूतियों का सहज चित्रण हुआ है। अनुभूतियों की सहजता को प्रज्ञा के कथा साहित्य में देखा जा सकता है। कहानीकार ने पुरूषों और नारियों की सूक्ष्म मनोवृत्तियों, जीवन की धड़कनों को इन कहानियों में अभिव्यक्त किया है। समाज द्वारा नारियों के दमन को कथाकार ने अत्यंत गहनता और सहजता से प्रस्तुत किया है और साथ ही सामाजिक और पारिवारिक परिस्थितियों के कारण उत्पन्न होने वाले मानसिक दबाव, द्वन्द आदि का चित्रण किया है। सभी कहानियाँ आज के समय की सार्थक अभिव्यक्ति है। प्रज्ञा की कहानियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कहानियाँ पढ़ते हुए आप अंदाज़ा नहीं लगा पाते कि आगे क्या होनेवाला है। इन कहानियों में कई नई परतें खुलती हैं। प्रज्ञा की अधिकाँश कहानियों का अंत बहुत ही अप्रत्याशित होता है। कहानियाँ कल्पनाओं से परे जीवन की वास्तविकताओं से जुड़ी हुई लगती हैं। प्रज्ञा के कथा साहित्य का कथ्य एवं शिल्प बहुत ही बेजोड़ है जो उन्हें अपने समकालीन लेखकों की पहली पंक्ति में स्थापित करती है। ये संघर्षशील स्त्रियों की कहानियाँ हैं। कथाकार रिश्तों की गहन पड़ताल करती हैं। कहानीकार नारी पात्रों की वैयक्तिक चेतना को प्रर्याप्त वाणी दे पाई है। प्रज्ञा पात्रों के मानसिक धरातल को समझकर उनके मन की तह तक पहुँचकर कहानी का सृजन करती है।
समाज में बढ़ रही संवेदनहीनता का विकृत चेहरा लेखिका को व्यथित करता है। प्रज्ञा की कहानियों में निहित स्त्री जीवन और उनका सामाजिक सरोकार यह सोचने पर विवश करता है की आज भी स्त्री दोयम दर्जे का जीवन जीती हैं। लेखिका व्यवस्था और समाज की दिशा पर पाठकों से प्रश्न करती दिखती है। प्रज्ञा की कहानियों में सिर्फ पात्र ही नहीं समूचा परिवेश पाठक से मुखरित होता है। इन कहानियों को पढ़ना अपने समय और समाज को गहराई से जानना है। प्रज्ञा ने इन कहानियों के माध्यम से साबित किया हैं कि स्त्री जीवन की विविध छवियों को सहेज पाना सिद्धहस्त लेखनी द्वारा ही संभव है। प्रज्ञा के पास एक स्पष्ट और सकारात्मक दृष्टि के साथ कहानी कहने का एक विलक्षण तरीका है। ये अपने अनुभवों को बड़ी सहजता से कहानी में ढाल लेती हैं। इन कहानियों में अनुभूतिजन्य यथार्थ है। कथाकार ने इस संग्रह की कहानियों में स्त्रियों के मन की अनकही बातों को, उनके जीवन के संघर्ष को और उनके सवालों को रेखांकित किया हैं। इस संग्रह की कहानियाँ जिंदगी की हकीकत से रूबरू करवाती है। इस संग्रह की कहानियाँ और कहानियों के चरित्र धीमे और संजीदा अंदाज में पाठक के भीतर उतरते चले जाते हैं।
हर कहानी में अपने वक़्त की धड़कने होती हैं और वे सब प्रज्ञा की इन कहानियों में हैं। कहानियों में जीवन की गहराई है। प्रज्ञा ने सहजता से अपने समाज और आज के समय की सच्चाइयों का वास्तविक चित्र प्रस्तुत किया हैं। कथाकार की भाषा में पाठक को बाँधे रखने का सामर्थ्य है। संवेदना के धरातल पर ये कहानियाँ सशक्त हैं। संग्रह की हर कहानी उल्लेखनीय तथा लाज़वाब है और साथ ही हर कहानी ख़ास शिल्प लिए हुए है। इन कहानियों में स्त्री जीवन के यथार्थ की प्रभावशाली अभिव्यक्ति हुई है। ये कहानियाँ सिर्फ़ हमारा मनोरंजन नहीं करती बल्कि समसामयिक यथार्थ से परिचित कराती हैं। इन कहानियों में प्रयुक्त कथानुकूलित परिवेश, पात्रों की अनुभूतियों, पात्रों का मनोवैज्ञानिक विश्लेषण, कहानियों में लेखिका की उत्कृष्ट कला-कौशलता का परिचय देती है। कथा सृजन की अनूठी पद्धति प्रज्ञा को अपने समकालीन कथाकारों से अलग खड़ा कर देती है। कहानियों का यह संग्रह सिर्फ पठनीय ही नहीं है, संग्रहणीय भी है।

दीपक गिरकर
समीक्षक
28-सी, वैभव नगर, कनाडिया रोड,
इंदौर– 452016
मोबाइल : 9425067036
मेल आईडी : deepakgirkar2016@gmail.com

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